आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति

नैतिकता की नीति, स्वास्थ्य की उत्तम डगर

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नैतिकता की नीति पर चलते हुए स्वास्थ्य के अनूठे वरदान पाए जा सकते हैं। इसकी अवहेलना जिन्दगी में सदैव रोग- शोक, पीड़ा- पतन के अनेकों उपद्रव खड़े करती है। अनैतिक आचरण से बेतहाशा प्राण ऊर्जा की बर्बादी होती है। साथ ही वैचारिक एवं भावनात्मक स्तर पर अनगिनत ग्रन्थियाँ जन्म लेती हैं। इसके चलते शारीरिक स्वास्थ्य के साथ चिन्तन, चरित्र एवं व्यवहार का सारा ताना- बाना गड़बड़ा जाता है। आधुनिकता, स्वच्छन्दता एवं उन्मुक्तता के नाम पर इन दिनों नैतिक वर्जनाओं व मर्यादाओं पर ढेरों सवालिया निशान लगाए जा रहे हैं। इसे पुरातन ढोंग कहकर अस्वीकारा जा रहा है। नयी पीढ़ी इसे रूढ़िवाद कहकर दरकिनार करती चली जा रही है। ऐसा होने और किए जाने के दूषित दुष्परिणाम आज किसी से छुपे नहीं हैं।
        
 हालाँकि नयी पीढ़ी के सवाल नैतिकता क्यों? की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। इसका उपयुक्त जवाब देते हुए उन्हें इसके वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक प्रभावों का बोध कराया जाना चाहिए। प्रश्र कभी भी गलत नहीं होते, गलत होती है प्रश्रों की अवहेलना व उपेक्षा। इनके उत्तर न ढूँढ पाने के किसी भी कारण को वाजिब नहीं ठहराया जा सकता। ध्यान रहे प्रत्येक युग अपने सवालों के हल मांगता है। नयी पीढ़ी अपने नए प्रश्रों के ताजगी भरे समाधान चाहती है। नैतिकता क्यों? यह युग प्रश्र है। इस प्रश्र के माध्यम से नयी पीढ़ी ने नए समाधान की मांग की है। इसे परम्परा की दुहाई देकर टाला नहीं जा सकता। ऐसा करने से नैतिकता की नीति उपेक्षित होगी। और इससे होने वाली हानियाँ बढ़ती जाएँगी।

          नैतिकता क्यों? इस प्रश्र का सही उत्तर है- ऊर्जा के संरक्षण एवं ऊर्ध्वगमन हेतु। इस प्रक्रिया में शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के सभी रहस्य समाए हैं। अनैतिक आचरण से प्राण ऊर्जा के अपव्यय की बात सर्वविदित है। हो भी क्यों नहीं- अनैतिकता से एक ही बात ध्वनित होती है- इन्द्रिय विषयों का अमर्यादित भोग। स्वार्थलिप्सा, अहंता एवं तृष्णा की अबाधित तुष्टि। फिर इसके लिए कुछ भी क्यों न करना पड़े। प्राण की सम्पदा जब तक है- तब तक यह सारा खेल चलता रहता है। लेकिन इसके चुकते ही जीवन ज्योति बुझने के आसार नजर आने लगते हैं।

          इतना ही नहीं, ऐसा करने से जो वर्जनाएँ टूटती हैं, मर्यादाएँ ध्वस्त होती हैं, उससे अपराध बोध की ग्रन्थि पनपे बिना नहीं रहती। वैचारिक एवं भावनात्मक तल पर पनपी हुई ग्रन्थियों से अन्तर्चेतना में अनगिन दरारें पड़ जाती हैं। समूचा व्यक्तित्व विशृंखलित- विखण्डित होने लगता है। दूसरों को इसका पता तब चलता है, जब बाहरी व्यवहार असामान्य हो जाता है। यह सब होता है अनैतिक आचारण की वजह से। अभी हाल में पश्चिमी दुनिया के एक विख्यात मनोवैज्ञानिक रूडोल्फ विल्किन्सन ने इस सम्बन्ध में एक शोध प्रयोग किया है। उन्होंने अपने निष्कर्षों को ‘साइकोलॉजिकल डिसऑडर्स कॉज़ एण्ड इफेक्ट’ नाम से प्रकाशित किया है। इस निष्कर्ष में उन्होंने इस सच्चाई को स्वीकारा है कि नैतिकता की नीति पर आस्था रखने वाले लोग प्रायः मनोरोगों के शिकार नहीं होते। इसके विपरीत अनैतिक जीवन यापन करने वालों को प्रायः अनेक तरह के मनोरोगों के शिकार होते देखा गया है।

