आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति

अचेतन की चिकित्सा करने वाला एक विशिष्ट सैनिटोरियम

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आध्यात्मिक चिकित्सा केन्द्र के रूप में शान्तिकुञ्ज द्वारा की जा रही सेवाएँ विश्वविदित हैं। ब्रह्ममुहूर्त से ही यहाँ मानवीय चेतना के जागरण के स्वर ध्वनित होने लगते हैं। गायत्री महामंत्र के जप एवं भगवान् सूर्य के ध्यान के साथ यहाँ रहने वाले व यहाँ आये अनगिन साधक अरुणोदय का अभिनन्दन करते हैं। और इन्हीं क्षणों में मिलती है उन्हें उस प्रकाश दीप की प्रेरणा जिसे शान्तिकुञ्ज के संस्थापक ने सन् १९२६ ई. के वसन्त पर्व पर देवात्मा हिमालय की दिव्य विभूति की साक्षी में जलाया था। जो तब से लेकर अब तक अखण्ड जलते हुए असंख्य जनों को प्रकाशभरी प्रेरणाएँ बाँट रहा है। अनन्त अनुभूतियाँ इसकी साक्षी में उभरीं और चिदाकाश की धरोहर बनी हैं। यह अविरल कथा- गाथा आज भी कही जा रही है।

          सूर्योदय के साथ ही इसके मद्धम स्वर मेघमन्द्र हो जाते हैं। शिवालिक पर्वतमालाओं की घाटियों में बसे शान्तिकुञ्ज के मध्य बनी यज्ञशाला में वैदिक मंत्रों के सविधि सस्वर गान के साथ स्वाहा की गूँज उभरती है तो न जाने कितने लोगों की शारीरिक- मानसिक व्याधियाँ एक साथ भस्म हो जाती हैं। यह स्वाहा का महाघोष ऐसा होता है जैसे भगवान् महाकाल ने विश्व के महारोगों को भस्मीभूत करने के लिए महास्वाहा का उच्चारण किया हो। पवित्र यज्ञ के अनन्तर यहाँ आये हुए लोग विशिष्ट साधकों के पवित्र वचनों को सुनते हैं। इससे उनकी विचार चेतना नया प्रशिक्षण पाती है। इन विचार औषधियों के बाद उन्हें माँ गायत्री का महाप्रसाद मिलता है।

          महाप्रसाद के अनन्तर साधक- साधिकाएँ यहाँ अपने प्रशिक्षण का नया क्रम प्रारम्भ करते हैं। इसके द्विआयामी दृश्य है। पहले आयाम में नव दिवसीय सत्र के कार्यक्रम हैं जो व्यक्ति की आत्मचेतना को परिष्कृत व प्रशिक्षित करने के लिए हैं। दूसरा आयाम एक मासीय सत्र के कार्यक्रमों का है, जो सामूहिक लोकचेतना को परिष्कृत व प्रशिक्षित करने के लिए है। यह प्रशिक्षण सम्पूर्ण दिवस चलता रहता है। साँझ होते ही भगवान् भुवन भास्कर तो विश्व के दूसरे गोलार्ध को प्रकाशित करने चले जाते हैं। परन्तु जाते- जाते वे यहाँ के साधकों को आशीष देना नहीं भूलते। उनके आशीष की यह लालिमा काफी समय तक साधकों के मन को अपने रंग में रँगती रहती है।

           इसी के साथ साधकों के रंग में रँगी साँझ साधकों के अन्तर्गगन में विलीन होती है। और निशा के प्रथम प्रहर में साधकों के प्रशिक्षण का शेष भाग पूरा होता है। इसके बाद सभी विधाता का स्मरण करते हुए निद्रालीन होने लगते हैं। लेकिन इनमें कुछ ऐसे होते हैं, जो अपने अन्तराल में सद्गुरु के संकेतों को पल- पल अवतरित होते हुए अनुभव करते हैं। इस अकथनीय अनुभवों के साथ उनकी निशीथ कालीन साधना प्रारम्भ होती है। ये साधक अपने आराध्य गुरुदेव को दिये गये वचन के अनुसार महानिशा में शयन को महापाप समझते हैं। जो सचमुच में साधक हैं वे महानिशा में कभी सोते नहीं। उनके लिए यह समय सघन साधना में विलीन विसर्जित होने के लिए है, न कि मोह निद्रा के महापाश में बँधने के लिए।

