आत्मा न नारी है न नर

ब्रह्मचर्य से शक्ति और संयम द्वारा प्रसन्नता

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काम वासना का मनुष्य जीवन में बहुत छोटा सा स्थान है। प्रकृति ने उसमें एक आनंद इसलिए भर दिया है कि सृष्टि का क्रम चलता रहे। परन्तु आधुनिक सभ्यता और उसके विचारक काम प्रवृत्ति को ही सब कुछ, सर्वप्रधान मानने लगे हैं। यह भी कहा जाता है कि इस काम प्रवृत्ति को उन्मुक्त रूप से खुल खेलने देना चाहिये अन्यथा मन और शरीर में कई एक रोगों की उत्पत्ति हो सकती है। इस विचार को प्रतिपादित करने में प्रसिद्ध मनोविज्ञान शास्त्री सिगमंड फ्रायड का नाम अग्रणी है। उनका यह बहुचर्चित प्रतिपादन सर्वविदित है कि—काम वासना की अतृप्त इच्छाएं ही मनोविकारों को उत्पन्न करती हैं और उस अवरोध से प्रतिभा कुण्ठित होती है। मानसिक ही नहीं शारीरिक स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ता है और व्यक्तित्व दब जाता है। वे कहते रहे हैं मनुष्य इंजन है और कामवासना उसमें बनती-बढ़ती भाप। यदि इस भाप को निकलने का अवसर न मिले तो विस्फोट होगा और व्यक्तित्व बिखर जायेगा। उनने उन्मुक्त काम सेवन की वकालत की है और उस पर लगे प्रतिबन्धों को हानिकारक बताया है।

उस प्रतिपादन ने यौन सदाचार पर बुरा प्रभाव डाला है और लोगों का जितना विश्वास फ्राइड के प्रतिपादन पर जमा है उतना ही असंयम और व्यभिचार को प्रोत्साहन मिला है। सुशिक्षित वर्ग में इस तथाकथित मनोविज्ञान के आधार पर यह मान्यता जड़ जमाती जा रही है कि कामेच्छा की पूर्ति आवश्यक है। उसे स्वच्छन्द उपभोग का अवसर मिलना चाहिए। संयम से शारीरिक और मानसिक हानि होती है। इस प्रतिपादन का कुप्रभाव नर-नारी के बीच पावन सम्बन्धों की समाज व्यवस्था परक सुव्यवस्था एवं पवित्रता पर पड़ रहा है। दाम्पत्य जीवन में यदि कुछ अतृप्ति रह जाती है, तो उसे बाहर पूरा करने में भय, लज्जा, संकोच, अनुभव नहीं करता वरन् उस उद्धत आचरण को शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से आवश्यक मानता है। यह व्यभिचार का खुला समर्थन है। दाम्पत्य मर्यादाओं को फिर कैसे स्थिर रखा जा सकेगा। अविवाहित या विधुर यदि व्यभिचार पथ पर प्रवृत्त होते हैं तो उन्हें किस तर्क से समझाया जा सकेगा। फिर जो छेड़छाड़ और गुण्डागर्दी की अश्लील शर्मनाक घटनायें आये दिन होती रहती हैं उन्हें अवांछनीय या अनावश्यक कैसे ठहराया जा सकेगा। फ्राइड का शास्त्र दूसरे शब्दों में व्यभिचार शास्त्र ही है जिसे मनोविज्ञान में दार्शनिक मान्यता देकर समाज व्यवस्था पर कुठाराघात ही किया जा रहा है। एक तो वैसे ही पशु प्रवृत्तियां यौन उच्छृंखलता की ओर प्रोत्साहित करती थीं—सामाजिक परिस्थितियां भी उसी ओर आकर्षण बढ़ाती थीं, इस पर उस प्रवृत्ति को वैज्ञानिक समर्थन मिलने लगे और संयम को हानिकारक बताया जाने लगे तब तो ब्रह्मचर्य और दाम्पत्य जीवन की पवित्रता का ईश्वर ही रक्षक है।

