आत्मा न नारी है न नर

एक ही शरीर में विद्यमान नर और नारी

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आस्ट्रिया की एक खिलाड़ी युवती एरिका का लिंग परिवर्तन ऐसे ही हुआ था। 1966 में जब वह 18 वर्ष की थी, बर्फ पर फिसलने की ओलंपिक प्रतियोगिता में वह विश्व-चैम्पियन बन गई थी। 1967 में पुनः वह प्रतियोगिता में भाग लेने की तैयारी कर रही थी। उसी क्रम में, सभी प्रतियोगियों के साथ उसकी भी शारीरिक जांच हुई। तब डाक्टरों ने बताया कि तुम्हारे भीतर का पुरुष-व्यक्तित्व विकसित हो चुका है।

एरिका खिलाड़ी थी। साहस उसमें भरपूर था। उसने विचार किया कि इस स्थिति में लड़की ही बनी रहने पर जीवन में अनेक कठिनाइयां आयेंगी। एक कठिनाई तो सामने ही थी। उसे यह कह कर प्रतियोगिता में भाग लेने से रोक दिया गया कि डाक्टरी रिपोर्ट के नतीजों के आधार पर अब तुम्हें लड़कियों वाली प्रतियोगिताओं में सम्मिलित होने के अयोग्य ठहरा दिया गया है।

एरिका ने अपना आपरेशन कराने का निर्णय कर लिया। सात महीनों तक आपरेशन और उपचार का क्रम चला। इसके बाद उसकी अस्पताल से छुट्टी हुई। अब वह एरिक नामक का एक पूर्ण विकसित लड़का था। नया जीवन वह उसी कुशलता से जीने लगा। उसने रीनेट नामक एक लड़की से 1975 में विवाह किया। 1976 में एरिक एक बच्चे का पिता बन गया। अपनी पत्नी और संतान के साथ वह आस्ट्रिया के सेंट अरबेन शहर में सुखी गृहस्थ जीवन जी रहा है और एक होटल तथा बर्फ में फिसलने का प्रशिक्षण देने वाला एक स्कूल चला रहा है।

अपने देश में सोलन शहर के निवासी जियालाल सुनार की तीसरी लड़की सुनीता के चार वर्ष की उम्र में आपरेशन के उपरांत पुरुष बन जाने की घटना ताजी है। सितम्बर 78 के प्रारम्भ में उसका आपरेशन छह डाक्टरों ने किया। यह लड़की 4 वर्ष की थी। डाक्टरों ने देखा कि उसके मूत्रमार्ग को पुरुषों के मूत्रमार्ग में बदलना एक आपरेशन द्वारा संभव है। दूसरे सभी लक्षण उसमें पुरुषों के ही विद्यमान थे। आपरेशन के बाद सुनीता लड़का हो गयी।

आत्मा न स्त्री है न पुरुष, यह इस घटना से स्पष्ट हो जाना चाहिये। जीवसत्ता जिस प्रकार की इच्छा आकांक्षा करती है उसी के अनुरूप नया शरीर मिलता है, भारतीय दर्शन की यह मान्यता है। अचेतन मन में, व्यक्ति जिसका विश्लेषण अपने आप भी नहीं कर सकता यदि इस तरह की आकांक्षा प्रबलतम रूप में घुमड़ रही हो तो यह परिवर्तन इसी जीवन में परिलक्षित हो जाती है।

1634 में प्रकाशित अपनी उपलब्धियों के प्रसंग में फ्रांसीसी सर्जन डा. एम्ब्रोज पारे और मान्तेग्ने ने जार्मे गार्नायर नामक एक 15 वर्षीय लड़की ने एकाएक पुरुष योनि में बदल जाने की घटना का उल्लेख किया है। जार्मे गार्नायर का जन्म विट्री ले फ्रान्से में हुआ। वह प्रायः सुअर चराने का काम करती थी। 15 वर्ष की आयु में एक दिन वह जंगल में सुअर चरा रही थी। उसके सुअर किसी किसान के खेत में घुस गये। खेत के किनारे-किराने ऊंची खाई थीं। जार्मे गार्नायर को पता चला तो वह भागी और रास्ते में पड़ रही खाई को लांघने के लिये जोर से कूदी। कूदने पर उसे पेड़ू में जोर का धक्का लगा, जिससे उसे यह जान पड़ा मानो उसकी आंतें फटकर बाहर निकल पड़ी हों। लड़की दर्द से चीख उठी। कुछ लोगों ने उसे उठाकर घर पहुंचाया। डाक्टरों को बुलाया गया। उन्होंने परीक्षा की और बड़े आश्चर्य के साथ घोषित किया कि लड़की-लड़का बन गई है। डॉक्टर ने निरीक्षण करके बताया कि उसके पेड़ू में पुरुष जननेन्द्रिय का विकास काफी दिनों से हो रहा था। डाक्टरों ने इस बात पर आश्चर्य किया कि मनुष्य शरीर की मूलभूत इकाई में दोनों प्रकार के गुण सूत्र किस प्रकार पाये जाते हैं। इस घटना से सारे नगर में तहलका मच गया और वहां एक विशेष गीत गाया जाने लगा, जिसका यह अर्थ होता था—‘‘जोर से मत उछलो नहीं तो लड़का बन जाओगी।’’ इस घटना के बाद जार्मे गार्नायर का एक पादरी द्वारा विधिवत् नाम संस्कार कराया गया और तब वह जर्मे मेरिका हो गया।

