आत्मा न नारी है न नर

अमैथुनी सृष्टि होती है, हो सकती है

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प्रगति के पथ पर अग्रसर होते हुये जड़ तत्व चेतन बनने की दिशा में क्रमिक विकास कर रहे हैं। यह एक तथ्य हैं। सुविकसित प्राणी-चेतना प्रखर चेतन भले ही उनमें न हो, पर उनमें किसी मात्रा में वह स्फुल्लिंग विद्यमान अवश्य है जो चेतना का सूक्ष्म-सा परिचय देते हैं और अपनी दिशा जड़ता से मुक्ति पाकर चेतना के चरम लक्ष्य की ओर रेंगते चलने का आभास देते हैं।

जड़ चेतन में भगवान की सत्ता के विद्यमान होने का परिचय इसी दृष्टि से प्राप्त किया जा सकता है कि चेतन के स्तर की न सही एक हलकी-सी झांकी उसमें भी आगे बढ़ने की—ऊपर उठने की—विकसित होने की आकांक्षा के रूप में पाई जाती है। इस अंश को ईश्वरीय चेतन सत्ता की विद्यमानता के रूप में लिया जा सकता है।

हलचल धातु पाषाण जैसे जड़ पदार्थों में भी पाई जाती है। कोई भी वस्तु पूर्णतया निष्क्रिय नहीं है। उसके परिवर्तन आंखों से भी देखे जा सकते हैं। बारीकी से देखने पर अणु संरचना के भीतर चल रही अत्यन्त द्रुतगामी हलचलें तो धूलि के छोटे कण में भी पाई जा सकती हैं, इस सक्रियता को भी ईश्वरीय अंश माना जा सकता है।

साधारणतया जीवन को वनस्पति वर्ग और प्राणि-वर्ग में बांटा जाता है पर सर्वथा निर्जीव कहे जाने वाले धातु पाषाण जैसे पदार्थों में भी प्रसुप्त चेतना का एक अंश पाया गया है, ऐसी दशा में असमंजस यह खड़ा हो गया है कि क्या जड़-पदार्थों को भी अल्पजीवन क्षमता सम्पन्न प्राणधारियों में ही गिना जायेगा। मनुष्य यों प्राणिवर्ग में ही आता है पर असाधारण बुद्धिमत्ता, मस्तिष्कीय संरचना, इन्द्रिय-चेतना और शरीर गठन को देखते हुए एक अतिरिक्त चतुर्थ चेतन वर्ग की गणना करने की आवश्यकता प्रतीत होती है। भोजन को ऊर्जा में बदल सकने की क्षमता वाले को जीवधारी मानने वाले परिभाषा अब बहुत पुरानी हो गई।

सेल में जीवन रस प्रोटोप्लाज्म भरा होता है। उस रस में 12 तत्व मिले होते हैं कार्बन, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, हाइड्रोजन, सल्फर, कैल्शियम, पोटेशियम, मैग्नीशियम, लोहा, फास्फोरस, क्लोरीन और सोडियम। इससे सिद्ध होता है कि जड़ पदार्थों का संमिश्रण जीवन तत्व की स्थिरता और प्रगति के लिये आवश्यक है। ऐसी दशा में इन रसायनों में भी जीवन की झांकी की जाय तो कुछ अनुचित न होगा।

एक जीवित प्राणी में अगणित जीवन तत्व विद्यमान रहते हैं। एक बूंद खून में हजारों सेल रहते हैं। रक्त में छोटी-छोटी लाल रक्त की कोशिकायें हैं। जिनमें होमोग्लोबिन नामक लौह मिश्रण बहुलता से भरा होता है। इनसे कुछ कम संख्या में सफेद रक्त कोशिकायें हैं। ये रुग्णता के आक्रमण से लड़ती हैं। जिनमें आत्मरक्षा और प्रतिरोधी से लड़ने का ज्ञान विवेक मौजूद है उन्हें अचेतन कैसे कहें? ऐसी दशा में जड़ माने जाने वाले शरीर की प्रत्येक कोशिका को एक स्वतन्त्र जीवधारी और जड़ माने जाने वाले शरीर को चेतन घटकों का समूह संगठन कहने में कोई अत्युक्ति नहीं है।

केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के अणु विज्ञानी फ्रेडहोयर्ले और प्रो. जेवी नार्बिकर इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं—विश्व रचना सम्बन्धी अणुओं और मनुष्य शरीर के जीवाणुओं की संरचना में कोई मौलिक अन्तर नहीं है। भले ही उनकी गतिविधियां भिन्न दिशाओं में चलती और भिन्न दशाओं में काम करती दिखाई दें। इस दृष्टि से अणु भी चेतना के निकट ही जा पहुंचता है।