इस प्रकार के प्रतिपादन का उत्साह सम्भवतः फ्राइड को पाश्चात्य धर्म मान्यताओं से भी मिला होगा। क्योंकि उनका तत्वदर्शन कुछ ऐसा ही अटपटा है। यहूदी और ईसाई धर्म मान्यताओं के अनुसार मनुष्य जन्म-जात पापी है। वह पाप वृत्तियां लेकर अवतरित हुआ है। उसकी प्रकृति पापमूलक है। इस ‘ओरीजिनल सिन’—को ही सम्भवतः फ्रायड ने मनुष्य की मूलभूत प्रवृत्ति माना है। जो कुछ वह सोचता है, करता है उसमें पाप ही प्रधान होना चाहिये। पाप में से प्रधानता किसे दी जाये। फ्रायड को इसके लिए सबसे सरल और आकर्षक ‘सेक्स’ ही जंचा और उसने यह मान्यता गढ़ डाली कि मनुष्य की स्थिरता एवं प्रगति ‘सेक्स’ पर अवलम्बित है। उसकी निरन्तर इच्छानुरूप—स्वच्छन्द पूर्ति न हो सकेगी तो मन में कांपलेक्स—ग्रन्थियां बनेंगी। मनोविकार उत्पन्न करेंगी, बीमारी लायेंगी और न जाने क्या-क्या करेंगी। इसलिए उन समस्त उपद्रवों और हानियों से बचने का एक ही आकर्षक तरीका है कि स्वच्छन्द काम सेवन की सुविधा प्राप्त की जाय। इस दिशा में लगे हुए प्रतिबन्धों और मर्यादाओं को अमान्य किया जाय। स्वेच्छाचार और स्वच्छन्दतावाद सम्भवतः इसलिए उन्हें उचित प्रतीत हुआ क्योंकि उस दर्शन में—जिसमें फ्रायड पले यह माना जाता रहा है कि मनुष्य जन्मजात पापी है। पाप उसकी प्रकृति है। जब ऐसा ही है तो उस मूल प्रवृत्ति को क्यों रोका जाय? उसे तृप्त ही क्यों न होते रहने दिया जाय? यही है फ्राइड का अधूरा और बेतुका चिन्तन जिसे न जाने क्यों विचारशील लोगों ने आंखें बन्द करके स्वीकार कर लिया है।

मनुष्य की प्रकृति में कामुकता का भी एक स्थान है, पर वह है सीमित, उसे मान्यता मिली है, उसे हर्षोल्लास के विकास की दृष्टि से प्रयुक्त भी होने दिया जाता है, पर उसकी दिशा ऊंची रखी जाती है और यह प्रयत्न किया जाता है कि वह ऊर्ध्वगामी होकर विकसित हो। विवाह के समय पत्नी प्रियतमा व प्रेयसी होती है रस रंग में सहायक होती है, पर उसकी इस स्थिति की अवधि बहुत स्वल्प है। जल्दी ही वह मां बन जाती है और फिर पति भी—पत्नी भी अपने उत्तरदायित्वों और गृहस्थ के कर्त्तव्यों को देखते हुए—बालकों पर पड़ने वाले प्रभाव का ध्यान रखते हुए उस प्रणय प्रवृत्ति को जल्दी ही शालीनता में परिणत करने लगते हैं। आरम्भिक दिनों में चन्द्र वदनी, मृगनयनी आदि कहा जाता था पर थोड़े ही दिनों बाद वह मुन्नी की मम्मी, श्याम की मां कहकर पुकारी जाती है। फिर परस्पर सम्बोधन बच्चों के नाम पर उनकी माता जी या उनके पिताजी कहकर किये जाते हैं। वासनात्मक दृष्टिकोण बदलकर अभिभावकों का—बुजुर्गों का—बन जाता है। यही स्वस्थ दृष्टिकोण है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की चार उपलब्धियों में एक गणना काम की भी है, पर उसकी प्रधानता नहीं तीसरा नम्बर है। पहले धर्म कर्त्तव्य—इसके बाद अर्थ पुरुषार्थ—तब कहीं काम—सो भी तुरन्त छुटकारे से—मोक्ष से—तनिक ही पूर्व। सूर्य चन्द्र पर ग्रहण लगता तो है पर उसका मोक्ष से—तनिक ही पूर्व। सूर्य चन्द्र पर ग्रहण लगता तो है पर उसका मोक्ष काल भी जल्दी ही आ जाता है। यही है तथ्यपूर्ण काम मर्यादा।

