आत्मा न नारी है न नर

चाहें तो नर बन जायें चाहें तो नारी

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मार्कण्डेय पुराण में अनुसुइया के तीन पुत्र—चन्द्रमा, दत्तात्रेय और महर्षि दुर्वासा के जस्म का विवरण आता है। यह तीनों ही देव शक्तियों के अंशावतार थे उनकी चेतना का सम्बन्ध ब्रह्माण्ड की अदृश्य शक्तियों के साथ था जबकि-शरीरों का निर्माण रासायनिक ढंग से हुआ था।

कथा इस प्रकार है। एक बार सती अनुसुइया ने ऋतु स्नान किया। प्राकृतिक जीवन में रहने के कारण उनका सौन्दर्य वैसे ही अपरिमित था। स्नान के बाद तो जैसे स्वयं कामदेव ही उनके शरीर में उतर आये। रजोदर्शन के उपरान्त श्रृंगार किये हुये अनुसुइया को देखकर एकाएक महर्षि अत्रिका मन कामोद्वेग से विचलित हो उठा। इससे उत्पन्न हुये विकार को व्यर्थ न जाने देने के लिये उन्होंने तीन प्रकार के रसायन (1) सतोगुणी—जिसे विष्णु का अंश कहते हैं (2) रजोगुणी—ब्रह्मा का अंश और (3) तमोगुणी—शिव का अंश—तैयार किये। यह तीनों एक प्रकार से अण्ड थे जिनमें उन्होंने अपने वीर्य कोष स्थापित किये। भ्रूण के विकास के लिये उचित परिस्थितियां आवश्यक होती हैं इसलिये इन तीनों को बाद में उन्होंने अनुसुइया के गर्भ में बिना सम्भोग के प्रतिष्ठित किया। यही गर्भ अन्त में क्रमशः चन्द्रमा, दत्तात्रेय और दुर्वासा के रूप में जन्मे। इन तीनों सन्तानों में अपने-अपने रसायनों के प्रकृति गुणों के साथ दैवी-गुणों की बहुतायत थी।

तामस मनु की उत्पत्ति भी इसी प्रकार स्वराष्ट्र नामक राजा के प्रभाव से एक हरिणी के गर्भ से हुई थी। इनमें शारीरिक दृष्टि से पशुओं के लक्षण होते हुये भी मानसिक दृष्टि से प्रकांड पांडित्य था। नृपति स्वराष्ट्र ने यह विद्या बहुत तप करके पाई थी। उन्होंने पंचाग्नि विद्या का गहन अध्ययन, अन्वेषण और प्रयोग किया था।

रावण स्वयं बड़ा वैज्ञानिक था। उसने भी अपनी मन्दोदरी के उदर से एक ऐसे ही भ्रूण को जन्म दिलाया था; पर पीछे उसने उसे असफल मानकर समुद्र में फिंकवा दिया। इस भ्रूण की विलक्षणता यह थी कि उसमें लाखों वीर्य-कोष एक साथ विकसित हो गये थे। गर्भ में यह संभव न था कि वे सब बच्चे हो जाते। दबे रहने के कारण अविकसित रह गये इसीलिये यह प्रयोग असफल हो गया था। यही भ्रूण बहते-बहते एक पीपल की जड़ों में अटक गया। वीर्य कोषों में जीवन तो था ही। सम्मिलित भ्रूण छितर गया और वे सब पीपल का दूध चूस-चूस कर उसी तरह बढ़ने लगे जैसे कोई एक कोषीय जन्तु (प्रोटोजोन) विकसित होता है। आखिर समुद्री आहार ले लेकर यह सब एक लाख पुत्रों में परिणत हो गये। उनमें सबसे प्रथम बालक ‘‘नारान्तर’’ नाम से प्रख्यात हुआ शेष सब भाइयों को लेकर उसने ‘‘बिहवावल’’ राजधानी बनाकर स्वतन्त्र राज्य स्थापित किया। यह सभी एक लाख भाई जुड़वां भाइयों के समान इतने मिलते-जुलते थे कि बाहर का कोई भी व्यक्ति उनमें से किसी की भी पहचान नहीं कर सकता था। अरब में पाये जाने वाले फायनिक्स पक्षी (यह पक्षी वहां रेगिस्तान में 6वीं शताब्दी तक पाये जाते रहे) के सम्बन्ध में भी एक ऐसा ही पौराणिक आख्यान आता है जिसमें यह बताया गया है कि रेगिस्तान में एक जगह राख पड़ी हुई थी। एक सन्त ने उसमें से ही युवा फायनिक्स को बनाया। ऐसा लगता है इस राख में प्रजनन वाले कोई अंश रहे होंगे और सन्त उनका जीव-विज्ञान से सम्बन्ध जानते रहे होंगे तभी उनके लिये यह सम्भव हुआ होगा।

