आत्मा न नारी है न नर
मनुष्य की मूल सत्ता न शरीर है और न उसकी इच्छाएँ - आकांक्षाएँ ।। बल्कि
आत्मा ही मनुष्य का मूल स्वरूप है ।। यह आत्मा न किसी प्राणी में कोई
अतिरिक्त विशेषताएँ लिये रहता है, न कोई न्यूनताएँ ही ।। आत्मा की सभी
विशेषताएँ समान रूप से सभी प्राणियों में विद्यमान रहती हैं और वह अपने मूल
स्वरूप में रहता हुआ ही विभिन्न शरीर धारण करता है ।।
विशेषता और अविशेषता की दृष्टि से आत्मा में इतना भी भेद नहीं है कि उसका
लिंग की दृष्टि से कोई निर्धारण किया जा सके ।। संस्कृत में आत्मा शब्द
नपुंसक लिंग है, इसका कारण यही है आत्मा वस्तुत: लिंगातीत है ।। वह न
स्त्री है, न पुरुष ।।
आत्म तत्त्व के इस स्वरूप का विश्लेषण करते हुए प्राय: प्रश्न उठता है कि
आत्मा जब न स्त्री है और न पुरुष, तो फिर स्त्री या पुरुष के रूप में जन्म
लेने का आधार क्या है ?
इस अंतर का आधार जीव से जुड़ी मान्यताएँ ही है ।। जीव चेतना भीतर से जैसी
इच्छा करती है, वैसे संस्कार उसमें गहरे हो जाते हैं ।। अपने प्रति जो
मान्यता दृढ़ हो जाती है, वही व्यक्तित्व रूप में प्रतिपादित होती है ।। ये
मान्यताएँ स्थिर नहीं रहती ।। फिर भी सामान्यत: इनमें एक दिशाधारा का
सातत्य रहता है ।। किसी विशेष अनुभव की प्रतिक्रिया से मान्यताओं में
आकस्मिक परिवर्तन भी आ सकता है या फिर सामान्य क्रम में धीरे- धीरे क्रमिक
परिवर्तन भी होता रह सकता है ।।
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