आत्मा न नारी है न नर

गर्भस्थ शिशु का इच्छानुवर्ती निर्माण

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महाभारत में एक कथा आती है कि ‘‘एक बार कुपित होकर अश्वत्थामा ने उत्तरा के गर्भस्थ शिशु (परीक्षित) पर आग्नेयास्त्र प्रयोग किया। परीक्षित मां के उदर में ही असह्य पीड़ा से जलने लगा। मां ने भी उसे जाना। उन्होंने सम्पूर्ण समर्पण भाव से परमात्मा का स्मरण किया तब उस बच्चे की रक्षा हो पाई।’’

गर्भस्थ शिशु को कोई अस्त्र तब तक नहीं छेद सकता जब तक मां का शरीर न छिदे। दरअसल आग्नेयास्त्र मन्त्र शक्ति थी, जो संकल्प-शक्ति के द्वारा चलाई गई थी। बाहरी व्यक्ति द्वारा दूर से संकल्प-प्रहार से यदि गर्भस्थ बच्चा जल और मर सकता है, और फिर परमेश्वर के प्रति अटल विश्वास और रक्षा की भावना से उस बच्चे को बचाया जा सकता है तो उसके शरीर और मनोभूमि में भी इच्छानुवर्ती परिवर्तन लाया जा सकता है।

सती मदालसा के बारे में कहा जाता है कि ‘‘वह अपने बच्चे के गुण, कर्म और स्वभाव की पूर्व घोषणा कर देती थी फिर उसी प्रकार निरन्तर चिन्तन, क्रिया-कलाप, रहन-सहन, आहार-विहार और व्यवहार-बर्ताव अपनाती थीं, जिससे बच्चा उसी मनोभूमि में ढल जाता था, जिसमें वह चाहती थीं। प्रसिद्ध घटना है कि उनके पहले सभी बच्चे ज्ञानी, सन्त और ब्रह्मनिष्ठ होते गये। अपने पति की प्रार्थना पर उन्होंने अन्तिम गर्भस्थ बच्चे को राजनेता के अनुरूप ढाला। उसी ने पिता का राज्य-सिंहासन सम्भाला और कुशल राजनीतिज्ञ हुआ।

डा. फाउलर ने इस सम्बन्ध में काफी खोज की है, गर्भावस्था में भी गर्भिणी के हाव-भाव का बच्चे के शरीर और मन पर कैसा प्रभाव पड़ता है, इस सम्बन्ध में उनके कई प्रमाण हैं।

प्रत्यक्षदर्शी घटना का वर्णन करते हुए फाउलर लिखते हैं—‘‘एक स्त्री अपने बच्चे को नींद लाने वाली गोली देकर किसी आवश्यक कार्य से बाहर चली गई। लौटने पर वह बच्चा मरा पाया। स्त्री को इससे बहुत दुःख हुआ और वह शोक-मग्न रहने लगी। उसी अवस्था में उसने दूसरी बार गर्भ धारण किया। पहले बच्चे के प्रति उसका शोक ज्यों का त्यों बना रहा, इसलिये दूसरा लड़का रोगी हुआ। दूसरे वर्ष ही उसकी मस्तिष्क रोग से मृत्यु हो गई। अब वह और दुःखी रहने लगी। इस अवस्था में तीसरा पुत्र हुआ, वह हठी, सुस्त और कमजोर हुआ। दांत निकलते समय उसकी भी मृत्यु हो गई। चौथा पुत्र भी ऐसे ही गया। किन्तु पांचवीं बार उसकी परिस्थितियों में सुखद परिवर्तन आये, जिससे उस स्त्री की मानसिक प्रसन्नता बढ़ी। वह पहले की तरह हंसने-खेलने लगी। इस बार बच्चा हुआ वह पूर्ण स्वस्थ, नीरोग और कुशाग्र बुद्धि का हुआ। डा. फाउलर का मत है कि क्रोध, आश्चर्य, घृणा, अहंकार, गम्भीरता आदि के अवसर पर माता की नासिका, मुख और आकृति में जैसे परिवर्तन उठाव, गिराव होते हैं, वैसे ही बच्चे की नाक, मुंह, माथे आदि अवयवों की शक्ल भी बनती है। गर्भाधान के बाद स्त्री प्रसन्न नहीं रहती, शोक या चिन्ता-ग्रस्त रहती है, तो बालक के मस्तिष्क में पानी की मात्रा बढ़ जाती है। यदि 4 वर्ष के बच्चे के शिर का व्यास बीस इन्च से अधिक हो तो मानना चाहिये कि वह जल-संचय का शिकार हुआ है, उसकी मां गर्भावस्था में दुःखी रही है।

भय, विक्षेप, अशुभ चिन्तन, उत्तेजना से जिस तरह अंगों में भद्दापन, बेडौल और खराब मुखाकृति बनती है, उसी तरह शुभ-संकल्प और प्रसन्नतापूर्ण विचारों से बच्चा स्वस्थ, सुन्दर और चरित्रवान् बनता है। इसीलिये कहा जाता है—गर्भावस्था में मां को सत्य भाषण, उत्साह, प्रेम, दया, सुशीलता, सौजन्यता, धर्माचरण और ईश-भक्ति का का अनुगमन करना चाहिये। यह बच्चे होनहार और प्रतापी होते हैं, जबकि क्रोध, ईर्ष्या, भय, उद्विग्नता आदि अधम वृत्तियों के बच्चे भी अधम, उत्पाती और स्वेच्छाचारी होते हैं। गलत खान-पान भी उसमें सम्मिलित हैं।

इसके अतिरिक्त जो महत्त्वपूर्ण बातें गर्भस्थ शिशु को प्रभावित करती हैं, उनमें से वातावरण मुख्य है। ध्रुव ऋषि- आश्रम में जन्मे थे। उनकी मां सुनीति बड़ी नेक स्वभाव और ईश्वर भक्त थीं। ध्रुव के महान् तेजस्वी होने में वातावरण भी मुख्य सहायक था, जबकि उत्तानपाद के दूसरे बेटे में वैसी तेजस्विता न उभर सकी।

