आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति

आध्यात्मिक निदान- पंचक

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रोग निदान- रोगी की चिकित्सा का आधार है। इसी के सहारे रोगी के लिए औषधि, अनुपान, पथ्यापथ्य आहार एवं जीवन क्रम का निर्धारण हो पाता है। इसमें थोड़ी सी भूल- चूक होने पर चिकित्सा का सारा सरंजाम लड़खड़ा जाता है। यही नहीं कभी- कभी तो स्वास्थ्य का वरदान देने वाली चिकित्सा प्रणाली जानलेवा भी सिद्ध होती है। इसी वजह से प्रत्येक चिकित्सा पद्धति ने अपने ढंग से रोग निदान की अचूक विधियों की खोज की है। इसके कारगर तरीकों का अनुसन्धान एवं विकास किया है। क्योंकि चिकित्सा प्रणाली कोई भी हो, इसकी सफलता या विफलता का सारा दारोमदार सही व सटीक रोग निदान पर निर्भर करता है। स्थिति तो यहाँ तक है कि आज रोग निदान की अचूक विधियों को ही चिकित्सा प्रणाली की सफलता की गारन्टी के रूप में माना जाने लगा है।

          जिसे हम आधुनिक चिकित्सा पद्धति कहते हैं, उसने अपनी सफलता के लिए रोग निदान की अत्याधुनिक तकनीकें विकसित की हैं। कई चिकित्सालयों एवं चिकित्सा संस्थानों ने तो इसी के लिए अपनी प्रसिद्धि हासिल की है, कि उनके यहाँ रोग निदान का यह ढांचा कितना चुस्त- दुरुस्त एवं मजबूत है। सामान्य रोगी परीक्षण या रोग निदान की क्लीनिकल विधियों से लेकर पेथोलोजिकल विधियाँ या फिर सी- टी. स्कैन, एम.आर. आई. के मंहगे उपकरण इसी महत्त्वपूर्ण उद्देश्य के लिए तत्पर रहते हैं। अपने- अपने ढंग से चिकित्सकों की कोशिश यही रहती है कि इसमें किसी तरह की कोई भूल- चूक न होने पाए।

चिकित्सा प्रणाली कोई भी हो, पर रोग निदान के एकदम सटीक होने की कोशिश सभी जगह हैं। आयुर्वेद में वात, पित्त एवं कफ प्रकृति को ध्यान में रखकर रोग निदान करने की परम्परा है। उसके लिए नाड़ी परीक्षण एवं निदान पंचक आदि की प्रक्रियाएँ अपनायी जाती हैं। इसके निष्कर्षों के आधार पर ही रोगी की चिकित्सा का सरंजाम किया जाता है। होमियोपैथी में यह परिदृश्य थोड़ा अलग ढंग का है, इसमें रोगी की शारीरिक स्थिति के साथ उसकी मनोदशा का भी परीक्षण करते हैं। इन प्रचलित एवं पारम्परिक चिकित्सा प्रणालियों के अलावा वैकल्पिक चिकित्सा प्रणालियों के जो आयाम इन दिनों विकसित हुए हैं, उन सभी में कहीं न कहीं रोग निदान की समुचित विधि व्यवस्था की गयी है। क्योंकि जब निदान ही नहीं तो समाधान किस व्याधि का।

          आध्यात्मिक चिकित्सा के क्षेत्र में रोग निदान का परिदृश्य थोड़ा अधिक व्यापक है। इसमें प्रचलित व पारम्परिक तरीकों से अलग हटकर इसका तंत्र विकसित किया गया है। इसका कारण यह है कि आध्यात्मिक दृष्टि मानवीय जीवन को समग्रता एवं परिपूर्णता से देखने पर विश्वास करती है। उसका जोर किसी एक आयाम पर नहीं है, बल्कि दृश्य- अदृश्य सभी आयामों पर समान रूप से है। इसी को ध्यान में रखकर इसकी रोग निदान विधियों को विकसित किया गया है। ताकि रोग की जड़ें कितनी भी गहरी क्यों न हो, उन्हें उखाड़ा और नष्ट किया जा सके।

          इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए आध्यात्मिक चिकित्सा के, रोग निदान के पांच आयामों का ताना- बाना बुना गया है। आयुर्वेद- निदान पंचक की भाँति इसे आध्यात्मिक निदान- पंचक नाम दिया जा सकता है। इसके अन्तर्गत आध्यात्मिक चिकित्सक रोगी के व्यक्तित्व के पांच तत्त्वों का परीक्षण करते हैं। इनमें से पहला है व्यवहार, २. चिन्तन, ३. संस्कार, ४. प्रारब्ध एवं ५. पूर्वजन्म के दोष- दुष्कर्म। इन पांच का परीक्षण करके रोग का सही निदान कर लिया जाता है। जहाँ तक इन पाँच तत्त्वों का प्रश्र है, तो आध्यात्मिक चिकित्सा के लिए इन सभी का व्यापक महत्त्व है। हालांकि इनमें एक को छोड़कर बाकी सभी आयाम अदृश्य हैं, जो आध्यात्मिक दृष्टि एवं शक्ति के बिना देखे एवं जाने नहीं जा सकते। लेकिन इन अदृश्य तथ्यों को जाने बिना आध्यात्मिक चिकित्सा भी तो सम्भव नहीं है।