इंग्लैंड से छपने वाले साप्ताहिक पत्र ‘पियर्सन’ में एक लेख छपा जिसका शीर्षक ‘कुमारी कौव कोवा से श्री कौबेक’ है। कु. जेंकन कौबकोवा चेकोस्लोवाकिया की प्रसिद्ध महिला खिलाड़ी थी। यौवन में प्रवेश करते समय नारियों के विशेष लक्षण उभरते हैं पर इनके साथ उलटा ही हुआ। प्रारम्भ में स्तन थे, वह छोटे होने लगे। पेडू में उन्हें प्रायः दर्द हुआ करता। डाक्टरों को दिखाने पर पता चला कि उनके शरीर में पुल्लिंग विद्यमान है, तब उन्होंने अपना आपरेशन कराया। आपरेशन में कोई कष्ट नहीं हुआ और वे विधिवत् स्त्री से पुरुष बन गईं।

यह घटनायें यह बताती हैं कि मनुष्य के शरीर का विकास करने वाला पहल कोश (सेल) स्त्री-पुरुष दोनों की सम्भावनाओं से परिपूर्ण था। लिंग वाले लक्षण-बीज (जीन्स) में से पहले एक उभार में आया पीछे दूसरे ने उभार कर लिया और उस मनुष्य ने इसी शरीर में यौन परिवर्तन कर लिया।

अनेक बार शारीरिक दृष्टि से यौन परिवर्तन नहीं होता शरीर पुरुष का ही रहता है पर गुण सूत्र (क्रोमोसोम्स) स्त्री गुणों वाले विकसित हो जाते हैं, ऐसी अवस्था में पुरुष शरीर में रहने वाली चेतना भी स्त्रियों जैसे काम करती रहती हैं, उसे उसी में अच्छा लगता है, कदाचित यह पद्धति बदलनी पड़े तो उसमें उसे दुःख होता है। ऐसी अनेक घटनायें ‘मिस्ट्रींग ऑफ सेक्स’ नामक पुस्तक में श्री सी.जे.एस. टामस द्वारा दी गई हैं।

पेरिस के एक सरकारी पदाधिकारी में यह गुण असाधारण रूप में था। वह अपनी ड्यूटी के घन्टों के अतिरिक्त जब घर में होता तो प्रायः हमेशा ही स्त्रियों के कपड़े पहनता, वैसी ही बात-चीत करता, मुख के हावभाव भी बिलकुल स्त्रियों जैसे ही होते। 1926 में वह कई दिन तक घर से बाहर नहीं निकला तब पुलिस ने सन्देह में घर का ताला तोड़ा। उसने आत्म-हत्या कर ली थी। मृत्यु के कारणों का तो पता नहीं चला पर छत से लटकने तक वह जो वस्त्र पहने था, उनसे नारी-वृत्ति का गहरा परिचय मिलता है। अन्य वस्त्रों की बात तो दूर रही, उसने अन्डर-वियर और मोजे दस्ताने भी स्त्रियों के ही पहने थे। बाल भी वह स्त्रियों जैसे ही सजाये हुए था।

1923 में अमेरिका में एक दुर्घटना घटी। टेस्मर नामक दंपत्ति पर किन्हीं बदमाशों ने आक्रमण कर दिया। आक्रमणकारियों में एक स्त्री भी थी, जिसे श्रीमती टेस्मर ने पहचान लिया। प्रयत्न करने पर पुलिस ने एक शोफर और उसकी पत्नी को गिरफ्तार कर लिया, गिरफ्तार स्त्री को श्रीमती टेस्मर ने पहचान भी लिया। जेल में रह रही वह स्त्री तब लोगों के आश्चर्य का कारण बनी, जब लोगों ने देखा कि उसके दाढ़ी मूंछें निकलनी प्रारम्भ हो गई, पुलिस ने जांच की तो पता चला वह बदमाश पुरुष है। उसे स्त्री वेष, हावभाव इतने पसन्द थे कि वह छोटी अवस्था से ही स्त्रियों जैसे रहता, इस पर घर वालों ने उसे निकाल दिया। 1912 में उसने इन्डियाना के एक पुरुष से विवाह कर लिया। उसका गला बिल्कुल स्त्रियों जैसा था, इसलिये उसे कई बार स्त्रियों के मध्य गाने का भी अवसर मिला। 12 वर्ष बाद उसने एक लड़की से भी विवाह कर लिया इस पर उसका पति नाराज हुआ पर बाद में तीनों साथ-साथ रहने को सहमत हो गये। टामस नामक लेखक ने इस व्यक्ति के सम्बन्ध में लिखा है, उसमें पुरुषत्व के कोई भी लक्षण नहीं थे।

इंग्लैंड की ‘बैबीजेम्स’ तो इतिहास की एक मनोरंजक घटना बन गई थी। बैबीजेम्स को पुरुषत्व के हाव-भाव बहुत पसन्द थे। उसने अपना स्त्रीत्व आजीवन छिपाये रखकर हास्पिटल में डॉक्टर काम किया। कालेज के दिन भी उसने पुरुष वेश में ही बिताये। 1819 में वह स्टाफ सर्जन के रूप में भर्ती हुई और उन्नति करते हुए, 1851 में डिप्टी इन्सपेक्टर जनरल, 1858 में इन्सपेक्टर जनरल के उच्च पद तक पहुंचीं। जब उसकी मृत्यु हुई तब जाकर पता चला कि आजीवन पुरुष का सफल अभिनय करने वाला इन्सपेक्टर जनरल पुरुष नहीं, स्त्री था।

इतिहास के यह पृष्ठ हमें यह सोचने के लिये विवश करते हैं कि शरीर का आत्मा के लिये कोई महत्त्व नहीं। चेतना मन और विचार हैं और वह इच्छानुसार स्त्री या पुरुष हो सकता है। इच्छायें यदि अविकसित रहें तो परिवर्तन एक शरीर में से ही दूसरे शरीर में हो सकता है।

