गायत्री मंत्र का छठा अक्षर गृहलक्ष्मी के रूप में नारी की प्रतिष्ठा की
शिक्षा देता है-
रे रवे निर्मला नारी पूजनीया सतां सदा ।
यतो हि सैव लोकेऽस्मिन साक्षाल्लक्ष्मीर्मता बुधै: ।।
अर्थात नारी सदैव नदी के समान निर्मल है, वह पूजनीय है, क्योंकि संसार
में उसे साक्षात लक्ष्मी माना गया है ।
जैसे नर्मदा का जल सदा निर्मल रहता है उसी प्रकार ईश्वर ने नारी
को स्वभावतः निर्मल अंतःकरण दिया है । परिस्थिति के दोषी के कारण
अथवा दुष्ट संगति के प्रभाव से उसमें विकार पैदा हो जाते हैं, पर यदि
कारणों को बदल दिया जाए तो नारी-हृदय पुन: अपनी शाश्वत निर्मलता
पर लौट आता है ।
नारी लक्ष्मी का अवतार है । भगवान मनु स्पष्ट शब्दों में कह गए हैं कि
जहाँ नारी का सम्मान होता है, वहाँ देवता निवास करते हैं । अर्थात उस स्थान में
सुख, शांति का निवास रहता है । सम्मानित और संतुष्ट नारी अनेक सुविधाओं
और सुव्यवस्थाओं का घर बन जाती है, उसके साथ गरीबी में भी अमीरी का
आनंद बरसता है । धन-दौलत तो निर्जीव लक्ष्मी है, किंतु स्त्री तो लक्ष्मी की
सजीव प्रतिमा है । उसके समुचित आदर, सहयोग और संतोष का सदैव ध्यान
रखना चाहिए ।
नारी में नर की अपेक्षा दयालुता, उदारता, सेवा, परमार्थ और पवित्रता की
भावनाएँ अधिक होती हैं । उसका कार्यक्षेत्र संकुचित करके घर तक ही सीमाबद्ध
कर देने के कारण संसार में स्वार्थपरता, निष्ठुरता, हिंसा अनीति और विलासिता
की बाढ़ आई है । यदि राष्ट्र और समाज की बागडोर नारियों के हाथ में हो तो
उनका मातृ-हृदय अपने सौजन्य और सहृदयता के कारण सर्वत्र सुख-शांति की
स्थापना कर सकता है ।
नारी के द्वारा अनंत उपकार और असाधारण सहयोग प्राप्त करने के उपरांत
नर का यह पवित्र उत्तरदायित्व हो जाता है कि वह उसे स्वावलंबी, सुशिक्षित,
स्वस्थ, प्रसन्न और संतुष्ट बनाने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहे । उसके साथ कठोर
अथवा अपमानजनक व्यवहार किसी प्रकार उचित नहीं ।