आत्मा न नारी है न नर

संयम अर्थात् शक्ति अर्थात् समर्थता

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पृथ्वी पर प्रकृति की विकास व विनाश लीलाओं का क्रम अनवरत रूप से चलता रहता है। पृथ्वी अपने इर्द-गिर्द वायुमण्डल का कवच पहने हुए है। उसके तीन आवरण हैं। प्रत्येक से पृथ्वी को, इसके प्राणियों को तथा पदार्थों को बहुत कुछ मिलता है। किन्तु यह भी एक कटु सत्य है कि उसी के कारण अपनी दुनिया को विनाश का कष्ट भी कम नहीं भुगतना पड़ता।

हम सभी मनुष्य वातावरण के अदृश्य सागर के तले निवास करते हैं। प्रायः 99 प्रतिशत वातावरण का भार 5 अरब टन है और वह सिर्फ ऊपर के 30 मील के क्षेत्र में सिमटा है। इस सघनता का लाभ यह है कि वह अन्तरिक्षीय किरणों, उल्कापातों आदि के घातक प्रभावों से पृथ्वी के जीवन की रक्षा करता है। साथ ही प्राणवायु, जल, रसायन आदि देता है। तापमान को नियन्त्रित रखता है। इस तरह यह घनीभूत वातावरण अपनी पृथ्वी के लिए—हम सब प्राणियों के लिए—एक रक्षा कवच का काम करता है। इस वातावरण में तनिक-सी भी उथल-पुथल पृथ्वी तल पर भयंकर चक्रवातों, प्रलयंकर तूफानों और विक्षुब्ध विनाश लीला का कारण बनती है। सागर की विशाल जल राशि भी निरन्तर उफनती रहती है, धरती के ऊपर का वातावरण भी सदा धधकता रहता है। अभी तक ऐसा कोई यन्त्र नहीं बन पाया है, जो वातावरण की गहराई नाप सके और तथ्यों का सही एवं समग्र पता लगा सके। धरती की छाती में तो विशाल ज्वालामुखियों का अविराम हाहाकार दबा ही रहता है।

भीतर चल रही उथल-पुथल कभी-कभी आकस्मिक विस्फोटों के रूप में अभिव्यक्त होती है। यद्यपि कोई भी विस्फोट वस्तुतः आकस्मिक नहीं होता। वह एक क्रमिक प्रक्रिया की ही अनिवार्य परिणति होता है।

सृष्टि के आरम्भ से ही प्राकृतिक परिवर्तन होते रहे हैं। मानव जाति के इतिहास में ऐसे तीव्र परिवर्तनों से सदा नये मोड़ आते हैं।

इस परिवर्तन के स्वरूप बहुत तरह के होते हैं। सौर-मण्डल की गतिविधियों की एक दूसरे ग्रह पर भी पारस्परिक प्रतिक्रिया होती है व प्रभाव पड़ता है। ज्वालामुखियों के विस्फोट, तूफान, भूकम्प, ऊपरी वातावरण, विषमता से उत्पन्न हलचलें अथवा सौर-मण्डल की कोई भी असामान्य गतिविधि ऐसे तीव्र परिवर्तनों का कारण बन जाती हैं। अन्तरिक्ष में आवारागर्दी करने वाली कुछ उल्काएं भी अपनी दुस्साहसिकता के कारण स्वयं को तो क्षति पहुंचाती ही हैं, पृथ्वी तथा अन्य ग्रहों को भी उथल पुथल से भर देती हैं। इन उद्दण्ड उल्काओं की आवारागर्दी की गाथाएं दुनिया भर के पौराणिक साहित्य में रोचक ढंग से वर्णित हैं।

यूनान की पौराणिक गाथाओं में ‘इकोरस’ नाम के एक युवक की कथा है। यह सूर्य से मिलने की महत्वाकांक्षा रख, नकली पंख लगाकर चल पड़ा। पंख उसने मोम से चिपका लिए थे।

अधिक ऊंचे जाने पर उसके पंख को जोड़ने वाली मोम गर्मी के कारण पिघल गई और पंख नीचे गिर पड़े, ‘इकोरस’ भी औंधे मुंह नीचे समुद्र में आ गिरा तथा मर गया। पिछले दिनों इसी युवक की तरह का एक दुस्साहसी उल्का-पिंड भी देखा गया। इसका नाम भी ‘इकोरस’ ही रखा गया। यह ‘इकोरस’ उल्कापिंड कभी सूर्य के अधिक निकट जा पहुंचता है, इतना कि बस थोड़ा और पास जाए, तो भुर्जा ही बन जाए। कभी लगता है वह बुध से कभी मंगल और कभी शुक्र से अब टकराया, तब टकराया। सूर्य के अति निकट पहुंच कर वह आग का गोला ही बन जाता है। तो कभी सूर्य से इतनी दूर जा पहुंचता है कि शीत की अति ही हो जाती है जून 1968 में इस उद्दण्ड क्षुद्रग्रह के पृथ्वी के ध्रुवप्रदेश से आ टकराने की सम्भावना बढ़ गई थी। यदि खगोल शास्त्रियों की यह आशंका सत्य सिद्ध होती, तो पृथ्वी में भीषण हिम तूफान आते, समुद्र उफनकर दुनिया का थल-भाग अपनी चपेट में ले लेता, साथ ही लाखों वर्ग मील भूमि में गहरा गड्ढा हो जाने की संभावना थी जहां यह उफनता समुद्री जल भर जाता तथा कुल मिलाकर करोड़ों मनुष्यों का सफाया हो जाता। सन् 1908 में मात्र हजार फुट व्यास की एक उल्का साइबेरिया के जंगल में गिरी थी, तो वहां अणुबम विस्फोट जैसे दृश्य उपस्थित हो गये थे। इकोरस तो उस उल्का से हजारों गुना बड़ा है, अतः परिणाम का अनुमान किया जा सकता है।