माना कि पशु प्रवृत्तियां भी मनुष्य के भीतर हैं पर इसका अर्थ यह तो नहीं है कि उन्हें खुलकर खेलने के लिए छुट्टल कर दिया जाय उनका उदात्तीकरण ही तो ‘संस्कृति’ है। बालों को काट-छांट कर साज-संभाल कर ही तो उन्हें सुंदर बनाया जाता है। यदि उन्हें मूल रूप में ही बढ़ने दिया जाय तो फिर मनुष्य की शकल आदम मानव जैसी कुरूप बन जायगी। बगीचे की कटाई, छंटाई, खुदाई, निराई न की जाय तो वह झाड़ झंखाड़ के रूप में कुरूप बना खड़ा होगा। पशु प्रवृत्तियों का उदात्तीकरण ही तो ‘कला’ है। कला रहित को सींग, पूंछ रहित पशु कहा गया है। ‘काम’ को भारतीय दर्शन में भी उसके मूल स्वरूप में स्वीकार किया गया है और उसका सम्मान भी किया गया है। उसे ‘पाप’ नहीं माना गया वरन् हर्षोल्लास, विनोद, कौतुक के भावान्दोलन का लाभ लेकर उसे श्रद्धा सिक्त अध्यात्म की दिशा में उन्मुख कर दिया गया है। शिव लिंग की प्रतिमाएं देव मन्दिरों में पूजी जाती हैं यह नर नारी की जननेन्द्रियां ही हैं। उन्हें सृष्टि बीज—चेतना केन्द्र के रूप में श्रद्धासिक्त दृष्टि से देखा जाता है और अर्चना अभ्यर्थना के उच्च स्तर पर उन्हें बिठाकर वन्दन अभिनन्दन किया जाता है। उच्छृंखल उन्माद के लिए—कोमल भावनाओं के रूप में उन्हें मृदुल रस धारा बनाकर जीवन मरुभूमि में प्रवाहित करना ही ललित कलाओं का उद्देश्य है। शिव द्वारा काम दहन के पौराणिक कथानक ने स्थूल काम सेवन को विक्षोभकारी, असन्तुलन उत्पादन का अपराधी ठहरा कर विवेक के तृतीय नेत्र से उसे भस्म कराया है। साथ ही उसे अशरीरी बनकर अजर-अमर रहने का वरदान भी मिला है और उसे देवताओं की पंक्ति में बिठाया गया है। यही है काम सम्बन्धी परिष्कृत दृष्टिकोण।

लेकिन फ्रायड ने काम प्रवृत्ति को उपभोग क्रीड़ा की दिशा में ही सरल रखना उचित बताया उनका कहना था कि काम प्रकृति की प्रेरणा है और वह बच्चों में जनम के साथ ही विद्यमान रहती है। इसी प्रवृत्ति के कारण बच्चे अपने माता पिता की ओर आकर्षित होते हैं।

