आत्मज्ञान और आत्म कल्याण

आत्मकल्याण और मानसिक शक्तियाँ

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मनुष्य को जो लाभ योग से प्राप्त होता है, उसका मूल आधार मानसिक शक्तियों का विकास और नियंत्रण ही होता है । अतएव जो मनुष्य योग को बहुत बड़ी चीज समझकर उससे घबराते हो उनके लिए मानसिक शक्तियों के विकास पर ध्यान देना ही सर्वोत्तम है । मनुष्य की मानसिक शक्तियाँ बिखरी हुई रहती हैं, अतएव उनका साक्षात्कार करना कठिन होता है । इसके परिणामस्वरूप उसका मन अनेक विषयों में फँस जाता है । जब मन बाह्य विषयों में एक बार फँस जाता हैं तो मनुष्य उनसे मुक्त होने की चेष्टा जितनी ही करता है मन और भी फँसता जाता है । विषयों का अधिक चिंतन करने तथा मानसिक अंतर्द्वंद्व के कारण उसकी सारी शक्ति का ह्रास हो जाता है और तब मनुष्य अशांत रूप हो जाता है ।

हमारी आध्यात्मिक शक्तियों का विकास अपने आप को बाह्य विषयों से मुक्त करके अपने आप में ही केंद्रित करने से होता है । निर्मल मन ही शक्तिशाली होता है । वाह्य विषयों में फँसा मन शक्तिशाली कभी नहीं हो सकता । जिस व्यक्ति का मन जितना ही उद्विग्न होता, हैं वह उतना ही शक्तिहीन होता हैं । जो व्यक्ति अपने मन को वंश में किए हो, वही आत्मा की शक्ति का साक्षात्कार कर सकता है । आत्मा को साक्षात्कार करने के लिए पहली आवश्यकता अपनी इंद्रियों को वश में करने की है । जहाँ-जहाँ इंद्रियाँ जाएँ अथवा आकर्षित हों, वहाँ-वहाँ से मन को रोकना चाहिए । इसके लिए मनुष्य को सदा जागरूक होकर रहना पड़ेगा । विद्वान से विद्वान व्यक्ति क मन इंद्रियों के द्वारा चलित हो जाता है । इंद्रियों के विषय सामने रहने पर अपने मन को रोकना बडा़ पुरुषार्थ है । पर इस प्रकार का पुरुषार्थ अभ्यास द्वारा सिद्ध हो जाता हैं ।

जिस प्रकार इंद्रियों के विषयों को रोकना आवश्यक है, उसी तरह मन को प्रबल संवेगों से रोकना आवश्यक हैं । प्रत्येक प्रकार का मानसिक विकार मन की शक्ति का विनाश करता है । यदि हम अपनी शक्ति का संचय करना चाहते हैं तो मानसिक विकारों से मुक्त होना अत्यंत आवश्यक है । शांत मन में ही शक्ति का उदय होता हैं ।

जब मन शांत हो जाय तों मनुष्य को उसके स्वरूप कें बारे में चिंतन करने में लगाना चाहिए । शांत अवस्था में जैसा मनुष्य अपने विषय में विचार करता है वह वैसा ही अपने आप को पाता है । किसी भी प्रकार का निश्चय जब किसी प्रकार के संशय से दूषित नहीं होता तो फलित होता है । कितने ही लोग किसी विशेष प्रकार की शक्ति की प्राप्ति के लिए मंत्र जप अथवा यज्ञ आदि करते हैं । ये सब क्रियाएँ अपने निश्चय को दृढ करने के लिए आवश्यक हैं । निश्चय की दृढता ही सफलता की कुंजी है ।

मानसिक शक्ति के विकास के लिए अपने आप को सदैव परोपकार में लगाए रहना आवश्यक है । स्वार्थ के कार्यो में लगे हुए व्यक्ति की शक्ति का ह्रास, चिंता, भय, संशय आदि मनोवृत्तियों के कारण हो जाता है । परोपकार की भावना इन मनोवृत्तियाँ का विनाश करती है । जो मनुष्य जितना ही अधिक अपने स्वार्थ से मुक्त रहता है उतना ही अधिक उसमें संकल्प की राफलता लाने की शक्ति का उदय होता है । अपने मन को परोपकार में लगाना स्वयं के वृहत रूप को पहिचानना है । इस वृहत रूप में सभी संकल्पों को सिद्ध करने की शक्ति है । अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के विषय में सोचना ही मानसिक पतन है । मानसिक शक्तियों का विकास प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ने से भी होता है । जो व्यक्ति जितना ही अधिक किसी सिद्धांत के लिए प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करता है । वह उतना ही अधिक अपने मन को दृढ़ बनाता है । मानसिक दृढ़ता आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए परम आवश्यक है । जो व्यक्ति प्रतिकूल परिस्थितियों से डर जाता है, उसे कहीं चैन नहीं मिलता । बहुत सी चिंताएँ कल्पित होती हैं । इनकी भयानकता मन की दुर्बलता के कारण बढ़ जाती है । डरपोक को छाया भूत के रूप में दिखाई देती है । यदि ऐसा मनुष्य साहस कर उस छाया के पास जाय तो भूत का डर मिट जाता है ।

अपनी आध्यात्मिक शक्तियों को विकसित करने के लिए सच्चा व्यवहार व विचार रखना परम आवश्यक है । जो व्यक्ति जितना ही अधिक सांसारिक व्यवहारों में कुशल होता है, वह उतना ही आध्यात्मिक ज्ञान के लिए अनुपयुक्त होता है । ऐसे व्यक्ति का मन सदा संशययुक्त होता है । वह न किसी दूसरे व्यक्ति की बातों पर विश्वास करता है और न स्वयं पर । यदि ऐसे व्यक्ति के मन में कोई भला विचार आ जाए तो उसके फलित होने में उसे विश्वास नहीं होता, संशययुक्त मन रहने के कारण ऐसा व्यक्ति अपने सभी मित्रों को खो देता है । उसे संसार शत्रुओं से भरा दीख पड़ता है । जैसे वह दूसरे लोगों को धोखा देता है, वैसे ही वह जानता है कि दूसरे लोग भी उसे धोखा देंगे । वह कुचिंतन में ही अपना समय व्यतीत करता है और वह दुःख में डूब जाता है ।

मानसिक शक्तियों के विकास के लिए भोले स्वभाव का होना ही श्रेयकर है । अंगरेजी में कहावत है कि शैतान गधा होता है । यह कहावत चतुर लोगों की मूर्खता को प्रदर्शित करती है । जो मनुष्य बाहर-भीतर एक रूप रहता है, वास्तव में वही अपने स्वरूप को पहिचानता है । यदि मनुष्य अपने विचारों और व्यवहार में सत्यता ले आवे तो उसका आचार अपने आप ही उच्चकोटि का हो जावे । जो व्यक्ति अपने किसी प्रकार के दोष को छिपाने की चेष्टा नहीं करता उसके चरित्र में कोई दोष भी नहीं रहता । पुराने पापों के परिणाम भी सचाई की मनोवृत्ति के उदय होने पर नष्ट हो जाते हैं । ढका हुआ पाप लगता है, खुला पाप मनुष्य को नहीं लगता । जो स्वयं के प्रति जितना अधिक सोचता है, वह उतना ही अधिक अपने आप को पुण्यात्मा बनाता है । ऐसा ही व्यक्ति दूसरी आध्यात्मिक शक्तियों को प्राप्त करता है ।

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