प्रारब्ध के सुयोग- दुर्योग जीवन में सुखद- दुःखद परिस्थितियों की सृष्टि करते हैं। प्रारब्ध का सुयोग उदय होने से अनायास ही सुख- सौभाग्य एवं स्वास्थ्य की घटाएँ छा जाती है। जबकि कहीं यदि प्रारब्ध का दुर्योग उदय हुआ तो जीवन में दुःख- दुर्भाग्य एवं रोग- शोक की घटाएँ घिरने लगती हैं। मानव जीवन में प्रारब्ध का यह सिद्धान्त भाग्यवादी कायरता नहीं बल्कि आध्यात्मिक दृष्टि की सूक्ष्मता व पारदर्शिता है। यह ऐसा सच है जिसे हर पल- हर क्षण सभी अनुभव करते हैं। सुख- दुःख के हिंडोले में झूलते हुए इनमें से कुछ इस सच्चाई को पारम्परिक रूप से स्वीकारते हैं। जबकि कई अपनी बुद्धिवादी अहमन्यता के कारण इसे सिरे से नकार देते हैं। थोड़े से तपस्वी एवं विवेकी लोगों को आध्यात्मिक दृष्टि प्राप्त होती है, वे इस सूक्ष्म सत्य को साफ- साफ देख पाते हैं। इसे पूरी पारदर्शिता के साथ अनुभव करते हैं।
जिन्हें यह अनुभूति होती है और हो रही है वे इस सम्बन्ध में सभी के सभी तरह के सवालों का जवाब देने में सक्षम हैं। ज्यादातर जनों की जिज्ञासा होती है- प्रारब्ध है क्या? तो इसका सरल समाधान है- प्रारब्ध का अर्थ है- परिपक्व कर्म। हमारे पूर्वकृत कर्मों में जो जब जिस समय परिपक्व हो जाते हैं, उन्हें प्रारब्ध की संज्ञा मिल जाती है। यह सिलसिला कालक्रम के अनुरूप चलता रहता है। इसमें वर्ष भी लगते हैं और जन्म भी। कई बार क्रिया भाव में और विचारों का इतना तीव्रतम संयोग होता है कि वे तुरन्त, प्रारब्ध कर्म का रूप ले लेते हैं। और अपना फल प्रकट करने में सक्षम सिद्ध होते हैं। ये पंक्तियाँ अपने पाठकों को थोड़ा अचरज में डाल सकती है। किन्तु यह सभी तर्कों से परे अनुभूत सत्य है।
आध्यात्मिक चिकित्सा में प्रारब्ध के स्वरूप एवं सिद्धान्त को समझना बहुत महत्त्वपूर्ण है। इस क्रम में सबसे प्रथम बिन्दु यह है कि हमारे द्वारा किया जाने वाला प्रत्येक कर्म अविनाशी है। यह अच्छा हो या बुरा समयानुसार परिपक्व होकर प्रारब्ध में बदले बिना नहीं रहेगा। और प्रारब्ध का अर्थ ही है वह कर्म जिसका फल भोगने से हम बच नहीं सकते। इसे सामान्य जीवन क्रम के बैंक और उसके फिक्स डिपॉजिट के उदाहरण से समझा जा सकता है। हम सभी जानते हैं कि बैंक में अपने धन को निश्चित समय अवधि में जमा करने की प्रथा है। इस प्रक्रिया में अलग- अलग जमा पूंजी एक निश्चित अवधि में डेढ़ गुनी- दो गुनी हो जाती है। इस प्रकार बैंक में हम अपने ढाई हजार रुपये जमा करके पांच साल में पांच हजार पाने के हकदार हो जाते हैं।
बस यही प्रक्रिया कर्मबीजों की है- जो जीवन चेतना की धरती पर अंकुरित, पल्लवित और पुष्पित होकर अपना फल प्रकट करने की स्थिति में आते रहते हैं। कौन कर्म किस समय फल बनकर सामने आएगा? इसमें कई कारक क्रियाशील होते हैं। उदाहरण के लिए सबसे पहले कर्म की तीव्रता क्या है? कितनी है? ध्यान देने की बात यह है कि प्रत्येक क्रिया कर्म नहीं होती। जो हम अनजाने में करते हैं, जिसमें हमारी इच्छा या संकल्प का योग नहीं होता, उसे कर्म नहीं कहा जा सकता। इसका कोई सुफल या कुफल भी नहीं होगा। इसके विपरीत जिस क्रिया में हमारी इच्छा एवं संकल्प का सुयोग जुड़ता है, वह कर्म का रूप धारण करती है। और इसका कोई न कोई फल अवश्य होता है।
हमारे कर्म की तीव्रता का आधार होते हैं भाव एवं विचार। क्योंकि इन्हीं से इच्छा एवं संकल्प की सृष्टि होती है। इच्छा और संकल्प के तीव्र व सबल होने पर कर्म भी प्रबल हो जाते हैं। ऐसे प्रबल कर्म अल्प समयावधि में प्रारब्ध में परिवर्तित होकर अपना फल देने की स्थिति में आ जाते हैं। जबकि सामान्य इच्छा के साथ की जाने वाली क्रियाएँ कर्म तो बनती है, परन्तु प्रारब्ध के रूप में इनका रूपान्तरण काफी लम्बे समय बाद होता है। कभी- कभी तो इनके प्रारब्ध बनने में जन्म एवं जीवन भी लग जाते हैं। यहाँ जो बताया जा रहा है वह सुपरीक्षित सत्य है। इसे बार- बार अनुभव किया गया है।