ईश्वरीय इच्छा का प्रतिफल

जीवन चेतना के अस्तित्व और विकास को लेकर वैज्ञानिक प्रायः विभिन्न मत, विवाद, प्रतिपादित दिया करते हैं। इस संदर्भ में डार्विन और लेस्पार्क आदि के द्वारा प्रतिपादित विकासवाद (थ्योरी ओफ एवोल्यूशन) का जो सिद्धांत दिया है, यदि वह सत्य नहीं है तो पृथ्वी में मानव की उत्पत्ति को ईश्वरीय इच्छा का प्रतिफल कहा जायेगा। डार्विन और लेम्मार्क आदि ने विकासवाद (थ्योरी आफ एवोल्यूशन) का जो सिद्धान्त दिया है, यदि वह सत्य नहीं है तो पृथ्वी में मानव की उत्पत्ति को आकस्मिक और ईश्वरीय इच्छा का प्रतिफल ही कहना होगा। ईश्वरीय सत्ता और उसकी सर्वशक्तिमत्ता को काल्पनिक कहने वाले लोग तब यह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि यदि मनुष्य का प्रादुर्भाव आकस्मिक संयोग है और सबसे प्रथम ब्रह्मा का पुरुष वेष में जन्म हुआ तो उनके द्वारा सन्तानोत्पत्ति कैसे सम्भव हुई? सन्तान की उत्पत्ति के लिये स्त्री और पुरुष का समायोजन आवश्यक है, फिर अकेले ब्रह्मा जी अमैथुनी सृष्टि उत्पन्न करने में किस प्रकार समर्थ हुए?

अमैथुनी सृष्टि का मातृक पक्ष भी है, जिसमें केवल स्त्रियों द्वारा सन्तान पैदा करने की बात आती है। यह बात केवल भारतीयों में ही प्रचलित नहीं है वरन् प्रायः सभी धर्मों में ऐसे आख्यान मिलते हैं, जिनमें अमैथुनी प्रजा का यह दूसरा रूप अर्थात् बिना पुरुष के संयोग के स्त्री द्वारा सन्तानोत्पत्ति का, विवरण मिलता है। सामान्य श्रेणी के व्यक्तियों के लिये यह दोनों ही प्रसंग अप्रामाणिक हैं। इस सम्बन्ध में समुचित जानकारी न होने से ही आज तक अति-मानवता के उत्तर स्तर उत्पन्न हुई विभूतियां कलंकित हुई हैं।

भगवान् राम अपने भाइयों सहित पिता के संयोग के बिना जन्मे थे। इतिहास प्रसिद्ध घटना है कि जब दशरथ की आयु ढलने लगी और उन्हें कोई सन्तान नहीं हुई तो उन्होंने गुरु वशिष्ठ के पास जाकर अपना दुःख प्रकट किया। वशिष्ठ ने तब श्रृंगी ऋषि को बुलाकर पुत्रेष्टि यज्ञ कराया। इस यज्ञ में ‘चरु’ में देव शक्तियों का आह्वान कर उसे तीनों रानियों को बांट दिया गया। एक-एक भाग मिलने के कारण कौशिल्या और कैकयी को एक-एक और दो भाग मिलने के कारण सुमित्रा ने जुड़वां बच्चों को जन्म दिया। इस घटना ने सिद्ध कर दिया था कि देव-शक्तियों को कृत्रिम गर्भाधान द्वारा मानव आकृतियों में लाया जा सकता है। ऐसे जो भी शरीर पैदा हुए हैं, शारीरिक गुण धर्म से वह भले ही मनुष्य जैसे रहे हों पर उनकी अतीन्द्रिय क्षमतायें बहुत बढ़ी-चढ़ी रही हैं; इसलिये उन्हें देवदूत, पैगम्बर और साक्षात् भगवान् माना जाता रहा। देव उपासना के द्वारा पुरुष और स्त्री शरीरों में ऐसी शक्तियों का आवाहन, धारण और प्रजनन, आज भी सम्भव है।

मरियम तब कुमारी ही थीं, जब उन्होंने महापुरुष ईसा को जन्म दिया। मरियम की ईश्वर भक्ति और उनकी आत्म-पवित्रता सर्वविदित थी, इसलिए तब उन पर किसी ने दुराचरण का दोषारोपण नहीं किया। पीछे जिन लोगों ने सन्देह किया वह उनकी अपनी भ्रान्त धारणायें थीं। महापुरुष ईसा में जो विशेषतायें थीं, वह बताती थीं कि इस आत्मा का प्रादुर्भाव वंशगत नहीं वरन् ब्रह्माण्ड की किन्हीं अदृश्य शक्तियों से है। तभी तो वे हर किसी के मन की बात जान सकते थे, एक पाव रोटी से, सैकड़ों आदमियों की भूख मिटा सकते थे, किसी भी रोगी को केवल स्पर्श और आशीर्वाद से अच्छा कर सकते थे। विज्ञान ने अमैथुनी सृष्टि की पुष्टि कर दी है, एक दिन वह भी आवेगा, जब चमत्कार जैसी लगने वाली महापुरुषों की यह बातें भी विज्ञान ऐसे सत्य सिद्ध कर देगा जैसे किसी छोटी-सी डाल के पत्ते गिनकर बता देना।

कर्ण का जन्म कुन्ती के उदर से हुआ था। कुन्ती एक दिन गायत्री मन्त्र का जप कर रही थीं। महाभारत में कथा आती है कि वे उस दिन अत्यधिक ध्यानावस्थित थीं। उन्हें लगा जैसे भगवान् सूर्यदेव उनके पास हैं, उन्हें स्वीकार कर रहे हैं, उनका भर्ग (तेज) उनके गर्भ में प्रविष्ट हुआ और वे सचमुच गर्भवती हो गईं। कर्ण सूर्य के समान तेजस्वी और अप्रतिम दानी थे। वह क्षमता महाभारत के और किसी योद्धा में नहीं थी।