रघुवंश में ‘‘युवनाश्व’’ नामक राजा एक बार जंगल में भटक कर ऋषियों के आश्रम में पहुंच गये, उन दिनों इस आश्रम में इस तरह का एक प्रयोग चल रहा था। विविध रसायनों से भरा एक घड़ा यज्ञ वेदी पर रखा गया था। यज्ञ के माध्यम से ऋषिगण उसमें उतारने का प्रयत्न कर रहे थे। घड़े का अधिकांश भाग जल था (स्मरण रहे प्रोटोप्लाज्मा जिससे जीवित शरीरों का निर्माण होता है उसमें अधिकांश भाग जल का ही होता है) रात में सब लोग सो गये। युवनाश्व भी यज्ञ मंडप के समीप ही सोये थे। रात में उन्हें प्यास लगी। वहां कहीं पानी नहीं दिखाई दिया। प्यास रोक सकने की स्थिति में भी वे नहीं थे निदान उस घड़े से ही लेकर जल उन्होंने पी लिया। अभिमंत्रित जल उनके उदर में गर्भ के रूप में बढ़ने लगा। ऋषियों के लिये यह और भी कौतूहल की बात हो गई थी, इसीलिये वे बराबर युवनाश्व की देखभाल करते रहे। अन्त में पूर्ण विकास होने पर युवनाश्व की दाहिनी कोश की शल्य-क्रिया करके बच्चे को जीवित निकाला गया। यह बालक ही मान्धाता नाम से विश्व विख्यात हुआ।

सुद्युम्न की कथा अग्नि पुराण में आती है वह पुरुष से स्त्री बन गया था। तब उसका नाम ‘‘इला’’ हो गया। इला एक दिन राजकुमारी के वेष में वन-विहार के लिये निकली। सोम के पत्र ‘‘बुध’’ ने उसे देखा तो वे कामासक्त हो उठे। उन्होंने ‘‘इला’’ को वहीं स्वीकार कर लिया ‘‘बुध’’ उसी प्रकार की नक्षत्रीय शक्ति है जिस प्रकार सूर्य और चन्द्रमा। वह कोई पुरुष नहीं था। बुध की चेतना शक्ति ने ही इला के गर्भ में प्रवेश किया था। इसी अमैथुनी सहवास से पुरुरवा नामक प्रतापी राजा का जन्म हुआ। भारतीयों में गोत्रों के नाम सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी आदि नाम से चलते हैं। यह इन्हीं आख्यानों से प्रारम्भ हुये हैं। अर्थात् यहां अमैथुनी सन्तानों का प्रचलन किन्हीं दिनों में सामान्य बात थी। यहां का वैदिक युग और पुराण काल दोनों ही विज्ञान की चरम प्रगति के काल थे। उन दिनों देव-शक्तियों के आवाहन और धारण द्वारा अमैथुनी सन्तानें उत्पन्न करने के सैकड़ों सफल प्रयोग हुये। यदि भारतीय अपने आपको यों प्रत्यक्ष देव-वंश का मानें, तो उसमें आश्चर्य जैसी कोई बात नहीं होनी चाहिये। प्रारम्भ के ‘‘स्वायंभू’’ पुरुष की उत्पत्ति भी तो ईश्वरीय ही है। उस पद्धति के बीच में भी कभी भी पुनः नया रूप देना सम्भव हो पाये तो उसमें किसी की आश्चर्य नहीं करना चाहिये। आज विज्ञान इस दिशा में तेजी से प्रयोग कर रहा है और एक दिन आने वाला है जब प्रयोगशालाओं में बच्चे पैदा होंगे और उपरोक्त पौराणिक गाथाओं की पुष्टि करेंगे। आज जो लोग वेद-पुराणों को कल्पना की उड़ान कहते हैं वही उन्हें सत्य सिद्ध होते अपनी आंखों से देखेंगे।

