आत्मज्ञान और आत्म कल्याण

आत्मोन्नति के लिए आवश्यक गुण

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यदि आप जल्दी आध्यात्मिक उन्नति चाहते हैं तो इसके लिए सजगता होशियारी रखना बहुत जरूरी है । आध्यात्मिक मार्ग में थोडी सी सफलता; थोडी़ सी मन की गंभीरता, एकाग्रता सिद्धियों के थोड़े से दर्शन थोड़े से अंतज्ञान की शक्ति से ही कभी संतुष्ट मत रहो, इससे ज्यादा ऊँची चढ़ाइयों पर चलना अभी बाकी है ।

अपने जीवन को सेवामय बना दो, सेवा के लिए अपने हृदय में चाव तथा उत्साह भर लो । दूसरों के लिए प्रसाद बनकर रहो यदि ऐसा करना चाहते हो तो आपको अपने मन को निर्मल बनाना होगा । अपने आचरण को दिव्य तथा आदर्श बनाना होगा । सहानुभूति, प्रेम, उदारता, सहनशीलता और नम्रता बढ़ानी होगी । यदि दूसरों के विचार आपके विचारों से मुक्त हों तो उनसे लडाई-झगड़ा न करो । अनेक प्रकार के मन होते हैं । विचारने की शैली अनेक प्रकार की हुआ करती है । विचारने के भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण हुआ करते हैं । अतएव सभी दृष्टिकोण निर्दोष हो सकते हैं । लोगों के मत के अनुकूल बनो । उनके मत को भी ध्यान तथा सहानुभूतिपूर्वक देखो और उनका आदर करो । अपने अहंकार चक्र के क्षुद्र केंद्र से बाहर निकलो और अपनी दृष्टि को विस्तृत करो । अपना मन सर्वग्राही और उदार बनाकर सबके मत के लिए स्थान रखो, तभी आपका जीवन विस्तृत और हृदय उदार होगा । आपको धीरे- धीरे मधुर और नम्र होकर बातचीत करनी चाहिए । मितभाषी बनो । अवांछनीय विचारों और संवेदनाओं को निकाल दो । अभिमान या चिड़चिड़ेपन को लेशमात्र भी बाकी नहीं रहने दो । अपने आप को बिलकुल भुला दो । अपने व्यक्तित्व का एक भी अंश या भाव न रहने पावे । सेवा-कार्य के लिए पूर्ण आत्मसमर्पण की आवश्यकता है । यदि आप में उपर्युक्त सद्गुण मौजूद है तो आप संसार के लिए पथप्रदर्शक और अमूल्य प्रसाद रूप हो । आप एक अलौकिक सुगंधित पुष्प हो जिसकी सुगंध देश भर में व्याप्त हो जाएगी । यदि आपने ऐसा कर लिया तो समझ लो अपने बुद्धत्व की उच्चत्तम अवस्था को प्राप्त कर लिया ।

नम्र, दयालु उपकारी और सहायक बनो । यही नहीं कि कभी-कभी यथावकाश-इन गुणों का उपयोग किया जावे, बल्कि सर्वकाल में आपके सारे जीवन में इन्हीं गुणों का अभ्यास होना चाहिए । एक भी शब्द ऐसा मत कहो जिससे दूसरों को दुःख पहुँचे । बोलने से पहले भली प्रकार विचार करो और देख लो कि जो कुछ आप कहने लगे हो, वह दूसरों के चित्त को दुखी तो नहीं करेगा; क्या वह बुद्धिसंगत, मधुर, सत्य तथा प्रिय तो है । पहले से ही ध्यानपूर्वक समझ लो कि आपके विचार शब्दों और कार्यो का क्या प्रभाव होगा ? प्रारंभ में आप भले ही कई बार असफल हो सकतें हैं, परंतु यदि आप अभ्यास करते रहे तो अंत में आप अवश्य सफल हो जाओगे ।

आपको कोई काम निरुत्साह से, लापरवाही से या बेमन से नहीं करना चाहिए । यदि मन की ऐसी वृत्ति रखोगे तो जल्दी उन्नति नहीं कर सकते । संपूर्ण चित्त, मन, बुद्धि, आत्मा उस काम में लगा होना चाहिए तभी आप उसे योग या ईश्वरपन कह सकते हो । कुछ मनुष्य हाथों से तो काम करते हैं और उनका मन कलकत्ता (कोलकाता) के बाजार में होता है, ? बुद्धि दफ्तर में होती है और आत्मा स्त्री या पुत्र में संलग्न रहती है । यह बुरी आदत है । आपको कोई भी काम हो, उसे योग्यता से संतोषप्रद ढंग से करना चाहिए । आपका आदर्श यह होना चाहिए कि एक समय में एक ही काम अच्छे ढंग से किया जाय । यदि आपके गुरु या मित्र आपसे तौलिया धोने को कहें तो आपके बिना उन्हें बताए हुए ही उनके और कपड़ों को भी धो डालना चाहिए ।