अबोध बालकों में इस तरफ का यौन आकर्षण होना अत्युक्तिपूर्ण ही नहीं बहुत हास्यास्पद बात भी है। भारतवर्ष में मृत्यु पर्यन्त माता के प्रति लोगों में इतनी पवित्रता होती है कि ऐसे गंदे और फूहड़ विचार मस्तिष्क में आते तक नहीं। पिता-माता के प्रति दुर्भाव आना सहज वृत्ति रही होती तो श्रवण कुमार अपने माता-पिता को कंधों पर चढ़ाये हुए न घूमता। राम दशरथ की बात ठुकरा देते और अयोध्या में गृहयुद्ध की स्थिति पैदा कर देते। दुर्योधन जैसा अत्याचारी शासक भी अपने माता-पिता का उतना ही भक्त था, जितना किसी आदर्श संतान को होना चाहिये। भरतकुमार के लिये तो वन में कोई अवरोध नहीं था पर उसने अपनी मां की उपासना देवताओं की तरह की।

फ्रायड के इस थोथे सिद्धांत की वास्तविकता प्रकट करते हुये, श्री इलाचन्द जोशी लिखते हैं—‘‘फ्रायड अपनी सुन्दरी माता आमेलिया फ्रायड का पहला पुत्र था। आमेलिया के प्रति याकोब फ्रायड ने यह दूसरा विवाह किया था। जब फ्रायड का जन्म हुआ था, तब आमेलिया की आयु कुल 21 वर्ष की थी, प्रथम सन्तान के प्रति मां का भी अत्यधिक स्नेह और लाड़-प्यार होता है, फ्रायड जन्मजात प्रतिभाशाली और तीव्र अनुभूतिशील बालक था। आश्चर्य नहीं कि इस प्रीकोशस बालक के मन में सचेत ही रूप में अपनी स्नेहशीला और सुन्दरी माता के प्रति बहुत छोटी अवस्था में ही तीव्र यौनाकांक्षा जाग उठी हो। फ्रायड कुतूहली और ईर्ष्यालु स्वभाव का भी था। पिता उसे कई बार डांटता भी था, इस लिये पिता के प्रति दुर्भाव हो जाना स्वाभाविक हो सकता है।

अपने जीवन की इसी संस्कार जन्य कमजोरी को लगता है, फ्रायड ने एक सर्व साधारण सिद्धान्त मान लिया और उसे ही सत्य सिद्ध करने में जीवन भर लगा रहा। मनुष्य जीवन की साधारण गति अधोमुखी होती ही है, सो उसे समर्थक भी मिलते ही गये और देखते देखते फ्रायड के सेक्स ने सारे पाश्चात्य समाज को अपनी कुंडली में बांध लिया।

प्रवृत्तियां और भी हैं

किन्तु ऐसा नहीं समझा जाना चाहिए कि मनोविज्ञान के कर्त्ता-धर्त्ता केवल फ्राइड ही हैं। उन्हीं की तरह दूसरे अन्वेषक भी हुए हैं और वे भी शोध कार्य में इस क्षेत्र के अग्रणी समझे जाते हैं, उनने मूल प्रवृत्तियों की व्याख्या की है उसमें कामुकता को नहीं अन्य प्रवृत्तियों को प्रमुख माना है। उनकी खोज में कामुकता एक प्रवृत्ति तो है पर उसका स्थान बहुत ही हलका एवं गौण है। इसे बदलने, सुधारने में उनके कथनानुसार कोई बड़ी कठिनाई नहीं होनी चाहिए। सामाजिक एवं नैतिक आवश्यकता के अनुरूप यदि उस पर एक सीमा तक प्रतिबन्ध लगाया जाय तो उससे किसी बड़ी हानि की आशंका नहीं है।

मनोविज्ञानियों के विश्लेषणों में प्रधान मूलप्रवृत्तियों के सम्बन्ध में भारी मतभेद है। उदाहरणार्थ हाव्स ने मूल प्रवृत्तियों के अनुसार मनुष्य को निर्दयी तथा स्वार्थी माना है। एडम स्मिथ ने अपने ग्रन्थ, ‘‘सिम्पथेटिक बेसिस आफ ह्यूमन एक्टिविटीज’’ में ‘‘सहानुभूति को मूल प्रवृत्ति एवं मनुष्यों का पारस्परिक व्यवहार का प्रधान आधार माना है। ट्रोटर ने अपने ग्रन्थ—‘‘इन्स्टिक्ट्स आफ दि हर्ड इन पीस एण्ड वार’’ में मनुष्य को सामाजिकता एवं सामूहिकता की प्रवृत्तियों से ओत-प्रोत सिद्ध किया है।