कुछ दिन पूर्व अमृत बाजार पत्रिका में एक समाचार छपा था कि हैदराबाद (सिन्ध की शेरपुर रियासत में गम्बात के पास के छोटे से गांव में काबू नामक 18 वर्षीय लड़का अचानक लड़की हो गया। इसे अब स्त्रियों की तरह मासिक धर्म भी होने लगा है और वह स्त्री के समान गर्भ धारण करने की क्षमता से भी परिपूर्ण है, जबकि जन्म से उसके शरीर में ऐसी कोई सम्भावनायें न थीं।

विकासवाद में अंगों और जन्तुओं के लुप्त होकर दूसरे जीवों में क्रमिक रूप से विकसित हो जाने की समय-सारणियां बड़ी लम्बी हैं। कई-कई परिवर्तन तो एक-एक लाख वर्ष में होते बताये गये हैं, जिनकी सत्यता कभी भी प्रामाणिक नहीं हो सकती। उस समय का कोई जैविक (बायोलॉजिकल) इतिहास उपलब्ध न होने से यह नहीं कहा जा सकता कि विकास की कल्पना सत्य होगी ही। हड्डियों और ढांचों के बारे में समय सम्बन्धी मान्यतायें गलत भी हो सकती हैं पर यह प्रत्यक्ष घटनायें तो इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि आत्म-चेतना अपने आप में विलक्षण शक्ति है और वह इच्छानुसार शरीर धारण करने में समर्थ है। कई बार इच्छायें स्वयं अनिर्णीत रह जाती होंगी और इस तरह वह ऐसे गुण सूत्रों में फंस जाती होंगी, जिनमें स्त्री व पुरुष दोनों के वंश-बीज विद्यमान् रहते होंगे। शरीर में आकस्मिक परिवर्तन इसी आधार पर होना सम्भव है। नील्स होयर ने ‘मैन इन्टू वूमैन’ नामक ग्रन्थ में ऐसी अनेक घटनायें प्रस्तुत की हैं और अपनी सम्मति देते हुये लिखा है—‘‘यह घटनायें सचमुच मानव-जीवन के अस्तित्व को और भी रहस्यपूर्ण बनाती हैं। लगता है कोई ऐसी सत्ता प्रकृति में काम कर रही है, जो अपने आप व्यक्त होने में समर्थ है उसका स्वरूप और शरीर विचारमय ही हो सकता है।’’ ऐसी घटनायें भारतीय संस्कृति के इतिहास में भी कम नहीं हैं, महाभारत में शिखण्डी के स्त्री से पुरुष में परिवर्तित होने का वर्णन आता है। पांचाल नरेश द्रुपद को रुद्र के आशीर्वाद से एक कन्या हुई। रुद्र की आज्ञानुसार राजा द्रुपद और उनकी रानी के अतिरिक्त यह भेद और किसी को भी प्रकट न हुआ। शिखण्डी का पालन-पोषण राजकुमारों की तरह ही हुआ। युवावस्था में पदार्पण करते ही राजा द्रुपद ने शिखण्डी का विवाह दशार्ण के सम्राट हिरण्यवर्मा की पुत्री से कर दिया। किन्तु राजकुमारी को शिखण्डी के सम्पर्क में आते ही पता चल गया कि वह स्त्री है। उसने यह बात अपने पिता तक पहुंचा दी। शिखण्डी को इस बात का पता चला तो उसने दुःखी होकर गृह-परित्याग कर दिया, वह वन में जाकर तप करने लगा। तप करते हुए शिखण्डी की व्यथा स्थूणाकर्ण नामक यक्ष को मालूम हुई। उसने शिखण्डी की शल्य चिकित्सा की और उसे पुरुष बना दिया।

सूर्य पुत्र वैवस्वत मनु के पुत्र का नाम सुद्युम्न था। सुद्युम्न एक बार जंगल की ओर गये। वहां शिव व पार्वती एकान्तवास में थे। सुद्युम्न की उस समय स्त्रियों की तरह काम-वासना भड़की। यों पौराणिक कथा यह है कि शिव ने शाप देकर उसे स्त्री बना दिया पर ऐतिहासिक तथ्य यह है कि शिव ने औषधि द्वारा उसके प्रसुप्त नारीत्व के लक्षणों को जागृत कर दिया था। इससे वह लड़की बन गया और उसका नाम ‘‘इला’’ पड़ गया। महान् सौन्दर्यशाली राजकुमार पुरुरुवा का जन्म इस यौन परिवर्तित इला के गर्भ से ही हुआ था।

यह पौराणिक गाथायें पढ़कर लोग भारतीय धर्म और उसकी आख्यायिकाओं को कल्पना की विलक्षण उड़ान कह कर हंसते और टालते हैं, पर जब वही बात विज्ञान और वर्तमान प्रमाणों के द्वारा सत्य होती दीख पड़ती है, तब वेदांग और पुराणों की वैज्ञानिकता को स्वीकार नहीं किया जाता। वही बातें भारतीय संस्कृति और अध्यात्म के लिये अन्ध-विश्वास बन जाती हैं, जबकि विज्ञान के लिये सत्य और तथ्य। बातें दरअसल दोनों ही एक हैं।

इंग्लैंड में मिडिल ग्रेट स्ट्रीट यारमाउथ नगर की दो बहिनों की घटना बड़ी विलक्षण है। इनका नाम था मार्जोरी और डेजीफेरो। जार्जोरी तब 13 वर्ष की थी और एक आर्ट-कालेज में पढ़ती थी, तभी उसे अपनी आवाज कुछ भारी और शरीर में विचित्र परिवर्तन से अनुभव हुये। विवश होकर उसे डाक्टरों की शरण लेनी पड़ी। डाक्टरों ने उनके शरीर में पुरुषत्व के लक्षण उभरते देखे। लन्दन के एक अस्पताल में उसकी चिकित्सा हुई और वह लड़की से लड़का बन गई। अब उसका नाम मार्क रखा गया।

