गृहलक्ष्मी की प्रतिष्ठा

विवाह की उपयोगिता

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आधुनिक मनोविज्ञान इच्छाओं को पूरा करने का मार्ग दरसाता है, उनका दमन मानसिक बीमारियाँ उत्पन्न करता है । इसी से अनेक बार मानसिक नपुंसकता उत्पन्न होती है । मनुष्य के अंतस्थल में अनेक वासनाएँ दबकर अंतःप्रदेश में छिप जाती हैं । इनसे समय-समय पर अनेक बेढंग व्यवहार, गाली देने की प्रवृत्ति, स्मरण-विस्मरण पागलपन तथा प्रलाप, हिस्टीरिया आदि अनेक मानसिक व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं । मानसिक व्यापारों में एक विभिन्न प्रकार का संघर्ष चला करता है । मन की अनेक भावनाएँ विकसित नहीं हो पातीं, मनुष्य शिकायत करने की मनोवृत्ति का शिकार बना रहता है । दूसरे के प्रति वह अनुदार रहता है, उसकी कटु आलोचना किया करता है । अधिक उग्र या असंतोषी, नाराज प्रकृति, तेज स्वभाव का कारण वासनाओं का समुचित विकास एवं परिष्कार न होना ही है । इस प्रकार का जीवन गीता में निंद्य माना गया है ।

प्रत्येक स्त्री-पुरुष के जीवन में एक समय ऐसा आता है, जब उसे अपने जीवनसाथी की तलाश करनी होती है । आयु विचार, भावना स्थिति के अनुसार सद्गृहस्थ के लिए उचित जीवनसाथी की तलाश होनी चाहिए । उचित शिक्षा एवं आध्यात्मिक विकास के पश्चात किया हुआ विवाह मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ठीक है । आजन्म कौमार्य या ब्रह्मचर्य महान है । उनका फल अमित है किंतु साधारण स्त्री-पुरुषों के लिए यह संभव नहीं है । इससे मन की अनेक कोमल भावनाओं का उचित विकास एवं परिष्कार नहीं हो पाता । वासना को उच्च स्तर एवं उन्नत भूमिका में ले जाने के लिए एक-एक सीढ़ी चढ़कर चलना होता है । एक सीढ़ी लाँघकर दूसरी पर कूद जाना कुछ इच्छाओं का दमन अवश्य करेगा, जिसके फलस्वरूप मानसिक व्याधि हो सकती है । अत: प्रत्येक सीढ़ी पर पाँव रखकर उन्नत जीवन पर पहुँचना ही हमारा लक्ष्य होना चाहिए ।

एक पिता तथा माता के हृदय में जो नाना प्रकार के स्वर झंकृत होते हैं, उन्हें भुक्तभोगी ही जान सकता है । दो हृदयों के पारस्परिक मिलन से जो मानसिक विकास संभव है, वह पुस्तकों के शुष्क अध्ययन से नहीं प्राप्त किया जा सकता । विवाह कामवासना की तृप्ति का साधन मात्र है, ऐसा समझना भयंकर भूल है । वह तो दो आत्माओं, दो मस्तिष्कों, दो हृदयों और साथ ही साथ दो शरीरों के विकास, एकदूसरे में लय होने का मार्ग है । विवाह का मर्म दो आत्माओं का स्वरैक्य है, हृदयों का अनुष्ठान है, प्रेम, सहानुभूति, कोमलता, पवित्र भावनाओं का विकास है । यदि हम चाहते हैं कि पुरुष-प्रकृति तथा स्त्री-प्रकृति का पूरा- पूरा विकास हो, हमारा व्यक्तित्व पूर्णरूप से खिल सके तो हमें अनुकूल विचार, बुद्धि, शिक्षा एवं धर्म वाली सहधर्मिणी चुननी चाहिए । उचित वय में विवाहित व्यक्ति आगे चलकर प्राय: सुशील, आज्ञाकारी, प्रसन्नचित्त, सरल मिलनसार, साफ-सुथरे शांतचित्त, वचन के पक्के, सहानुभूतिपूर्ण, मधुरभाषी, आत्मविश्वासी और दीर्घजीवी पाए जाते हैं ।
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