एक पाश्चात्य डा. ने वातावरण के प्रभाव का अध्ययन इस प्रकार किया—‘‘एक बार एक कमरे का फर्श और दीवार सबको नील-पोत कर नीला कर दिया। उस कमरे में श्वेत रंग के खरगोशों का एक जोड़ा रखा गया। कुछ समय बाद खरगोश के दो बच्चे हुए, दोनों के बालों में नीले रंग की झलक थी। इससे पता चलता है कि बच्चे के मस्तिष्क में ही नहीं, वातावरण का सूक्ष्म प्रभाव स्थूल अंगों पर भी पड़ता है। गर्भवती का निवास ऐसे स्थान पर होना चाहिये, जहां चारुता हो, मोहकता और आकर्षण हो। हरे बगीचों; केले, फलों आदि से घिरे स्थान, देवस्थान और विशेष रूप से सजे-सजाये, साफ-सुथरे स्थान गर्भस्थ बच्चों पर सुन्दर प्रभाव डालते हैं।

स्पेन के किसी अंग्रेज परिवार में एक बार एक स्त्री गर्भवती हुई। गर्भवती जिस कमरे में रहती थी, उसमें अन्य चित्रों के साथ एक इथोपियन जाति के बहादुर का चित्र लगा हुआ था। वह चित्र उस स्त्री को अतिप्रिय था। कमरे में वह उस चित्र को बहुत भावनापूर्वक देखा करती थी। दूसरे काम करते समय भी उसे उस चित्र का स्मरण बना रहता था। अन्त में जब उसे बालक जन्मा तो उसके माता-पिता अंग्रेज होते हुये भी लड़के की आकृति और वर्ण इथोपियनों जैसा ही था। उस चित्र की मुखाकृति से बिल्कुल मिलता-जुलता, उसी के अनुरूप था। घरों में भगवान् के, महापुरुषों के चित्र लगाये भी इसीलिये जाते हैं कि उनकी आकृतियों से निकलने वाले सूक्ष्म भावना-प्रवाह का लाभ मिलता रहे।

वातावरण के अतिरिक्त गर्भिणी के साथ किये गये व्यवहार, बर्ताव और बातचीत का भी गर्भस्थ शिशु पर प्रभाव पड़ता है। क्रोध, मारपीट, धमकाना, डांटना, दबाकर रखना आदि कुटिलताओं का बच्चे पर बुरा प्रभाव पड़ता है। कई बार इस प्रकार के आचरण बहुत ही दुःखदायी और कष्टप्रद परिलक्षित होते हैं। एक बार एक व्यक्ति ने समुद्री-यात्रा के दौरान किसी बात से अप्रसन्न होकर, अपनी गर्भवती पत्नी को जोर का धक्का मारा। गिरते-गिरते जहाज की जंजीर हाथ में पड़ गई। उससे वह गिरने से सम्भल गई किन्तु वह व्यक्ति बड़ा क्रूर निकला। उसने छुरे का वार किया, जिससे उस स्त्री की जंजीर पकड़े हुये हाथ की तीन उंगलियां कट गईं, वह स्त्री समुद्र में चली गई। जहाज के चले जाने पर कुछ मल्लाहों ने उसकी रक्षा की। बाद में उस स्त्री को जो सन्तान हुई यह देखकर सब आश्चर्यचकित रह गये कि उसकी तीन उंगलियां ही नहीं थीं। और वह बालक मानसिक दृष्टि से अपूर्ण क्रोधी तथा शंकाशील स्वभाव का था।

धमाका पैदा करने वाला ऐसा कोई व्यवहार गर्भवती से नहीं करना चाहिये, जिससे मस्तिष्क में तीव्र आघात लगे। इससे बच्चे के शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है। बच्चों के मानसिक निर्माण में माता-पिता की घनिष्ठता, प्रगाढ़ प्रेम, परस्पर विश्वास का सबसे सुन्दर प्रभाव पड़ता है। सच बात तो यह है कि माता-पिता का संकल्प बच्चे को उसी प्रकार पकाता है, जिस प्रकार मादा कछुआ पानी में रहकर रेत में रखे अपने अण्डों को पकाती है। दिव्य गुणों का बच्चे में आविर्भाव ही प्रेमपूर्ण भावनाओं से होता है, इसलिये गर्भावस्था में स्त्री-पुरुष को अधिकांश समय साथ-साथ बिताना चाहिये, पवित्र आचरण और प्रगाढ़ मैत्री रखनी चाहिये। ऐसे बच्चे शरीर से ही नहीं मिज़ाज से भी पूर्ण स्वस्थ होते हैं।

इस उदाहरण से यह बात और भी स्पष्ट होगी। एक अंग्रेज ने किसी ब्राजील लड़की से विवाह किया। लड़की का रंग सांवला था पर उसमें मोहकता अधिक थी। पति-पत्नी में घनिष्ठ प्रेम था। पर उन्हें कोई संतान नहीं हुई।

कुछ समय पश्चात् वह स्त्री मर गई। पति को बड़ा दुःख हुआ। कुछ दिन बाद उसने दूसरा विवाह अंग्रेज स्त्री से किया। वह गौरवर्ण की थी पर इस अंग्रेज को अपनी पूर्व पत्नी की याद बनी रहती थी इसलिये वह अपनी नई पत्नी को भी उसी भाव से देखा करता था। इस स्त्री से एक कन्या उत्पन्न हुई, जो ब्राजीलियन लड़की की तरह सांवली ही नहीं मुखाकृति से भी मिलती-जुलती थी। यह गर्भावस्था में पिता के मस्तिष्क में जमा हुआ पत्नी-प्रेम का संस्कार ही था, जिसके कारण बालिका ने उसका रंग और आकार ग्रहण किया।

इस समस्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि गर्भस्थ शिशुओं का इच्छानुवर्ती निर्माण सम्भव है। अपने रहन-सहन, स्वभाव और संकल्पों को स्वस्थ और सुन्दर बनाकर भावी बच्चों में भी स्वास्थ्य सौन्दर्य सद्गुण, तेजस्विता और मनस्विता का विकास किया जा सकता है। यह बात माता-पिता दोनों का मालूम होनी चाहिये।