सौभाग्यवश इकोरस पृथ्वी के समीप होकर गुजर गया और एक भीषण दुर्घटना टल गई। सौर-मण्डल में ऐसे अनेक क्षुद्र ग्रह हिडालगो, इरोस, अलबर्ट, अलिण्डा, एयोर, अपोलो, एडोरस, हर्मेस आदि चक्कर काट रहे हैं, जो सहसा टकराकर कभी भी धरती के जीवन में उथल पुथल मचा सकते हैं।

वैज्ञानिकों ने अध्ययन कर यह निष्कर्ष निकाला है कि सूर्य पर जो हर 11 वें वर्ष कुछ धब्बे से बन जाते हैं, उनका कारण सौरमण्डल के ग्रहों की गतिविधियां ही हैं। स्पष्ट है कि सौर-मण्डलीय ग्रहों की प्रत्येक गतिविधि का सूर्य पर प्रभाव पड़ता है, जिस तरह सूर्य की हर गतिविधि से सौर-मण्डलीय ग्रह प्रभावित होते हैं। सभी ग्रह पश्चिम से पूर्व की ओर—सूर्य की परिक्रमा करते हैं और पृथ्वी की ही भांति अपनी धुरी पर भी घूमते हैं। इस परिभ्रमण काल में जो अगणित प्रकार की उथल-पुथल होती है उनसे पृथ्वी सहित सभी ग्रह उपग्रह प्रभावित होते हैं।

दो अमेरिकी खगोल विदों—जान ग्रिबन और स्टीफेन प्लेगमैन—ने जानकारी दी है कि सन् 1982 में सौर मण्डल के नौ ग्रह यानी मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, पृथ्वी, यूरेनस, नेपच्यून और प्लूटो सूर्य के बिल्कुल एक तरफ एकत्र हो जाएंगे। इससे सूर्य पर कई बड़े धब्बे पड़ जायेंगे। इनका परिणाम होगा विश्व के विभिन्न हिस्सों में भयानक भूकम्प, प्रलयंकर बाढ़ें, प्राकृतिक विपदाएं। इन दोनों वैज्ञानिकों के अनुसार सन् 1982 में समुद्री ज्वारभाटे तीव्र प्रबलतर हो जाएंगे। कैलीफोर्निया में एक प्रचंड भूकम्प आयेगा, जो कि 1906 में सेन्फ्रांसिस्को में आये भूकम्प से भी प्रबल और विनाशक हो सकता है। प्रकृति में समय-समय पर प्रचण्ड उथल-पुथल होती ही रहती है। ऐसी उथल-पुथल की स्मृतियां मानवीय इतिहास में सुरक्षित हैं। पुराण-कथाओं में इनका रोचक वर्णन मिलता है। मात्र क्षुद्र नक्षत्रों के टकराने अथवा सूर्य या किसी बड़े नक्षत्र में व्यापक परिवर्तन होने, उथल-पुथल मचने से ही धरती में जलप्लावन आदि की घटनाएं नहीं घटतीं। बल्कि धरती के भीतर की हलचलें और उसके सिकुड़ने-फैलने की विभिन्न प्रक्रियाएं भी जल प्रलय आदि के दृश्य उपस्थित करती हैं।

सभी जानते हैं कि कभी भू-मण्डल के सभी महाद्वीप एक दूसरे से जुड़े थे। ग्रहों की हलचलों और आकुंचन प्रसार की प्रक्रियाओं से वे एक दूसरों से दूर हटते गए। हिमालय अभी भी लगातार उत्तर की ओर खिसक रहा है और भू-वैज्ञानिकों का कथन है कि 5 करोड़ वर्ष बाद सम्पूर्ण उत्तरी भारत का अधिकांश इलाका हिमालय के पेट में समा जायेगा। इसी तरह सन् 1966 में मास्को में सम्पन्न द्वितीय अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक सम्मेलन में प्रो. डा. ब्रूस सी. हीजेन और डा. नील यू. डाइक ने घोषणा की थी कि आज से लगभग 2 हजार 32 वर्ष बाद पृथ्वी के चुम्बकीय बल क्षेत्र अपना स्थान बदल देंगे साथ ही पृथ्वी की चुम्बकीय शक्ति घटेगी। इसमें मनुष्यों का आकार व जीवन भी प्रभावित होगा। वृक्ष-वनस्पति, कीट-पतंग आदि पर भी व्यापक प्रभाव पड़ेगा। प्रशांत महासागर की तलहटी से निकाली गई मिट्टी और रेडियो सक्रियता एवं ‘लारिया’ नामक एक कोशीय जीव में हो रहे क्रमिक परिवर्तन से पता चलता है कि सन् चार हजार तक चुम्बकीय क्षेत्र में परिवर्तन होगा, जिससे ध्रुवों का स्थान भी परिवर्तित होगा। परिणामस्वरूप धरती में खण्डप्रलय की स्थिति हो जायेगी। बर्फीले तूफान चारों ओर उठेंगे। धरती में बेहद गर्मी और बेहद ठंडक की स्थितियां पैदा करेंगी। समुद्रतल भी लगातार ऊपर उठ रहा है। इसका भी परिणाम अवश्यम्भावी है। ऐसी ही विशिष्ट प्राकृतिक उथल-पुथल अतीत में भी जल प्रलय जैसी घटनाओं का कारण बनती रही है। विश्व की अधिकांश प्राचीन सभ्यताओं के साहित्य में जलप्लावन तथा उसके बाद सृष्टि के नवीन क्रम का वर्णन मिलता है इसे धार्मिक पुट दिया गया है। लेकिन भू-गर्भ शास्त्रियों का भी अनुमान है कि समय-समय पर पृथ्वी के विशेष खण्ड टूट जाते थे और धरती पर जल ही जल हो जाता था।

भू-गर्भ वेत्ता डा. ट्रिकलर के अनुसार हिमालय के आस-पास प्राप्त ध्वंसावशेषों से ज्ञान होता है कि जल प्रलय की घटना सत्य है।

