आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति

चिकित्सक का व्यक्तित्व तपःपूत होता है

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
चिकित्सक और रोगी के सम्बन्ध पवित्रता एवं प्रामाणिकता के तन्तुओं से बुने होते हैं। चिकित्सा की प्रणाली चाहे कोई हो अथवा फिर रोगी की प्रकृति किसी तरह की हो, सम्बन्धों का आधार यही होता है। हां आध्यात्मिक चिकित्सा के क्षेत्र में यह पवित्रता व प्रामाणिकता अपेक्षाकृत शत- सहस्रगुणित सघन हो जाती है। क्योंकि आध्यात्मिक चिकित्सा में चिकित्सक का व्यक्तित्व तप साधना की ऊर्जा तरंगों से ही विनिर्मित होता है। और तप की परिभाषा व तपस्वी होने का पर्याय ही पवित्रता है। व्यक्तित्व में पवित्रता जितनी बढ़ती है, आध्यात्मिक पात्रता उतनी ही विकसित होती है। इसी के अनुपात में व्यक्ति की प्रामाणिकता भी बढ़ती जाती है। यही वे तत्त्व हैं जो रोगी को अपने चिकित्सक के प्रति आस्थावान बनाते हैं।

          वैसे भी इन सम्बन्धों को निभाने की, गरिमापूर्ण बनाने की ज्यादा जिम्मेदारी चिकित्सक की होती है। वैसे भी रोगी तो रोगी ठहरा। उसका जीवन तो अनेकों शारीरिक- मानसिक दुर्बलताओं से ग्रसित होता है। ये दुर्बलताएँ एवं कमजोरियाँ ही तो उसे रोगी बनाती हैं। उसके अटपटे आचरण को क्षमा के योग्य माना जा सकता है। किन्तु चिकित्सक की कोई भी कमी- कमजोरी सदा अक्षम्य होती है। उसे अपनी किसी भूल के लिए कभी क्षमा नहीं किया जा सकता। यही वजह है कि चिकित्सक को अपनी पवित्रता व प्रामाणिकता सदा कसौटी पर कसते हुए खरा साबित करते रहना चाहिए। उसमें तनिक सा खोटापन असहनीय है। इसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।

          चिकित्सक के संवेदन सूत्रों से रोगी का जुड़ाव होता है। उसकी संवेदना पर भरोसा करके ही रोगी अपनी परेशानी कहने- बताने की हिम्मत जुटा पाता है। इस संसार में सबसे ज्यादा कमी अपनेपन की है। रोगी के जो अपने सम्बन्ध है, जरूरी नहीं कि वहाँ वह अपनी व्यथा कह पाता हो। क्योंकि अपने और अपनों का खोखलापन जगविदित है। कभी- कभी तो सम्बन्धों का यह खोखलापन खालीपन ही उसके रोग का कारण होता है। अपनी वे बातें जो रोगी कहीं नहीं कह सका, वे दुःख- दर्द जिन्हें किसी से नहीं बाँट सका, व्यथा की वह कहानी जो अनकही रह गयी केवल अपने चिकित्सक को बताना- सुनाना चाहता है। चिकित्सक की संवेदना के बलबूते ही वह ऐसा करने की हिम्मत जुटा पाता है। रोगी के लिए चिकित्सक से अधिक उसका अपना कोई नहीं होता। इसलिए चिकित्सक का कर्तव्य है कि वह सम्बन्ध सूत्रों की दृढ़ता को बनाए रखे।

          इस दृढ़ता के लिए चिकित्सक में संवेदनशीलता के साथ सहिष्णुता भी जरूरी है। वैसे तो यह अनुभूत सच है कि संवदनशीलता, सहिष्णुता, सहनशीलता को विकसित करती है। फिर भी इसके विकास पर विशेष ध्यान देना आवश्यक है। क्योंकि रोगी अवस्था में व्यक्ति शारीरिक रूप से असहाय होने के साथ मानसिक रूप से चिड़चिड़ा हो जाता है। उसमें व्यावहारिक असामान्यताओं का पनपना सामान्य बात है। यदा- कदा तो ये व्यावहारिक असामान्यताएँ इतनी अधिक असहनीय होती हैं, जिन्हें उसके सगे स्वजन भी नहीं सहन कर पाते। उनकी भी यही कोशिश होती है कि अपने इस रोगी परिजन को किसी चिकित्सक के पल्ले बांधकर अपना पीछा छुड़ा लें। ऐसे में चिकित्सक की सहनशीलता उसकी चिकित्सा विधियों को असरदार एवं कारगर बना सकती है।

          यूं तो सम्बन्धों का स्वरूप कोई भी हो, पर सम्बन्ध सूत्र हमेशा ही कोमल- नाजुक होते हैं। पर चिकित्सक एवं रोगी के सम्बन्ध सूत्रों की कोमलता व नाजुकता कुछ ज्यादा ही बढ़ी- चढ़ी होती है। थोड़ा सा भी आघात इन्हें हमेशा के लिए तहस- नहस कर सकता है। ऐसे में चिकित्सक को विशेष सावधान होना जरूरी है। क्योंकि रोगी के विगत अनुभवों की कड़वाहट उसे अपनी चिकित्सा साधना से धोनी होती है। कई बार रोगी के पिछले अनुभव अति दुःखद होते हैं। इनकी पीड़ा उसे हमेशा सालती रहती है। विगत में मिले हुए अपमान, लांछन, कलंक, धोखे, अविश्वास को वह भूल नहीं पाता। यहाँ तक कि उसका सम्बन्धों एवं अपनेपन से भरोसा उठ चुका होता है। ऐसी स्थिति में वह चिकित्सक को भी अविश्वसनीय नजरों से देखता है। उसे भी बेइमान व धोखेबाज समझता है। बात- बात पर उस पर चिड़चिड़ाता व गाली बकता है। उसकी इस मनोदशा को सुधारना व संवारना चिकित्सक का काम है। संवेदनशील सहनशीलता का अवरिाम प्रवाह ही यह चमत्कार कर सकता है।

