आत्मज्ञान और आत्म कल्याण

आत्मज्ञान और योग

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यद्यपि योग एक बडा़ गढ़ और कठिन विषय माना जाता है । पर जैसा गीता में कहा गया है, आत्मज्ञान प्राप्त करने के सभी साधन 'योग' से संबंध रखते हैं और इस दृष्टि से प्रत्येक सच्चा आत्मज्ञानी 'योगी' ही कहा जायगा । इसलिए आत्मज्ञान के इच्छक को योग मार्ग का परिचय होना आवश्यक है और उसमें से अपने अनुकूल विधियों से लाभ भी उठाना उचित है ।

मानवी चेतना सापेक्ष चेतना है । इसकी सापेक्षता को विनष्ट कर देना ही सारे योगों का एकमात्र लक्ष्य है । जब मन की उपाधि का तिरोधान हो जाता है, तभी चेतना अपनी परमावस्था को प्राप्त करती है । जहाँ किसी वस्तु का अस्तित्त्व नहीं रहता, वरन अस्तित्व का ही 'अस्ति तत्त्व' रहता है, जहाँ किसी वस्तु विशेष के अस्तित्त्व का ज्ञान नहीं होता, वरन परम अस्तित्व का ही परमज्ञान होता है और जहाँ विभिन्न वस्तुओं के ज्ञान का आनंद नहीं होता वरन परम अस्तित्त्व के पारमार्थिक ज्ञान का परमानंद प्राप्त होता है । यही सच्चिदानंद स्वरूप का साक्षात्कार है, यही ब्रह्म अथवा सनातन सत्य है, यही मुक्ति अथवा मोक्ष है इसके ज्ञान से ही मनुष्य परमं पुरुषार्थ की प्राप्ति कर सकता है ।

तमेय विदित्वाति मृत्युंमेति नान्या पन्था विद्यतेऽयनाय ।
(श्वेताश्वतरोपनिषद, ३-८)

''उसको जान लेने से ही मनुष्य मृत्यु का अतिक्रमण करता है । अन्य कोई दूसरा मार्ग नहीं है ।'' इस पारमार्थिक स्थिति को प्राप्त करने के लिए मुमुक्षु मनुष्य नाना मार्गो को ग्रहण करते हैं । हर एक मार्ग को योग कहकर पुकारते हैं, योग वह प्रक्रिया है, जिससे जीव अपने अविद्याजनित उपाधियों से विमुक्त होकर अपने सच्चिदानंद स्वरूप का ज्ञान पा सके । ब्रह्म से तादात्म्य संबंध स्थापित करना ही योग है, चित्त की वृत्तियों का निरोध करना योग है । प्रेम-स्वरूप परमात्मा की, अवस्थिति का कण-कण में भान करना योग है, निमित्त रूप से सहजावस्था में संस्थित होकर अखिल विश्व के कल्याणार्थ ब्रह्मकर्म में संलग्न रहना योग है तथा साथ ही वे सारी प्रक्रियाएँ एवं साधनाएँ भी योग हैं, जो इस लक्ष्य की ओर (यथार्थ लक्ष्य तो एक ही परंतु उसे विभिन्न दृष्टिकोणों से देखने पर विभिन्न प्रकार के जान पड़ते हैं) हमें प्रवृत्त करती है ।

इस प्रकार मुख्यत: चार योग माने जाते हैं- ज्ञानयोग, कर्मयोग, राजयोग, भक्तियोग । मनुष्य के संस्कार एवं कर्मगत अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार उसके साधना मार्गो में भी बाह्यत: विभेद ही है । ये विभेद व्यक्ति-व्यक्ति की मानसिक विभिन्नता के कारण ही हैं । योगों की इन वाह्य विभिन्नताओं के आधार पर आध्यात्मिक अनुभवों की भी विभिन्नता पाई जाती है, परंतु इस बात पर ध्यान देना अनिवार्य है कि योग की वास्तविक प्रगति सर्वांगीण प्रगति ही है । किसी एक योग विशेष में उन्नति होने का अर्थ है-योगों में समान रूप से उन्नति को प्राप्त करना । अत: यद्यपि वाह्य अनुभवों की अभिव्यक्ति में विभिन्नताएँ रहती हैं । यहाँ पर उन्हीं अनुभवों का विशेष वर्णन किया जा रहा है जो आध्यात्मिक उन्नति के लिए अनिवार्य है । मनुष्य चाहे जिस योग का अवलंबी हो उसमें यदि इन सामान्य लक्षणों तथा अनुभवों का अभाव हो तो निश्चय जानिए कि वह आध्यात्मिक मार्ग से अवगत नहीं है ।