मार्क और डेजो फेरो कुछ दिन भाई-बहिन की तरह रहे पर इसी बीच मार्क वाली शिकायत उसे भी उठ खड़ी हुई और उसका भी डाक्टरों को आपरेशन करना पड़ा। मार्क की तरह डेजी फेरो भी लड़का बन गई। उसका नाम डेविड रखा गया दोनों बहिनें—दो भाई हो गये और दोनों ने बाद में पुनः लड़कों के स्कूल के साथ-साथ शिक्षा ग्रहण की। इस घटना के पीछे भी वही रहस्य है, जो उन पौराणिक घटनाओं के पीछे। इन्हें कोई भी व्यक्ति अन्धविश्वास नहीं कहता, क्योंकि यह आधुनिक हैं। यदि यह घटनायें सत्य हैं तो भारतीय अध्यात्म की आख्यायिकाओं को भी सत्य ही मानना पड़ेगा। पुराणकाल विज्ञान के विकास का चरम काल था, उस समय इन घटनाओं द्वारा वही बातें प्रमाणित की गई थीं, जो आज की जा रही हैं। अमैथुनी सृष्टि वस्तुतः आत्म-चेतना का यथार्थ इतिहास है, उसमें गहन आध्यात्मिक रहस्यों का प्रवेश है, जिन्हें विज्ञान क्रमशः खोलता चला जा रहा है।

यौन परिवर्तन, कृत्रिम गर्भाधान

समाचार पत्रों में छपी कुछ और घटनायें इस प्रकार हैं। कैलाशनगर (अगरतल्ला) निवासी एक क्लर्क की 6 वर्षीया पुत्री सुमित्रा के शरीर में काफी दिन से ही विलक्षण शारीरिक परिवर्तन के चिन्ह प्रकट हो रहे थे। पिता ने अस्पताल में परीक्षण कराया। डाक्टरों ने बताया कि बालिका का यौन परिवर्तन हो रहा है। बाद में लड़की पूर्ण लड़का बन गई।

ड्रेसडन के शल्य चिकित्सक डा. वार्ने क्रुत्स ने जिस ईनर वेलरन नामक डेनिश चित्रकार को पुरुष से स्त्री बना दिया, उसका वृत्तान्त भी कम मनोरंजक नहीं। ईनर वेलनेर जब बीस वर्ष का था तभी उसने अपने साथ पढ़ने वाली एक लड़की से गन्धर्व विवाह कर लिया। चित्रकार के हाव-भाव बहुत कुछ स्त्रियों जैसे थे यह देखकर पत्नी प्रायः मुस्कराया करती पर तब तक उनके दाम्पत्य जीवन के सुख में किसी प्रकार का अन्तर नहीं आया।

एक दिन ईनर को उनकी स्त्री ने हंसी-हंसी में अपने कपड़े पहना दिये। इन कपड़ों में ईनर बिलकुल लड़कियों जैसा लगा। पीछे उसे स्त्रियों के वेष में देखकर उसके मित्रों ने उसका नाम भी स्त्रियों जैसा रख दिया। अब वह ‘‘लिली’’ नाम से पुकारा जाने लगा। यह नाम मानो उसके लिये ही चुना गया था। अन्त तक वह स्थायी रह भी गया क्योंकि उसके भीतर सचमुच एक नारी का व्यक्तित्व छिपा था समय बीतने के साथ-साथ वह लक्षण और स्पष्ट होते गये। उसकी मानसिक प्रक्रियायें तो तेजी से नारी के स्वभाव में बदलती गईं। उसे अपने ही यौन-अंगों के प्रति विलक्षण आकर्षण होता। इसे कुछ लोग उसकी मूर्खता और वहम बताते। कई शल्य-चिकित्सकों ने तो उसे मूर्ख कहकर अपने यहां से भगा भी दिया।

वर्तमान विज्ञान-वेत्ताओं का ध्यान प्रकृति की इस विलक्षणता की ओर गया होता कि उसके प्रत्येक कण में पुरुष और नारी भाव छिपा पड़ा है तो वे विकासवाद को यों ही गले का हार न बनाते। वे यह भी सोचते कि जिस प्रकृति में विलक्षण सत्यों के लिये स्थान है वह स्वतन्त्र पुरुष या स्त्री का अमैथुनी निर्माण भी कर सकती है।

फरवरी 1930 में ईनर की अवस्था बहुत गम्भीर हो गई। उसने आत्म-हत्या करने तक का निश्चय किया। सौभाग्य से इन्हीं दिनों ड्रेसडेन डॉक्टर वार्नेक्रुत्स पेरिस आये हुये थे। सो ईनर के कई मित्रों ने उनसे परीक्षण कराने की सलाह दी। ईनर ने ऐसा ही किया। बार्नेक्रुत्स ने उसके शरीर की परीक्षा करके बताया कि उसके शरीर के भीतर स्त्री और पुरुष दोनों के ही लक्षण हैं पर दोनों में से पूर्ण विकास के लिये किसी को भी अवसर नहीं मिल रहा इसलिये यह कष्ट पूर्ण स्थिति है। स्त्री होने की सम्भावनायें अधिक थीं वार्नेक्रुत्स ने उसे बर्लिन जाकर प्रोफेसर गेबहार्ड के पास शल्य चिकित्सा की सलाह दी।

