आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति

आध्यात्मिक चिकित्सा का मूल है आस्तिकता

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आस्तिकता के अस्तित्व को झुठलाना सम्भव नहीं। यह इतना स्पष्ट है जितना कि हम स्वयं, हमारा अपना जीवन। जिन्हें जीवन की सम्पूर्णता का अहसास होता है, वे आस्तिकता की अनुभूति किए बिना नहीं रहते। जो आस्तिकता को नकारते हैं, दरअसल वे जिन्दगी को नकारते हैं, अपने आप को अस्वीकार करते हैं। आस्तिकता का मतलब है, जीवन के होने की सच्ची स्वीकारोक्ति, जीवन और जगत् के सम्बन्धों की सूक्ष्म व सघन अनुभूति। लोक प्रचलन में ईश्वर के प्रति विश्वास या आस्था को आस्तिकता का पर्याय माना जाता है। वैदिक विद्वान ‘नास्तिकोवेद निन्दकः’ कहकर वेदज्ञान के प्रति आस्था को आस्तिकता के रूप में परिभाषित करते हैं।

          अपने सार मर्म में, प्रचलन में एवं दर्शन में आस्तिकता के बारे में जो भी कुछ कहा गया है, वह एक ही सच के विविध रूप हैं। कथन और परिभाषाएँ अनेक होने पर भी आस्तिकता का सच एक ही है। जब हम आस्तिकता को ईश्वर के प्रति आस्था कहते हैं, तो इसका मतलब इतना ही है कि हमें समष्टि जीवन के प्रति, सर्वव्यापी अस्तित्व के प्रति आस्थावान होना चाहिए। यही बात वेदज्ञान के बारे में है। वेद का मतलब चार पोथियाँ नहीं हैं। बल्कि यह सत्यज्ञान एवं सत्य विद्या है। परम्परागत ढंग से सोचें तो प्राचीन ऋषिगणों ने जीवन और जगत् की सूक्ष्मताओं एवं गहनताओं का जो ज्ञान पाया वही वेदों में संकलित है। इसकी अवहेलना या उपेक्षा कर के हम जीवन के समग्र विकास को कभी भी नहीं पा सकते।

          बीते सालों में विज्ञान के नाम पर आस्तिकता को झुठलाने की अनेकों कोशिशें की गई। कई तरह के व्यंग, कटाक्ष एवं कटूक्तियाँ उच्चारित की गयीं। बात यहाँ तक बढ़ी कि नास्तिकता को वैज्ञानिकता का पर्याय माना जाने लगा। इस उलटी सोच ने अनेकों उलटे काम कराए। समष्टि जीवन चेतना को नकारने से स्वार्थपरता व अहंता को भारी बढ़ावा मिला। प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुंध दोहन हुआ। मानवीय अहंता की चपेट में आकर जीव- जन्तुओं की अनगिनत प्रजातियाँ नष्ट हुई। इसी के साथ प्राकृतिक संकटों के बादल भी घहराए। पर्यावरण संकट, मौसम के संकट, भाँति- भाँति की बीमारियाँ, महामारियाँ, आपदाएँ इन्सानी जिन्दगी को दबोचने की तैयारियाँ करने लगीं। स्वार्थलिप्सा से ग्रसित अहंकारी मानव को मनोरोगों ने भी धर पटका। यह सब हुआ क्यों? किस तरह? और कैसे? इन सवालों के जवाब की ढूँढ खोज में जब वैज्ञानिक जुटे तो उन्होंने अपने प्रयोगों के निष्कर्ष में यही पाया कि समष्टि चेतना के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता।

          वैज्ञानिक समुदाय को हार मानकर यह बात स्वीकारनी पड़ी कि जीवन के सभी तन्तु एक दूसरे से गहराई से गुँथे हैं। जीवन और जगत् अपनी गहराइयों में परस्पर जुड़े हैं। इन्हें अलग समझना भारी भूल है। ये वैज्ञानिक निष्कर्ष ही प्रकारान्तर से इकॉलॉजी, इकोसिस्टम, डीप इकॉलॉजी एवं इन्वायरन्मेटल साइकोलॉजी जैसी शब्दावली के रूप में प्रकाशित हुए। इन तथ्यों को यदि अहंकारी हठवादिता को त्यागते हुए स्वीकारें तो इसे आस्तिकता के अस्तित्व की स्वीकारोक्ति ही कहेंगे। इस वैज्ञानिक निष्कर्ष के बारे में युगों पूर्व श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया था- ‘सूत्रे मणिगणाइव’। यानि कि जीवन के सभी रूप एक परम दिव्य चेतना के सूत्र में मणियों की भाँति गुँथे हैं। उपनिषदों ने इसी सच्चाई को ‘अयमात्मा ब्रह्म’ कहकर प्रतिपादित किया। इसका मतलब यह है कि यह मेरी अन्तरात्मा ही ब्राह्मी चेतना का विस्तार है। इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि अपने जीवन का भाव भरा विस्तार ही यह जगत् है। अपने विस्तार में ही समष्टि है।

