आत्मज्ञान और आत्म कल्याण

आध्यात्मिक मार्ग में सफलता कैसे प्राप्त हो सकती है ?

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मानव जीवन का सदुपयोग दो प्रकार से किया जा सकता है- (१) आत्मनिर्माण द्वारा (२) राष्ट्रनिर्माण द्वारा । इसमें प्रथम साधन अर्थात आत्मनिर्माण पर विचार करें तो विदित है कि आत्मनिर्माण निम्न साधनों से संभव है- (१) शरीर रक्षा से (२) भावनाओं पर विजय प्राप्त करने से (३) बुद्धि विकास से (४) आत्मज्ञान से ।

आत्मनिर्माण का प्रथम साधन मानव का शरीर है । शरीर वह यंत्र है जिसकी सहायता से मानव संसार में कर्मपथ पर अग्रसर होता है नाना कर्त्तव्यों का पालन करता है तथा संसार, समाज, देश और विश्व की प्रगति समझता है । संसार कैसा है ? उसमें कितनी प्रगति हो रही है ? किस दिशा में हो रही है ? कितनी अच्छाई या बुराई है; यह मानव के शरीर पर अवलंबित है। जिस प्रकार सावन के अंधे को सर्वत्र हरा-ही-हरा दृष्टिगोचर होता है, उसी प्रकार रोगी शरीर वाले को संपूर्ण संसार रोग से आक्रांत; डूबता हुआ, नष्ट होकर काल- कवलित होता हुआ प्रतीत होता है । अस्वास्थकर स्थानों, निंद्य, पेशा करते हुए व्यक्तियों को संसार में भोग-विलास; श्रृंगार उत्तेजक पदार्थ; इत्यादि के अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं देता । जिसने अपने शरीर को मद्य, तंबाकू, चरस, अफीम इत्यादि उत्तेजक पदार्थो पर पाला है । यह व्यक्ति पशुत्व की श्रेणी में पडा़-पड़ा नारकीय कीटपतंगों का जीवन व्यतीत करता है । अस्वस्थ रोगी मनुष्य के विचार भी अस्वस्थ्यकर; अनिष्ट ही होते हैं । यह संसार को अहंकार की संकीर्णता में बँधा हुआ देखता है । रोगी शरीर क्या तो अपना भला कर सकता है और क्या दूसरों का कल्याण कर सकता है । उसके विचारवासी, योजनाएँ-रोगी, कल्पनाएँ दूषित, वासनाएँ प्रदीप्त, इच्छाएँ अनिष्टकर ही रहेंगी ।

आत्मनिर्माण के इच्छुको । नीरोग और स्वस्थ शरीर बनाओ, जिससे तुम स्वयं अनिष्टकर चिंतन से बच सको तथा, अहितकर कल्पनाओं से बचकर अपना जीवन दिव्य प्रबंध से सुव्यवस्थित कर सको । तुम्हें वही ग्रहण करना चाहिए जो शुभ हो । स्वस्थ पवित्र जीवन सात्विक वस्तुओं के भोजन पर निर्भर है । तुम जो भोजन करते हो, उसी के अनुसार तुम्हारी भावनाओं का निर्माण होता है । सात्त्विक वस्तुओ- गेहूँ चावल, फल तरकारियों, दूध, मेवे इत्यादि पर बना हुआ स्वस्थ मनुष्य आत्मनिर्माण सरलता से कर सकता है । उसकी भावनाएँ तामसी वस्तुओं की ओर आकृष्ट न होगी । वह दूसरों के प्रति कभी घृणा, द्वेष, ईर्ष्या, क्रोध की भावनाएँ नहीं ले जाएगा । इसके विपरीत मांस; मादक द्रव्य, तामसी उत्तेजक पदार्थो मद्य इत्यादि के बल पर स्वस्थ शरीर अंदर से खोखला रहेगा । वह उस रेत की दीवार की भाँति है जो धक्के से धराशायी हो सकती है । नींद, परिश्रम, श्वास-प्रश्वास के व्यायाम, दूध, छाछ, फूलों के रस-ये सभी तत्त्व शरीर की रक्षा के लिए अमूल्य हैं । उपवास द्वारा रोग से मुक्ति तथा अंतरंग शुद्धि करते रहना अनिवार्य है ।

आत्मनिर्माण की दूसरी साधना है- भावनाओं पर विजय । गंदी वासनाएँ दग्ध की जाएँ तथा दैवी संपदाओं का विकास किया जाय तो उत्तरोत्तर आत्मविकास हो सकता है । कुत्सित भावनाओं में क्रोध, घृणा, द्वेष, लोभ और अभिमान, निर्दयता, निराशा, अनिष्ट भाव प्रमुख है धीरे-धीरे इनका मूलोच्छेदन कर देना चाहिए । इनसे मुक्ति पाने का एक यह भी उपाय है कि इनके विपरीत गुणों, धैर्य, उत्साह, प्रेम, उदारता, दानशीलता उपकार, नम्रता, न्याय, सत्य वचन, दिव्य भावों का विकास किया जाय । ज्यों-ज्यों दैवी गुण विकसित होंगे दुर्गुण स्वयं दग्ध होते जाएँगे, दुर्गुणों से मुक्ति पाने का यही एक मार्ग है । आप प्रेम का द्वार खोल दीजिए प्राणिमात्र को अपना समझिए समस्त कीट-पतंग पशु- पक्षियों को अपना समझा कीजिए । संसार से प्रेम कीजिए । आपके शत्रु स्वयं दब जाएँगे, मित्रता की अभिवृद्धि होगी । इसी प्रकार धैर्य, उदारता, उपकार इत्यादि गुणों का विकास प्रारंभ कीजिए । इन गुणों की ज्योति से आपके शरीर में कोई कुत्सित भावना शेष न रह जाएगी ।

