गृहलक्ष्मी की प्रतिष्ठा

नारी के सहयोग के बिना भर अपूर्ण रहता है

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प्रत्येक जीव के जीवन में यौवन के उभार के समय एक ऐसा अवसर आता है, जब वह धीरे-धीरे इस बात का अनुभव करने लगता है कि उसके पास कुछ वस्तुओं, गुणों, स्वाभाविक विशेषताओं की कमी है । पुरुष में यौवन का उभार आने पर जहाँ पुरुषत्व विकसित होता है, वहाँ उसके अंतर्मन में कामावेग भी उत्पन्न होता है । वह किसी पर अधिकार करने के लिए प्रेमोपासना करने लगता है, पुरुष स्त्री की ओर सहज भाव से रस लेने लगता है । उसमें उसे कुछ अजीब आकर्षण प्रतीत होने लगता है । उसके हाव-भाव उसे आकर्षक लगते हैं । इसी प्रकार नारी जीवन में भी प्रणय की गुप्त इच्छाएँ धीरे-धीरे विकसित होने लगती हैं । अपनी कोमलता, तितिक्षा, कला, लज्जा इत्यादि के कारण वह मनोभावों के आत्मसमर्पण के लिए उन्मुख होती है । वह अपने भेद गुप्त रखने में कुशल होती है किंतु उसका सहज ज्ञान क्रमश: प्रकट होने लगता है । नारी-नारी की ये स्वभावगत विशेषताएँ हैं, जो समाज का निर्माण करती हैं ।

पृथक-पृथक स्त्री-पुरुष अधूरे और अपूर्ण हैं । यदि स्त्री-पुरुष पृथक रहेंगे, तो वे समाज के लिए अनुपयोगी अपरिपक्व, अविकसित रहेंगे । स्त्री और पुरुष दोनों के मिलने से नर-नारी की स्वाभाविक अपूर्णता दूर होती है । एक- दूसरे की कमी जीवन-सहचर प्राप्त करने से ही दूर हो पाती है । जैसे धनात्मक और ऋणात्मक तत्वों के मिलने से विश्व बनता है, वैसे ही स्त्री और पुरुष के मिलने से मनुष्य से 'मनुष्य' बनता है । यही पूरा मनुष्य, समाज के उत्तरदायित्वों को पूरा करता है ।

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