स्थिति जो भी हो रोगी कुछ भी कहे या करे, उसके प्रत्येक आचरण को भुलाकर उसकी चिकित्सा करना चिकित्सक का धर्म है, उसका कर्तव्य है। आध्यात्मिक चिकित्सक के लिए तो उसकी अनिवार्यता और भी बढ़ी- चढ़ी है। सच्चा आध्यात्मिक चिकित्सक वही है जो रोगी की अनास्था को आस्था में, अविश्वास को विश्वास में, अश्रद्धा को श्रद्धा में, द्वेष को मित्रता में, घृणा को प्रेम में बदल दे। इसी को उसके तपस्वी व्यक्तित्व एवं आध्यात्मिक रूप से ऊर्जावान होने का प्रमाण माना जा सकता है। हर युग में आध्यात्मिक चिकित्सा वही करते रहे हैं। महाप्रभु चैतन्य ने जघाई- मघाई के साथ यही किया था। योगी गोरखनाथ ने दस्यु दुर्दम के साथ यही चमत्कार किया था। स्वयं युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव ने हजारों रोगियों की इसी विधि से चिकित्सा की। डाकू अंगुलीमाल की महात्मा बुद्ध के द्वारा की गयी आध्यात्मिक चिकित्सा को सभी जानते हैं। यह सत्य कथा आज भी किसी आध्यात्मिक चिकित्सक के लिए आदर्श है।

          अंगुलीमाल क्रूर व निर्मम दस्यु था। उसके बारे में यह प्रचलित था कि वह मिलने वालों को मारकर उसकी तर्जनी अंगुली काट लेता है। ऐसी अनगिनत अंगुलियों को काट कर उसने माला बना रखी थी। सेनाएँ उससे डरती थीं। स्वयं कोशल नरेश प्रसेनजित उससे भय खाते थे। उसकी निर्ममता- क्रूरता एवं हत्यारे होने के सम्बन्ध में अनेकों लोक कथाएँ जन- जन में कही- सुनी जाती थी। लेकिन जब इन किवदन्तियों को बुद्ध ने सुना तो उन्हें अंगुलीमाल में एक हत्यारे के स्थान पर मनोरोगी नजर आया। भगवान् तथागत ने सम्पूर्ण तत्परता के साथ उसकी स्थिति का ऑकलन कर लिया। उन्होंने सोचा अंगुलीमाल की यह दशा किन्हीं क्रियाओं की प्रतिक्रिया है। न जाने कितनों ने कितनी बार उसकी भावनाओं को आहत किया होगा। कितनी बार उसका दिल दुखा होगा। कितनी बार उसकी संवेदनाएँ कुचली, मसली और रौंदी गयी होगी। अंगुलीमाल का वह दर्द जिसे अब तक कोई महसूस न कर सका, भगवान् बुद्ध ने पलक झपकते इसे अपने प्राणों में अनुभव कर लिया।

अंगुलीमाल की पीड़ा उनके अपने प्राणों की पीर बन गयी और वह चल पड़े। वन में उन्हें देखते ही अंगुलीमाल ने अपना गंडासा उठाया, पर बुद्ध खड़े रहे। उनकी आँखों से करूणा झलकती रही। अंगुलीमाल उन्हें डांटता, डपटता, धमकाता रहा, बुद्ध उसे सुनते- सहते रहे। अन्त में जब वह चुप हो गया तो उन्होंने कहा- वत्स तुमको सबने बहुत सताया है। अनगिन लोगों ने अनगिन बार तुम्हारी भावनाओं को चोट पहुँचाई है। मैं तुम्हारे दर्द को बांटने आया हूँ। करूणा से सने ऐसे स्वरों को अंगुलीमाल ने कभी न सुना था। उसने तो सिर्फ घृणा, उपेक्षा एवं अपमान के दंश झेले थे, पर बुद्ध के स्वरों में तो मां की ममता छलक रही थी। उनके ज्योतिपूर्ण नेत्रों से तो उसके लिए सिर्फ प्रेम छलक रहा था।

          पल भर में उस दस्यु कहे जाने वाले पीड़ित मानव के आवरण गिर गए। उसका व्यक्तित्व भगवान् तथागत की करूणा से स्नात हो गया। एक क्षण में अनेकों चमत्कार घटित हो गए। अनास्था आस्था में बदली, अविश्वास विश्वास में, अश्रद्धा श्रद्धा में बदली तो द्वेष मित्रता में और घृणा प्रेम में परिवर्तित हो गयी। दस्यु का व्यक्तित्व भिक्षु के व्यक्तित्व में रूपान्तरित हो गया। लेकिन इस रूपान्तरण का स्रोत आध्यात्मिक चिकित्सक के रूप में बुद्ध का व्यक्तित्व था। जिन्होंने उस मानसिक रोगी के अन्तर्मन को अपनी पवित्रता एवं प्रामाणिकता के धागों से जोड़ लिया था। बाद में विज्ञजनों ने कहा कि वह क्षण ही विशेष था, जिसे भगवान् ने अंगुलीमाल के रूपान्तरण के लिए चुना था। यही कारण है कि यह भी सच है कि आध्यात्मिक चिकित्सा की सफलता के लिए कोई ज्योतिष की उपादेयता को नकार नहीं सकता।
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118