पाण्डु ने एक बार ऐसे मृग के जोड़े का वध कर दिया था, जो उस समय काम-क्रीड़ा कर रहे थे। पाण्डु को मृगों ने शाप दिया ‘‘तुम्हारी मृत्यु भी ऐसे ही होगी।’’ और इसके बाद की घटना है कि उनकी दोनों रानियों कुन्ती और माद्री ने देव-शक्तियों के आह्वान द्वारा अमैथुन पुत्रों को जन्म दिया। यम के पुत्र युधिष्ठिर साक्षात् धर्मावतार थे। इन्द्र के पुत्र अर्जुन के शौर्य और पराक्रम का कोई और जोड़ीदार नहीं था। भीम मरुत पुत्र थे, उनमें वायु से भी प्रचण्ड बल विद्यमान था, नकुल सोम के अंश से जन्मे होने के कारण ज्योतिर्विद्या के अद्वितीय पण्डित थे। एक मात्र सहदेव ही ऐसे थे, जो सहवास से पैदा हुए थे और वही ऐसे थे, जिनमें अन्य भाइयों की अपेक्षा सांसारिकता का भाव और कामनायें अधिक थीं। हम देवशक्तियों के सम्पर्क में आकर आत्मतेज विकसित करते हैं, उसका प्रभाव पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता हुआ चला जाता है। यह बात हमें इन उदाहरणों से देखने को मिलती है। भारतीय अपने आपको देव-शक्तियों का अंश ऋषि पुत्र आदि मानते हैं, उनके ज्ञान, गुण, सौन्दर्य आदि की समता पाश्चात्य जगत् नहीं कर सकता।

कौरव भ्रूण सन्तान थे। अंजनी पुत्र हनुमान पितृहीन सन्तान थे। इन घटनाओं से यह सिद्ध हो गया कि संसार में ऐसे तथ्य विद्यमान् हैं, जो गुण और स्वभाव से मानव प्रकृति के होकर भी ज्ञान, शक्ति और गुणों की दृष्टि से बहुत विकसित होते हैं, उनसे अतीन्द्रिय सम्पर्क स्थापित कर कोई भी स्त्री या पुरुष अपने आपमें उन दैवी प्रतिभाओं को विकसित कर सकता है।

प्रमाण और वैज्ञानिक व्याख्यायें इस तथ्य का समर्थन ही करती हैं। बच्चे का जन्म, स्त्री के अण्ड (ओवम) और पुरुष के शुक्राणु (स्पर्म) के मिलने से होता है। अभी तक लोगों को पता था कि अण्ड और शुक्राणु की भेंट केवल सम्भोग से ही सम्भव है, किन्तु डा. स्टीवर्ड ने गाजर पर कई तरह के प्रयोग करके यह सिद्ध कर दिया है कि प्रत्येक कोशिका (सेल) में जीव-निर्माण की क्षमतायें विद्यमान् रहती हैं। इसलिये केवल अण्ड (ओवम) से ही सन्तान का जन्म सम्भव है, यह मान बैठना उचित नहीं। इस दिशा में विज्ञान की शोध अब काफी आगे तक बढ़ चुकी है।

1899 में डा. जैम्वीस लौव ने एक प्रयोग किया। उन्होंने समुद्र में पाये जाने वाले ‘अर्चिन’ नामक जन्तु की मादा के अण्ड को मैग्नीशियम क्लोराइड से उद्दीप्त किया, उससे अण्ड में गर्भाधान (फरटलाइजेशन) बिना किसी शुक्राणु की सहायता से हो गया। इस घटना से वैज्ञानिक जगत् में तीव्र प्रतिक्रिया हुई और कृत्रिम गर्भाधान की खोज के लिए वैज्ञानिकों में सर्वत्र होड़ मच गई।