वैज्ञानिकों ने जीवित शरीर की इकाई प्रोटोप्लाज्मा का विश्लेषण कर लिया इसमें हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, सिलिकन, कार्बन, सोडियम, कैल्शियम, क्लोरीन, गंधक, फास्फोरस, मैग्नीशियम और आयोडीन तत्व पाये जाते हैं उन सबको प्रकृति से प्राप्त किया जाना संभव हो गया है अब उसमें चेतना डालना भर शेष रह गया है जिस दिन यह भी हो जायेगा उस दिन अमैथुनी सन्तानों का निर्माण भी होने लगेगा। तब सन्तान के लिये न स्त्री की आवश्यकता होगी न पुरुष की, किन्हीं प्रकाश किरणों से कृत्रिम—सन्तानें उसी प्रकार तैयार कर ली जाया करेंगी जैसे घड़े से कुम्भज ऋषि को पैदा कर लिया गया था। पैतृक गुणों की दृष्टि से यह सन्तानें देव-शक्तियों का ही प्रतिनिधित्व करेंगी।

कोश (सेल) जीवित पदार्थों द्वारा बनाये जाते हैं। पहले भोजन का प्रोटीन बनता है फिर प्रोटीन से ‘‘सेल’’। भोजन को निर्जीवन कहें और कोश (सेल) को जीवित तो प्रोटीन को उनके बीच की इकाई कहेंगे। प्रोटीन ही संजीव ‘‘सेल्स’’ का निर्माण करते हैं इसके बिना हाथ-पांव, पेट, मुंह, दांत आदि कुछ नहीं बन सकते। मुर्गी के अण्डों में प्रोटीन आश्चर्य जनक रूप से बढ़ता पाया गया है। इससे यह आशा हो गई है कि जिस प्रकार अन्न से अमीनो एसिड और अमीनो एसिड 24 तत्वों में बदलता हुआ जीवित कोश बन जाता है उसी प्रकार प्रोटीन सीधे भी रासायनिक क्रियाओं से तैयार किया जा सकता है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि वंश परम्परा और विकास के लिये यह प्रोटीन की बनावट और विशेषता ही सहायक है। कोर्नेल विश्व विद्यालय और फेलर इन्स्टीट्यूट न्यूयार्क आदि में यह पता लगाया गया है कि न्यूक्लिक तेजाब (जो लक्षण बीज (जीन्स) के मूल होते हैं) और अमीनो एसिड्स दोनों के अणु मिल कर ही शरीर का भवन और चेतना तैयार करते हैं। जीवित सेल में प्रोटीन के उत्पादन का पता लगते ही अमैथुनी सृष्टि का निर्माण प्रारम्भ हो जायेगा।