. विज्ञान के इस दिशा में प्रयास

गर्भस्थ शिशु का इच्छानुवर्ती निर्माण करने की दिशा में अब विज्ञान भी सक्रिय हुआ है। पिछले दिनों संतान पर पड़ने वाले माता-पिता के शरीर, रोग, स्वभाव और गुण-दोषों को लेकर जीव विज्ञान की एक शाखा है ‘जेनेटिक्स’ जिसे जनन विज्ञान भी कह सकते हैं, उसकी भी एक उपशाखा है ‘यूजेनिक्स’ जिसे हिंदी में सुप्रजनन अथवा नस्ल सुधार कह सकते हैं में यह माना गया है कि मनुष्यों की वर्तमान पीढ़ी से पूर्वज लम्बाई, मजबूती, निरोगता, दीर्घ जीवन आदि सभी दृष्टि से बढ़े चढ़े थे और हम उनकी अपेक्षा कहीं अधिक निर्बल एवं रुग्णताग्रस्त हो गये हैं। इस कमी को पूरा करके पूर्वजों की अथवा उससे भी अच्छी स्थिति में पहुंचने की अपनी इच्छा स्वाभाविक है। यूजेनिक्स के अन्तर्गत इसके लिए उपाय ढूंढ़े जा रहे हैं। इतना ही नहीं मानसिक संरचना एवं व्यक्तित्व की अनेक धाराओं में भी ऐसे सुधार किये जाने उपेक्षित हैं, जिनके आधार पर मनुष्य को सुविकसित कहा जा सके।

अच्छा बीज अच्छी जमीन में बोया जाय तो उससे मजबूत पौधा उगेगा और उस पर बढ़िया फल-फूल आवेंगे इस तथ्य से क्या शिक्षित, क्या अशिक्षित सभी परिचित हैं! जिन्हें कृषि एवं उद्यान से अच्छा प्रतिफल माने की आकांक्षा है वे इस तथ्य पर आरम्भ से ही ध्यान रखते हैं कि उत्पादन के मूलभूत आधारों को सतर्कता के साथ जुटाया जाय और उनका स्तर ऊंचा रखा जाय।

यों विवाह एक निजी मामला समझा जाता है और संतानोत्पादन को भी व्यक्तिगत क्रिया-कलाप की परिधि में सम्मिलित करते हैं। पर वस्तुतः यह एक सार्वजनिक सामाजिक एवं सार्वभौम प्रश्न है। क्योंकि भावी पीढ़ियों के निर्माण की आधारशिला यही है। राष्ट्र और विश्व का भविष्य उज्ज्वल एवं सुसम्पन्न बनाने की प्रक्रिया धन समृद्धि पर टिकी हुई नहीं, वरन् इस बात पर निर्भर है कि भावी नागरिकों का शारीरिक, बौद्धिक एवं चारित्रिक स्तर कैसा होगा? धातुएं, इमारतें या हथियार नहीं, किसी राष्ट्र की वास्तविक सम्पदा वहां के नागरिक ही होते हैं। वे जैसे भी भले या बुरे होंगे, उसी स्तर का समाज, समय एवं वातावरण बनेगा। इसलिए भावी प्रगति की बात सोचने में हमें सुसंतति के निर्माण की व्यवस्था जुटाने की बात ध्यान में रखनी चाहिए।

घरेलू पशुओं यहां तक कि कुत्ते, बिल्लियों तक के बारे में हमारे प्रयास यह होते हैं कि उनकी सन्तानें उपयुक्त स्तर की हों। जिन्हें इस उद्देश्य को पूरा करने में रुग्ण, दुर्बल अथवा अयोग्य समझते हैं उनका प्रजनन प्रतिबन्धित कर देते हैं। इस प्रतिबन्धन, प्रोत्साहन में उचित वंशवृद्धि की बात ही सामने रखी जाती है। क्या मानव प्राणी की नस्लें ऐसे ही अस्त-व्यस्त बनने दी जानी चाहिए, जैसी कि इन दिनों बन रही हैं? क्या इस सन्दर्भ में कुछ देख-भाल करना या सोचना-विचारना समाज का कर्त्तव्य नहीं है? क्या बच्चे मात्र माता-पिता की ही सम्पत्ति हैं? क्या उनका स्तर समाज को प्रभावित नहीं करता? इन बातों पर यदि गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय तो प्रतीत होगा कि किसी राष्ट्र या समाज का भविष्य उसकी भावी पीढ़ियों पर निर्भर है। यदि सुयोग्य नागरिकों की जरूरत हो तो भोजन, चिकित्सा अथवा शिक्षा का प्रबन्ध भर कर देने से काम नहीं चलेगा। इस सुधार का क्रम सुयोग्य जनक-जननी द्वारा सुविकसित सन्तान उत्पन्न करने का उत्तरदायित्व निवाहने से होगा। यह तैयारी विवाह के दिन से ही आरम्भ हो जाती है। यदि पति-पत्नी की शारीरिक, मानसिक और आर्थिक स्थिति सुयोग्य सन्तान के उत्पादन तथा भरण-पोषण के उपयुक्त नहीं है तो उनके द्वारा की जाने वाली वंशवृद्धि अवांछनीय स्तर की ही बनेगी और उसका दुष्परिणाम समस्त समाज को भुगतना पड़ेगा।

वंशानुक्रम विज्ञान की चर्चा इन दिनों जोरों पर है। जनन रस में पाये जाने वाले गुण-सूत्रों को भावी पीढ़ियों के निर्माण का सारा श्रेय दिया जा रहा है। इन जीव कणों में हेर-फेर करके ऐसे उपाय ढूंढ़े जा रहे हैं जिनके आधार पर मनचाहे आकार-प्रकार की सन्तानों को जन्म दिया जा सके। इस अत्युत्साह में अभी तक आंशिक सफलता ही मिली है। क्योंकि गुण सूत्रों ने आकृति तक में अभीष्ट परिवर्तन प्रस्तुत नहीं किया फिर प्रकृति के परिवर्तन की तो बात ही क्या की जाय?