अनिष्ट भाव से स्वयं दूसरे की ही हानि नहीं होती है । उसकी हानिकारक तरंगें विश्व में व्याप्त होकर वातावरण को दूषित करती हैं, जिससे महायुद्ध होते हैं, जिनमें असंख्य व्यक्तियों का संहार होता है ।

आत्मनिर्माण का तृतीय साधन है- 'बुद्धि विकास ।' इससे सत्कर्म तथा दुष्कर्म का विवेक जाग्रत होता है । शुभ क्या है ? अशुभ किसे कहते हैं ? इत्यादि ज्ञान मनुष्य की बुद्धि के विकास द्वारा ही प्राप्त होता है, बुद्धि-विकास के चार प्रमुख साधन हैं- सत्संग, अध्ययन, विचार और भूल ।

सत्संग से कुटुंब और समाज का कल्याण होता है । जिन अध्यात्मवादियों, ऋषि-महात्माओं, विद्वानों या विचारकों ने संसार में आध्यात्मिक उन्नति की है, उनके संपर्क में आने से मनुष्य को संसार की विषमताओं से बचने के अनेक साधन प्राप्त होते हैं अपनी समस्याओं का हल निकलता है, आगे आने वाली कठिनाइयों से मुक्ति के साधन एकत्र करने में सहायता प्राप्त होती है ।

अध्ययन से मनुष्य महापुरुषों का सत्संग प्राप्त करता है । पुस्तक का अर्थ है- किसी विद्वान का सर्वदा सोते-जागते पुस्तक के पृष्ठों के रूप में आपके समक्ष रहना । पुस्तकों से ऐसे महापुरुषों से संपर्क हो सकता है, जो संसार में नहीं है, किंतु मानव जगत में अपनी छाप छोड गए हैं । नैतिक मानसिक आध्यत्मिक विकास के हेतु उत्तमोत्तम धार्मिक ग्रंथों का नियमित स्वाध्याय अतीव आवश्यक हैं । घर में उत्तम ग्रंथों का संकलन रखने से घर का वातावरण शुद्ध होता है । शुभ विचार की लहरें सर्वत्र व्याप्तं हो जाती हैं ।

सद्विचार से रमण करने में बुद्धि-विकास का क्रम उचित दिशा में होता है । सद्विचार मन में शिव भावना, सत्यभावना और दिव्य-भावना जाग्रत रखता है । स्मरण रखिए-"जहाँ आप है, वहाँ परमात्मा है, जहाँ परमात्मा है वहाँ आप हैं ।'' आपका जीवन और व्यवहार दिव्य प्रबंध से सुव्यवस्थित है । परमात्मा आपसे प्रेम करता है और सदैव आपका सहायक है । आप कभी दुःखी, शांत या निराश नहीं हो सकते क्योंकि आपका संचालक परमात्मा है । संसार के सब प्राणी आपके आत्मबंधु है, आपका शरीर परमात्मा का निवास स्थान है । इस प्रकार की दिव्य भावनाओं में अपना जीवन व्यतीत करने वाला व्यक्ति सफलता से आत्मनिर्माण कर सकता है ।

भूल से बुद्धि-विकास होता है । एक भूल का अर्थ है- आगे के लिए अक्लमंदी । संसार के अनेक पशु भूल से विवेक सीखते हैं लेकिन मनुष्य उनसे बहुत जल्दी सीखता है । भूल का अर्थ है कि भविष्य में आप अपनी गलती नहीं दोहराएँगे । भूल से अनुभव बढ़ता है । संसार में व्यक्ति के अनुभव का ही महत्त्व है । अनुभव अनेक भूलों द्वारा अर्जित सद्ज्ञान है । भूल यदि दोहराई न जाय तो बुद्धि-विकास में बहुत सहायता करती है । महापुरुषों के जीवन में अनेक क्षण ऐसे आए हैं जब वे भूलों के बल पर महान बने हैं ।

आत्मनिर्माण का अंतिम साधन है- आत्मभाव का विस्तार । साधक की दृष्टि से विकास का सबसे उच्च स्तर यही है । इस स्तर पर पहुँचने से साधक सर्वत्र आत्मभाव का दर्शन करता है । प्रत्येक व्यक्ति, वस्तु तथा जगत को वह ब्रह्म रूप देखता है । अपने शरीर को वह परमात्मा का गृह समझता है । वह जिस वस्तु को देखता है वे सब उसकी आत्मा के अंग-प्रत्यंग हैं । उसकी आत्मा का दायरा सुव्यवस्थित होता है जिसमें शत्रु-मित्र सभी सम्मिलित होते हैं । जो व्यक्ति अपने- पराये के भेदभाव पर विशेष ध्यान देते हैं वे आत्मनिर्माण में शीघ्र अग्रसर नहीं हो सकते । हमारे शास्त्रकारों ने आत्मवत सर्वभूतेषु का जो सिद्धांत बतलाया है उसका वास्तविक तात्पर्य यही है कि मनुष्य सभी को आत्मस्वरूप में देखे और भिन्नत्व की भावना को यथाशक्ति कम से कम घटा दे ।

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