यूनानी साहित्य में भी जलप्लावन की चर्चा है। एक कथा के अनुसार ‘अटिका’ जलमय हो गई थी। दूसरी कथा के अनुसार ‘जीयस’ ने अपने पिता की इच्छापूर्ति के लिए ‘ड्यूकालियन’ का विनाश करना चाहा। जब ड्यूकालियन अपनी पत्नी पैरहा के साथ जल यात्रा कर रहा था, जीयस ने भीषण जल-वृष्टि द्वारा पृथ्वी को डुबा दिया। नौ दिन तक ड्यूकालियन और पैरहा पानी में ही अपनी नाव द्वारा तैरते रहे। जब वे पैरासस पहुंचे, तो जलप्लावन कुछ कम हुआ। तब उन दोनों ने अपने अंग रक्षक की देवताओं को बलि दे दी। इससे जीयस प्रसन्न हो गया और उनका सन्तान का वरदान दिया ड्यूकालियन, और पैरहा ने वरदान पाकर जीयस पर पत्थरों की वर्षा की। जो पत्थर ड्यूकालियन ने फेंके वे पुरुष हो गये और जो पैरहा ने फेंके, वे नारी हो गए।

केबीलोनिया में भी ऐसी ही एक दन्त कथा है। तीन सौ ईस्वी पूर्व वहां वेरासस नामक पुरोहित था। उसने लिखा है—आरडेट्स की मृत्यु के बाद उसके पुत्र ने 18 ‘सर’ तक राज्य किया। एक सर 36 सौ वर्षों का होता है। इसी अवधि में एक बार भीषण बाढ़ आई। इसकी सूचना राजा को स्वप्न द्वारा पहले ही मिल चुकी थी। अतः उसने अपने लिए एक नाव बनवा ली थी। नाव में बैठकर वह जलप्लावन देखता घूमता रहा। जब जलप्लावन का वेग कम हो गया, तो उसने नाव में ही बैठे-बैठे तीन बार पक्षी उड़ाए। अन्तिम बार जब पक्षी लौट कर नहीं आये तो उसने देवताओं को बलि दी। इससे देवता प्रसन्न हुए और शान्ति का वातावरण बना।

बाइबिल के अनुसार जल-देवता ‘नूह’ को खबर मिली कि धरती पर जल-प्रलय होगी। फिर ऐसा ही हुआ। चराचर इस भीषण जल-प्रलय में समाहित हो गये। जल-देवता ‘नूह’ तथा उनके कुछ साथी नौका में बच निकले। नौका द्वारा आराकान पर्वत पहुंचे। वहां दसवें महीने के पहले दिन जल कम होना शुरू हुआ। धीरे-धीरे पर्वत श्रेणियां दीखने लगीं। फिर अन्य हिस्से भी। हजरत ‘नूर’ ने ही मानवता का विकास किया। सुमेरियन ग्रन्थों में भी जलप्लावन का संकेत है। चीनी पुराण-साहित्य में भी जल-प्लावन की कथाएं विद्यमान हैं।

भारत में तो शतपथ ब्राह्मण से लेकर महाभारत और विविध पुराणों तक में जल-प्रलय का वर्णन मिलता है। महाभारत के वन-पर्व में मत्स्योपाख्यान के अन्तर्गत यह कथा है कि विवस्वान मनु ने दस हजार वर्ष हिमालय पर तपस्या की। उस समय एक मछली की प्रार्थना पर उन्होंने उसकी जीवन रक्षा की। तब मछली ने उनको आगामी भीषण जलप्लावन की अग्रिम जानकारी दी। साथ ही यह कहा कि तुम सप्त ऋषियों के साथ नौका में मेरी प्रतीक्षा करना। अन्य पर्वों में भी इस जलप्लावन का सुविस्तृत वर्णन है। सम्पूर्ण प्राचीन विश्व साहित्य में जल-प्रलय की ये कथाएं निश्चय ही किसी घटित घटना की ही स्मृतियां हैं। अभिव्यक्ति की शैली भिन्न-भिन्न सभ्यताओं के परिवेश और सांस्कृतिक चेतना के अनुरूप अलग-अलग हैं। किन्तु उनमें एक आन्तरिक अविच्छिन्नता है। जल-प्रलय की बात बड़ी है, पर उसके छोटे-छोटे रूप अन्य प्रकार से भी दृष्टिगोचर होते रहते हैं। भूकम्प, विस्फोट, बाढ़ आना, वृष्टि, अतिवृष्टि, महामारी आदि कारणों से कम विनाश नहीं होता है। आये दिन जहां-तहां होते रहने वाले युद्ध और महायुद्ध भी सम्पत्ति और प्राणियों की कम हानि नहीं करते।

एक ओर यह विनाशकारी घटनाएं होती हैं दूसरी ओर उत्पादन और अभिवृद्धि का उपक्रम देख कर भी आश्चर्यचकित रहना पड़ता है। वनस्पति के सहारे ही जीव धारियों का आहार निर्वाह होता है उसका खर्च जितना है उसे देखते हुए उत्पादन की मात्रा कम नहीं वरन् बढ़ी-चढ़ी ही रहती है। खाने वाले प्राणी और ग्रीष्म जैसी नष्ट कर सकने वाली परिस्थितियों का सामना करते रहने पर भी वन-सम्पदा और वनस्पति की सुषमा पृथ्वी पर छाई ही रहती है। हरितिमा के लिए प्रस्तुत सभी चुनौतियां अन्ततः निरस्त ही होती रहती हैं और अपनी धरती की हरियाली में घट बढ़ होती है, पर अन्त उसका कभी भी नहीं होता।

तनिक-सी दीखने वाली एक भिनभिनाती मक्खी एक ही ग्रीष्म ऋतु में 40 हजार सन्तानें पैदा कर सकती है, यदि उसकी आकस्मिक मृत्यु न हो जाए। इन 40 हजार मक्खियों की तीन पीढ़ी में उत्पन्न सन्तानों को एक कतार में रखा जाय, तो पृथ्वी से सूरज तक की दूरी से कई गुनी लम्बी कतार बन जाए।