स्त्री के अण्ड (ओवम) में गर्भाधान के लिये यह आवश्यक है कि 24 गुणसूत्र (क्रोमोसोम्स) स्त्री के और 24 गुणसूत्र पुरुष के मिलना आवश्यक है। पुरुष के गुणसूत्रों में एक विशेषता यह होती है कि एक ग्रुप में 24 गुणसूत्र समान होते हैं, किन्तु दूसरे ग्रुप में 23 गुणसूत्र समान धर्म वाले होते हैं और एक गुण सूत्र ऐसा होता है, जो 47 से किसी प्रकार भी नहीं मिलता। यह एक गुणसूत्र ही पुरुष के जन्म का कारण है, यदि स्त्री और पुरुष के वह ग्रुप मिलें, जिनमें 24 सौ गुणसूत्र समान (इन्हें अंग्रेजी में एक्स एक्स क्रोमोसोम कहते हैं) होते हैं तो कन्या जन्म लेगी, किन्तु यदि स्त्री के 24 गुणसूत्रों से पुरुष के गुणसूत्रों का वह ग्रुप मिले, जिसमें एक गुणसूत्र भिन्न प्रकृति का होता है( इसे वाई क्रोमोसोम कहते हैं) तो सन्तान पुत्र होगा। अर्चिन के मामले में शुक्राणु का कार्य मैग्नीशियम द्वारा सम्पन्न होना यह बताता है कि अन्तरिक्षीय शक्तियों के माध्यम से गर्भ में पितृहीन सन्तानों को स्थापित किया जा सकता है। इस पर डा. यूजीन ब्टाइलोन ने मेढ़क के अण्ड में पिन चुभोकर निषेचन की क्रिया के लिये प्रयास किया और इसमें उन्हें सफलता भी मिल गई। निषेचन का अर्थ है, गुणसूत्रों की संख्या दुगुनी हो जाना। यदि गुणसूत्रों की संख्या दुगुनी हो जाती है तो बिना पिता की सहायता से अण्ड में सन्तान रह सकती है। इस प्रयोग में ऐसा ही हुआ, पिन चुभोने से मेढ़क का निषेचन हो गया और उसको इस कृत्रिम गर्भाधान से ही सन्तान हो गई। यह प्रयोग खरगोशों पर भी सफल हुये। 15 जुलाई 1967 को, लन्दन से प्रकाशित होने वाली ‘टिटबिट्स’ पत्रिका में डा. जिराल्ड मैकनाइट ने यह लिखा है कि ब्रिटेन में इस तरह का क्रमबद्ध प्रयोग चल रहा है। 100 स्त्रियों ने अपने आपको कृत्रिम निषेचन के लिये प्रस्तुत किया। जिनमें कम-से-कम 8 महिलायें ऐसी थीं जिन्हें बच्चा पैदा करने में किसी प्रकार पुरुष के सहयोग की आवश्यकता नहीं पड़ी। श्रीमती एमोनेरी जोन्स ने ‘मोनिका’ नामक पुत्री को जन्म दिया। वैज्ञानिकों ने जोन्स की पूरी देखरेख की थी। वे इनके बारे में निर्विवाद थे, मोनिका के रंग-रूप, आकृति, प्रकृति में मानवोचित गुण, धर्म एवं प्रकृति में बिलकुल अन्तर नहीं था। वैज्ञानिक अब उन तत्वों की खोज में है, जो कृत्रिम गर्भाधान की क्रिया में शुक्राणु (स्पर्म का स्थान ले सकते हैं। इन प्रयोगों की सफलता देवों या ब्रह्माण्ड स्थित चेतन शक्तियों के रहस्यों का भी उद्घाटन करेगी।

अब एक ही प्रश्न शेष रह जाता है वह है, स्त्री के प्रजनन कोषों में ‘वाई’ किस्म के गुणसूत्र की विद्यमानता। अभी तक स्त्रियों के शरीर में इस गुणसूत्र की उपस्थिति का समर्थन नहीं हो पाया। यदि इतना और हो जाये तो किसी को भी यह मानने में आपत्ति शेष न रहेगी कि अमैथुनी सृष्टि का सिद्धान्त गलत है।

वैज्ञानिक स्पष्ट रूप से व्याख्या भले ही न कर पाये हों, किन्तु ऐसे प्रमाण मिल चुके हैं, जिनसे पुरुषों में पर्याप्त मात्रा में स्त्रियोचित गुण और स्त्रियों में पुरुषोचित गुण पाये गये हैं। अमेरिका में इन दिनों यौन-परिवर्तन सामान्य आपरेशन की श्रेणी में आता जा रहा है। वहां के अखबारों में आये दिन किसी लड़की को लड़का और लड़के को लड़की की योनि में बदल जाने के समाचार छपते रहते हैं। यह आपरेशन उन दशाओं में ही सम्भव हैं, जब कि यौन परिवर्तन की इच्छा करने वालों में परिवर्तन के लिए उपयुक्त गुण किसी न किसी अंश में पहले से ही विद्यमान हों। इतिहास ऐसी घटनाओं से भरा पड़ा है, जिनसे पता चलता है कि स्त्रियों में पुरुषों के और पुरुषों में स्त्रियों के तत्व भी होते हैं और यह तभी सम्भव है, जब कि उनके वंश को निर्धारित करने वाले गुणसूत्रों में भी वह विशेषतायें विद्यमान् हों। यदि यह सच है तो यह मानने में किसी को कोई आपत्ति न होगी कि प्रकृति के प्रत्येक कण में पुरुष और स्त्री दोनों स्वभाव सनातन हैं, इसी को प्रकृति और परमेश्वर की—‘‘गिरा अरथ जल-बीच सम’’अभिन्नता कहते हैं। मैड्रिड (स्पेन) में मेडिकल फैकल्टी के एक सर्वेक्षण में डा. जान केस्लर नामक एक डा. का वयान छपा है, डा. केस्लर ने बताया कि लोजानो नामक व्यक्ति की स्त्री को दो जुड़वां सन्तानें हुईं। एक बालक था, एक बालिका। मां के स्तनों में उतना दूध नहीं होता था, जितने से बच्चों की भूख मिट जाती। इस कारण बच्चे दिन भर रोया करते थे। संयोग से लोजानो के स्तन सामान्य पुरुषों के स्तनों से कुछ बड़े थे, सो वह बच्चों को बहलाने के लिये उन्हें अपने स्तनों में लगा लेता। बच्चे दूध पीने लगते, धीरे-धीरे लोजानो के स्तनों से दूध निकलने लगा। दूध इतना निकलने लगा कि उसने अपने बच्चों को 5 माह तक दूध पिलाया, पिता का दूध पी-पीकर बच्चे खूब स्वस्थ हो गये। नीमेस के डा. रेबाल ने एक 15 वर्षीय बालक का परिचय छापा था, जिसके दोनों स्तन बालिकाओं की तरह के थे, कुछ दिन में उनसे इतना दूध निकलने लगा कि उसे शर्म से स्तनों में रुई बांधे रहना पड़ता था।