लगातार असफल होने से आपको साहस नहीं छोड़ना चाहिए । असफलता के द्वारा आपको अनुभव मिलता है । आपको ये कारण मालूम होंगे, जिनसे असफलता हुई है और भविष्य में उनसे बचने के लिए सचेत रहोगे । आपको बड़ी-बड़ी होशियारी से उन कारणों की रक्षा करनी होगी । इन्हीं असफलताओं की कमजोरी में से आपको शक्ति मिलेगी । असफल होते हुए भी आपको अपने सिद्धांत, लक्ष्य, निश्चय और साधन का दृढ़ मति होकर पालन और अनुसरण करना होगा । आप कहिए 'कुछ भी हो मैं अवश्य पूरी सफलता प्राप्त करूँगा, मैं इसी जीवन में नहीं इसी क्षण आत्मसाक्षात्कार करूँगा।' कोई असफलता मेरे मार्ग में रुकावट नहीं डाल सकती ।' प्रयत्न और कोशिश आपकी ओर से होनी चाहिए । भूखे मनुष्य को अपने आप ही खाना पड़ेगा । प्यासे को पानी अपने आप ही पीना पड़ेगा । आध्यात्मिक सीढ़ी पर आपको हर एक कदम अपने आप ही रखना पडे़गा ।

आत्मज्ञानी को सुशील, मनोहर, मिलनसार प्रकृति का होना होगा । उसकी पूर्णरूप से अनुकूलता, सहानुभूति करने वाला, विश्व-प्रेम, दया के गुणों से युक्त रहना होगा । उसको दूसरों की चाल तथा आदतों के अनुकूल ही अपने को बनाना होगा । उसको अपने हृदय को ऐसा बनाना होगा कि सबों को अपने गले लगा सकें । उसे अपने मन को शांत तथा समतुल्य रखना होगा । दूसरों को सुखी देखकर उसको प्रसन्न होना होगा । अपनी सब इंद्रियों को अपने वश में करना होगा । उन्हें अनादर, अपकीर्ति, निंदा, कलंक, लज्जित होना, कठोर वचन सुनना, शीत, उष्ण तथा रोगों के कष्टों को सहना होगा । उन्हें सहनशील होना होगा । उनको आप में, ईश्वर में, शास्त्रों में, अपने गुरु के वचन में पूरा विश्वास रखना होगा ।

जो मनुष्य संसार की सेवा करता है वह अपनी ही सेवा करता है । जो दूसरों की मदद करता है वास्तव में वह अपनी मदद करता है । यह सदा ध्यान में रखने योग्य बात है कि जब आप दूसरे व्यक्ति की सेवा करते हैं जब आप अपने देश की सेवा करते हैं तब आप यह समझकर कि ईश्वर ने आपको सेवा द्वारा अपने को उन्नत तथा सुधारने का दुर्लभ अवसर दिया है उस मनुष्य के प्रति कृतज्ञ हों जिसने आपको सेवा करने का अवसर दिया हो ।

निष्काम सेवा करने से आप अपने हृदय को पवित्र बना लेते हैं । अहंभाव, घृणा, ईर्ष्या, श्रेष्ठता का भाव और इसी प्रकार के और सब आसुरी संपत्ति के गुण नष्ट हो जाते हैं । नम्रता, शुद्ध, प्रेम, सहानुभूति, क्षमा, दया आदि की वृद्धि होती है । भेदभाव मिट जाते हैं । स्वार्थपरता निर्मूल हो जाती है । आपका जीवन विस्तृत तथा उदार हो जाएगा । आप एकता का अनुभव करने लगेंगे । आप अत्यधिक आनंद का अनुभव करने लगेंगे । अंत में आपको आत्मज्ञान प्राप्त हो जाएगा । आप सबमें ''एक'' और ''एक'' ही सबका अनुभव करने लगेंगे । संसार कुछ भी नहीं है केवल ईश्वर की ही विभूति है । लोकसेवा ही ईश्वर की सेवा है । सेवा को ही पूजा कहते हैं ।

जब दूसरों की भलाई करने का भाव मनुष्य का एक अंग ही बन जाता है, तब रंचमात्र भी किसी प्रकार की कामना नहीं रह जाया करती है । उनको दूसरों की सेवा तथा भलाई करने से ही अत्यंत आनंद का अनुभव हुआ करता है । दृढ निष्काम सेवा करने से एक विचित्र प्रकार की प्रसन्नता तथा आनंद हुआ करता है । उनको निष्काम तथा निःस्वार्थ कर्म करने से आंतरिक आध्यात्मिक शक्ति और बल होता है
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