ईनर बर्लिन चला गया। वहां उसका कठिन आपरेशन किया गया। आपरेशन के कुछ ही समय बाद उसकी आवाज विलक्षण ढंग से बदलने लगी। अब उसकी आवाज कोमल और सुरीली हो रही थी। आपरेशन से उसकी पुरुष योनि स्त्री योनि में बदल ही चुकी थी। कुछ ही महीनों में उसके स्तन भी उभर आये और इस तरह एक अच्छा हृष्ट-पुष्ट युवक कोमल भोली-भाली स्त्री में बदल गया। प्रकृति की इस विलक्षणता पर वैज्ञानिक कुछ भी प्रकाश डालने में असमर्थ हैं पर अब वे यह स्वीकार करते हैं कि प्रकृति में कोई विलक्षण मानसिक चेतना काम कर रही है और वह अपने आप ही ऐसे विलक्षण जीव और शरीर उत्पन्न करती रहती है। सम्भव है आरम्भ में मनुष्य की आविर्भाव भी ऐसी ही अमैथुनी स्थिति में हुआ हो। इसी प्रसंग में ‘‘अर्द्धनारीवर’’ के रहस्यों पर अलग प्रकाश डाला जायेगा जिसमें प्रकृति की सर्वशक्तिमत्ता का और भी विलक्षण प्रतिपादन होगा तथा उस में ऐसे पुरुषों के उदाहरण भी पढ़ने को मिलेंगे जिन्हें स्त्रियों के समान ही मासिक धर्म भी होता था और जो दूध भी दे सकने की स्थिति में थे।

मनुष्य अपने आप में पूर्ण है

इन घटनाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मनुष्य अपने आप में परिपूर्ण है और उसमें नर तथा नारी दोनों का अस्तित्व विद्यमान रहता है। जो समय पाकर कभी भी प्रकट हो सकता है।

यह कहा जाता है कि नर-नारी एक दूसरे के पूरक हैं; एक के बिना दूसरे का काम नहीं चलता। दोनों के बीच का आकर्षण उन्हें घनिष्ठता के सूत्र में बांधता है। इसलिए उन्हें एक दूसरे से पृथक न रहकर साथ-साथ रहना चाहिए।

यह प्रतिपादन एक सीमा तक ही ठीक है। माता-पिता की सहायता के बिना पुत्र या पुत्री का काम नहीं चलता। बहन-भाई के दुलार के बिना घर में उदासी रहती है। परिवार में चाची, ताई, बुआ, भाभी, बहन, बेटी आदि का अपना पक्ष है और बेटे, पोते, भाई, चाचा, ताऊ आदि-आदि का अपना। दोनों पक्ष साथ-साथ मिल जुल कर एक घर में रहते हैं तो उसमें नर-नारी के समन्वय से उत्पन्न एक पूरक स्थिति बनती है और उस द्विपक्षीय स्नेह, सहयोग से परिवार का वातावरण खिल पड़ता है। यह तथ्य ऐसा है जिससे इनकार करने की कोई आवश्यकता नहीं है। सहयोग हर क्षेत्र में सुखद होता है नर-नारी का सहयोग भी इस दृष्टि से उचित भी है आवश्यक भी और श्रेयस्कर भी। पर इस प्रतिपादन में कोई सार नहीं कि यौनाचार के लिए नर-नारी का सम्मिश्रण हुए बिना विवाह बन्धन में बंधे बिना कोई अपूर्णता रहती है। मनुष्य की क्या सभी प्राणियों की रचना इस प्रकार हुई है कि वह अपने आप में पूर्ण है। उनके भीतर ‘रयि’ और प्राण दोनों ही तत्व विद्यमान हैं और वे अपने भीतर ही नर-नारी मिलन से जो शक्ति उत्पन्न होने की बात कही जाती है उसे अनायास ही पूरा करते रहते हैं। नारी पक्ष और नर पक्ष दोनों ही उसके भीतर विद्यमान हैं। उसमें से जो अधिक विकसित हो जाता है प्रधानता अवश्य उसी स्तर की होती है पर इसका अर्थ यह नहीं कि किसी तत्व की ऐसी कमी होती है जिसकी प्राप्ति के लिए नर को नारी से या नारी को नर से कामुक सम्बन्ध बनाये बिना काम ही न चले।

छोटी जातियों के प्राणी प्रत्यक्षतया उभयलिंगी होते हैं। वे अपने आप में ही नर और नारी की दोनों ही विशेषताओं से युक्त होते हैं। उन्हें किसी एक जाति का घोषित नहीं किया जा सकता। वनस्पतियों में यही बात होती है, पुष्पों के माध्यम से उनका रजोधर्म होता है। खिलने का अर्थ है गर्भ धारण करने योग्य यौवन का उभार। हवा के साथ उड़कर या मक्खी, तितली आदि कीड़ों के सहारे पुष्पों का पराग एक दूसरे तक पहुंचता है। उससे उनका निसेचन होता है और गर्भ धारण करके फल देने लगते हैं। फूलों में उभयपक्षीय पराग पाया जाता है। गर्भ धारण करने की और गर्भ धारण कराने की भी—दोनों ही क्षमताएं उनमें पाई जाती हैं। न्यूनाधिक मात्रा होने की बात दूसरी है, पर सभी पुष्प होते उभयलिंगी हैं उनके परागों में दोनों लक्षण पाये जाते हैं। प्रयत्न पूर्वक उनके किसी भी पक्ष को उभारा जा सकता है। जिसे आज नारी जाति का पराग कहते हैं उसमें थोड़ा सा प्रयत्न करके उन्हें नर जाति का बना दिया जाता है। अधिकांश वनस्पतियों में तो दूसरे पौधों का पराग पाने की आवश्यकता ही नहीं होती, उनके भीतर अपने आप ही अन्तर्मिलन का उपक्रम बनता रहता है और फूल, फल, बीज उत्पन्न होते रहने की प्रक्रिया चलती रहती है। दूब जैसी घास अपने आप में वंश वृद्धि की दृष्टि से पूर्ण है। उसे इसके लिए किसी बाहरी सहयोग की जरूरत नहीं पड़ती।