जनवरी 1924 के एक अमेरिकन समाचार पत्र में जबोटा जियोबिच नाम के 22 वर्षीय सर्वियन युवक का समाचार छपा है और उसमें आश्चर्यपूर्वक स्वीकार किया गया है कि बेलग्रेड के अस्पताल में उसके पेट का आपरेशन करके 10 और 5 इन्च लम्बे दो भ्रूण निकाले। इन भ्रूणों के गर्दन, छाती, हाथ, पांव काफी पुष्ट हो चुके थे। यह घटनायें पुरुषों की हैं और यह प्रमाणित करती हैं कि पुरुषों में स्त्रियोचित संस्कार होना असम्भव नहीं। भले ही वे प्रसुप्त अवस्था में हों पर यदि वे विकसित किये जा सकें तो मनुष्य स्वयं भी अपने शरीर में अमैथुनी सृष्टि पैदा कर सकता है।

यही बात स्त्रियों के सम्बन्ध में भी है। उनमें अनेक बार पुरुषोचित गुण स्पष्ट रूप से देखने में आते हैं, यह तभी सम्भव हो सकता है, जब पुरुषों के गुण धर्म वाले सूत्र उनके शरीर में पहले से ही विद्यमान हों।

अमेरिका की श्रीमती टेलर जैसे वृद्ध होती गई, उनकी दाढ़ी-मूंछें काफी बड़ी निकल आईं। इनकी दाढ़ी के बाल स्तनों के नीचे तक पहुंच गये थे। 1732 में ड्रेसडेन में रोजिने मार्गरेट मुलर का निधन हुआ। उनके निधन का समाचार छापते हुये डा. गाल्ड और डा. पाइले ने अपने प्रसिद्ध पुस्तक ‘एनामलीज एण्ड क्युरियासिटीज आव मेडिसन’ में लिखा है कि श्रीमती मार्गरेट मुलर के खूब घनी और लम्बी-लम्बी दाढ़ी-मूंछें थीं।

नील्स होपर ने अपनी पुस्तक ‘पुरुष-स्त्री’ (मैन इनटू अमैन) में लिखा है कि ड्रेसडन (जर्मनी) के शल्य चिकित्सक डा. वार्नेक्रुत्सने ने ईनर वेलनर नामक एक चित्रकार की शल्य-चिकित्सा की और उसे मनुष्य से स्त्री बना दिया। इसके जीवन का मनोरंजक वृत्तान्त भी इसमें छपा है। 18 अप्रैल 1943 के ‘हिन्दुस्तान स्टैण्डर्ड’ (जो कलकत्ता से छपता है) में जोरहाट के पास चारवाल गांव के केवट की 17 वर्षीया पुत्री सईदा खतून के पुरुष बन जाने का समाचार छापा है।

यह घटनायें प्रमाणित करती हैं कि पुरुषों में स्त्रियोचित और स्त्रियों में पुरुषोचित गुणों की विद्यमानता प्रकृति का विलक्षण रहस्य है और उससे अमैथुनी सृष्टि का सिद्धांत सत्य प्रमाणित होता है। प्रमाण और विज्ञान दोनों ही उसकी पुष्टि करते हैं।

नर और नारी में श्रेष्ठ कौन

इस पर भी नर और नारी के शरीर की व आंतरिक सामर्थ्य की दृष्टि से विवेचन कर विश्लेषण करने की स्थिति आये तो नारी का पलड़ा ही भारी होगा।

नर शारीरिक दृष्टि से नारी की तुलना में बलिष्ठ भले ही हो पर इसके अतिरिक्त हर क्षेत्र में नारी की गरिमा बढ़ी चढ़ी है। भावनात्मक उत्कृष्टता के क्षेत्र में तो वह निस्सन्देह पुरुष की तुलना में कहीं आगे है।

नारी गरिमा का एक तथ्य विज्ञान की कसौटी पर और भी स्पष्ट हुआ है। नारी एकाकी प्रजनन कर सकती है। पुरुष के संयोग के बिना भी उसके लिए सन्तानोत्पादन सम्भव है। पुरुष के लिये यह सर्वथा असम्भव है। इस दृष्टि से पुरुष अपूर्ण हुआ और नारी पूर्ण ठहरी। यदि सृष्टि संचालन की बात का ही भौतिक मूल्यांकन किया जाय तो एक एकड़ भूमि का मूल्य दस हजार और उसमें प्रयुक्त होने वाले पच्चीस किलो बीज का मूल्य पच्चीस रुपया होता है। सन्तानोत्पादन का श्रेय यदि दिया जाना हो तो वह नारी को ही मिल सकता है। नर तो उस महान प्रक्रिया में मात्र एक स्वल्प सहयोग भर प्रदान करता है। सो भी इतना कम कि उसके बिना भी काम चल सकता है।