प्रयोगशालाओं में—रासायनिक पदार्थों की अथवा विद्युत उपचार की ऐसी विधि-व्यवस्था सोची जा रही है जिससे अभीष्ट स्तर की सन्तान पैदा की जा सकें। इस दिशा में जी तोड़ प्रयत्न हो रहे हैं और सोचा जा रहा है कि बिना माता का स्तर सुधारे अथवा बिना वातावरण की चिन्ता किये वैज्ञानिक विद्या के आधार पर सुसन्तति उत्पादन की व्यवस्था यान्त्रिक क्रिया-कलाप द्वारा सम्पन्न करली जायगी।

जनन-रस में पाये जाने वाले गुण-सूत्र में एक व्यक्ति रूप—डामिनेंट है। दूसरा अव्यक्त रूप है—रिसेसिव। व्यक्त भाव को भौतिक माध्यमों से प्रभावित किया जा सकता है और उस सीमा तक भले या बुरे प्रभाव सन्तान में उत्पन्न किये जा सकते हैं। पर अव्यक्त स्तर को केवल जीव की निजी इच्छा-शक्ति ही प्रभावित कर सकती है। महत्वपूर्ण परिवर्तन इस चेतनात्मक परिधि में ही हो सकते हैं इसके लिए रासायनिक अथवा चुम्बकीय माध्यमों से काम नहीं चल सकता। इसके लिए चिन्तन को बदलने वाली अन्तःस्फुरणा अथवा दबाव भरी परिस्थितियां होनी चाहिए। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए यह सोचा जाने लगा है कि माता-पिता का स्तर सुधारे बिना सुसन्तति की समस्या प्रयोग शालाओं द्वारा हल न हो सकेगी। वनस्पति अथवा पशुओं में सुधार उत्पादन सरल है, पर मनुष्यों में पाये जाने वाले चिन्तन तत्व में उत्कृष्टता भरने की आवश्यकता यान्त्रिक पद्धति कदाचित ही पूरी कर सकेगी।

गुण-सूत्रों में हेर-फेर करके तत्काल जिस नई पीढ़ी का स्वप्न इन दिनों देखा जा रहा है, उसे म्यूटेशन—आकस्मिक परिवर्तन प्रक्रिया कहा जा सकता है। म्यूटेशन के सन्दर्भ में पिछले दिनों पैवलव, मैकडुगल, मारगन, मुलर प्रभृति जीव विज्ञानियों ने अनेक माध्यमों और उपकरणों से विविध प्रयोग किये हैं। जनन रस को प्रभावित करने वाले उनने विद्युतीय और रासायनिक उपाय अपनाये। सोचा यह गया था कि उससे अभीष्ट शारीरिक और मानसिक क्षमता सम्पन्न पीढ़ियां उत्पन्न होंगी, पर उनसे मात्र शरीर की ही दृष्टि से थोड़ा हेर-फेर हुआ। विशेषतया बिगाड़ प्रयोजन में ही सफलता अधिक मिली सुधार की गति अति मन्द रही, गुणों में पूर्वजों की अपेक्षा कोई अतिरिक्त सुधार सम्भव न हो सका।

एक जाति के जीवों में दूसरे जाति के जीवों की कलमें लगाई गईं और वर्णशंकर सन्तानें उत्पन्न की गईं। यह प्रयोग उसी जीवधारी तक अपना प्रभाव दिखाने में सफल हुए। अधिक से अधिक एक पीढ़ी कुछ बदली बदली सी जन्मी इसके बाद वह क्रम समाप्त हो गया। घोड़ी और गधे के संयोग से उत्पन्न होने वाले खच्चर अगली पीढ़ियों को जन्म देने में असमर्थ रहते हैं।

वर्णशंकर सन्तान उत्पन्न करके पूर्वजों की अपेक्षा अधिक सशक्त और समर्थ पीढ़ियां उपजाने का उत्साह अब क्रमशः घटता चला जा रहा है। इस सन्दर्भ में प्रथम आवश्यकता तो यही रहती है कि प्रकृति एक ही जाति के जीवों में संकरण स्वीकार करती है। मात्र उपजातियों में ही प्रत्यारोपण सफल हो सकता है। यदि शरीर रचना में विशेष अन्तर होगा तो संकरण प्रयोगों में सफलता न मिलेगी, दूसरी बात यह है कि काया की दृष्टि से थोड़ा सुधार इस प्रक्रिया में हो भी सकता है, गुणों में नहीं। वर्णशंकर गायें मोटी, तगड़ी तो हुईं, पर अपने पूर्वजों की अपेक्षा अधिक दुधारू न बन सकीं। इन प्रयोगों से यह निष्कर्ष निकाला गया है कि उत्कृष्टता जीव के अपने विकास-क्रम के साथ जुड़ी हुई है, वह बाहरी उलट-पुलट करके विकसित नहीं की जा सकती।

सुसन्तति के सम्बन्ध में वैज्ञानिक प्रयोग अधिक से अधिक इतना ही कर सकते हैं कि रासायनिक हेर-फेर करके शारीरिक दृष्टि से अपेक्षाकृत थोड़ी मजबूत पीढ़ियां तैयार करदें, पर उनमें नैतिक, बौद्धिक एवं सामाजिक उत्कृष्टता भी होगी इसकी गारण्टी नहीं दी जा सकती। ऐसी दशा में उज्ज्वल भविष्य का निर्माण कर सकने वाले नागरिकों का सर्वतोमुखी सृजन कहां सम्भव होगा?

उस अत्युत्साह से अब वंशानुक्रम लगभग हतोत्साहित हो चला है और सोचा जा रहा है कि अभिभावकों को ही सुयोग्य बनाने पर ध्यान दिया जाय। एक ओर अयोग्य व्यक्तियों को अवांछनीय उत्पादन से रोका जाय, दूसरी ओर सुयोग्य, सुसंस्कृत एवं समुन्नत लोगों को प्रजनन के लिए प्रोत्साहित किया जाय। विवाह निजी मामला न रहे, वरन् सामाजिक नियन्त्रण इस बात का स्थापित किया जाय कि शारीरिक ही नहीं अन्य दृष्टियों से भी सुयोग्य और समर्थ को विवाह बन्धन में बंधने और सन्तानोत्पादन के लिए स्वीकृति दी जाय।