इस सिद्धान्त के अनुसार आध्यात्मिक कर्म, तप आदि साधनात्मक प्रयोग तीव्रतम कर्म माने गए हैं। क्योंकि इनमें भावों एवं विचारों की तीव्रता अधिकतम होती है। इच्छा और संकल्प प्रबलतम होते हैं। ऐसे कर्मों का जब सविधि अनुष्ठान किया जाता है, तो वे तुरन्त ही प्रारब्ध में परिवर्तित होकर अपने फल को प्रकट कर देते हैं। कोई भी अवरोध इसमें आड़े नहीं आता। जिनके कठिन तप प्रयोगों का अभ्यास है, उनके लिए यह नित्य प्रति का अनुभव है। वे अपने दैनिक जीवन में इस सत्य का साक्षात्कार करते रहते हैं।
प्रारब्ध के सिद्धान्त एवं विज्ञान में एक महत्त्वपूर्ण सच और भी है। वह यह कि कर्म बीज से प्रारब्ध बनने की प्रक्रिया यदि अभी पूरी नहीं हो सकी है तो उसे किसी विशेष आध्यात्मिक प्रयोग से कम किया जा सकता है अथवा टाला जा सकता है। परन्तु यदि यह प्रक्रिया पूरी हो गयी है और प्रारब्ध ने अपना पूर्ण आकार ले लिया है तो फिर यह अटल और अनिवार्य हो जाता है। फिर इसमें थोड़ा बहुत परिवर्तन भले कर दिया जाय, परन्तु इसका टल पाना किसी भी तरह सम्भव नहीं हो पाता।
ऐसी ही एक घटना यहाँ शब्दों में पिरोयी जा रही है। वर्षों पूर्व घटी इस घटना में एक बच्चे के माता- पिता, परम पूज्य गुरुदेव के पास आए। उनके साथ उनका बच्चा भी था। जो कुछ समय से ज्वर से ग्रसित था। यह ज्वर था कि किसी चिकित्सक की औषधि से ठीक ही नहीं हो रहा था। हां, इसके दुष्प्रभाव हाथ, पांव सहित समूचे शरीर पर पड़ने शुरू हो गए थे। एक तरीके से उसका शरीर लुंज- पुंज हो गया था। बच्चे की दिमागी हालत भी बिगड़ने लगी थी। समूचा स्नायु संस्थान निष्क्रिय पड़ता जा रहा था। माता- पिता ने अपने बच्चे की सारी व्यथा गुरुदेव को कह सुनायी। उन्होंने सारी बातें ध्यान से सुनी और मौन हो गए।
बच्चे के माता- पिता बड़ी आशा भरी नजरों से उनकी ओर देख रहे थे। पर यहाँ गुरुदेव की आँखें छलक उठी थीं। वह उस बच्चे की पीड़ा से, माता- पिता के सन्ताप से विह्वल हो गए थे। थोड़ी देर बाद वह भाव भरे मन से उन लोगों से बोले, बेटा- तुम लोगों ने हमारे पास आने में देर कर दी। इसके प्रारब्ध का दुर्योग अब एकदम पक गया है। ऐसी स्थिति में कुछ भी करना सम्भव नहीं। वैसे भी यह बच्चा है, यदि हम इस पर अपनी विशेष आध्यात्मिक ऊर्जा का प्रयोग करेंगे तो इसका शरीर सह नहीं पाएगा। बहुत सम्भव है कि यह मर ही जाए।
गुरुदेव की इन बातों ने माता- पिता को निस्पन्द कर दिया। वे निराशा से विगलित हो गए। उन्हें इस तरह पीड़ित देखकर गुरुदेव बोले, तुम लोग मेरे पास आए हो, तो इस असम्भव स्थिति में थोड़ा- बहुत तो मैं करूँगा ही। इसमें पहली चीज तो यह कि बच्चे का दिमाग एकदम ठीक हो जाएगा। अपाहिज स्थिति में भी यह प्रतिभावान होगा। अभी जो यह लगभग गूँगा हो गया है, आपसे बातचीत कर सकेगा। शारीरिक अपंगता की यह स्थिति होने के बावजूद इसमें कई तरह के कौशल विकसित होंगे। बस बेटा! इस स्थिति में इसके लिए इससे ज्यादा कुछ भी सम्भव नहीं। गुरुदेव के इन शब्दों ने बच्चे के माता- पिता को जैसे वरदान दे दिया। थोड़े ही महीने के बाद पूज्य गुरुदेव की आध्यात्मिक ऊर्जा के प्रभाव उस बच्चे के जीवन में प्रकट हुए।
अपाहिज होते हुए भी वह प्रतिभावान कलाकार बना। उसके प्रारब्ध का अटल दुर्योग टला तो नहीं पर पूज्य गुरुदेव की आध्यात्मिक चिकित्सा ने उसे रूपान्तरित तो कर ही दिया। इस आश्चर्यजनक प्रक्रिया के संकेत आज भी महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक ग्रन्थों में देखे जा सकते हैं।