आध्यात्मिक चिकित्सा की पुण्य परम्परा वैदिक ऋचाओं की गूंज के साथ ही प्रारम्भ हो गयी। अपने जीवन के ऊषाकाल से ही मनुष्य को विकृति एवं विरोधों से अनेकों संघर्ष करने पड़े। इन संघर्षों में कभी तो उसकी देह क्षत- विक्षत हुई तो कभी अन्तर्मन विदीर्ण हुआ। भावनाओं के तार- तार होने के भी अनगिनत अवसर आए। विपन्नता और धनहीनता के दुःख भी उसने झेले, शत्रुओं द्वारा दी जाने वाली विषम पीड़ाएँ भी उसने सहीं। छटपटाहट भरी इन पीड़ाओं के बीच उसने समाधान की खोज में कठिन साधनाएँ की। महातप की ज्वालाओं में उसने अपने जीवन को झोंका। प्रश्र एक ही था- जीवन की विकृतियों के निदान एवं उसके चिकित्सकीय समाधान।
आत्मचेतना के केन्द्र में- परमात्म चेतना के सान्निध्य में उसे समाधान के स्वर सुनाई दिए। महातप की इस निरन्तरता ने उसके सामान्य व्यक्तित्व का ऋषिकल्प कर दिया। और उसने कहा-
तं प्रत्नास ऋषयो दीध्यानाः पुरो विप्राः दधिरे मन्द्रजिह्वम्।
-- ऋग्वेद ४/५०/१
इस ऋषि अनुभूति से यह स्पष्ट ध्वनि निकलती है कि प्राचीन ऋषिगण परब्रह्म का ध्यान कर उन्हें अपने सामने प्रकट कर लेते थे। और मन्द्रजिह्व परमात्मा द्वारा उन्हें वेदमंत्रों का उपदेश प्राप्त होता था। इन वेदमन्त्रों के शब्दार्थ कीथ एवं ब्लूमफील्ड जैसे पश्चिमी विद्वान कुछ भी खोजते रहे; पर अपने रहस्यार्थ में ये जीवन की आध्यात्मिक चिकित्सा के मंत्र हैं। आध्यात्मिक चिकित्सा के इस दिव्य काव्य के विषय में अथर्ववेद के ऋषि ने कहा-
पश्य देवस्य काव्यं न ममार न जीर्यति।
परमात्मा के काव्य (वेद) को देखो, वह न नष्ट होता है और न मरता है।
सचमुच ही इस अमृत काव्य में जीवन की सम्पूर्ण एवं सर्वविधि आध्यात्मिक चिकित्सा के अनेकों सूक्त, सूत्र एवं आयाम समाहित हैं। अपने महातप से असंख्य पीड़ित जनों की आध्यात्मिक चिकित्सा करने वाले ब्रह्मऋषि गुरुदेव ने वर्षों पूर्व इस सत्य को अपनी लेखनी से प्रकट किया था। उन्होंने ऋग्, यजुष, साम व अथर्व वेद के कतिपय विशिष्ट मंत्रों की आध्यात्मिक चिकित्सा के सन्दर्भ में महत्ता तथा इनकी प्रयोग विधि को उद्घाटित किया था। ‘वैदिक मंत्र विद्या के रूप में यह आश्चर्यजनक एवं चमत्कारी रूप से उपादेय थी, पर आज अनुपलब्ध है।
हालांकि वर्ष १९८८ में यह दिव्य ग्रन्थ एक परिजन के हाथों ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान के शोधकर्मियों को प्राप्त हुआ था। तब इसको आधार बनाकर ‘वेदों में मानव जीवन का स्वरूप एवं उसकी आध्यात्मिक चिकित्सा के रहस्य’ के शीर्षक से एक शोध कार्य भी कराया गया था। पर इन दिनों शोध कार्य भी संस्थान में नहीं है। परन्तु जो कार्य कराया गया था, उसके आधार पर बड़ी ही प्रामाणित रीति से कहा जा सकता है कि वेद मानव जीवन की आध्यात्मिक चिकित्सा के आदि स्रोत हैं। इनमें केवल देह की पीड़ा को दूर करने की विधियाँ भर नहीं है। बल्कि मानसिक रोगों की निवृत्ति, दरिद्रता निवारण, ब्रह्मवर्चस व स्मरण शक्ति के वर्धन, घर- परिवार की सुख- शान्ति एवं सामाजिक यश, सम्मान में अभिवृद्धि के अनेकों प्रयोग शामिल हैं।
एक लघु आलेख में इन सभी के प्रयोग के विस्तार की व्याख्या तो सम्भव नहीं है। परन्तु एक सामान्य प्रयोग की चर्चा तो की ही जा सकती है। यह चर्चा ऋग्वेद के दशम् मण्डल के १५५ वें सूक्त के बारे में है। यदि कोई व्यक्ति धनलक्ष्मी से विहीन होकर जीवन यापन कर रहा हो, तो वह इस सूक्त के समस्त पाँचों मंत्रों का नित्य प्रातःकाल स्नान करने के पश्चात् १०१ बार जप करे। इस जप से पहले एवं बाद में गायत्री महामंत्र की एक- एक माला का जप आवश्यक है। वेद में प्रयोग अनेकों एवं विधियाँ असंख्य हैं। महाकाव्य एवं पुराणकाल में इन विधियों एवं प्रयोगों का उल्लेख महाकाव्यों एवं पुराणों में हुआ। वाल्मीकि रामायण एवं महाभारत में जीवन की अनगिनत समस्याओं के समाधान हेतु विभिन्न प्रयोगों की सांकेतिक या विस्तार से चर्चा की गयी है।