जर्मनी के तीन प्रसिद्ध जीव विज्ञानियों ने वंशानुक्रम विज्ञान पर एक संयुक्त ग्रन्थ प्रकाशित कराया है नाम है ‘ह्यूमन हैरेडिटी’। लेखकों के नाम हैं डा. आरवेन वेवर, डा. अयोजिन फिशर और डा. फ्रिट्ज लेंज। उन्होंने वासना के उभार में चल रहे अन्धाधुन्ध विवाह सम्बन्धों के कारण सन्तान पर होने वाले दुष्प्रभाव को मानवी भविष्य लिए चिन्ताजनक बताया है। लेखकों का संयुक्त मत है कि—‘अनियन्त्रित’ विवाह प्रथा के कारण पीढ़ियों का स्तर बेतरह गिरता जा रहा है, उनने इस बात को भी दुःखद बताया है कि निम्न वर्ग की सन्तानें बढ़ रही हैं और उच्चस्तर के लोगों की संख्या तथा सन्तानें घटती चली जा रही हैं।

पीढ़ियों में आकस्मिक परिवर्तन म्यूटेशन—के विशेष शोधकर्त्ता टर्नियर का निष्कर्ष यह है कि मानसिक दुर्बलता के कारण गुण सूत्र में ऐसी अशक्तता आती है जिसके कारण पीढ़ियां गई-गुजरी बनती हैं। इसके विपरीत मनोबल सम्पन्न व्यक्तियों की आन्तरिक स्फुरणा उनके जनन रस में ऐसा परिवर्तन कर सकती है जिससे तेजस्वी और गुणवान ही नहीं शारीरिक दृष्टि से भी परिपुष्ट सन्तानें उत्पन्न हों। वंश परम्परा से जुड़े हुए कुष्ठ, उपदंश, क्षय, दमा, मधुमेह आदि रोगों की तरह विधेयात्मक पक्ष यह भी है कि मनोबल के आधार पर उत्पन्न चेतनात्मक समर्थता पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़े और उसका सत्परिणाम शरीर, मन अथवा दोनों पर प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो सके। चमत्कारी आनुवंशिक परिवर्तन इसी आधार पर सम्भव है मात्र रासायनिक परिवर्तन के लिए भौतिक प्रयास इस प्रयोजन की पूर्ति नहीं कर सकते। यह तथ्य हमें इस निष्कर्ष पर पहुंचाता है कि जिस प्रकार परिवार नियोजन के द्वारा अवांछनीय उत्पादन रोकने का प्रयास किया जाता है उसी प्रकार समर्थ और सुयोग्य सन्तानोत्पादन के लिए आवश्यक ज्ञान, आधार-साधन एवं प्रोत्साहन उपलब्ध कराया जाय।

क्या मनुष्य पूर्वजों की प्रतिकृति है?

आनुवंशिकी-विज्ञान के अन्तर्गत पिछले दिनों यह सिद्ध किया जाता रहा है कि प्राणी अपने पूर्वजों की प्रतिकृति होते हैं। माता-पिता के डिम्ब-कीट और शुक्रकीट मिल-जुलकर भ्रूण-कलल में परिणत होते हैं और शरीर बनना आरम्भ हो जाता है। उस शरीर में जो मनःचेतना रहती है, उसका स्तर भी पूर्वजों की मनःस्थिति की भांति ही उत्तराधिकार में मिलता है। शरीर की संरचना और मानसिक बनावट के लिए बहुत हद तक पूर्वजों के उन जीवाणुओं को ही जिम्मेदार ठहराया गया है, जो परम्परा के रूप में वंशधरों में उतरते चले जाते हैं।

इस प्रतिपादन से यह निष्कर्ष निकलता है कि व्यक्ति अपने आप में कुछ बहुत अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। पूर्वजों के ढांचे में ढला हुआ एक खिलौना मात्र है। यदि सन्तान को सुयोग्य सुविकसित बनाना हो तो वह कार्य पीढ़ियों पहले आरम्भ किया जाना चाहिए। अन्यथा सांचे में ढले हुए इस खिलौने में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन न हो सकेगा। आनुवंशिकी का प्रतिपादन जहां तक मानव-प्राणी का सम्बन्ध हैं, बहुत ही अपूर्ण और अवास्तविक है। पशु-पक्षियों में एक हद तक यह बात सही भी हो सकती, पर मनुष्य के लिए यह कहना अनुचित है कि वह पूर्वजों के सांचे में ढला हुआ एक उपकरण मात्र है। यह मानवी इच्छा शक्ति, विवेक-बुद्धि, स्वतन्त्र-चेतना और आत्म निर्भरता को झुठलाना है। समाज-शास्त्री, अर्थ-शास्त्री और मनोविज्ञान-वेत्ता वातावरण एवं परिस्थितियों के उत्थान पतन का कारण बताते रहे हैं। आत्म वेत्ताओं ने एक स्तर से सदा यही कहा है—मनुष्य की अन्तःचेतना स्वनिर्मित है। वह वंश परम्परा से नहीं, संचित संस्कारों और प्रस्तुत प्रयत्नों के आधार पर विकसित होती है। इच्छा-शक्ति और संकल्प-शक्ति के आधार पर अपने मानसिक ढांचे में कोई चाहे तो आमूलचूल परिवर्तन कर सकता है।

आनुवंशिकी की मान्यताएं ‘एक हद तक ही सही’ ठहराई जा सकती हैं। चमड़ी का रंग, चेहरा, आकृति, प्रकृति, अवयव आदि पूर्वजों की बनावट के अनुरूप हो सकते हैं, पर गुण कर्म, स्वभाव भी पूर्वजों जैसे ही हों—यह आवश्यक नहीं—यदि ऐसा ही रहा होता तो किसी कुल में सभी अच्छे और किसी कुल में सभी बुरे उत्पन्न होते। रुग्णता-स्वस्थता, बुद्धिमत्ता-मूर्खता, सज्जनता, दुष्टता, कुशलता, अस्त-व्यस्तता भी परम्परागत होती तो प्रगतिशील वर्ग के परिवार के सभी सदस्य सुविकसित होते और पिछड़े लोगों का स्तर सदा के लिए गया-गुजरा ही बना रहता। तब उत्थान-पतन के लिए किये गए प्रयत्नों की भी कुछ सार्थकता न होती। वातावरण का भी कोई प्रभाव न पड़ता, पर ऐसी स्थिति है नहीं। पूर्वजों की स्थिति से सर्वथा भिन्न स्तर की सन्तानों के अगणित उदाहरण पग-पग पर सर्वत्र बिखरे हुए देखे जा सकते हैं। इससे मनुष्य की स्वतन्त्र चेतना और इच्छा-शक्ति की प्रबलता का साक्ष्य ही स्पष्ट रूप से सामने आता है।

