आत्मज्ञान और आत्म कल्याण

आत्मज्ञान और आत्म कल्याण

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गायत्री का तेईसवाँ अक्षर 'द' हमको आत्मज्ञान और आत्म कल्याण का मार्ग दिखलाता है-

दर्शन आत्मन: कृत्या जानीयादात्म गौरवम् । ज्ञात्या तु तत्तदात्मानं पूर्णोन्नति पर्थ नयेत् । ।

आत्मा को देखे, आत्मा को जाने, उसके गौरव को पहचाने और आत्मोन्नति के मार्ग पर चले ।

मनुष्य महान पिता का सबसे प्रिय पुत्र है । सृष्टि का मुकुटमणि होने के कारण उसका गौरव और उत्तरदायित्व भी महान है । यह महत्ता उसके दुर्बल शरीर के कारण नहीं, वरन आत्मिक विशेषताओं के कारण है ।

आत्मगौरव की रक्षा करना मनुष्य का परम कर्त्तव्य है । जिससे आत्म- गौरव घटता हो, आत्मग्लानि होती हो, आत्महनन करना पड़ता हो, ऐसे धन, सुख, भोग और पद को लेने की अपेक्षा भूखा, नंगा रहना ही अच्छा है । जिसके पास आत्मधन है उसी को सच्चा धनी समझना चाहिए । जिसका आत्मगौरव सुरक्षित है, वह इंद्र के समान बड़ा पदवीधारी है, भले ही चाँदी और ताँबे के टुकड़े उसके पास, कम मात्रा में ही क्यों न हों ?

अपने को शरीर समझने से मनुष्य मायाग्रस्त होता है और शरीर से संबंध रखने वाली सांसारिक उलझनों से ही उलझकर मनुष्य जीवन जैसे अमूल्य सौभाग्य को गँवा देता है । जब यह अनुभूति होने लगती है कि मैं आत्मा हूँ शरीर तो मेरी एक अल्पस्थायी वस्त्र मात्र है, वर्तमान जीवन तो एक छोटी कड़ी मात्र है तो वह अपना स्वार्थ उन बातों में देखता है, जिनसे आत्महित साधन हो सकता है ।


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