मियामी (फ्लोरिडा) विश्व विद्यालय के आणविक विकास संस्थान के डा. सिडनी फाक्स और उनके सहयोगियों का ध्यान उस ओर गया है जब पृथ्वी में पहली बार जीवन का आविर्भाव हुआ होगा। उस समय तो यहां गैस, ताप और पानी ही रहा होगा। इसलिये एक ऐसा थियेटर तैयार करके डा. फाक्स परीक्षण कर रहे हैं जिसमें वैसा ही वातावरण रहे जैसा जीवन के प्रादुर्भाव काल में रहा होगा। उन्होंने देखा गैसों को गरम करने से अमीनो अम्ल बनते हैं। इस अम्ल को गर्म करने से वह प्रोटीनायड का रूप ले लेता है। यदि उसमें पानी मिला दें तो एक ऐसा जटिल तत्व बन जाता है जो हमारे कोषाणुओं से बहुत कुछ मिलता जुलता है। यदि जीवित सेल की इस तरह रचना सम्भव हो गई तो केवल उस ढांचे का निर्माण ही शेष रह जायेगा जिसमें भर कर मनुष्य, पशु-पक्षी, कुत्ते, बिल्ली कोई भी आकृतियां बना लेना सम्भव हो जायेगा।

समझा जाता है कि नर और मादा का संयोग होना संतानोत्पादन के लिए आवश्यक है। पर यह मान्यता बड़े आकार वाले विकसित जीवों पर ही एक सीमा तक लागू होती है। छोटे जीवों में अगणित जातियां ऐसी हैं जिनमें प्रजनन के लिए साथी की सहायता लेने की आवश्यकता नहीं पड़ती। अपने शरीर में रहने वाली उभय योनियां समयानुसार आप ही संयोग बना लेती हैं और उस आत्मरति से ही प्रजनन का अध्याय पूरा हो जाता है।

पुरुष प्रजनन कोष (स्पर्म) में स्त्री और पुरुष दोनों के ही गुण सूत्र संभाव्य हैं, उसी प्रकार बिना पुरुष के समायोजन के अकेले अंड (स्त्री का प्रजनन कोष) की निषेचन क्रिया से भी सन्तान उत्पन्न की जा सकती है। स्मरणीय है गुण-सूत्रों का दुगना हो जाना ही गर्भादान की क्रिया का कारण होता है।

संसार के इतिहास में ऐसे उदाहरण सैकड़ों की संख्या में भरे पड़े हैं, जब केवल स्त्री ने ही संतान को जन्म दिया हो, अथवा पुरुष ने अकेले ही कोई बच्चा पैदा किया हो। स्त्री पुरुषों में से किसी का भी सहयोग न हो, ऐसे प्राणियों के जीवन की संभावनायें भी अब सत्य सिद्ध होने जा रही हैं और इस तरह विकासवाद के सिद्धांत की धीरे-धीरे धज्जियां उड़ने जा रही हैं।

शरीर, मात्र आत्मा का आवंटन

स्त्री के बीज कोश (ओवम) और पुरुष के बीज-कोश (स्पर्म) के मिलन से नये शिशु का जन्म और सन्तति क्रम इस संसार में चल रहा है पर यदि इसी क्रम को समय की लम्बी पाबन्दियां पार करते हुए, पीछे सुदूर अतीत में ले जायें तो एक प्रश्न वाचक चिन्ह लग जाता है सृष्टि का श्रीगणेश करने वाली सत्ता क्या थी।

इस सम्बन्ध में जीव शास्त्रियों और दार्शनिकों ने अपनी-अपनी तरह से विचार किया है। जीव शास्त्री इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि सृष्टि का वर्तमान स्वरूप और विकसित मनुष्य की उत्पत्ति एक कोषीय जीव के क्रमिक विकास का प्रतिफल है।