यदि किसी कारण वश ऐसी स्थिति आ जाय कि नर और नारी में से इस सृष्टि में एक ही वर्ग शेष रह जाय दूसरा समाप्त हो जाय तो नारी में वह क्षमता है कि वह अकेले भी सृष्टि क्रम को संचालित रख सकती है किन्तु पुरुष के लिये ऐसा कर सकना सर्वथा असम्भव है उसके पास वे यन्त्र उपकरण ही नहीं हैं जिनसे गर्भ धारण सम्भव होता है। अब तक यही माना जाता था कि नर संयोग के बिना अकेली नारी प्रजनन में असमर्थ है पर विज्ञान ने सिद्ध किया है कि इस क्षेत्र में भी नारी अपूर्ण नहीं सम्पूर्ण है। उसमें यह सम्भावना भी विद्यमान है कि यदि वह चाहे तो स्वावलम्बी रह कर सृष्टि संचालन कर सकती है। अभी विज्ञान इतना ही सिद्ध कर सकता है कि नारी केवल कन्याओं को ही जन्म दे सकती है। पुत्र जन्म के लिए पुरुष सहयोग अपेक्षित है। फिर अगले दिनों यह कमी जो आज अनुभव की जाती है उसका भी समाधान मिल सकता है।

विज्ञान का हर विद्यार्थी जानता है कि प्रत्येक मनुष्य के भीतर उभय लिंगों का अस्तित्व विद्यमान रहता है। नारी के भीतर भी नर का अस्तित्व रहता है। इस अन्तर्नर को ऐनिमस कहते हैं और हर नर के भीतर नारी की सूक्ष्म सत्ता विद्यमान रहती है। इस अन्तर्नारी को—ऐनिमा कहते हैं। कोई मनुष्य न पूर्णतया नर है और न नारी। स्तन नारी के विकसित होते हैं पर उनका अस्तित्व नर के भीतर भी रहता है। उसी प्रकार प्रजनन अंगों के गह्वर में विपरीत लिंग का अस्तित्व भली प्रकार देखा जा सकता है। शरीर शास्त्र का कोई भी छात्र इसे सहज ही समझ सकता है। इतना ही नहीं—स्वभाव और प्रवृत्तियों में भी बहुत सी बातें ऐसी होती हैं जिनसे नर में नारी का और नारी में नर का अस्तित्व देखा जा सकता है।

पेड़ पौधों के प्रजनन में भी जीव धारियों की तरह परागण क्रिया ही मूल कारण होती है। रज वीर्य की तरह इनमें भी स्त्री केशर और पुंकेसर तत्व होते हैं और उनके मिलन पर ही फल एवं बीज की उत्पत्ति होती है और यहीं से वंशवृद्धि का आधार बनता है।

कुछ पौधों में दोनों तत्व पाये जाते हैं और हवा के साथ उड़ कर अथवा मधु मक्खियों, तितलियों अथवा अन्य छोटे कीड़ों द्वारा अपने पंख या पैरों के सहारे इधर-उधर किया जाता है और जब भिन्न लिंग पराग का परस्पर सम्मिश्रण होता है तो वे गर्भ धारण करते हैं। यह भ्रूण ही फल हैं। फल के अन्दर बीज उसकी अगली पीढ़ी की तैयारी समझी जानी चाहिए।

बहुत से पेड़ पौधे एक लिंगी होते हैं। इस प्रकार के मादा पौधे यदि किसी अन्य पेड़ से नर केशर प्राप्त न कर सकें तो वे फलित नहीं होगे। विज्ञान ने इन पौधों में भी कृत्रिम गर्भाधान की प्रक्रिया आरम्भ की है। समर्थ पुंकेसर का संयोग हलकी जाति के मादा केशर से कराने से पौधों के स्तर को अधिक विकसित करने का सफल प्रयोग इन दिनों बहुत चल रहा है।

अच्छी जाति के बीज कठिनाई से मिलते हैं। फसल के समय जो बीज अच्छा होता है वह भी ऋतु प्रभाव या छूत के कीड़े चिपक जाने से अपना प्रभाव खो बैठता है और अच्छा दीखने वाला बीज भी घटिया सिद्ध होता है इसलिए एक नई विधि यह निकाली गई है कि गन्ना आदि की तरह पेड़ के टुकड़े काट कर उन्हें बोने को ही ऐसा योग कर दिया जाय कि अन्य पौधे भी उसी प्रकार बिना बीज के उगने और बढ़ने लगें। टहनियां काटकर बोने और उसी से पौधा उत्पन्न हो जाने की विधि अब तक कुछ खास किस्म के पौधों तक ही सीमित थी, पर अब यह प्रयत्न किया जा रहा है कि अधिकांश पौधों में यह सुधार कर दिया जाय कि वे संयोग परागण की यह बाहरी बीज की प्रतीक्षा किये बिना अपने आप में ही वह प्रयोजन पूरा कर लिया करें और परागण की प्रतीक्षा किये बिना ही टहनियों के द्वारा ही अपनी वंश वृद्धि जारी रख सकें।

पर प्राणि जगत में यह बात आश्चर्य की समझी जाती थी। निर्जीव अण्डा देने वाली मुर्गियां बिना नर के संयोग के अण्डे तो दे लेती हैं पर उनसे बच्चे नहीं हो सकते। मनुष्य जैसे विकसित प्राणी के लिए तो यह और भी कठिन है।