          इसमें से पहले यानि कि व्यवहार के अन्तर्गत रोगी की शारीरिक पीड़ा- परेशानी अथवा मानसिक दुःख- दर्द का लेखा- जोखा उसके व्यवहार की स्थिति के आधार पर करते हैं। इस सबसे उसके चिन्तन चेतना पर पड़े हुए प्रभावों की पड़ताल, चिन्तन प्रक्रिया की जाँच से की जाती है। तीसरे क्रम में संस्कार की परत अपेक्षाकृत गहरी है। इसकी जांच किसी भी मनोवैज्ञानिक परीक्षण के द्वारा सम्भव नहीं। इसे तो सीधे ही आध्यात्मिक दृष्टि एवं शक्ति से किया जाना होता है। ज्यादातर रोगों के कारण यहीं जड़ जमाए होते हैं। चौथे क्रम में प्रारब्ध की जाँच परख थोड़ी और जटिल होती है। यदि रोग के कारण हमारे बाह्य जीवन में कहीं नजर नहीं आ रहे। और इनका पता हमारे संस्कार क्षेत्र में नहीं चल रहा तो फिर प्रारब्ध की छान- बीन करनी ही पड़ती है।
       
  लम्बे समय तक यानि कि दस- पन्द्रह वर्षों तक चलने वाले रोग अथवा फिर एक के बाद एक नए कष्ट- कठिनाइयों का प्रकट होना प्रायः प्रारब्ध के ही कारण होता है। यहीं पर इनकी जड़ें होती हैं। यदि इस गहरी परत को सही ढंग से न जाना समझा गया तो रोग या कष्ट निवारण के सारे प्रयास धरे रह जाते हैं। पांचवे क्रम में आध्यात्मिक चिकित्सक को कतिपय विशेष रोगियों के रोग निवारण में यह भी जानना पड़ता है कि उसके जीवन में प्रारब्ध के ये दुर्योग क्यों आए। यह दुःखद प्रक्रिया आखिर चली ही क्यों? पिछले जन्मों के कौन से कर्म इसका कारण रहे हैं। पूर्वजन्मों के ज्ञान से ही इस सच का पता लगाया जा सकता है। ऐसा करके ही रोग के सटीक निदान एवं सार्थक समाधान तक पहुँचना सम्भव हो पाता है।

          आध्यात्मिक चिकित्सक के रूप में परम पूज्य गुरुदेव इन सभी प्रक्रियाओं में निष्णात व मर्मज्ञ थे। आध्यात्मिक निदान पंचक में उनकी विशेषज्ञता का पास रहने वालों को नित्यप्रति अनुभव होता था। यूं तो इस तरह के अनुभव एवं घटनाएँ तो हजारों हैं, पर यहाँ केवल एक घटना का उल्लेख किया जा रहा है। यह घटना एक ऐसे व्यक्ति से सम्बन्धित है जो गुरुदेव से वर्षों से जुड़ा हुआ था। वर्षों के सान्निध्य के बाजवूद उसका घर- परिवार रोग- शोक से घिरा था। आर्थिक स्थिति भी विपन्न थी। जब भी वह गुरुदेव के पास आता, अपनी परेशानी कहते हुए रोने लगता। गुरुदेव भी उसके दुःख से द्रवित हो जाते। कभी- कभी तो उनके आँसू भी छलक आते। यह भी कहते तुम परेशान न हो बेटा मैं तुम्हारे लिए प्रयास कर रहा हूँ। पर उनके इस कथन एवं आश्वासन के बावजूद उसके जीवन में कहीं कोई अच्छा होने के लक्षण नहीं नजर आ रहे थे।

          हार- थक कर एक दिन वह प्रयाग चला गया। वहाँ कुम्भ मेला लगा हुआ था। अनेकों सन्त- महात्मा यहाँ आए हुए थे। एक स्थान पर देवरहा बाबा का भी मचान लगा हुआ था। परेशान तो वह था ही। इस परेशानी को ओढ़े हुए वह उनके पास गया। उसे देखकर पहले तो उन्होंने आशीर्वाद का हाथ उठाया। फिर स्वयं ही बोले- तुम्हारा नाम रामनारायण है, फतेहपुर के रहने वाले हो, शान्तिकुञ्ज के आचार्य जी के शिष्य हो। अच्छा मेरे पास आओ। और उन्होंने भीड़ में से उसे बुलाकर अपना चरण उसके माथे पर रखा और कहा तुम इतने हैरान क्यों हों, तुम्हारे ऊपर आचार्य जी की कृपा है। तुम नहीं जानते कि वह बिना कुछ कहे तुम्हारे लिए क्या कुछ कर रहे हैं।

          यह कहते हुए वह थोड़ा रुके और बोले- तुम्हारे संस्कार, प्रारब्ध एवं पूर्वजन्म के कर्म भयावह हैं। अगर आचार्य जी की कृपा न होती तो तुम्हारा सभी कुछ तिनका- तिनका बिखर गया होता। न तुम बचते और न तुम्हारा परिवार। अब तक सब कुछ समाप्त हो चुका होता। आचार्य श्री दिव्य द्रष्टा हैं, वह सब कुछ जानते हैं और उचित उपाय कर रहे हैं। तुम सोचो कि तुम्हारे ऊपर उनका इतना स्नेह है कि अभी थोड़ी देर पहले वह सूक्ष्म रूप से हमारे पास आए थे, और उन्होंने कहा कि आप हमारे इस बच्चे को समझा दो कि उसका सब कुछ ठीक हो जाएगा। देवरहा बाबा की बातों ने सुनने वाले को अभिभूत कर दिया। समयानुसार शान्तिकुञ्ज आने पर उसने ये सारी बातें गुरुदेव को बतायी। सुनकर वह मुस्करा दिए। बस इतना बोले बेटा- तुम अभी मेरे अस्पताल में भरती हो। मैं एक अच्छे डाक्टर की तरह तुम्हारी देखभाल कर रहा हूँ। कुछ ही वर्षों बाद उसकी परिस्थितियाँ बदल गई। उसने चिकित्सक एवं रोगी के सम्बन्धों की पवित्र भावनाओं को अपने अन्तःकरण में महसूस किया।

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