किन्तु—अपनी शक्ल निरन्तर बदलते रहने वाला एक कोश वाला जीव ‘अमीबा’ इस बात की घोषणा करता है कि संसार में प्राकृतिक नियम अन्तिम सत्य नहीं। अन्तिम व्यवस्था जीव चेतना के अन्तराल में समाहित है। अमीबा नर-नारी के संयोग से जन्म नहीं लेता। अमीबा बढ़ते-बढ़ते जब पूर्ण प्रौढ़ावस्था में आता है तो उसके शरीर का प्रथतावलास (प्रोटोप्लाज्मा अर्थात् शरीर का रसायन भाग) और केन्द्रक (न्युक्लियस जिनमें इसके जीवन के लक्षण होते हैं) दोनों दो भागों में विभक्त हो जाते हैं और इस तरह एक नये स्वस्थ शिशु अमीबा का जन्म हो जाता है। अमीबा की वंश-वृद्धि का क्रम इसी भांति चलता रहता है जो इस बात का उदाहरण है कि व्यवस्था की दृष्टि से सृष्टि ने आज जो भी रूप ले लिया हो पर सृष्टि उद्भव और विकास की सारी शक्ति जीवन के मूल तत्व इच्छा शक्ति पर आधारित है।

स्पंज नाम का छिद्रिष्ठ (फाइलम पोरी फेरा) जीव भी इसी कोटि में आता है। स्पंज के शरीर से चार कलियां निकल आती हैं मानो वह किसी बीज के अंकुये हों। कुछ दिन में यह कलियां हरकत करती हैं जिससे स्पंज गोलाकार चक्कर काटने लगता है। यह कलियां एक स्पंज के बीज कीट के दूसरे के डिम्ब कोश से मिलने के कारण पैदा होती हैं और यही स्पंज के अन्दर विकसित होकर उसके किसी एक छेद से निकल कर नये स्पंज के रूप में जन्म ले लेती हैं, पर यह इनकी वंश वृद्धि का एक तरीका है। दूसरा तरीका अमीबा की तरह का ही है। स्पंज का शरीर बढ़कर बढ़ा हुआ हिस्सा ही शरीर से अलग होकर दूसरा स्पंज बन जाता है और इस बात को प्रमाणित करता है कि समष्टि—जीवन चेतना एक अनादि तत्व है वह तत्व अपनी ही इच्छा से सृजन की शक्ति से नितान्त सम्पन्न और समर्थ है।

छत्रिक (जेलीफिश) और इसी तरह के कुछ अन्य जीव भारतीय दर्शन के ‘‘रयि और प्राण’’ तत्व का प्रतिपादन करते हैं। सृष्टि के मूल में प्रकृति और पुरुष की यह दो शक्तियां ही जहां इकट्ठी हो जाती हैं वहां एक स्वतन्त्र ब्रह्माण्ड—जीव की सृष्टि हो जाती है। वैसे दोनों दो भिन्न किन्तु पूरक तत्व हैं। छत्रिक के वृषण हाइड्रा के समान परिपक्व हो जाने पर फूट पड़ते हैं उसमें से छितरी हुई शुक्र कोशायें पानी में तैरने लगती हैं जहां कहीं डिम्ब कोश का संयोग हो जाता है शुक्र कोशायें 1 से 2, 2 से 4 की गुणोत्तर गति से बढ़ने लगती हैं छत्रिक प्रारम्भ में डिम्ब कीट (लाखा) की शक्ल ले लेता है और फिर पानी की निचली जमीनी सतह पर जाकर बैठ जाता है आधा इंच के इस लारवे में कई स्थानों पर दरारें पड़ जाती हैं। धीरे-धीरे सभी दरारों वाले हिस्से टूट कर अलग हो जाते हैं और जितने भी टुकड़े हो जाते हैं सबके सब नवजात छत्रिक बन जाते हैं।

भिन्न-भिन्न शरीर जीवात्मा के भिन्न-भिन्न क्षेत्र और यन्त्र हैं उनकी मूल चेतना एक ही समष्टि तत्व की अंश मात्र है, उसका यह महत्वपूर्ण उदाहरण है, किन्तु मनुष्य एक सर्वांगपूर्ण यन्त्र जो पा गया तो तो उसकी लौकिकता और भौतिकता में ही वह फूला नहीं समाया।आज की भौतिकतावादी तृष्णायें और मानवीय समस्यायें इसी आसक्ति के परिणाम हैं। यदि मनुष्य विचार और विवेक से काम ले तो मनुष्य और मनुष्येत्तर प्राणियों की विचित्रतायें ही यह समझा देती हैं कि मनुष्य का सत्य उसकी आत्म-चेतना है, शरीर नहीं। जो काम वह शरीर के विभिन्न अंगों से ले सकता है, वह अपनी मूल चेतना के विकास द्वारा चेतना से चेतना में ही ले सकता है।