एक परिपक्व पोस्त में 3 हजार बीज होते हैं। यदि हर बीज से एक पौधा उगने दिया जाय और फिर उनमें से हर पौधे में कम से कम एक पोस्त लगने पर फिर उनमें से हर एक के तीन हजार बीजों का उपयोग भी पौधे ही पैदा करने के लिए किया जाय, तो इस क्रम से 50 वर्षों में एक ही वृक्ष के वंश विकास द्वारा पूरी पृथ्वी ढक सकती है। प्रकृति की गतिविधियों का जितना ही अधिक निरीक्षण—विश्लेषण किया जाए, यही ज्ञात होता चलेगा कि वह अत्यन्त दयामयी व कुशल है। किन्तु इस दया में आवश्यक उग्रता व रौद्ररूप भी सम्मिलित है। वस्तुतः सन्तुलन ही प्रकृति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण व सार्वभौम अन्तःसूत्र है। सन्तुलन की यह प्रकृति-प्रवृत्ति हमें विभिन्न पशु-पक्षियों की प्राकृतिक संरचना में भी दिखाई पड़ती है।

उचित है कि मनुष्य अपनी काम वासना को भी नियंत्रित करे। अन्यथा इसके कारण परिवार बढ़ने से ले कर जनसंख्या वृद्धि तक के संकट तो उत्पन्न हो ही सकते हैं, व्यक्तिगत रूप से भी स्वास्थ्य की बर्बादी और कमजोर अपाहिज लुंज पुंज जीवन के अलावा कोई अच्छा परिणाम संभव नहीं है। प्रकृति आखिर किसी प्रकार तो अपना संतुलन बनायेगी ही। उसका अपना जो धर्म है, उसका पालन वह दृढ़ता पूर्वक करेगी ही।

पेड़ पौधे भी संयमी

यह कितने खेद की बात है कि जिस मनुष्य को अपना जीवन पुण्य और परमार्थ की साधना में व्यतीत करना चाहिये था, वह निकृष्ट और हेय जिन्दगी जीता है; जब कि निकृष्ट कहे जाने वाले पेड़-पौधों के आचरण बड़े प्रेरक और प्रकाश देने वाले होते हैं। मनुष्य चाहे तो इन तुच्छ जीवों से भी बड़ी महत्वपूर्ण शिक्षायें ग्रहण कर सकता है। वनस्पति शास्त्र का एक सिद्धान्त है, हेरेडिटी करेक्टर (वंशानुसंक्रमण) जो बीज बोया जाता है पैरेन्ट सीड्स) उसके गुण पैदा होने वाले बीजों (डाटर सीड्स) में ज्यों-के-त्यों आ जाते हैं। उदाहरण के लिए मटर के एक बीज में बीमारी के कुछ कीटाणु थे, उसे बो दिया। उस मटर की पौध में जितनी भी फलियां लगेंगी, उन सबमें उस बीमारी के लक्षण( सिम्पटम्स) विद्यमान् होंगे। जब तक बीज के इस वंश (जनरेशन) को चलता रहने दिया जाता है, बीमारी के सिम्पटम्स अन्त तक बने रहते हैं। इससे यह प्रेरणा मिलती है कि मनुष्य की जनरेशन कमजोर और निकम्मी न रहने पाये, इसके लिये मनुष्य अपने स्वास्थ्य, शरीर, चरित्र और भावनाओं का निर्माण करें। मानसिक धार्मिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक दृढ़ता वाले मनुष्य इस तरह की सन्तानें ही पैदा करते हैं। रोगी, आलसी, अपाहिज तो बिना किये भावी पढ़ी को रोगी बनाने का पाप लेकर मर जाते हैं।

आज कल पाश्चात्य शिक्षा और सभ्यता से प्रभावित लोग यौन सदाचार का पालन करते हुए हिचकिचाते हैं और तर्क प्रस्तुत करते हैं कि मनुष्य ने प्रकृति से ही प्रेरणायें ली हैं, प्रकृति के अनुसार फिर आचरण करने में हानि क्या है? कुत्ते, बकरे, भेड़ें, बैल और दूसरे पशुओं में कामाचार की मर्यादायें अपने परिवार तक में लागू नहीं होतीं, इसलिये मनुष्य भी वैसा ही करता है तो वह कोई पाप नहीं। पहले विवाह सम्बन्ध दूर किये जाते थे, अब समीपवर्ती वातावरण में ही विवाह करने की परम्परा चल पड़ी। पेड़-पौधे यह बताते हैं, यदि मनुष्य ने ऐसा किया तो उससे पीढ़ियां कमजोर होंगी।

दो अलग-अलग श्रेणी के बीज लेकर संयोजन (क्रासब्रीडिंग) से उत्पन्न हुए बीज (सीड्स) बहुत बलवान् होते हैं, जबकि एक ही वृक्ष के फूल के स्त्रीकेशर और उसी फूल के पुंकेसर में स्वयंसेचन की क्रिया से जो बीज पैदा होता है, वह बिल्कुल कमजोर होता है। यदि प्रकृति का यह नियम रहा होता कि निकटवर्ती परिवार में यौन सदाचार का पालन न किया जाये तो पेड़-पौधों का यह आदर्श और उदाहरण सामने न आता।

पराग (पालिनग्रेन) एक प्रकार के पीले कण हैं जो फूल के पुंकेसर में होते हैं। जब पराग कण स्त्री केशर के वर्तिनाग्र (स्टिगमा) तक पहुंचता है उसे परागण कहते हैं। परागण की क्रिया में स्वयं सेचन सरल है, एक ही फूल के पुंकेसर का पराग स्त्रीकेशर के वर्तिकाग्र (स्टिगमा) तक आसानी से पहुंच जाता है, यह क्रिया पराग-झड़ना (पोलीनेश) कहलाती है। क्रास-ब्रीर्डिग में दूरी और मेलजोल की परेशानी होती है, इस तरह का तर्क किया जा सकता है, किन्तु भगवान् ने विकास की सुविधाओं से किसी को वंचित नहीं रखा। भौंरे-तितलियां और मधु-मक्खियां पराग का मधु चूसते हुए एक फूल पर बैठते हैं, रस तो वे चूस लेते हैं पर इतने स्वार्थी नहीं कि केवल अपना ही काम करके चल देते हों। वे अपने पैरों में पराग के कण चिपका लेते हैं और फिर वहां से उड़कर दूर किसी मादा फूल के वर्तिकाग्र (स्टिगमा) में जा बैठते हैं, इस तरह नर-मादा फूलों का दूरवर्ती सम्बन्ध हो जाता है। इस तरह क्रास-ब्रीडिंग से उत्पन्न हुए बीज बड़े बलवान् होते हैं।

