आत्मज्ञान और आत्म कल्याण

आत्मकल्याण और सदुपदेश

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आत्मकल्याण के लिए प्रयत्न तो मनुष्य को स्वयं ही करना पड़ता है, पर सत्संग और सदुपदेश उसके प्रधान अवलंबन है । हमारे कानों को सदुपदेश रूपी सुधा निरंतर प्राप्त होती रहनी चाहिए । मनुष्य का स्वभाव चंचल है, इंद्रियों की अस्थिरता प्रसिद्ध है । यदि आत्मसुधार में सभी इंद्रियों को वश में रखा जाय तो उचित है, क्योंकि अवसर पाते ही इनकी प्रवृत्ति पतन की ओर होने लगती है । सदुपदेश वह अंकुश है जो मनुष्य को कर्त्तव्य-पथ पर निरंतर चलते रहने को प्रेरित करता रहता है । सत्पथ से विचलित होते ही कोई शुभ विचार या स्वर्ण सूत्र पुन: ठीक मार्ग पर ले आता है ।

प्रत्येक सदुपदेश एक ठोस प्रेरक विचार है । जैसे कोयले के छोटे से कण में विध्वंसकारी विपुल शक्ति भरी हुई है, उसी प्रकार प्रत्येक सदुपदेश शक्ति का एक जीता जागता ज्योतिपिंड है । उससे आपको नया प्रकाश और नवीन प्रेरणा प्राप्त होती है । महापुरुषों की अमृतमयी वाणी, कबीर, रहीम, गुरुनानक तुलसी, मीराबाई, सूरदास आदि महापुरुषों के प्रवचन, दोहों और गीतों में ये महान जीवन सिद्धांत कूट-कूटकर भरे हुए हैं, जिनका आधार गहरे अनुभव के ऊपर रखा गया है । आज ये अमर तत्ववेत्ता हमारे मध्य नहीं है, उनका पार्थिव शरीर विलुप्त हो चुका है । पर अपने सदुपदेश के रूप में वे जीवन का वह सार छोड़ गए हैं, जो हमारे पथ प्रदर्शन में बड़ा सहायक हो सकता है ।

आदमी मर जाता है, उसके साज-सामान, महल, तिबारे टूट-फूटकर नष्ट हो जाते हैं, परंतु उसके जीवन का सार उपदेश और शिक्षाएँ वह अमर वस्तु हैं, जो युगों तक जीवित रहती है । इस पृथ्वी पर आज तक न जाने कितने व्यक्ति आए और मृत्यु को प्राप्त हुए उनका नामोनिशान तक शेष नहीं बचा है, किंतु जिन विचारकों, तत्ववेत्ताओं और महापुरुषों ने अपने जीवन के अनुभव रखे हैं, वे आज भी मशाल की तरह हमें प्रकाश दे रहे हैं ।

मनुष्य का अनुभव धीमी गति से बहुत धीरे-धीरे बढ़ता है । जैसे-जैसे आयु बढ़ती है, वैसे-वैसे कडुवे-मीठे घूँट पीकर हम आगे बढ़ते हैं । अब यदि हम केवल अपने ही अनुभवों पर टिके रहें तो बहुत दिनों में जीवन के सार की पा सकेंगे । इससे अच्छा यही है कि हम विद्वानों के अनुभवों को ध्यानपूर्वक पढ़ें और इन्हें अपने अनुभवों से परखे तोले एवं जीवन में ढालें । उन्होंने जिन प्रलोभनों का उल्लेख किया है उनसे बचें, जिन अच्छी आदतों को सराहा है, उन्हें विकसित करें । सदुपदेशों को ग्रहण करना अपने आप को लाभान्वित करने का एक सरल उपाय है । सत्य के शोधक उन्नति के जिज्ञासु और कीर्ति के इच्छक का यह सर्वप्रथम कर्त्तव्य है कि वह केवल अपने थोड़े से अनुभवों के बल पर न टिककर, मानवता को प्रशस्त और समुन्नत करने वाले विचारकों के अनुभवों से लाभ उठावे । सदुपदेश हमारे लिए प्रकाश के जीते जागते स्तंभ हैं । जैसे समुद्र में जहाजों को उचित मार्ग निर्देश करने के लिए 'प्रकाशस्तंभ' बनाए जाते हैं विद्वानों के ये उपदेश ऐसे ही प्रकाशस्तंभ है । 'हम यह नहीं कहते कि आप आँख मूँदकर इन्हें ग्रहण करें । आप अपनी बुद्धि और तर्क से खूब काम लीजिए लेकिन उपदेशों में व्यक्त आधार तथा तत्त्व को अवश्य ग्रहण कीजिए । आपको विवेकवान बनने में ये प्रचुरता से सहायता देने वाले हैं । सत्य प्रेम और न्याय का पथ इनसे स्पष्ट हो जाता है ।

आपको कोई दूसरा अच्छी सलाह दे, उसको सुनना आपका कर्त्तव्य है, परंतु आपके पास अंतरात्मा का निर्देश है, आप अपनी आत्मा की सलाह से काम करते रहिए कभी धोखा नहीं खाएँगे ।