कद्दूदाना (टेप वर्म) एक ऐसे ही उदाहरण वाला फीता-कीड़ा है। उसे न तो हाथ पांव उपलब्ध हैं और न मुंह। यह तो सुअर से लेकर मनुष्य शरीर तक जहां कहीं भी पहुंच जाते हैं रक्त शिराओं के द्वारा मांस पेशियों में घुस जाते हैं और अपने शरीर से ही दूसरे के अंग से रस चूस कर बढ़ते रहते हैं। यही स्थिति नर शक्ल कीट की होती है। पाव लंच लम्बे शरीर में आगे दो मूंछें जो उसे बहिरंग जगत की सूचना देने में एरियल का काम देती हैं पेट के पतली पूंछ और दो पंख मात्र होते हैं कोई मुंह नहीं होता। ऐसी स्थिति में उसका एक ही काम रह जाता है—प्रजनन, मादा को गर्भान्वित कर, पड़े रहने भर तक ही उसका सारा जीवन सीमित है मनुष्य भी यदि भोग परायण जीवन मात्र जिये तो उसमें और इन कीट पतंगों में क्या फर्क रहे, जबकि मनुष्य को परमात्मा ने एक बहुत ही उपयोगी यन्त्रों जटित मुकुट-मणि शरीर प्रदान किया है।

घ्राणेन्द्रिय श्वांस के लिये बनाई है। श्वांस से ऑक्सीजन तत्व मिलता है यही उसका उपयोग है। उसके लिये तरह-तरह की खुशबूयें जुटाना उद्देश्य नहीं। ऐसा रहा होता तो परमात्मा ने मे-फलाई कीड़ों को भी बढ़िया वाली नाक से सुसज्जित किया होता। यह कीड़ा अपनी त्वचा से ही श्वास लेकर आधी जिन्दगी काट देता है पीछे उसके गलफड़ भी निकल आते हैं।

. भंभीरी (ड्रेगन फ्लाई) नाम जीव की आंखों से मनुष्य की आंखें क्या तुलना कर सकती हैं। इसके पंख और शरीर में ही विधाता ने सौन्दर्य नहीं भरा, अंग-अंग में दिव्यता भरदी। सम्भव है उसे संसार को दिव्य भाव से देखने का गुण रहा हो और उसी के अनुरूप उसे ऐसा शरीर मिला हो। मनुष्य की दो आंखें दोनों में कुल दो ताल (लेन्स) वह भी अधिक से अधिक 180 डिग्री में घूम कर देख सकती हैं पर ड्रेगन फ्लाई है जिसकी आंखों में विधाता ने कई-कई हजार छपहल ताल जड़े हैं वह अपनी गर्दन को स्वतन्त्र रूप से 360 डिग्री में घुमाकर देख सकता है।

सिलवर मछली के मुंह में दो मूंछें होती हैं आंखें नहीं होतीं, पर क्या मजाल कि आंखों वाले उसे पराजित करदें या परेशान करें। उसकी यह मूंछें ही आंख का काम देती हैं। जो बातें अन्य लोग आंखों से भी नहीं देख सकते वह अपने दोनों एण्टेनाओं से सिल्वर मछली बखूबी देख लेती है।

घोंघों (लैण्ड स्नेल) के लिये पतझर—च्तु मरण तुल्य होती है। पौधों से खुराक मिलनी बन्द हो जाती है तब घोंघे अपने कवच में घुस जाते हैं और किसी सुरक्षित स्थान में बैठकर बिना कुछ खाये, बिना पिये और सांस लिये उसी स्थान पर बैठे रहकर जाड़ा बिता देते हैं।