          उपनिषद् युग की इन अनुभूतियों को कई मनीषी इस वैज्ञानिक युग में भी उपलब्ध कर रहे हैं। और यही वजह है कि उन्होंने आस्तिकता को आध्यात्मिक चिकित्सा के सर्वमान्य सिद्धान्त के रूप में मान्यता दी है। इन्हीं में एक टी.एल. मिशेल का कहना है कि आस्तिकता से इन्कार जीवन चेतना को विखण्डित कर इसे अपंग- अपाहिज बना देता है। इस इन्कार से जीवन में अनेकों नकारात्मक भाव पैदा होते हैं, जिनके बद्धमूल होने से कई तरह के रोगों के होने की सम्भावना पनपती है। उनका यह भी मत है कि यदि आस्तिकता को सही अर्थों में समझा एवं आत्मसात कर लिया जाय तो निजी जिन्दगी में पनपती हुई कई तरह की मनोग्रन्थियों से छुटकारा पाया जा सकता है।

          इस सम्बन्ध में अंग्रेज पत्रकार एवं लेखक पॉल ब्रॉन्टन की अनुभूति बहुत ही मधुर है। कई देशों की यात्रा करने के बाद पॉल ब्रॉन्टन भारत वर्ष आए। अपनी खोजी प्रकृति के कारण यहाँ वे कई महान् विभूतियों से मिले। इनमें से कई सिद्ध और चमत्कारी महापुरुष भी थे। लेकिन ये सभी चमत्कार, अचरज से भरे करतब उनकी जिज्ञासाओं का समाधान न दे पाए। इन सारी भेंट मुलाकातों के बावजूद उनके सवाल अनुत्तरित रहे। मन जस का तस अशान्त रहा। वे अपने आप में आध्यात्मिक चिकित्सा की गहरी आवश्यकता महसूस कर रहे थे। पर यह सम्भव कैसे हो? अपने सोच- विचार एवं चिन्तन के इन्हीं क्षणों में उन्हें महर्षि रमण का पता चला।

          तमिलनाडु के तिरूवन्नामल्लाई स्थान पर साधना करने वाले योगिवर रमण। पवित्र पर्वत अरूणाचलम् में तप कर रहे सन्त रमण महर्षि। इस नाम ने उनके हृदय के तारों में एक मधुर झंकार पैदा कर दी। उन्हें ऐसा लगा जैसे कि महर्षि अपने अदृश्य स्वरों से उन्हें आमंत्रित कर रहे हों। स्वर अनजाने थे, पर पुकार आत्मीय थी। वह चल पड़े। कुछ एक दिनों में अपनी इस यात्रा को पूरा कर वह पवित्र पर्वत अरूणाचलम् के पदभ्रान्त में पहुँच गए। यहाँ पहुँचकर उन्हें पता चला कि महर्षि अभी अपनी गुफा में हैं। हो सकता है कि वे साँझ को नीचे उतरें। पॉल ब्रॉन्टन के लिए यह साँझ की प्रतीक्षा बड़ी कष्टकारी थी। फिर भी उन्होंने धैर्यपूर्वक यह समय गुजारा।

          प्रतीक्षा के क्षण बीतने पर महर्षि से उनकी मुलाकात हुई। इस मिलन के प्रथम क्षण में ही उन्होंने अपनी जिज्ञासा उड़ेल दी, आस्तिकता क्या है? ईश्वर है भी या नहीं? उनके इस सवालों पर महर्षि हँस पड़े और बोले- पहले यह बताओ कि तुम हो या नहीं और यदि तुम हो तो तुम कौन हो? उनके सहज प्रश्रों के उत्तर में महर्षि के अटपटे प्रश्र। पॉल ब्रॉन्टन कुछ कह सके, पर महर्षि के व्यक्तित्व की पारदर्शी सच्चाई ने उन्हें गहरे तक छू लिया। महर्षि की बातों में उन्हें सत्य का दर्शन हुआ। और वे मैं कौन हूँ? इस प्रश्र का समाधान पाने में जुट गए।

          पॉल ब्रान्टन की जिज्ञासा तीव्र थी। उनकी भावनाएँ सच्ची थी, फिर उनमें लगन की भी कोई कमी न थी। महर्षि का प्रश्र ही उनका ध्यान बन गया। वह अपने अस्तित्व की परत- दर भेदते हुए गहनता में उतरते चले गए। ज्यों- ज्यों वह अपनी गहराई में उतरते- उनका अचरज बढ़ता जाता। परिधि में सीमाएँ थीं, परन्तु केन्द्र में असीमता की अनुभूति थी। मैं की सच्ची पहचान में उन्हें ईश्वर की पहचान भी मिल गयी। आस्तिकता के अस्तित्व का बोध भी हो गया। जब वह वापस महर्षि के पास पहुँचे तो उनके होठों पर बड़ी करुणापूर्ण मुस्कान थी। पॉल ब्रॉन्टन को देखकर वह बोले, पुत्र आस्तिकता आध्यात्मिक चिकित्सा की एक विधि है। जीवन का सारा दुःख इसके अधूरेपन की अनुभूति में है। जब कोई इसे सम्पूर्णता में अनुभव करता है तो उसके सारे सन्ताप शमित हो जाते हैं। अपनी अन्तरात्मा में ही उसे परमात्मा की झाँकी मिलती है। स्वयं के जीवन में ही जगत् के विस्तार का बोध होता है। हालाँकि इस अनुभूति के लिए नैतिकता की नीति का अनुसरण करना जरूरी है।

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