मद्यप मनुष्यों की सन्तान क्या जन्मजात रूप से उस लत से ग्रसित होती है? इस खोज-बीन में पाया गया कि ऐसी कोई बात नहीं है, वरन उल्टा यह हुआ कि बच्चों ने बाप को मद्यपान के कारण अपनी बर्बादी करते देखा तो वे उसके विरुद्ध हो गये और उन्होंने न केवल मद्यपान से अपने को अछूता रखा, वरन् दूसरों को भी उसे अपनाने से रोका। मनुष्यों में गुण सूत्रों के हेर-फेर से जो परिणाम सामने आये हैं, उससे स्पष्ट है कि बिगाड़ने में अधिक और बनाने में कम सफलता मिली है। विकलांग और पैतृक रोगों से ग्रसित सन्तान उत्पन्न करने में आशाजनक सफलता मिली है। क्योंकि विषाक्त मारकता से भरे रसायन सदा अपना त्वरित परिणाम दिखाते हैं। यह गति विकासोन्मुख प्रयत्नों की नहीं होती। नीलाथोथा खाने से उल्टी तुरन्त हो सकती है, पर पाचन-शक्ति सुधार देने के प्रयोग उतने सफल नहीं होते। देव से असुर की शक्ति को अधिक मानने का यही आधार है। मनुष्यों में मनचाही सन्तान उत्पन्न करने का प्रयोग सिर्फ इतनी मात्रा में कुछ अधिक सफल हुआ है कि रंग-रूप और गठन की दृष्टि से जनक-जननी का सादृश्य दृष्टिगोचर हो सके। काया की आन्तरिक दृढ़ता, बौद्धिक तीक्ष्णता एवं भावनात्मक उत्कृष्टता उत्पन्न करने में वैज्ञानिक प्रयोगों का उत्साह-वर्धक परिणाम नहीं निकला है।

गुण सूत्रों को बदलने में इन दिनों विद्युत-ऊर्जा एवं रासायनिक हेर फेर के साधन जुटाये जा रहे हैं, पर वे यह भूल जाते हैं कि यह बाहरी थोप-थाप स्थिर न रह सकेगी उससे क्षणिक-चमत्कार भले ही देखा जा सके। शरीर के प्रत्येक अवयव को मस्तिष्क प्रभावित करता है और मस्तिष्क का सूत्र-संचालन इच्छा-शक्ति के हाथ में रहता है। अस्तु शारीरिक, मानसिक समस्त परिवर्तनों का तात्विक आधार इस इच्छा-शक्ति को ही मानना पड़ेगा। गुण-सूत्रों पर भी इसी ऊर्जा का प्रभाव पड़ता है और इसी माध्यम से वह परिवर्तन किये जा सकते हैं, जो मन-चाही पीढ़ियां उत्पन्न करने के लिए वैज्ञानिकों को अभीष्ट हैं।

अभीष्ट स्तर की पीढ़ियां क्या रासायनिक हेर-फेर अथवा विद्युतीय प्रयोग उपकरणों द्वारा प्रयोगशालाओं में विनिर्मित हो सकती हैं। यह एक जटिल प्रश्न है। यदि ऐसा हो सका तो यह मानना पड़ेगा कि मनुष्य इच्छा-शक्ति का धनी नहीं, वरन् रासायनिक पदार्थों की परावलम्बी प्रतिक्रिया मात्र है। यदि यह सिद्ध हो सका तो मनोबल और आत्मबल की गरिमा समाप्त कर देने वाली दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति ही कहा जायेगा, पर ऐसा ही सकना सम्भव दिखाई नहीं पड़ता—भले ही उसके लिए एड़ी-चोटी प्रयत्न कितने ही किये जाते रहें।

शरीर के विभिन्न अंगों पर दबाव डाले जाते रहे हैं, पर प्राणी की मूल इच्छा ने उस दबाव को आवश्यक नहीं समझा तो उस तरह के परिवर्तन नहीं ही हो सके। चीन में शताब्दियों तक स्त्रियों के पैर छोटे होना—सौन्दर्य का चिन्ह माना गया, इसके लिए उन्हें कड़े जूते पहनाये जाते थे। उससे पैर छोटे बनाने में सफलता मिली। पर वंश-परम्परा की दृष्टि से वैसा कुछ भी नहीं हुआ। हर नई लड़की के पैर पूरे अनुपात से ही होते थे।

प्राणियों के क्रमिक-विकास में इच्छा-शक्ति का ही प्रधान स्थान रहा है। मनुष्य तो मनोबल का धनी है, उसकी बात जाने भी दें और अन्य प्राणधारियों पर दृष्टिपात करें तो प्रतीत होगा कि उनकी वंश-परम्परा में बहुमुखी परिवर्तन होता रहा है। इसका कारण सामयिक परिस्थितियों का चेतना पर पड़ने वाला दबाव ही प्रधान कारण रहा है। असुविधाओं को हटाने और सुविधाएं बढ़ाने की आन्तरिक आकांक्षा ने प्राणियों की शारीरिक स्थिति और आकृति में ही नहीं प्रकृति में भी भारी हेर-फेर प्रस्तुत किया है। जीव-विज्ञानी इस तथ्य से भली-भांति परिचित है।

यदि पूर्वजों के गुण लेकर ही सन्तानें उत्पन्न होने वाली बात को सही माना जाय तो जीवों की आकृति-प्रकृति में परिवर्तन कैसे सम्भव हुआ? उस स्थिति में तो पीढ़ियों का स्तर एक ही प्रकार का चलता रहना चाहिए था।

लेमार्क ने प्राणियों का स्तर बदलने में वातावरण को, परिस्थितियों को श्रेय दिया है। वे कहते हैं इच्छा-शक्ति इन्हीं दबावों के कारण उभरती, उतरती है। सुविधासम्पन्न परिस्थितियों के ऊपर किसी प्रकार का दबाव नहीं रहता। अतएव उनका शरीर ही नहीं बुद्धि-कौशल भी ठप्प पड़ता जाता है। अमीरी के वैभव में पले हुए लोग अक्सर छुईमुई बने रह जाते हैं और उनका चरखा बखेर देने के लिए छोटा-सा आघात ही पर्याप्त होता है।