इसी प्रकार यदि बीज पक चुका है तो ही उसके डॉक्टर बीज अच्छे खाद्य वाले होंगे। इससे मनुष्य को एक सन्देश मिलता है कि वह गृहस्थाश्रम पूर्ण और परिपक्व अवस्था के बाद ही आरम्भ करे। भारतीय संस्कृति में 25 वर्ष तक ब्रह्मचर्य और विद्याध्ययन की अनिवार्यता थी। उससे बच्चों के शरीर ही नहीं मन और बुद्धि भी पर्याप्त परिपक्व हो जाते थे, इसीलिये उनका गृहस्थ भी सुखी होता था और आज जबकि छोटे-छोटे बच्चों के विवाह कर दिये जाते हैं, तब क्या यह आशा की जा सकती है कि आने वाली पीढ़ी मजबूत होगी? पीढ़ियां समर्थ और शक्तिशाली तभी होंगी, जब कामाचार में परिपक्वता, चारित्रिक दृढ़ता का पालन किया जायेगा।

संयम बनाम समर्थता

थोड़ी देर के लिये मनुष्य की बात छोड़ दें और जीव जगत की कल्पना करें तो वहां ‘‘शक्तिमान के ही जीवित रहने’’ के अधिकार की पुष्टि होती है। मनुष्य को परमात्मा ने बुद्धि और विवेक के दो विशिष्ट उपहार दिये हैं। इसलिये उसे तो विसंगति श्रेणी में रखना तथा सहयोग और सहकारिता में समृद्धि, सुव्यवस्था का पाठ पढ़ाना पड़ेगा, पर यदि वह अपनी इस ईश्वर प्रदत्त विशेषता का अपने जीवन में उपयोग न कर पशुओं का ही पेट-प्रजनन वाला जीवन जीने लगे तो जो व्यवस्थायें प्रकृति में चल रही हैं वैसे ही परिणाम से मनुष्य भी बच नहीं सकता।

हाथी संसार का अति सामर्थ्यवान प्राणी है। विश्वास करें या न करें पर अफ्रीका में मोम्वासा से कीनिया को जो सड़क जाती है उस पर एक प्रवेश द्वारा मात्र दो जोड़े हाथी दांत का बना है। यह दांत का बना है। यह दांत इतने विशाल हैं कि बस और भारी बोझ लदे ट्रक भी उसके नीचे से आसानी से निकल सकते हैं। जिन हाथियों के इतने विशाल और मजबूत दांत होंगे, उनके शरीर की सामर्थ्य कितनी होगी उसका अनुमान करना कठिन है। हाथियों में जो सामर्थ्य द्वापर और त्रेता में थी वही आज भी विद्यमान है। इसका कारण प्रकृति का पक्षपात नहीं उसकी अपनी संयम शक्ति है जिसने इस समूची जाति को युग-युगों तक अपनी सामर्थ्य और अपनी सत्ता बनाये रखने योग्य बना दिया है।

एक हाथी युगल अपने जीवन काल में अधिकतम दो या तीन बच्चों को जन्म देता है। यह उल्लेखनीय है कि प्राकृतिक जीवों में प्रायः एक ही वार के सहजीवन से गर्भाधान की क्रिया सम्पन्न हो जाती है कि उसके सहजीवन की संख्या सारे जीवन में अधिकतम पांच से अधिक नहीं होती। अपने इस विशेषता के कारण कहीं भी उनकी जनसंख्या के विस्फोट की समस्या नहीं उठी। इतने जंगल कट जाने पर भी उनके लिये कभी खाद्य का अभाव नहीं पैदा हुआ।

यही स्थिति बलशाली दूसरी सभी जातियों की है जिनमें सिंह चीते, बाघ भी आते हैं। राजहंस पक्षी अपनी इसी प्रवृत्ति के कारण कभी भी संख्या के विस्फोट की स्थिति में नहीं पहुंचा, उसे प्रकृति के अत्यन्त प्रिय उपहार के रूप में सम्मानित किया जाता है।

दूसरी ओर जन्मजात तुच्छ कहलाने वाली मक्खी को ही लें। एक मक्खी एक ही ग्रीष्म ऋतु में 400000000000 (चार नील) मक्खियां पैदा कर देती है। रावण की सेना से भी लाख गुनी इस सेना का मार्च यदि सूर्य की ओर हो तो 29 करोड़ मील दूर पहली मक्खी सूर्य की 20 बार आ जाकर यात्रा पूरी कर लेगी तब आखिर सिपाही को कहीं पृथ्वी से प्रस्थान का अवसर मिलेगा। समुद्र में पाई जाने वाली मछलियों का प्रजनन इतनी तीव्र गति से होता है कि वे यदि सब की सब जीवित बची रहें तो 6 महीने में समुद्र मछलियों का पहाड़ बन जाये। किन्तु इन असंयमित जीवों पर प्रकृति का क्रूर डंडा इतनी तेजी से फिरता है कि एक ही बार में उनकी करोड़ों की संख्या को मार डालता है मक्खियों में इतनी भी क्षमता नहीं होती कि मैदानी इलाकों की ही शीत बर्दाश्त कर लें। फलतः उनका बुरी तरह वंश नाश होता रहता है। मछलियां तो आत्मविस्फोट की साक्षात् उदाहरण हैं। बड़ी मछली हर छोटी मछली पर दांव लगाती और उन्हें चट करती है उन्हें अपने आप में ही इस तरह द्वन्द करते देखकर ही सम्भवतः मनुष्यों ने उन्हें पृथ्वी में अपना जीवन जीने योग्य नहीं समझा और उनका विधिवत् भक्षण करने लगा।