बहुत से पौधे ऐसे हैं जिनकी लकड़ी काटकर अन्यत्र गाड़ देने पर नया पौधा उग आता है। गन्ना इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। उसकी हर गांठ में नर-नारी के उभयपक्षीय चिन्ह होते हैं और वे अपने पेड़ से अलग होने पर स्वतन्त्र वंश वृद्धि करने लगते हैं। गुलाब आदि कितने ही पुष्प जाति के पेड़-पौधे इसी प्रकार के हैं। बरगद, गूलर जैसे वृक्षों की डाली काट कर अन्यत्र लगा देने से नया पेड़ उत्पन्न होने लगता है। वनस्पति जगत प्रायः पूरा ही इस प्रकार का है कि प्रजनन की उभयपक्षी आवश्यकताएं अपने भीतर से ही उत्पन्न कर लें।

एक कोषीय ‘अमीबा’ जीवधारियों में सबसे पुरातन है। वह अपने शरीर के टुकड़े काट-काट कर पृथक करता रहता है और वे स्वयमेव एक स्वतन्त्र जीव बनते रहते हैं। यौन आकर्षण को प्रजनन प्रेरणा के नाम से वैज्ञानिक जगत में पुकारा जाता हैं। उनका कहना है कि स्त्री और पुरुष के बीच जो भावनात्मक आकर्षण पाया जाता है, उसके पीछे प्रकृति की प्रजनन प्रेरणा ही काम करती है। उनकी बात इस सीमा तक ही ठीक है। इन दो वर्गों में एक में वामपक्षीय और दूसरे में दक्षिण पक्षीय विद्युत शक्ति काम करती है और वे परस्पर मिलकर वंश वृद्धि का सरंजाम जुटाते हैं। इससे आगे बढ़कर यह कहना गलत है कि एक के बिना दूसरा अपूर्ण है, और दोनों जब तक कामुक उद्देश्य से मिलेंगे नहीं, तब तक उनमें अभाव बना रहेगा एवं अतृप्ति अनुभव होगी। यह कहना इसलिए गलत है कि तृप्ति, उल्लास एवं अपूर्णता को पूर्णता में विकसित करने वाले आवश्यक तत्व हर प्राणी में मौजूद हैं। उनमें विकास की समस्त आवश्यकताएं पूरी की जाती हैं, की जा सकती हैं। मनुष्य भी उनका अपवाद नहीं है।

छोटी जाति के जीवधारियों में अधिकांश उभयलिंगी होते हैं और वे अपनी प्रजनन आवश्यकता आत्मरति से ही पूर्ण कर लेते हैं। इनमें डिम्ब कीट भी होते हैं और शुक्र कीट भी। एक स्थान से दूसरे स्थान तक रेंग कर वे भीतर ही भीतर निसेचन एवं गर्भ धारण का कार्य पूरा कर लेते हैं और वे जीव बिना दूसरे साथी की सहायता के अपनी वंश वृद्धि एकाकी पुरुषार्थ से करते रहते हैं।

कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के शोध विभाग ने छोटे जलचरों को ऐसी 300 से अधिक जातियां ढूंढ़ निकाली हैं, जो प्रजनन के मामले में पूर्णतया आत्म-निर्भर हैं। जमीन पर रेंगने वाले और उड़ने वाले कीड़ों में भी हजारों ऐसे हैं जिनमें काम सेवन के योग्य अवयव नहीं होते उनका अपना यौवन ही उन्हें जनक एवं जननी दोनों का श्रेय प्रदान करने लायक रासायनिक द्रव्य अपने भीतर से ही उत्पन्न कर लेता है और वे स्वतन्त्र रूप से एकाकी संतानोत्पादन करते रहते हैं।

‘आर्कोपीडा’ कीड़ा उस ‘इससेक्टा’ वर्ग में आता है उसकी बिरादरी आये दिन अपना लिंग परिवर्तन करती रहती है। कभी नर कभी नारी के अवयव विकसित होते और बदलते रहते हैं। कहा नहीं जा सकता कि वह कब तक नर रहेगा और कब तक नारी बन जायेगा। कब उसे पिता कहा जायेगा और कब उसे माता की श्रेणी में गिना जायेगा। उसके साथी ऐसी ही उलट-पुलट करते रहते हैं। पति कभी पत्नी बन जाता है और कभी पत्नी पति बनकर अकड़ती फिरती है। यह परिवर्तन कुछ अद्भुत नहीं है। क्योंकि उनके भीतर दोनों ही तत्व रहते हैं। थोड़ी प्रतिशत का ही अन्तर रहता है जिसे प्रकृति की छोटी सी हलचल ज्वार भाटे की तरह घटा-बढ़ा देती है और वे कभी इधर कभी उधर लुढ़कते बदलते रहते हैं।

बड़ी जाति की मछलियों में यौन परिवर्तन तो नहीं पर प्रजनन तत्व आसानी से घटाये बढ़ाये जा सकते हैं। वर्लिन के जल जीव शोध संस्थान ने मछलियों में कई प्रकार के विशिष्ट विद्युत प्रकाश देकर उनकी पिट्यूटरी ग्रन्थि में पाये जाने वाले स्टियुर्लिटिंग और लूटिनाइजिंग हारमोनों की मात्रा बढ़ाने में सफलता प्राप्त करली है। इस प्रयोग से उन मछलियों में चार गुनी प्रजनन क्षमता बढ़ी और उनने उसी अनुपात में अण्डे दिये। कैटफिश आमतौर से जुलाई और सितम्बर के बीच केवल एक बार अण्डे देती है, उसे विशेष वातावरण में रखकर और विशेष चारा देकर साल में चार बार अण्डे देने का अभ्यस्त बना दिया गया।