पुराणों में ऐसी कथा मिलती है जिनमें यह बताया गया है कि यौन सम्पर्क के बिना बच्चे हो सकते हैं। लंका दहन के पश्चात हनुमान समुद्र में नहाये उनका पसीना मछली पी गई और उससे मकरध्वज का जनम हुआ। देवताओं और ऋषियों के बारे में भी ऐसा वर्णन मिलता है। पर उन्हें अलंकारिक माना जाता है। पीछे के इतिहास काल में भी जब इस प्रकार की घटनाएं देखने को मिलती हैं तब यह सोचने को विवश होना पड़ता है कि क्या यह सम्भव है कि बिना संयोग के सन्तान उत्पन्न हो सके। वृद्ध दशरथजी की तीन रानियों की सन्तानें यज्ञ चरु से हुई थीं। व्यासजी ने वंश नाश के संकट को बचाने के लिये राजा विचित्र वीर्य की रानियों को नग्न देखा भर था और उन्हें पाण्डु, धृतराष्ट्र तथा विदुर के रूप में तीन सन्तानें मिलीं। इस दिशा में खोज करने पर और भी उदाहरण मिलते हैं। कुन्ती ने कर्ण को कुमारी अवस्था में ही उत्पन्न किया था। कर्ण ही नहीं, धर्मराज से युधिष्ठिर की, इन्द्र से अर्जुन की, पवन से भीम की उत्पत्ति मानी जाती है। क्या अशरीरी देव शक्तियों का आवेश नर तन धारियों में सन्तानोत्पन्न कर सकता है। इस श्रृंखला में तब एक कड़ी और जुड़ जाती है जब हम कुमारी मरियम के पेट से ईसा मसीह के जन्म की बात पढ़ते हैं।

पुराने उदाहरणों के सम्बन्ध में कई तरह की आशंकाएं की जा सकती हैं, और यह कहा जा सकता है कि नर संयोग को उन दिनों लोक लाज वश देव आवेश कह कर छिपाया गया होगा चूंकि वे घटनाएं बहुत पुरानी हो गईं और अब उनका परीक्षण विवेचन करने का समय नहीं रहा इसलिये इन उदाहरणों को लेकर इस निष्कर्ष पर पहुंचना कठिन है कि ईख, गुलाब की तरह टहनियों से अथवा हाइड्रा और बैक्टीरिया जैसे जीवों की तरह क्या मनुष्य भी बिना संयोग के सन्तानोत्पन्न कर सकता है। केला केवल मादा अण्डाशय का ही परिष्कृत रूप है। प्रकृति में तो यह एक लिंगी प्रजनन पार्थनोवेनेसिस चिरकाल से चला आ रहा है। प्रश्न केवल मनुष्य के सम्बन्ध में है।

बात असम्भव सी लगती है पर विज्ञान के बढ़ते हुए चरणों ने इस सम्भावना को एक सचाई के रूप में प्रस्तुत कर दिया है कि बिना नर की सहायता के नारी द्वारा अपने कौमार्य और ब्रह्मचर्य की रक्षा करते हुए सन्तानोत्पन्न कर सकना सम्भव है। नर ऐसा कर सके यह कठिन दीखता है क्योंकि उसके पास भ्रूण धारण करने के वे अवयव नहीं होते जो नारी को उपलब्ध हैं।

कुछ समय पूर्व जीव विज्ञानी प्रो. हाल्डेन की सहयोगिनी सहधर्मिणी डा. हेलेन पर्व ने यह दावा किया था कि—‘‘किसी असंदिग्ध कुमारी के गर्भवती होने की उतनी ही संभावना है जितनी एक साथ कई बच्चे किसी स्त्री के पेट से पैदा होने की। दोनों ही बातें अपवाद हैं पर असम्भव नहीं। एक साथ कई बच्चे हर स्त्री के नहीं होते पर उनका होना असम्भव नहीं इसी प्रकार यदि कोई कुमारी बिना नर की सहायता के गर्भ धारण करे तो इसे असाधारण भर कहा जाना चाहिए असम्भव नहीं।’’

इस दावे को लेकर पाश्चात्य देशों में एक बड़ा विवाद उठ खड़ा हुआ। दावे को सिद्ध करने की चुनौती दी गई। अस्तु डा. स्पर्व ने ब्रिटिश पत्रों में विज्ञापन छपाया कि जो महिलाएं अपनी सन्तान की पिता भी स्वयं ही बनना चाहती हों वे वैज्ञानिक परीक्षा के लिए आगे आवें।

इस विज्ञापन के आधार पर लगभग 100 महिलाओं ने इसके लिए अपने को प्रस्तुत किया। उनमें से प्राथमिक परीक्षा में 89 उत्तीर्ण हुईं। इस प्रयोग की परीक्षा के लिए सुप्रसिद्ध जीव शास्त्रियों की डा. स्टेनली वाल्फेर लिन की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई। इसके दल में सम्मिलित सदस्य थे प्रख्यात डॉक्टर बर्नाडे केम्बर, डा. सिडनी डा. डेविड बिन विलियम्स।

प्रयोग के लिये सबसे उपयुक्त शरीर पाया गया श्रीमती ऐमी मोरी जोन्स का। प्रयोग सफल हुआ। श्रीमती जोन्स ने एक लड़की को जन्म दिया। इसमें कहीं किसी चालाकी की गुंजाइश न रहे इस दृष्टि से प्रतिबन्धों की सारी व्यवस्था पूरी करली गई और पूरे गर्भकाल में चिकित्सक मण्डली की निरन्तर देखभाल रही। नियत समय पर कन्या को जन्म देकर श्रीमती जोन्स ने उस असम्भव मानी जाने वाली बात को सम्भव करके दिखा दिया जिसमें सृष्टि संचालन के लिए नर नारी सम्पर्क आवश्यक कहा जाता था।