मछली-मछली है मनुष्य-मनुष्य, पर प्रकृति की दृष्टि से दोनों एक हैं। यदि मनुष्य संयमित जीवन जीने के लिये तैयार नहीं होता तो उसे भी एक दिन ऐसे ही सर्वनाश की तैयारी प्रारम्भ कर देनी होगी।

अतः यह निर्भ्रांत तथ्य है कि सुखी, सुरक्षित और समुन्नत जीवन जीना है तो उसके लिए शक्ति सम्पन्न होना ही पड़ेगा। वैसे भी सुख और श्रेय मानव जीवन की दो महान् उपलब्धियां मानी गयी हैं। इनको पा लेना ही जीवन की सफलता समझा जाता है।

जीवन की सफलता

सुख की परिधि का परिकर संसार तक है। अर्थात् इस संसार के व्यवहार क्षेत्र में हम जो जीवन जीते हैं, उसका निर्विघ्न, स्निग्ध और सरलता-पूर्वक चलते रहना ही सांसारिक सुख है। श्रेय आध्यात्मिक क्षेत्र की उपलब्धि है। ईश्वरीय बोध, आत्मा का ज्ञान और भव बंधन से मुक्ति को ही श्रेय कहा गया है।

सुख प्राप्ति का आधार

सुख और श्रेय मानव-जीवन की दो महान् उपलब्धियां मानी गई हैं। इनको पा लेना ही जीवन की सफलता है। पार्थिव अथवा अपार्थिक किसी भी उपलब्धि के लिये शक्ति की अनिवार्य आवश्यकता है। शक्ति हीनता क्या साधारण और असाधारण दोनों प्रकार की प्रगतियों के लिये बाधा रूप है। शरीर अशक्त हो, मन निराश और कुण्ठित हो, बुद्धि की निर्णायक क्षमता शिथिल हो तो मनुष्य इच्छा रहते हुए भी किसी प्रकार का पुरुषार्थ नहीं कर सकता।

संसार के सारे सुखों का मूलाधार साधनों को माना गया है। साधन यों ही अकस्मात् प्राप्त नहीं हो जाते। उनके लिये उपाय तथा परिश्रम करना होता है। रोटी, कपड़ा, आवास के साथ और भी अनेक प्रकार के साधन जीवन को सरलतापूर्वक चलाने के लिये आवश्यक होते हैं। इनके लिये कार-रोजगार, मेहनत-मजदूरी, नौकरी-चाकरी कुछ न कुछ काम करना होता है। यह सब काम करने के लिये शक्ति की आवश्यकता है। अशक्तता की दशा में कोई काम नहीं किया जा सकता।

केवल शक्ति ही नहीं आरोग्य तथा स्वास्थ्य भी सुख, शांतिमय जीवन-यापन की एक विशेष शर्त है। साधन हों, कार-रोजगार हो, धन तथा आय की भी कमी न हो, तब भी जब तक तन-मन स्वस्थ और निरोग नहीं है, जीवन सुख और सरलतापूर्वक नहीं चलाया जा सकता। इस प्रकार शक्ति और स्वास्थ्य जीवन के सुख के आवश्यक हेतु है। शक्ति जन्मजात प्राप्त होने वाली कोई वस्तु नहीं है। जिस प्रकार धन, सम्पत्ति, जमीन जायदाद उत्तराधिकार में मिल जाते हैं, उस प्रकार शक्ति के विषय में कोई भी उत्तराधिकार नहीं है। यह मनुष्यों की अपनी व्यक्तिगत वस्तु है, जिसे पाया नहीं, उपजाया जाता है। सांसारिक सुख और पारलौकिक श्रेय के लिये मनुष्य को शक्ति का उपार्जन कर लेना आवश्यक है।

लौकिक विद्वानों से लेकर सिद्ध महात्माओं और मनीषियों—सबने एक स्वर से समय को शक्ति का स्रोत बतलाया है। बहुत लोगों का विचार रहता है कि अधिक खाने पीने से शक्ति प्राप्त होती है। पर उनका यह विचार समीचीन नहीं। अधिक अथवा बहुत बार खाने से शरीर को अनावश्यक श्रम करना पड़ता है, जिससे शक्ति बढ़ने के बजाय क्षीण होती है। स्वास्थ्य बिगड़ता है और आरोग्य नष्ट होता है। भोजन में निश्चय ही शक्ति के तत्व रहते हैं, किन्तु वे प्राप्त तभी होते हैं, जब भोजन का उपभोग संयमपूर्वक किया जाये। समय पर, नियन्त्रित मात्रा में उपयुक्त भोजन ही सुविधापूर्वक पचता और शक्तिदायक रसों को देता है।

शक्ति संचय के लिए समय पर, सीमित और उपयुक्त भोजन किया जाये, स्वास्थ्य और आरोग्य के विषय में सावधान रहा जाय, पर ब्रह्मचर्य का पालन न किया जाये, तब भी सारे प्रयत्न बेकार चले जायेंगे और शक्ति के नाम पर शून्य ही हाथ में रहेगा। भोजन के तत्व वीर्य बनकर ही शरीर में संचय होते हैं और संचित और परिपक्व वीर्य का ही स्फुरण शक्ति की अनुभूति है। वीर्यवान शरीरों में न तो अशक्तता आती है और न उसका आरोग्य ही जाता है। इसीलिये वीर्य को शरीर की शक्ति ही नहीं प्राण भी कहा गया है।

इसी महत्त्व के कारण भारतीय मनीषियों और आचार्यों ने वीर्य रक्षा अर्थात् ब्रह्मचर्य संयम को सबसे बड़ा माना है और निर्देश किया है कि लौकिक जीवन के सुख और पारलौकिक श्रेय के लिये मनुष्य को अधिकाधिक ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये।

