आत्मज्ञान और आत्म कल्याण

आत्मज्ञान ही सबसे बड़ी संपदा है

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इस प्रकार जो मनुष्य आत्मज्ञान प्राप्त करके आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करते हैं, वे केवल स्वयं ही सुखी और सफल मनोरथ नहीं होते वरन वे संसार में एक ऐसी धारा प्रवाहित करते हैं जो अधिक मनुष्यों के लिए कल्याणकारी सिद्ध होती है ।

हमारे जीवन में सबसे सुखद और मूल्यवान वही क्षण है, जब हम भौतिक जगत के माया जाल से अपने आप को तटस्थ करके आत्मानुभूति में पूर्णरूप से स्थित हो जाते हैं । इन क्षणों को प्राप्त करने का सौभाग्य तभी प्राप्त होता है, जब हम दिव्य सौंदर्य के सम्मुख होते हैं, अन्यथा नहीं । भौतिक जगत की संपत्ति इनको नहीं खरीद सकती और न संसार की ऊँची से ऊँची अवस्था, अधिकार अथवा शक्ति ही इनको प्राप्त कराने में समर्थ है । क्योंकि ये वही क्षण हैं, जब आत्मा शिशु-सुलभ सरलता से अपने प्रियतम भगवान की अनुपम सुंदरता का पूजन करती है ।

मनुष्य का सुंदरतम अर्थात सर्वोत्तम सुखमय क्षण ही उसका सबसे अधिक मूल्यवान समय होता है । मानव अनुभूति की पराकाष्ठा अपने भाइयों पर शासन करने की अथवा संसार की किसी भी इच्छित मूल्यवान निधि को खरीदने की शक्ति में नहीं है । वास्तविक संपत्ति तो आत्मा की अनुभूति से प्राप्त होती है । सुख की व्यावहारिक मुद्रा अर्थात चलतू सिक्का 'प्रेम' है ।

सबसे अधिक धनी वही है, जो सबसे अधिक देता है । ऐसा देना सांसारिक धन के रूप में कदापि नहीं हो सकता । रुपया-आना पाई केवल प्रतीक मात्र हैं, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं । कभी तो ये उन बेडि़यों के प्रतीक बन जाते हैं, जो हमें संसार में बाँधती हैं और कभी उस प्रेम के जो हमें जड़वाद से मुक्त करता है, किंतु जीवन के सच्चे संपन्न अर्थात सुखद क्षणों में तो अधिकतर इनका प्रवेश ही नहीं होता है ।

जिस संसार में हम चलते, फिरते और बसते हैं, उसको यथार्थ रूप में समझने की चेष्टा अवश्य करनी चाहिए । साधारण मनुष्य की दृष्टि केवल सड़ने, गलने और नष्ट होने वाली वस्तुओं पर निर्णय दे सकती है । परंतु इस ऊपरी स्थूलता के पीछे बहुमूल्य आध्यात्मिक वस्तुओं का एक अनादि सागर है आलौकिक संपत्ति की एक बाढ़ है, जिसके संबंध में हम प्राय: अनभिज्ञ है । तथापि यह आध्यात्मिक संपत्ति सबके लिए समान रूप से प्राप्य है । इसके लिए धनी, दरिद्र की उपेक्षा नहीं । इस संपत्ति पर हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और वास्तव में इसी की प्राप्ति के लिए तो हमारा इस संसार में जन्म हुआ है । यदि हम इस आध्यात्मिक संपत्ति के जो अलौकिक सुंदरता की खाने हैं अनुसंधान में तत्पर नहीं होते तो हमारा जीवन नीरस और निरर्थक बन जाता है ।

संसार में आत्मकल्याण के सभी इच्छक होते हैं, पर वास्तविक आत्मकल्याण तभी संभव हैं, जब मनुष्य आत्मज्ञान के लिए प्रयत्नशील हो । बिना आत्मज्ञान के जो आत्मकल्याण चाहते हैं वे बिना नींव मकान खड़ा करने की चेष्टा करते हैं । ऐसे लोग प्रायः विपरीत मार्गो को अंगीकार करके आत्मकल्याण के बजाय आत्मिक, पतन की ओर अग्रसर होने लगते हैं । इसलिए संसार में उच्च स्थिति की अभिलाषा रखने वाले को अवश्य ही आत्मा को जानने और उसी के आदेश-पालन का सत्संकल्प करना चाहिए ।
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