मुदिता- आध्यात्मिक साधकों में साधना के साथ-साथ मुदिता भी उत्तरोत्तर बढ़नी चाहिए । यह स्वस्थ मानस तथा शुद्ध हृदय का परिचायक है । यह चित्त का प्रसाद है अथवा मन की शांतिबोधक । जब तक हृदय शुद्ध नहीं होता, मन के विकार क्षीण नहीं होते, विक्षिप्तता दूर नहीं होती, तब तक मनुष्य मुदिता की प्राप्ति नहीं कर सकता । मुदिता एक निश्चित लक्षण है, जिससे हम जान सकते हैं कि साधक अपनी साधना में सफलता को प्राप्त कर रहा है । बहुत लोग साधु रूप में दृष्टिगत होने के लिए बहुत ही उदात्तपूर्ण मुखाकृति बनाए देखते हैं । यह उनका भ्रम है । जो मन सुख की रश्मियों से ओत-प्रोत है, उसी में सत्य का संचार है । सात्त्विक मन ही योग की गंभीर साधनाओं में सफलतापूर्वक प्रवृत्त हो सकता है । अत: सुंदर सद्गुणों का उपार्जन करना आत्मा का आनंद है, सदा आनंद में ही संस्थित रहिए ।

संतोष- शांति, सत्संग, संतोष तथा सद्विचार मोक्ष के चार द्वारपाल हैं । संतोष से बढ़कर और कोई लाभ नहीं । संतोष से परम शांति तथा सुख की प्राप्ति होती है, संतोष सात्विक गुण है । इससे मनुष्य आलसी नहीं बनता, वरन और भी सक्रिय बनता है । संतोष से वैराग्य, विवेक तथा विचार की अभिवृद्धि होती है । जिसमें संतोष है, उसी में ईश्वरीय ज्योति का अवतरण होता है । संतोष ही सर्वोत्तम धन है । आत्मा स्वयं तृप्ति है । संतोषी मनुष्य के आगे सारी त्रुटियाँ डोलने लगती हैं । वह महापुरुषों तथा तपस्वियों द्वारा भी पूजित होता है । वैराग्य- राग ही बंधन को घनीभूत करता है । वैराग्य से ही विमुक्ति होती है । साधक में जब सत्य का समावेश होता है तब उसमें सारे विषय पदार्थो के प्रति स्वाभाविक विरक्ति हो जाती है । वैराग्य की दिनानुदिन अभिवृद्धि होती है । यह इसका स्पष्ट परिचायक है कि साधक आध्यात्मिकता की ओर बढता जा रहा है । यदि वैराग्य की स्थिति का अनुभव मनुष्य में उत्पन्न नहीं हुआ तो यह रंचमात्र भी आध्यात्मिक उन्नति नहीं कर सकता । वैराग्य महती शक्ति है जिससे साधक सतत ध्यान के लिए प्रवृत्त होता है और अंततः आत्मसाक्षात्कार करता है । विवेकयुक्त वैराग्य ही लाभदायक है अन्यथा तो वैराग्य अस्थायी है ।

अभय- यह दैवी संपदा हैं । भय तो अविद्यर जात है । शरीर के साथ तादात्म्यता रहने से ही मनुष्य भयभीत होता है । ज्यों-ज्यों मनुष्य में आंतरिक शांति, संतोष तथा वैराग्य की अभिवृद्धि होती जाती है । त्यों-त्यों उसमें भय का तिरोधान होता है । अभय की पूर्णावस्था ज़ीवनमुक्तों में ही पाई जाती है ।

समाधान- मन में पूर्ण शांति रहती है । विक्षेप नहीं होता । योगी का मन सदा लक्ष्य की ओर लगा रहता है । समाधान प्राप्त साधक ही सतत एवं अनवरत ध्यान का अभ्यास कर सकता है । उसमें विचार करने की प्रबल क्षमता होती है ।

साधना में सफलता के साथ-साथ सारे सद्गुण मनुष्य में आने लगते हैं । शांति, पूर्णता, एकाग्रता, निश्चलता, समत्व, धृति, श्रद्धा इत्यादि सारे गुण उसमें अपना आवास बनाते हैं । चमत्कारों की क्षमता के द्वारा मनुष्य योगी नहीं बनता, वरन इन सद्गुणों क्री अभिवृद्धि से योगी बनता है । जो मनुष्य एक भी सद्गुण से प्रतिष्ठित है, उसके पास अन्य सद्गुण दौड़कर चले आते हैं ।

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