परशुराम, हनुमान और भीष्म जैसे महान् पुरुषों ने आजीवन ब्रह्मचारी रहकर ब्रह्मचर्य-व्रत की महत्ता प्रमाणित की है। इसी व्रत के बल पर वे न केवल अतुलित बलधाम बने बल्कि जरा और मृत्यु तक को जीत लिया। परशुराम और हनुमान के पास तो मृत्यु आई ही नहीं—पर भीष्म ने तो उसे आने पर डांट कर ही भगा दिया और रोम-रोम में विधे शरों की सेज पर तब तक सुख पूर्वक लेटे रहे, जब तक कि सूर्यनारायण उत्तरायण नहीं हो गये। सूर्य के उत्तरायण हो जाने पर ही उन्होंने इच्छा-मृत्यु का वरण स्वयं किया। शर-शैय्या पर लेटे हुए, वे केवल जीवित ही नहीं बने रहे, अपितु पूर्ण स्वस्थ और चैतन्य भी बने रहे। महाभारत युद्ध के पश्चात उन्होंने पाण्डवों को धर्म तथा ज्ञान का आदर्श उपदेश भी दिया। यह सारा चमत्कार उस ब्रह्मचर्य व्रत का ही था, जिसका कि उन्होंने आजीवन पालन किया था। हनुमान ने उसके बल पर समुद्र पार कर दिखाया और एक अकेले परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी से आततायी और अनाचारी राजाओं को नष्ट कर डाला था। ब्रह्मचर्य की महिमा अपार है।

ब्रह्मचर्य पालन के विषय में आजीवन अविवाहित और अनानुभवी व्यक्तियों को छोड़ भी दीजिये तो भी भारतीय इतिहास में ऐसे दृढ़ व्रती और संयमशील व्यक्तियों के उदाहरणों की कमी नहीं है, जिन्होंने विवाहित और अनुभव प्राप्त होने पर भी अनुकरणीय काम संयम करके दिखला दिये।

यह सब तथ्य इस बात के ज्वलन्त प्रमाण है कि आजीवन अविवाहितों के लिये अथवा अनानुभवी व्यक्तियों के लिये ही नहीं ब्रह्मचर्य का संयम गृहस्थ और भुक्तभोगियों के लिये भी सर्वथा सम्भव है। जो व्यक्ति इस विषय में विवशता अथवा निर्बलता प्रकट करते हैं, वे वास्तव में निर्बल व्यक्ति ही होते हैं और ब्रह्मचर्य के महत्व में सच्ची आस्था नहीं रखते। अपनी वासनाओं के प्रश्रय के लिये बहाने दिया करते हैं।

काम-वासना सर्वथा सम्भव है और सबको करना ही चाहिये। इससे शारीरिक, मानसिक तथा बौद्धिक ही नहीं आत्मिक शक्ति भी बढ़ती है। मनुष्य में तेज तथा प्रभाव का प्रादुर्भाव होता है, वाणी में तेज तथा नेत्रों में ज्योति आती है। यह सारे गुण और सारी विशेषतायें प्रेम तथा श्रेय दोनों की उपलब्धि में सहायक होते हैं। इन सहायकों के अभाव में आध्यात्मिक उन्नति तो दूर, सामान्य सांसारिक जीवन भी सुख और सरलतापूर्वक नहीं जिया जा सकता।

जो व्यक्ति संसार के महान् व्यक्तित्व हुए हैं, जिन्होंने धर्म, समाज तथा देश के लिये उल्लेखनीय कार्य कर प्रेम प्राप्त किया है और जिन्होंने तप, साधना तथा चिन्तन मनन कर श्रेय पाया है, निर्विवाद रूप से उन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत द्वारा सबसे पहले शक्ति की ही साधना की है। वासना को जीत और इन्द्रियों पर अधिकार कर सकने पर ही वे जीवन में श्रेयस्कर कार्य कर सकने में सफल हो सके हैं।

वीर्य रक्षा से शरीर स्वस्थ तथा स्फूर्तिवान बना रहता है। रोगों का आक्रमण नहीं होने पाता। मन तथा बुद्धि इतने पुष्ट एवं परिपक्व हो जाते हैं कि बड़ी से बड़ी विपत्ति में भी विचलित नहीं होते। प्रमाद, आलस्य अथवा अवज्ञा का भाव नहीं आने पाता। परिश्रम तथा उपार्जन की स्फूर्ति बनी रहती है, जिससे उसके चरण दिन-दिन उन्नति के सोपानों पर ही चलते जाते हैं।

भारतीय तत्व वेत्ताओं ने कामोत्तेजना को मनोज—मनसिज आदि नाम देकर बहुत पहले ही यह स्वीकार कर लिया था कि यह उद्वेग शारीरिक हलचल नहीं मानसिक उभार है। यदि मन पर नियन्त्रण किया जा सके—उसे ईश्वर-भक्ति, कला, साधना एवं आदर्श, निष्ठा में नियोजित किया जा सके तो युवावस्था में भी शरीर और मन से ब्रह्मचारी रहा जा सकता है। इसके विपरीत यदि शारीरिक नियन्त्रण तो निभाया जाय पर मानसिक उत्तेजना उभरती रहे तो ब्रह्मचर्य का वह लाभ न मिल सकेगा जैसा कि साधन ग्रन्थों में उसका माहात्म्य बताया गया है। दृष्टिकोण में परिवर्तन ही इन्द्रिय-निग्रह का प्रधान आधार है। आहार-विहार के संयम से तो उसमें थोड़ी सी सहायता भर मिलती है। आमतौर से यह समझा जाता है कि सुन्दरता या परिपुष्ट स्थिति के नर-नारी अधिक काम तृप्ति करते होंगे एवं अच्छा प्रजनन करने में सफल रहते होंगे पर यह बात वैज्ञानिक तथ्यों के विपरीत है। मनुष्य की चेतनात्मक विद्युत शक्ति ही कामोत्तेजना उत्पन्न करती है और उसी की प्रबलता से यौन-तृप्ति का सम्बन्ध रहता है। यह भ्रम अब दूर होता चला जा रहा है कि शरीर गठन का कामोल्लास से सीधा सम्बन्ध है। वस्तुतः कामोत्तेजना विशुद्ध मानसिक प्रक्रिया है। वह जिस आयु में भी—जिस मात्रा में उल्लसित रहेगी उसी स्थिति में कामोद्वेग उठते रहेंगे और तृप्ति तथा प्रजनन की सफलता भी उसी अनुपात से सामने आती रहेगी।