लेमार्क ने नये किस्म के अनेक जीवधारियों की उत्पत्ति का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हुए कहा है कि बाहर से मौलिक जीव दीखने पर भी वस्तुतः किसी ऐसे पूर्व प्राणी के ही वंशज होते हैं, जिन्हें परिस्थितियों के दबाव से अपने परम्परागत ढांचे में आमूलचूल परिवर्तन करना पड़ा।

जीवों के विकास इतिहास के पन्ने-पन्ने पर यह प्रमाण भरे पड़े हैं कि प्राणियों के अंग प्रत्यंग निष्क्रियता के आधार पर कुंठित हुए हैं और सक्रियता ने उन्हें विकसित किया है। प्रवृत्ति, प्रयोजन और चेष्टाओं का मूल इच्छा-शक्ति ही प्राणिसत्ता में विकास, प्रयोजन और चेष्टाओं का मूल इच्छा-शक्ति ही प्राणिसत्ता में विकास, अवसाद उत्पन्न करती है। रासायनिक पदार्थों और गुण-सूत्रों की वंश-परम्परा विज्ञान में कायिक क्षमता को एक अंश तक प्रभावित करने वाला आधार भर माना जाना चाहिए। आधुनिक विज्ञान-वेत्ता मौलिक-भूल यह कर रहे हैं कि मानवी-सत्ता को उन्होंने रासायनिक प्रतिक्रिया मात्र समझा है और उसका विकास करने के लिए जनक-जननी को नहीं—उनके जनन-रसों को अत्यधिक महत्व दे रहे हैं। इस एकांगी आधार को लेकर मनचाही आकृति-प्रकृति की पीढ़ियां वे कदाचित ही पैदा कर सकें।

वैज्ञानिक बीजमन ने चूहों और चुहियों की लगातार बीस पीढ़ियों तक पूंछें काटीं और देखा कि क्या इसके फलस्वरूप बिना पूंछवाले चूहे पैदा किये जा सकते हैं? उन्हें अपने प्रयोग में सर्वथा असफल होना पड़ा। बिना पूंछ के मां-बाप भी पूंछ वाले बच्चे ही जनते चले गये। इससे यह निष्कर्ष निकला कि मात्र शारीरिक हेरफेर से वंशानुक्रम नहीं बदला जा सकता। इसके लिए प्राणी की अपनी रुचि एवं इच्छा का समावेश होना नितान्त आवश्यक है।

हर्बर्ट स्पेन्सर ने अपनी खोजों में ऐसे कितने ही प्राणियों के, उदाहरण प्रस्तुत किये हैं, जिन्होंने शरीर के किसी अवयव को निष्क्रिय रखा तो वह क्षीण होता चला गया और लुप्त भी हो गया। इसके विपरीत ऐसे उदाहरण भी कम नहीं है, जिनमें ‘‘आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है’’ वाले सिद्धान्त को सही सिद्ध करते हुए अपने शरीर में कई तरह के नये पुर्जे विकसित किये और पुरानों को आश्चर्यजनक स्तर तक परिष्कृत किया।

समुद्र-तट की गहराई में रहने वाली मछलियों को प्रकाश से वंचित रहना पड़ता है। अतएव उनके आंखों का चिन्ह रहते हुए भी उनमें रोशनी नहीं होती है। आंख वाले अन्धों में उनकी गणना की जा सकती है। अंधेरी गुफाओं में जन्मने और पलने वाले थलचरों का भी यही हाल होता है। उनकी आंखें ऐसी होती हैं, जो अन्धेरे में ही कुछ काम कर सकें। प्रकाश में तो वे बेतरह चौंधिया जाती हैं और निकम्मी साबित होती हैं।

समर्थ का चुनाव मात्र शारीरिक बलिष्ठता पर निर्भर नहीं है, वरन् सच पूछा जाय तो उनकी मनः स्थिति की ही परख इस कसौटी पर होती है। पशुवर्ग और सरीसृप वर्ग के विशाल-काय प्राणी आदिमकाल में थे। उनकी शरीरगत क्षमता अद्भुत थी, फिर भी वे मन्द-बुद्धि, अदूरदर्शिता, आलस जैसी कमियों के कारण दुर्बल संज्ञा वाले ही सिद्ध हुए और अपना अस्तित्व खो बैठे। जब कि उसी समय में छोटी काया वाले प्राणी अपने मनोबल के कारण न केवल अपनी सत्ता संभालते रहे, वरन् क्रमशः विकासोन्मुख भी होते चले गये।

जीवों के विकास क्रम का एक महत्वपूर्ण आधार यह है कि उन्हें परिस्थितियों से जूझना पड़ा—अवरोध के सामने टिके रहने के लिए अपने शरीर में तथा स्वभाव में अन्तर करना पड़ा। यह परिवर्तन किसी रासायनिक हेरफेर के कारण नहीं, विशुद्ध रूप से इच्छा शक्ति की प्रवाह-धारा बदल जाने से ही सम्भव हुआ है। जीवन-संग्राम में जूझने की पुरुषार्थ-परायणता का उपहार ही अल्प-प्राण जीवों को महाप्राण स्तर का बन सकने के रूप में मिला है। जिन्होंने विपत्ति से लड़ने की हिम्मत छोड़ दी और हताश होकर पैर पसार बैठे, उन्हें प्रकृति ने कूड़े कचरे की तरह बुहार कर घूरे पर पटक दिया। किसान और माली भी तो अपने खेत-बाग में अनुपयोगी खर-पतवार की ऐसी ही उखाड़-पछाड़ करते रहते हैं। विकास की उपलब्धि पूर्णतया जीवन-संग्राम में विजय प्राप्त करने के फलस्वरूप ही मिलती है और इस संघर्षशीलता का पूरा आधार साहसी एवं पुरुषार्थी मनोभूमि के साथ जुड़ा रहता है।