. प्रो. रिचार्ड गोल्ड स्मिथ ने जिप्सी नोथ पतंगे पर प्रयोग करके उसे नर से नारी और नारी से नर बना देने में सफलता प्राप्त की है। उनका कहना है कि इसमें कोई आमूल-चूल परिवर्तन नहीं करना पड़ा। इसमें दोनों ही क्षमताएं विद्यमान थीं, उनके अनुपात को थोड़ा-सा घटाने बढ़ाने में ही जरा-सा श्रम करना पड़ा है। ऐसा ही प्रयोग फ्रान्स के प्रो. वर्नाड जेम्स ने ड्रोजोफिला कीड़े पर किया है, वे भी लिंग परिवर्तन के अपने प्रयोगों में पूर्ण सफल रहे हैं।

मनुष्यों में इस प्रकार के प्रत्यक्ष परिवर्तन अब बहुत बड़ी संख्या में प्रायः हर देश में सामने आ रहे हैं। नर में नारी के और नारी में नर के यौन चिन्हों का प्रकट, विकसित और परिपुष्ट होना—अस्पतालों में शल्य चिकित्सा द्वारा उनका पूर्णरूपेण लिंग परिवर्तन होना अब आश्चर्य कौतुहल का विषय नहीं रहा। ऐसी घटनाएं आये दिन समाचार पत्रों में छपती रहती हैं। अब यह मान लिया गया कि ऐसा होना शरीर विकास का एक छोटा-सा दिशा परिवर्तन मात्र है कोई असम्भव या प्रकृति क्रम का व्यतिरेक या विपर्यय नहीं। अब ऐसी घटनाएं जो अस्पतालों के रिकार्ड में दर्ज हैं हजारों की परिधि को लांघ चली हैं।

जोर्डन लेग्ले हाल तीस वर्ष की आयु तक एक प्रसिद्ध अंग्रेज लेखक के रूप में विख्यात थे। उनकी अमेरिका में धाक थी। सम्मानित पत्र-पत्रिकाओं में उनके लेख छपते थे और इसी आधार पर वे अच्छी आजीविका उपार्जित करते थे। रहस्य प्रकट होने से पूर्व कई वर्ष से वे अनुभव कर रहे थे कि उनका सैक्स बदल रहा है। वे नर से नारी के रूप में क्रमशः परिवर्तित हो रहे हैं। मूंछों पर पहले सामान्य लोगों की तरह बाल आते थे पीछे वे उगने बन्द हो गये। वक्षस्थल पर स्तन उभरने लगे और जननेन्द्रिय छोटी होते-होते मात्र मूत्र विसर्जन का माध्यम भर रह गई। उन्हें लगने लगा कि भीतर ही भीतर एक नई जननेन्द्रिय उभर रही है जो नारी जैसी है।

कुछ समय ऐसे ही छिपाये रहने के पश्चात् उन्होंने अपनी डाक्टरी परीक्षा कराई तो विदित हुआ कि वे लगभग पूर्ण नारी की स्थिति में पहुंच चुके। इसके लिए एक छोटा आपरेशन कराना मात्र शेष है। वह कराया गया और वे सचमुच ही नारी बन गये। अमेरिका के चार्ल्सटन नगर के लोगों ने कौतूहल पूर्वक इस समाचार को सुना और समाचार पत्रों में उनकी चर्चा हुई। बात इतने तक ही समाप्त नहीं हुई। उन्होंने अपना नाम बदला और एक नीग्रो युवक जानपाल सिमोन्स से अपना विवाह कर लिया यह विवाह भी बहुत चर्चा का विषय रहा और उसका भरपूर विरोध हुआ क्योंकि दक्षिणी अमेरिका अपेक्षाकृत रंग भेद की नीति में अधिक कट्टर है और वहां गोरी लड़की का काले लोगों के साथ विवाह करने को सामाजिक अपराध माना जाता है। इतने पर भी वह विवाह हुआ और उन्होंने सफल दांपत्य जीवन निवाहा।

इन लिंग परिवर्तित व्यक्तियों के स्वभाव में तो बहुत पहले से ही अन्तर आ गया था पर परिवर्तित यौन उभार पीछे दिखाई पड़े। शल्य क्रिया के पश्चात् उनकी स्थिति परिपक्व होती चली गई और वे पिछली आदतों को भूल कर पूर्णतया नर से नारी की आकृति एवं प्रकृति में बदल गये। उनने अपने विवाह किये और सुखी गृहस्थ भोगा। पिछले दिनों एक कमी थी कि ऐसे परिवर्तित लिंग वाले विवाह जोड़े सन्तानोत्पादन नहीं कर पा रहे थे अब यह बांध भी टूट गया। कुछ पूर्व चार्ल्सटन (दक्षिणी कैलीफोर्निया) में जान लेगलेपाल साइमन्स नामक महिला, नर-यौन परिवर्तन कराकर नारी बनी थी। उसने विवाह किया—गर्भिणी बनी और सन्तान को जन्म दिया। इस प्रकार की संसार में यद्यपि यह पहली घटना है तो भी यह सिद्ध तो हो ही गया कि परिवर्तन उस सीमा तक भी सम्भव है।