आध्यात्मिक चिकित्सा के ये प्रसंग ऐतरेय ब्राह्मण, तैत्तिरीयब्राह्मण, शतपथ
ब्राह्मण, ताण्ड्य ब्राह्मण तथा षडङ्क्षवश ब्राह्मण में भी पर्याप्त मिलते
हैं। देवीभागवत पुराण, अग्रिपुराण, नारदादिपुराणों में तो इनकी भरमार है।
इस सन्दर्भ में सूत्र ग्रन्थ भी पीछे नहीं हैं। यहाँ भी आध्यात्मिक
चिकित्सा से सम्बन्धित अनेकों प्रयोग विधियाँ मिलती हैं। कल्प सूत्र,
श्रोतसूत्र, गृह्यसूत्र, धर्मसूत्र एवं शुल्बसूत्र में इस विषय पर इतनी
प्रचुर सामग्री है, जिसके आधार पर एक शोधग्रन्थ तैयार किया जा सकता है।
ऐसी
अनेकों सत्य घटनाएँ हैं, जो ऋषि भूमि भारत की आध्यात्मिक चिकित्सा के
पुण्य प्रवाह की साक्षी रही हैं। आधुनिक बुद्धि भले ही इन्हें कल्पित गल्प
माने, लेकिन जिन्हें भारतीय इतिहास के सच का ज्ञान है,जो ऋत् के प्रति
आस्थावान हैं, वे इन्हें स्वीकारने में संकोच न करेंगे। जिस सत्य घटना का
जिक्र यहाँ किया जा रहा है, वह उत्तर वैदिक काल की है। उन दिनों वेदत्रयी
की ही मान्यता थी। अथर्वण विद्याएँ अपनी प्रतिष्ठा पाने के लिए प्रयत्नशील
थीं। इन्हीं दिनों हस्तिनापुर नरेश महाराज शान्तनु बीमार पड़े। उनका दूसरा
विवाह सत्यवती से हो चुका था। और कुरुवंश के गौरव देवव्रत युवराज पद को
त्याग कर भीष्म बन चुके थे।
उनकी पितृभक्ति, महात्याग, कर्त्तव्यनिष्ठा
एवं निरन्तर सेवा मिलकर भी महाराज शान्तनु को राहत नहीं दे पा रहे थे।
उनका स्वास्थ्य निरन्तर गिरता जा रहा था। मन की क्लान्ति एवं अशान्ति बढ़ती
जा रही थी। महारानी सत्यवती भी घबराई हुई थीं। क्योंकि प्राणवान औषधियाँ
निष्प्राण साबित हो रही थीं। और गुणवान वैद्य गुणहीन प्रमाणित हो रहे थे।
किसी को उम्मीद नहीं थी कि हाराज शान्तनु का जीवन बच पाएगा। सत्यवती ने
अन्तिम प्रयास के रूप में महर्षि व्यास का स्मरण किया। पितृभक्त भीष्म
उन्हें आदरपूर्वक ले आए।
व्यास ने स्थिति की सम्पूर्ण जानकारी ली और
माता सत्यवती से कहा- माँ! यह कार्य कम से कम मेरे लिए तो असाध्य है। हाँ
परम तपस्वी महर्षि दध्यङ्ग अथर्वण चाहे तो वे कुछ कर सकते हैं। व्यास की
बातें सुनकर भीष्म उन्हें लेने के लिए उनके पास पहुँचे। पहले तो उन्होंने
चलने से मना किया, पर बाद में महर्षि व्यास के अनुरोध पर तैयार हो गए।
राजमहलों, राजपुरुषों एवं राजनीति से पर्याप्त दूरी बनाकर रखने वाले महर्षि
अथर्वण का हस्तिनापुर आना किसी चमत्कार से कम न था। आते ही उन्होंने
महाराज शान्तनु को देखा और जोर से ठहाका मार कर हँसे। उनकी हँसी देर तक
बिना रूके चलती रही। सभी उपस्थित जन चकित थे।
तभी उन्होंने थोड़े से
आक्रोशित लहजे में कहा- महाराज, दिखने में तो आप की देह रोगी है, पर दरअसल
आप प्रारब्ध के कुयोग एवं अपनी मनोग्रन्थियों से पीड़ित हैं। समग्र उपचार के
लिए आपको चिन्तन शैली एवं जीवन क्रम बदलना होगा। शान्तनु के आश्वासन देने
पर उन्होंने अपनी चिकित्सा प्रारम्भ की। इसमें औषधियों के कल्प थे तो
मंत्रों के प्रयोग भी। कई तरह के ऐसे अनुष्ठान थे जिनके प्रभाव से शान्तनु
की देह एवं मन की स्थिति बदलने लगी। अथर्वण विद्या के प्रभाव को सभी देख
रहे थे। इस घटना के साक्षी बने महर्षि व्यास ने उनसे कहा ऋषिवर! आध्यात्मिक
चिकित्सा की आपकी विधियाँ चमत्कारी हैं। यह पुण्य प्रक्रिया चलती रहे,
इसके लिए अथर्ववेद का प्रणयन आवश्यक है। अथर्वण के आशीर्वाद से अथर्ववेद
रचा गया। और सभी ने आध्यात्मिक चिकित्सक के रूप में वेदज्ञानी गुरु का
महत्त्व पहचाना।