एक बार एक वैज्ञानिक रोडनियस इल्ली का अध्ययन कर रहे थे उन्होंने जहां अन्य आश्चर्यजनक सत्यों की खोज की वहां एक बार यह भी देखा कि पांचवीं अवस्था की रोडनियस इल्ली का सिर कट गया तो भी वह ग्यारह महीने तक जीवित पड़ी रही। यह उदाहरण इस बात का प्रमाण है कि जीव-चेतना प्राकृतिक गुण नहीं एक स्वतन्त्र सत्ता है जिसकी विशेषतायें नैसर्गिक विशेषताओं से भिन्न कोटि की हैं। पूर्णता के गुण आत्म चेतना में हैं अतएव हमें आत्मा का अनुसन्धान करना चाहिये।

शरीर तो यन्त्र मात्र है। समुद्री झींगे (लोवस्टर) की दो मूंछें होती हैं जो उसके शरीर से भी लम्बी होती हैं। यह उसकी स्पर्शेन्द्रिय का काम देती हैं, जिस प्रकार कोई रैडार यन्त्र दूर-दूर की सूचनायें देता रहता है उसी प्रकार झींगे की यह मूंछें जब वह सो रहा होता है तब भी उसे आस पास के वातावरण की सूचनायें देती रहती हैं। इसकी विचित्र आंखें इस तरह की होती हैं मानो एक डण्डे में दो मोती जड़ दिये हों इन्हें वह इधर-उधर हिलाकर देखता रहता है।

प्रकृति के यह विलक्षण रहस्य जब तक अप्रकट हैं तब तक हम स्थूलताओं से घिरे हैं। यह रहस्य पूर्णतया प्रकट होंगे तो चेतन शक्तियों की महत्ता का पता चलेगा। हम यह मानने को विवश होंगे कि चेतन शक्तियों ने जब धरती में मनुष्य का आविर्भाव किया होगा तब प्राकृतिक परिस्थितियां ही उनके लिये पर्याप्त रही होंगी। विकासवाद की जटिलता से गुजर कर विकसित प्राणी तैयार करना उसके लिये आवश्यक न रहा होगा।

प्रकृति के विलक्षण रहस्यों को प्रकट करने में संलग्न विज्ञान अभी तो कई जीवों के बारे में यही निश्चित नहीं कर पाया है कि वह वनस्पति है अथवा जन्तु, समुद्र में पाया जाने वाला एक कोषीय जीव ‘डायठम’ किस श्रेणी में रखा जाये, यह अभी तक विवाद का विषय बना हुआ है। इसीलिये उसे उभयनिष्ट माना है भारतीय तत्व दर्शियों ने इस सारे गूढ़ ज्ञान के आधार पर वृक्षों को सन्धि योनि कहा तो इसमें कोई अत्युक्ति नहीं है और न कोई अस्वाभाविकता है। अथर्ववेद में कहा है—

इयं कल्याण्य जरा भर्त्यस्यामृता गृहिं । यस्यै कृता शये स यश्चकार नजार सः ।।

अर्थात् आत्मा जो कल्याण करने वाला है अविनाशी तत्व है और मर्त्य प्राणी के घर शरीर में रहता है। जिसे इस आत्म तत्व का बोध हो जाता है वह सुख प्राप्त करता है। और वही सब प्रकार से आदरणीय तथा सम्मान स्पंद है।

जो भी हो, इन प्रमाणों से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि वृक्ष वनस्पति हों अथवा जन्तु प्राणी आत्म सत्ता सभी में विद्यमान है। वह स्वयं को किस प्रकार प्रकट करे य चुनने के लिये वह स्वतन्त्र है तथा यह भी कि कौन सी योनि धारण करे इसका चुनाव करने के लिए भी स्वतन्त्र है।
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