आनुवंशिकी-विज्ञान की अन्यान्य शोधें कितनी ही महत्वपूर्ण क्यों न हों पर यह प्रतिपादन स्वीकार्य नहीं हो सकता कि प्राणियों का विशेषतया मनुष्यों का स्तर पूर्वजों के परम्परागत गुण सूत्रों पर निर्भर है। इच्छा-शक्ति की प्रचण्ड समर्थता के आधार पर शारीरिक, मानसिक और सामाजिक परिवर्तनों की सम्भावना को मान्यता देने के उपरान्त ही वंशगत विशेषताओं की चर्चा की जाय—ही उचित है।

मानव जाति के उज्ज्वल भविष्य का प्रश्न बहुत कुछ सुसंतति के निर्माण की प्रक्रिया पर निर्भर है। इसके विभिन्न पक्षों पर विचार करना पड़ेगा और आवश्यक आधार खोजना पड़ेगा। इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि भारतीय मनीषियों ने बहुत पहले ही सामान्य गृहस्थ जीवन में भी ब्रह्मचर्य का अधिकाधिक पालन करने पर ही सुविकसित संतान के जन्म की संभावना व्यक्त की थी और अनियंत्रित कामोपभोग को न केवल स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बताया था वरन् उससे अविकसित निर्बल तथा अयोग्य सन्तानों के जन्मने की आशंका व्यक्त की थी।

विज्ञान भी अब इस तथ्य की पुष्टि करने लगा है। फिलैडेल्फिया मेडिकल सेंटर द्वारा किये गये अनुसंधान प्रयोगों के जो निष्कर्ष पिछले दिनों प्रकाशित हुए हैं उनमें यही बताया गया है—कामुक और लंपट व्यक्ति योग्य संतानों को जन्म देने में अक्षम असमर्थ रहते हैं इस मनः स्थिति वाले स्त्री पुरुषों के संयोग से उत्पन्न जीवाणु भी निष्क्रिय और निस्तेज ही पाये गये हैं। ऐसे निस्तेज निराश गर्भाधान से मनस्वी और प्रतिभाशाली बालक उत्पन्न नहीं हो सकते।

अधिक संख्या में सन्तानोत्पादन शरीर की रासायनिक स्थिति पर निर्भर नहीं है वरन् हारमोन उत्तेजना से सम्बन्धित है। रासायनिक दृष्टि से जिस स्थिति का एक शरीर बन्ध्यत्व ग्रस्त होगा उस स्थिति का दूसरा शरीर बहु प्रजनन की अति भी कर सकता है। ऐसे शरीरों का विश्लेषण करने पर उनके आन्तरिक विद्युत प्रवाह को ही उस भिन्नता के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है।

रूस की एक महिला ने 27 बार गर्भवती होकर 23 शिशुओं को जन्म दिया। यह महिला अपने समय में बहुत प्रख्यात हुई थी और सम्राट जारद्वितीय ने उसे सम्मानित किया था।

फ्रांस की एक ग्रामीण नारी ने 21 सन्तानों की मां बनकर इस समय में सर्वाग्रणी जननी का पद प्राप्त किया है। इण्डोनेशिया की एक महिला गत 28 वर्षों से हर साल एक सन्तान को अनवरत रूप से जन्म देती चली आ रही है। मांटीमिलेटो (इटली) की एक महिला श्रीमती रोसा अब तक 36 बच्चों को जन्म दे चुकी हैं।

केवल कन्याओं को जन्म देने वाली महिलाओं में प्रथम हैं इण्डियाना पोलिश की श्रीमती सिसिज जिन्होंने लगातार 14 कन्याओं को जन्म दिया है। इसके बाद दूसरे नम्बर पर आती है श्रीमती लाइड ब्रुक्स उनके 13 कन्याएं ही हैं। इन दोनों महिलाओं ने कभी भी पुत्र प्रसव नहीं किया।

आयु के न्यून या अधिक होने पर भी प्रजनन अवयव इस स्थिति में हो सकते हैं कि वे सन्तानोत्पादन कर सकें—

गुआरटिगुएट (ब्राजील) में 23 बच्चों के पिता जोसे पार फरियो डी. एराओ ने 109 वर्ष की आयु में 48 वर्षीय महिला के साथ चौथा विवाह किया है। पूछने वालों को उसने बताया कि यदि मेरे और सन्तान होती है तो उसे पूर्णतया स्वाभाविक समझूंगा। नव-वधू का यह प्रथम विवाह है। वह बहुत समय से उसकी प्रेयसी रही है। लोगों ने इस वृद्ध विवाह का मखौल उड़ाया तो वधू ने इससे असहमति प्रकट की और उसने कहा—मेरा पति शारीरिक दृष्टि से पूर्ण सक्षम है और मैं उससे सन्तुष्ट हूं।

दक्षिण पेरू के आरिक्या अस्पताल में एक 11 वर्षीय बालिका ने 18 किलोग्राम वजन के बच्चे को जन्म दिया। जच्चा और बच्चा दोनों ही स्वस्थ रहे।

इससे पूर्व कम उम्र की लड़की द्वारा प्रजनन का पहला रिकार्ड यह है कि 1938 में एक सात वर्षीय बालिका लिण्डा मैडिना ने कैंस्ट्रोविरीना के अस्पताल में पुत्र को जन्म दिया था।

यह प्रमाण बताते हैं कि शरीर की स्थिति पर प्रजनन निर्भर नहीं वरन् उसका सीधा सम्बन्ध ऐसी चेतना से है जो कायगत रासायनिक पदार्थों से कहीं ऊंचा है।

इन तथ्यों पर विचार करने से काम प्रवृत्ति को नियंत्रित परिष्कृत, परिपुष्ट, प्रबल और शिथिल बनाने को ही नहीं अभीष्ट सन्तानोत्पादन के लिए उस विशिष्ठ चेतना के साथ सम्पर्क बनाना पड़ेगा जो अस्थि मांस से नहीं वरन् अन्तःचेतना से सम्बन्धित है। चेतना का यह स्तर योगाभ्यास की कुण्डलिनी उत्थान जैसी साधना पद्धतियों से सम्बन्धित है। ब्रह्मचर्य का परिपूर्ण पालन और उस ओजस शक्ति का प्रखर व्यक्तित्व के रूप में परिवर्तन भी इसी स्तर की साधनाओं द्वारा सम्भव हो सकता है।
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