          समाज मनोविज्ञानी एरिक फ्रॉम ने अपने ग्रन्थ ‘मैन फॉर- हिमसेल्फ’ में भी यही सच्चाई बयान की है। उनका कहना है कि अनैतिकता मनोरोगों का बीज है। विचारों एवं भावनाओं में इसके अंकुरित होते ही मानसिक संकटों की फसल उगे बिना नहीं रहती। योगिवर भतृहरि ने वैराग्य शतक में इसकी चर्चा में कहा है- ‘भोगे रोग भयं’ यानि कि भोगों में रोग का भय है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि भोग होंगे तो रोग पनपेंगे ही। नैतिक वर्जनाओं की अवहेलना करने वाला निरंकुश भोगवादी रोगों की चपेट में आए बिना नहीं रहता। इनकी चिकित्सा नैतिकता की नीति के सिवा और कुछ भी नहीं।
       
  कभी- कभी तो ये रोग इतने विचित्र होते हैं कि इन्हें महावैद्य भी समझने में विफल रहते हैं। घटना महाभिषक आर्य जीवक के जीवन की है। आर्य जीवक तक्षशिला के स्नातक थे। आयुर्विज्ञान में उन्होंने विशेषज्ञता हासिल की थी। गरीब- भिक्षुक से लेकर धनपति श्रेष्ठी एवं नरपति सम्राट सभी उनसे स्वास्थ्य का आशीष पाते थे। मरणासन्न रोगी को अपनी चमत्कारी औषधियों से निरोग कर देने में समर्थ थे आर्य जीवक। उनकी औषधियों एवं चिकित्सा के बारे में अनेकों कथाएँ- किंवदन्तियों प्रचलित थी। युवराज अभयकुमार एवं सम्राट बिम्बसार भी उनकी प्रशंसा करते नहीं थकते थे।
        
 ऐसे समर्थ चिकित्सक जीवक अपने एक रोगी को लेकर चिन्तित थे। इस रोगी का रोग भी बड़ा विचित्र था। यूं तो वह सभी तरह से स्वस्थ था, बस उसे तकलीफ इतनी थी कि उसकी दायीं आँख नहीं खुलती थी। इस परेशानी को लेकर जीवक अपनी सभी तरह की चिकित्सकीय पड़ताल कर चुके थे। कहीं कोई कमी नजर नहीं आ रही थी। शरीर के सभी अंगों के साथ आँख के सभी अवयव सामान्य थे। आर्य जीवक को समझ में नहीं आ रहा था- क्या करें? हार- थक कर उन्होंने अपनी परेशानी महास्थविर रेवत को कह सुनायी। महास्थविर रेवत भगवान् तथागत के समर्थ शिष्य थे। मानवीय चेतना के सभी रहस्यों को वह भली- भाँति जानते थे।
       
  जीवक की बातों को सुनकर पहले तो उन्होंने एकपल को अपने नेत्र बन्द किए, फिर हल्के से हँस दिए। जीवक उनके मुख से कुछ सुनने के लिए बेचैन थे। उनकी बेचैनी को भांपते हुए महाभिक्षु रेवत ने कहा- महाभिषक जीवक, तुम्हारे रोगी की समस्या शारीरिक नहीं मानसिक है। उसने अपने जीवन में नैतिकता की नीति की अवहेलना की है। इसी वजह से वह मानसिक ग्रन्थि का शिकार हो गया है। उसकी मानसिक परेशानी ही इस तरह शारीरिक विसंगति के रूप में प्रत्यक्ष है। इसका समाधान क्या है आर्य? जीवक बोले। इसे लेकर तुम भगवान् बुद्ध के पास जाओ। प्रभु के प्रेम की ऊष्मा से इसे अपनी मनोग्रन्थि से मुक्ति मिलेगी। और यह ठीक हो जाएगा।

          जीवक उसे लेकर भगवान् के पास गए। भगवान् के पास पहुँचते ही उस रोगी युवक ने अपने मन की व्यथा प्रभु को कह सुनायी। अपने अनैतिक कार्यों को प्रभु के सामने प्रकट करते हुए उसने क्षमा की प्रार्थना की। भक्तवत्सल भगवान् ने उसे क्षमादान करते हुए कहा- वत्स नैतिक मर्यादाएँ हमेशा पालन करनी चाहिए। आयु, वर्ग, योग्यता, देश एवं काल के क्रम में प्रत्येक युग में नैतिकता की नीति बनायी जाती है। इसका आस्थापूर्वक पालन करना चाहिए। नैतिकता की नीति का पालन करने वाला आत्मगौरव से भरा रहता है। जबकि इसकी अवहेलना करने वालों को आत्मग्लानि घेर लेती है।
       
  प्रभु के वचनों ने उस युवक को अपार शान्ति दी। उसे अनायास ही अपनी मनोग्रन्थि से छुटकारा मिल गया। जीवक को तब भारी अचरज हुआ, जब उन्होंने उसकी दायीं आँख को सामान्यतया खुलते हुए देखा। अचरज में पड़े जीवक को सम्बोधित करते हुए भगवान् तथागत ने कहा- आश्चर्य न करो वत्स जीवक, नैतिकता की नीति स्वास्थ्य की उत्तम डगर है। इस पर चलने वाला कभी अस्वस्थ नहीं होता। वह स्वाभाविक रूप से शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ होता है। जो इसे जानते हैं, वे कर्मसु कौशलम् के रहस्य को जानते हैं।

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