जिन्होंने बहुत उपदेश सुने हैं, वे देवता रूप है । कारण, जब मनुष्य की प्रवृत्ति अच्छाई की ओर होती है, तभी वह सदुपदेशों को पसंद करता है, तभी सत्संग में बैठता है, तभी मन में और अपने चारों ओर वैसा शुभ सात्त्विक वातावरण विनिर्मित करता है । किसी विचार के सुनने का तात्पर्य चुपचाप अंतःकरण द्वारा उसमें रस लेना उसमे रमण करना भी है । जो जैसा सुनता है कालांतर में वैसा ही बन जाता है । आज आप जिन सदुपदेशों को ध्यानपूर्वक सुनते हो कल निश्चय ही वैसे बन भी जाओगे । सुनने का तात्पर्य अपनी मानसिक प्रवृत्तियों को देवत्व की ओर मोड़ना है ।

एक विद्वान ने कहा है, ''जल जैसी जमीन पर बहता है, उसका गुण वैसा ही बदल जाता है । मनुष्य का स्वभाव भी अच्छे-बुरे विचारों या लोगों की संगति के अनुसार बदल जाता है । इसलिए चतुर मनुष्य बुरे लोगों का साथ करने से डरते हैं, लेकिन मूर्ख व्यक्ति बुरे आदमियों के साथ घुल-मिल जाते हैं और उनके संपर्क से अपने आपको भी दुष्ट बना लेते हैं । मनुष्य की बुद्धि तो मस्तिष्क में रहती है, किंतु कीर्ति उस स्थान पर निर्भर रहती है, जहाँ वह उठता-बैठता है और जिन लोगों या विचारों की सोहबत उसे पसंद है । आत्मा की पवित्रता मनुष्य के कार्यो पर निर्भर है और उसके कार्य संगति पर निर्भर हैं । बुरे लोगों के साथ रहने वाला अच्छे काम करें यह बहुत कठिन है । धर्म से स्वर्ग की प्राप्ति होती है, किंतु धर्माचरण करने की बुद्धि सत्संग या सदुपदेशों से ही प्राप्त होती है । स्मरण रखिए कुसंग से बढ़कर कोई हानिकर वस्तु नहीं है तथा संगति से बढ़कर कोई लाभ नहीं है ।''

जब आप सदुपदेशों की संगति में रहते हैं, तो गुप्त रूप से अच्छाई में बदलते भी रहते हैं, यह सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया स्थूल नेत्रों से दीखती नहीं है, किंतु इसका प्रभाव तीव्र होता रहता है । अंततः मनुष्य उन्हीं के अनुसार बदल जाता है ।

गंगाजल से जिस प्रकार शरीर शुद्ध होता है, सदुपदेश से मन, बुद्धि और आत्मा पवित्र होती है । धर्मात्मा मनुष्यों की शिक्षा एक सुदृढ़ लाठी के समान है, जो गिरे हुए पतितों को सहारा देकर ऊँचा उठाती रही है और बुरे अवसरों पर गिरने से बचा लेती है । जो शिक्षित हैं, उनके लिए सैकडों एक- से-एक सुंदर अनुभवपूर्ण ग्रंथ विद्यमान हैं, कवियों, विचारकों, तत्त्वदर्शकों की वाणियाँ है, दोहे, भजन, सूक्तियाँ हैं । इनका मनन और आचरण करना चाहिए । जो अशिक्षित हैं, वे लोग भी धर्मात्माओं के सत्संग से इतनी शक्ति प्राप्त कर सकते हैं, जिससे अपने आप को सँभाल सकें और विपत्ति के समय अपने पैरों पर खड़े हो सकें । स्वयं भगवान गीता में कहते हैं -

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते । तत्स्वयं योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि विन्दति । । (४/३८) ''इस संसार में सद्ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निस्संदेह कोई भी पदार्थ नहीं है । उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग के द्वारा शुद्धातःकरण हुआ मनुष्य अपने आप ही आत्मा में पा लेता है ।"

ये मानवा हरिकथा श्रवणास्तदोषा । कृष्णड़्घ्निभजने रतचेतनाश्च । ते वैपुनन्ति च जर्गान्त शरीर संगात् । सम्भाषणादपि ततो हरिरेवे पूज्य: ।। हरि पूजापरा यत्र मद्धान्त बुद्ध बुद्धय: । तत्रैव सकलं भद्रं यथा निम्ने जलं द्विज: ।। ''जो मानव भगवान की कथा श्रवण करके उससे सदुपदेश ग्रहण कर, अपने समस्त दोष-दुर्गुण दूर कर चुका है और जिनका चित्त भगवान श्रीकृष्ण के चरणारविंदों की आराधन में अनुरक्त है, वे अपने शरीर के संग अथवा संभाषण से भी संसार को पवित्र करते हैं । अत: सदा श्रीहरि की ही पूजा करनी चाहिए । ब्रह्मन्! जैसे नीची भूमि में इधर-उधर का सारा जल सिमट-सिमटकर एकत्रित हो जाता है, उसी प्रकार जहाँ भगवसूजा परायण शुद्ध चित्त महापुरुष रहते हैं, वहीं संपूर्ण कल्याण का वास होता है ।''

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