इस प्रजनन से यह तथ्य स्पष्ट हो गया कि पानी के पूंछदार कीड़ों की तरह शुक्र कीटकों के सिर में 23 सूत्र और पूंछ में माइटोकोन्ड्रिया नामक पिण्ड होते हैं। यह पिण्ड ही शुक्राणुओं को गतिशील होने की शक्ति प्रदान करते हैं। नारी अण्डकों का उद्दीपन और विभाजन आमतौर से शुक्राणु करते हैं। पर यह अनिवार्य नहीं, यह उत्तेजना दूसरे प्रकार से भी उत्पन्न की जा सके तो नारी स्वयं ही प्रजनन करने में सफल हो सकती है क्योंकि उसके रज अण्ड में उत्पादन के सारे तत्व मौजूद हैं। नारी अण्ड में 23 गुण सूत्र होते हैं वे 46 हो जायें तो भ्रूण धारण हो सकता है। यह कार्य नारी के दो अण्डों को मिला देने की वैज्ञानिक पद्धति से भी सम्भव हो गया और श्रीमती जोन्स ने कन्या को जन्म दिया। नर का शुक्राणु रहने से यह लाभ था कि सन्तान में पिता की वंश परम्परा माता की वंश परम्परा में मिलकर सन्तान को मिश्रित धर्मी बना सकती थी पर यदि वैसा नहीं हुआ तो केवल माता के स्वरूप और स्वभाव की ही सन्तान उत्पन्न होगी। यह मिश्रण तो सम्भव नहीं पर अण्डाणु को उत्तेजित करना और उसके गुण सूत्रों को द्विगुणित कर देना विज्ञान की पकड़ में है। यदि नर का इस धरती पर से किसी कारण वंश लोप हो जाय तो नारी अपने बलबूते पर सृष्टि उत्पन्न करती रह सकती है हां वर्तमान उपलब्धियों के आधार पर वह केवल कन्यायें ही उत्पन्न कर सकती है। प्रकृति तो कुछ भी कर सकती है। उसके लिये मरियम के पेट से ईसा और कुन्ती के गर्भ से कर्ण का जन्म उनकी कुमारी माताओं द्वारा पूर्णतया सम्भव है। पर विज्ञान अभी वहां तक नहीं पहुंचा वह नारी के पेट से कन्या उत्पन्न कर सका है। अभी नारी केवल कन्या की पिता बन सकी है। आगे पुत्र की सम्भावना के लिए विज्ञान के अगले चरणों की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।

श्रीमती जोन्स के गर्भ से उत्पन्न ‘मोनका’ नाम की लड़की अब किशोरावस्था में है। वह वैज्ञानिकों के लिए कौतूहल पूर्ण शोध का विषय बनी हुई है। इन मां बेटी के शरीर में इतना साम्य है कि किसी भी परीक्षण में उन दोनों की शरीर रचना में कोई अन्तर दिखाई नहीं पड़ता, रंग रूप और अंगों की बनावट में इतनी समता है कि देखने वाले बड़ी उम्र की जोन्स को छोटी उम्र की जोन्स में बदली हुई ही कहने लगते हैं। बच्ची की ट्रू कापी—सत्य प्रतिलिपि के रूप में देखने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं। नारी पर किया गया उपरोक्त प्रयोग अब वैज्ञानिकों के लिए एक उत्साह और आशा का विषय बन गया है। जो पशु केवल दूध के काम आते हैं उनके नर बच्चे बेकार सिद्ध होते हैं और खाल मांस के लिए उन्हें मौत के घाट उतारना पड़ता है। बकरे और भैंसे जितना खाते हैं, जगह घेरते हैं उसकी तुलना में लाभ कम देते हैं इसलिए उन्हें कसाई के हवाले ही किया जाता है। यदि वे दुधारू पशु केवल मादायें ही जनने लगें तो फिर दूध की भी कमी न रहे और मार-काट भी उतनी न मचानी पड़े। इसलिए पशुओं पर तथा दूसरे जन्तुओं पर यह प्रयोग किये जा रहे हैं कि मादा प्रजनन के सम्बन्ध में नर की आश्रित न रहकर अपने पैरों पर आप खड़ी हो सके। इसके लिए केवल उस विधि को व्यापक भर बनाना है जिसके अनुसार मादा का अण्ड उत्तेजित और एकत्रित हो सके। यह कार्य अब असम्भव नहीं रहा केवल कष्ट साध्य भर रह गया है, उसी को सरल बनाने के प्रयत्न बहुत जोरों से चल रहे हैं।

फ्रान्स के जीव विज्ञानी विग्यूर ने ‘सी अचिन’ नामक समुद्री जन्तु पर संयोग रहित प्रजनन के सफल प्रयोग किये हैं। डा. ए. स्टाल्क भी ऐसी ही सफलता ट्रथ स्कार्प मछलियों पर प्राप्त कर चुके हैं। अब अन्य पक्षियों और पशुओं पर यह परीक्षण हो रहे हैं। संग्रहीत अनुभवों के आधार पर मनुष्य की काया को यह सिद्ध करने के लिये हाथ में लिया जायेगा कि नर नारी सम्पर्क दूसरी दृष्टि से भले ही उपयुक्त हों पर सन्तानोत्पादन का क्रम तो उसके बिना भी चल सकता है। अब उन प्राचीन पौराणिक उपाख्यान की सत्यता से इनकार नहीं किया जा सकता जिनमें बिना नर संयोग के संतान जन्म का वर्णन है।
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