गृहलक्ष्मी की प्रतिष्ठा

स्त्रियोचित शिक्षा की आवश्यकता

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पत्नियों को वास्तविक अर्थ में गृहलक्ष्मी बनाने की लिए उपयुक्त शिक्षा की बड़ी आवश्यकता है । शिक्षा के प्रभाव से ही मनुष्य का मस्तिष्क और मन विकसित होता है और वह अपने कर्तव्यों को पूरा करने योग्य बन सकता है । जीवन संघर्ष में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों का संपर्क अधिक होता है । पुरुष का काम तो कमाई के क्षेत्र तक ही सीमित है लेकिन स्त्रियाँ तो समाज का निर्माण करती हैं इसलिए यदि स्त्रियों की वास्तविक शिक्षा न हुई तो समाज में अशांति का वातावरण फैलना स्वाभाविक है । इसलिए पुरुषों की शिक्षा की अपेक्षा स्त्रियों की शिक्षा का महत्त्व अधिक है ।

नारी को यदि रमणी बनाना हो तो कल्पनामूलक शिक्षा की आवश्यकता है । लेकिन नारी का चरम लक्ष्य माँ बनना है । नारी समाज की निर्माता है, समाज में भाई, पिता, पुत्र और बहन पत्नी, पुत्री रहते हैं । इसलिए घर में रहते हुए इन सबके यथायोग्य निर्माण का काम नारी को करना है । क्योंकि ये सब ही आगे जाकर समाज के सदस्य बनेंगे और समाज संगठन में इनका व्यापक हाथ रहेगा इसलिए यदि उनमें पिता, पुत्र, भाई, बहन, माँ और पत्नी की कर्त्तव्यमूलक भावना जाग्रत होगी तो यह दुनियाँ थोड़े दिनों में ही नंदनवन बनकर चारों ओर शांति का प्रवाह प्रवाहित कर सकेगी ।

बालपन की जिंदगी पराश्रित जिंदगी होती है, इसमें उसके सिर पर किसी प्रकार की जिम्मेदारी नहीं होती यहाँ तक कि खाना और खेलना ये ही दो काम रहते हैं । लेकिन जीवन में बालपन ही नहीं रहता, जवानी भी आती है और बुढ़ापा भी आता है । ऐसा समय भी आता है, जबकि जीवन की शक्तियाँ विकसित होती हैं और जवाब भी दे जाती हैं । इसलिए जो शिक्षा शक्तियाँ का व्यावहारिक उपयोग करना सिखाती है, जीवन के संघर्ष में विजय दिलाती है, वही जीवन निर्माण और शांति का कारण होती है ।

आजकल स्त्रियों को जो शिक्षा दी जाती है, उससे भावनाओं और वासनाओं को तो उत्तेज मिलता है लेकिन कर्मठता एवं कर्त्तव्य के लिए कोई स्थान नहीं होता । इसका परिणाम यह निकल रहा है कि पढ़ी-लिखी लड़कियाँ स्कूल तथा कॉलेजों से एक इस प्रकार के कल्पनामय जगत को लेकर बाहर आती है जिसका निर्माण करना उन्हें नहीं सिखाया गया है, जिन्हें यदि कुछ सिखाया गया है तो उपभोग करना । बिना निर्माण किए उपभोग के लिए स्थान ही कहाँ हो सकता है ? लेकिन उन्हें इसका ज्ञान ही नहीं होता । परसी हुई पत्तल पर खाने की कल्पना के कारण जब उन्हें वह नहीं मिलती तो वे बौखला उठती हैं और अपनी जिम्मेदारियों से बचती हुई अपने लिए दुःखों की अजेय सुदृढ़ दीवार खड़ी कर लेती हैं ।''

अनेक शिक्षित स्त्रियाँ विवाह-बंधन से बचना चाहती हैं । विवाह को वे पुरुष के अधीन होना मानती हैं, जबकि किसी के अधीन होकर रहना उन्हें सिखाया ही नहीं जाता । लेकिन भारतीय वातावरण में बिना विवाह किए रहना संभव नहीं है, इसलिए जबरदस्ती विवाह के फंदे में फँस जाने के कारण जीवन भर उनमें छटपटाहट भरी रहती है । आनंद के स्रोत विवाहित जीवन को वे दुःख से भर डालती हैं और जिस घर को स्वर्ग बनाकर जहाँ अपना साम्राज्य स्थापित करना चाहिए, वहाँ कल्पना जगत में विचरण करने के कारण उस धर को नरक बना देती हैं । साथ ही जीवन भर तड़फते-तड़फते अपनी जीवन लीला समाप्त कर डालती हैं ।

धर्मशास्त्रों और विद्वज्जनों का यह कथन पूर्णतया सत्य है कि गृहस्थ जीवन का और इस दृष्टि से मनुष्य-समाज का सुचारु रूप से संचालन, सद्गुणी पत्नियों पर ही आधारित है । इसलिए स्त्रियों की सुयोग्य गृहिणी बनाना और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उनको उचित साधन और अधिकार देना हमारा परम कर्त्तव्य है । समाज का कल्याण मुख्य रूप से कर्त्तव्य परायण पत्नियों पर ही निर्भर है ।
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