           सूक्ष्म में विद्यमान सद्गुरु की सत्ता के संकेतों के अनुसार संचालित ऐसों की साधना अदृश्य की प्राण ऊर्जा को सधन करती है। युगऋषि के महाप्राणों में विलीन होने वाले उनके प्रण दृश्य में प्रेरणा बनकर उभरते हैं। इन प्रेरणाओं से विचार तंत्र प्रशिक्षित होता है और व्यवहार रूपान्तरित। मानव जीवन में शान्तिकुञ्ज की अदृश्य संवेदनाएँ एवं दृश्य क्रियाकलाप चौंकाने वाले प्रभाव उत्पन्न करते हैं। ये प्रभाव किसी एक की विचार संकल्पना नहीं, बल्कि देव संस्कृति विश्वविद्यालय के अनेकों शोधार्थियों के अनुसंधान का निष्कर्ष है।

पिछले सत्र में देव संस्कृति विश्वविद्यालय के मानव चेतना व योग विज्ञान विभाग एवं नैदानिक मनोविज्ञान विभाग के विद्यार्थियों ने अपने लघुशोध अध्ययन के लिए शान्तिकुञ्ज को विषय चुना था। इन शोध करने वाले छात्र- छात्राओं की संख्या ७५ थी और इनमें से आधे से अधिक छात्र- छात्राओं के शोध की विषयवस्तु यही थी कि शान्तिकुञ्ज किस भाँति आध्यात्मिक चिकित्सा का कार्य कर रहा है। यहाँ का वातावरण, यहाँ का प्रशिक्षण, यहाँ की जीवनशैली किस भाँति यहाँ आने वाले लोगों की शारीरिक व मानसिक व्याधियों का शमन करते हैं।

          इसके लिए शोध छात्र- छात्राओं ने शान्तिकुञ्ज के आध्यात्मिक अनुभूतियों के काव्य को अध्यात्म के वैज्ञानिक प्रयोगों में रूपान्तरित किया। इस रूपान्तरण में उन्होंने शान्तिकुञ्ज की अदृश्य एवं दृश्य गतिविधियों के निम्र आयामों की व्याख्या की। इन शोध विद्यार्थियों ने इस आध्यात्मिक चिकित्सा केन्द्र में संवेदित अदृश्य के दिव्य स्पन्दनों को अभिप्रेरक कारकों (मोटीवेशन फैक्टर्स) के रूप में स्वीकारा। उन्होंने यहाँ स्वयं रहकर अनुभव किया कि शान्तिकुञ्ज में प्रवेश करते ही कोई दिव्य प्रेरणा हृदय में हिलोरे की तरह उठती है और आदर्शवादी दिशा में कुछ विशेष करने के लिए प्रेरित करती है। इनके अनुसार इन प्रेरणाओं में इतना प्राण बल होता है कि वे अभिवृत्तियों में परिवर्तन लाती हैं।

          इसी के साथ इन शोधार्थियों ने यह कहा कि शान्तिकुञ्ज के दृश्य क्रियाकलापों में सर्वप्रथम यहाँ चलने वाला प्रशिक्षण है। जिसे वैज्ञानिक भाषा ‘काग्रीटिव रिस्ट्रक्चरिंग  यानि कि बोध तंत्र का पुनर्निर्माण कह सकते हैं। व्यक्ति के जीवन की प्रधान समस्या है- विचार तंत्र की गड़बड़ी, जिसके कारण ही उसके जीवन में शारीरिक- मानसिक परेशानियाँ आ खड़ी हुई हैं। इन शोध विद्यार्थियों ने अपने शोध कार्यों में यह अनुभव किया है। शान्तिकुञ्ज के प्रशिक्षण के द्वारा सफलतापूर्वक काग्नीटिव रिस्ट्रक्चरिंग होती है। इससे चिंतन को नयी दृष्टि मिलती है और यहाँ आने वालों को मनोरोगों से छुटकारा मिलता है।

          शान्तिकुञ्ज के क्रियाकलापों का अगला आयाम यहाँ की जीवन शैली है। जिसे वैज्ञानिक भाषा में ‘बिहैवियरल मॉडीफिकेशन’ या व्यावहारिक बदलाव की प्रक्रिया कहा जा सकता है। यह सच है कि व्यावहारिक तकनीकों द्वारा मनुष्य को अनेकों रोगों से मुक्त किया जा सकता है। शान्तिकुञ्ज की जीवनशैली के ये चमत्कार शोध प्रयासों के निष्कर्ष के रूप में सामने आये। इन निष्कर्षों में पाया यही गया है कि यहाँ नौ दिवसीय एवं एक मासीय में आने वाले लोग असाधारण रूप से अपने शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य को उपलब्ध करते हैं। एक- दो नहीं, दो दर्जन से भी अधिक शोध निष्कर्षों से आध्यात्मिक चिकित्सा केन्द्र के रूप में शान्तिकुञ्ज की सफलता प्रभावित हुई है और यह सब इस महान् ऊर्जा केन्द्र के संस्थापक आध्यात्मिक चिकित्सा के परमाचार्य युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव की सक्रिय तपश्चेतना का सुफल है।
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