यह परिवर्तन क्रम यों रिकार्ड में पिछले पचास वर्ष से ही आया है। पर इसका अर्थ यह नहीं कि भूतकाल में ऐसा होता नहीं रहा होगा। चूंकि यह विषय गोपनीय एवं लज्जास्पद माना जाता है इसलिए जहां ऐसे परिवर्तन हुए होंगे वहां छिपा कर रखा जाता रहा होगा। जनखे तो अभी भी हर देश में पाये जाते हैं। भारत में तो उनकी एक बिरादरी ही बन गई है। अरब देशों में भी वे इसी तरह होते हैं। अन्य देशों में वे विन्यास तो नहीं बदलते पर मनःस्थिति एवं आदतें तो अक्सर विपरीत लिंग वालों की तरह होती हैं। नपुंसकों का वर्ग ऐसा ही है। स्त्रियों जैसे वस्त्र आभूषण एवं श्रृंगार किये नाचने, गाने का पेशा कराने वाले उसी प्रकार के हाव-भाव व्यक्त करने वाले जनखे कहीं भी पाये जा सकते हैं। इनमें से अधिकांश ऐसे होते हैं जो पुरुष वर्ग के थे पर यौन व्यवधान ने उन्हें स्त्री बना दिया। मुगल काल में उनके बहुत बड़े हरम जिनमें सैकड़ों बीवियां रहती थीं यह जनखे उनकी पहरेदारी करते थे।

नारियों में भी हर क्षेत्र में ऐसी अनेकों पाई जाती हैं जिनकी अधिकांश चेष्टाएं पुरुषों जैसी होती हैं उनमें से कितनी ही तो मर्दों जैसी पोशाक भी पहनती हैं और उसी ठसक से चलती, बोलती हैं। इनमें से कितनों की दाढ़ी, मूंछ भी निकलती हैं।

समलिंगी मैथुन एवं विपरीत रत का प्रकरण लज्जास्पद एवं अवांछनीय होने के कारण प्रायः पर्दे के पीछे ही छिपा रहता है पर यदि पर्दे को उघाड़ा जाय तो प्रतीत होगा कि ऐसे नर-नारी भी कम नहीं जिनकी यौन तृप्ति अपने वर्तमान लिंग से भिन्न प्रकार की चेष्टाओं से ही होती है। उनके कामुक चिन्तन की धुरी प्रायः भिन्न वर्ग के अनुरूप होती है। ऐसे व्यक्तियों के बारे में यह अनुमान लगाया जाता रहा है कि वे पिछले जन्म में दूसरे लिंग के रहे होंगे अथवा जिस दशा में उनकी मनोभूमि चल रही है उसे देखते हुए वे अगले जन्म तक अपना लिंग बदल लेंगे। वैज्ञानिक विश्लेषण इस स्थिति का यह है कि हर मनुष्य में उभयलिंग के तत्व रहते हैं। सामान्यतया स्वाभाविक रूप से जो जिस संज्ञा का है उसमें उसी प्रकार की आकृति प्रकृति पाई जाती है पर सम्भव यह भी है कि भिन्न स्थिति जो प्रायः सुप्त स्थिति में पड़ी होती है क्रमशः जागती और प्रबल होती चली जाय। दोनों तत्वों में से जो बढ़ेगा वह दूसरे को झीना करेगा। लिंग भेद की स्थिति में जो विपरीत कामुक विचारणाएं एवं चेष्टाएं पाई जाती हैं उनका यही कारण है। यह सब अनायास आन्तरिक परिवर्तनों एवं उभारों के कारण भी होता है किन्तु यदि कोई चाहे तो संकल्पपूर्वक भी ऐसी विपरीत स्थिति में अपने को ढाल सकता है।

क्योंकि मूलतः हर प्राणी में हर मनुष्य में दोनों स्तर के तत्व मौजूद हैं। नारी तत्व को ‘रयि’ और नर तत्व को ‘प्राण’ कहते हैं। एक में ए.सी. करेन्ट की दूसरे में डी.सी. करेन्ट की प्रधानता है पर जिस प्रकार विद्युत यन्त्रों में परिवर्तन किया जा सकता है। उसी प्रकार प्राणियों की शारीरिक व मानसिक स्थिति में भी हेर-फेर सम्भव है। उपरोक्त विवेचन विश्लेषण के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि प्रत्येक प्राणी विशेषतया मनुष्य अपने आप में न केवल अन्य सभी दृष्टियों से वरन् लिंग भेद की दृष्टि से भी पूर्ण है। आत्मा पूर्ण से पैदा होती है इसलिए पूर्ण है। ‘‘पूर्ण मदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्ण मुदच्यते’’ वाले श्रुति वचन में जिस तथ्य का प्रतिपादन किया गया है वह हर कसौटी पर खरा है। मनुष्य पूर्ण है उसकी दोनों इकाइयां नर और नारी के रूप में भिन्नता युक्त तो हैं, एक दूसरे के लिए आवश्यक उपयोगी एवं सहयोगी भी हैं पर यह कहना उचित नहीं कि एक के बिना दूसरा अपूर्ण है। दूसरे पक्ष की सहायता बिना उसकी आत्मिक या भौतिक प्रगति रुकी पड़ी रहेगी। नारी कला, कोमलता का और नर शौर्य साहस का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनकी विशेषता अधिकता जरूर रहती है पर इसका अर्थ यह नहीं कि दोनों पक्षों में से कोई ऐसी विशेषताओं से रहित है जो शारीरिक, मानसिक और आत्मिक पूर्णता में बाधा पहुंचती है। नर और नारी तथा नारी और नर परस्पर स्नेह सहयोग से रहे यह सब प्रकार उचित सराहनीय और मानवी गरिमा के उपयुक्त है पर किसी को किसी की अनिवार्य रूप से ऐसी आवश्यकता है जिसके बिना गुजारा ही नहीं, यह सोचना व्यर्थ है।
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