अतः यह कहा जा सकता है कि मन में मस्तिष्क में उठने वाले कामुक विचारों को उनके केन्द्र पर ही रोका जा सकता है। उन विचारों की उत्पत्ति रोकने अथवा कामुक भावों के उत्पन्न होने में बहुत कुछ शिक्षा दीक्षा, वातावरण तथा संस्कारों का भी प्रभाव पड़ता है। हाल ही में अमेरिका में एक छोटी बालिका पर यह प्रयोग चल रहा है। कि यदि किसी शिशु का वैज्ञानिक पद्धति से ठीक तरह लालन-पालन किया जाय तो क्या वह अमर या दीर्घजीवी हो सकता है। प्रयोग का आधार यह धारणा है कि कुविचार तथा असंयम ही बीमारियों के प्रधान कारण हैं। प्रयोग यह किया जा रहा है कि लड़की को न तो कुविचारों का शिकार बनने दिया जाय न असंयम का। अच्छी जलवायु वाले ‘लाज’ नामक टापू में एक भव्य भवन बनाकर उसे रखा गया और जीवनोपयोगी सभी सुविधाएं वहां जुटाई गई हैं। रायल फ्रेटरनिटी आफ मास्टर मेटाफिजिशियन्स संस्था के अध्यक्ष जेम्स वी. शेफर इस प्रयोग में बहुत रुचि ले रहे हैं और लड़की की शारीरिक, मानसिक व्यवस्था को सुव्यवस्थित बनाये रखने के लिए उन्होंने विशेषज्ञों का एक दल नियुक्त कर दिया है।

इसी आधार पर यह प्रयास भी किये जा रहे हैं कि मनुष्य की आयु को बढ़ाया जा सके। मृत्यु का कारण सामान्यतः यह समझा जाता है कि कोशिकाओं की मृत्यु के कारण ही शरीर भी मर जाता है। अब यह सोचा जा रहा है कि इन कोशिकाओं को फिर से नयी स्फूर्ति दी जा सके तो शायद मनुष्य मरने के बाद पुनः जी उठे।

कैलीफोर्निया विश्व-विद्यालय के मनोविज्ञान प्राध्यापक डा. जेम्स वेडफोर्ड की मृत्यु 73 वर्ष की आयु में हो गई। उनने मृत्यु से पूर्व अपनी संचित राशि 4000 डालर इस कार्य के लिए वसीयत की है कि उनके मृत शरीर को सुरक्षित रखा जाय और उसे विश्राम देने के बाद पुनर्जीवित करने का प्रयत्न किया जाय। इस धन राशि से उनके शरीर पर उपरोक्त प्रकार का अनुसंधान कार्य चल रहा है।

इस सम्भावना को आशा की दृष्टि से इसलिए देखा जा रहा है कि यदि मृत्यु के समय विघटन को एकाकी छोड़कर निर्माण की प्रक्रिया जो बन्द हो जाती है उसे यदि रोका जा सके तो मृत्यु को निरस्त कर सकना कुछ विशेष कठिन न रह जायेगा। यों शरीर में विघटन और निर्माण की प्रक्रिया साथ-साथ चलती रहती है और हम जीवित बने रहते हैं। मृत्यु एक ऐसी परिस्थिति का नाम है जिसमें विघटन तो चलता है पर निर्माण बन्द हो जाता है। यदि एनावोलिज्म (कोशों की पुनर्रचना) तथा मेटाबॉलिज्म (रस प्रक्रिया) का क्रम बन्द न हो तो मरणोत्तर जीवन इसी शरीर में सम्भव हो सकेगा। वैज्ञानिकों का विश्वास है कि 21 वहीं सदी के आदि या बीसवीं सदी के अन्त तक ऐसे उपाय निकल सकते हैं जिनसे मृतक को कुछ समय विश्राम देकर पुनः जीवित किया जा सके। अन्य जीव-जन्तुओं पर ऐसे प्रयोग चल भी रहे हैं उनसे मिली सफलता से अन्वेषकों का साहस इस दिशा में अधिक प्रबल होता जाता है।

लेकिन इन प्रयोगों में भी संयम, सदाचार को—कामुकता से बचने और उच्च आध्यात्मिक विचारणाओं में रमण करना अनिवार्य माना गया है। लाज नामक टापू पर रखी गयी बालिका पर इसी उद्देश्य से प्रयोग किये जा रहे हैं। यह प्रयोग और अब तक की मिली सफलतायें इसी आर्ष वचन को सिद्ध करती हैं—

ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्यु भुप्धनात् अर्थात्—ब्रह्मचर्य और तप से देवताओं ने मृत्यु को भी जीत लिया।

यह सोचना भी भूल ही होगी कि लिंगभेद, जैसी कोई विभाजन रेखा आत्म सत्ता में भी होगी। परस्पर ‘विरोधी लिंगों की’ भावना और उसका आकर्षण मनुष्य को तभी प्रभावित करता या गुदगुदाता है जब मन में कामुकता का ज्वार उठता हो। बस ट्रेनों की भीड़ भाड़ में किसी को यह ध्यान नहीं रहता। रहता भी है तो उस समय जब मन में काम-वासना का ज्वार उमड़ रहा हो। निद्रा और बेहोशी में भी लिंगभेद का अनुभव आभास नहीं होता। जब जागृत या सुषुप्त अवस्था में ही किसी को लिंगभेद का भान नहीं होता तो आत्मा के स्तर पर यह आभास कैसे हो सकता है। काम वासना के मनोविकार को नियंत्रित परिष्कृत किये बिना किसी भी स्थिति में आत्मा का विकास, उन्नत आत्मिक स्थिति नहीं प्राप्त की जा सकती।
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