डा. पेमाख मूल प्रवृत्तियों के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं, पर वे कहते हैं कि उत्तेजना मिलने पर ही वे जागृत होती हैं यदि उन्हें छेड़ा न जाय तो उनका क्वचित् प्रभाव ही दृष्टिगोचर होगा। वह भी इतना हलका होगा कि उसे थोड़े प्रयत्न से मोड़ा मरोड़ा जा सके।

‘‘जिंसवर्ग’’ यह मानते हैं कि मूल प्रवृत्तियां मनुष्य की अभिरुचि को अपनी दिशा में आकर्षित तो करती हैं पर वे इतनी प्रबल नहीं होतीं कि रोकने मुड़ने पर कोई विग्रह खड़ा कर दें।

मैग्डुगल ने अपने ग्रन्थ ‘‘आउट लाइन आफ साइकोलौजी’’ में इस तथ्य को और भी अधिक स्पष्ट किया है कि मूल प्रवृत्तियों में ज्ञानात्मक, क्रियात्मक और रागात्मक तीनों प्रकार की मानसिक क्रियाएं जुड़ी हुई हैं। फिर भी वे शरीर मस्तिष्क को चलाने वाली स्वसंचालित सहज क्रियाओं जैसी नहीं। रक्ताभिषरण, श्वास-प्रश्वास, आकुंचन प्रकुंचन जैसा अपरिहार्य उनका वेग नहीं है वे परिवर्तनशील हैं और सुधारी जा सकती हैं। शहद की मक्खी में छत्ता बनाने की जो प्रवृत्ति है वह सहज क्रिया है, पर कुत्ते की मूल प्रवृत्ति जहां भी आहार मिले वहां से झपट लेने की आदत बदली जा सकती है। उसे लिखा पढ़ा कर शिष्ट बनाया जा सकता है और रोटी पाने के लिए उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा करने के लिए अभ्यस्त किया जा सकता है।

मनोविज्ञानी जेम्स के अनुसार 6 प्रकार की मूलप्रवृत्तियां मनुष्यों में पाई जाती हैं पर यह आवश्यक नहीं कि हर किसी में वे समान रूप से उभरी हुई हों। किसी में इनमें से किसी का संवेग तीव्र हो सकता है और किसी में उसका स्तर इतना क्षीण हो सकता है कि उनके अस्तित्व की संभावना ही संदिग्ध प्रतीत होने लगे। जेम्स इन्हें छह की संख्या में गिनते हैं (1) सार्वभौमिकता—यूनिवर्सिलिटी (2) जन्मजात-इन्नेट (3) संशोधन क्षमता-एडाब्टेबिलिटी (4) प्रयोजन-परपज (5) प्राथमिक पूर्णता परफेक्शन फर्स्ट पर्टोरमेन्स (6) सम्पूर्ण मानसिक क्रिया-कम्पलीट मेन्टल एक्शन।

थार्न हाइक का कथन है कि मनुष्य की मूलप्रवृत्तियां एक सौ तक गिनी जा सकती हैं जिनमें से चालीस तो ऐसी हैं जिनका अस्तित्व न्यूनाधिक मात्रा में प्रायः हर किसी में देखा जा सकता है। डा. बर्नार्ड ने अपने ‘‘एस्टडी आव सोशल साइकोलॉजी’’ ग्रन्थ में लगभग उतनी ही संख्या में मूल प्रवृत्तियों की गणना की है जितनी कि थार्न डाइक बताते हैं।

‘ड्रेवर’ ने अपने ग्रन्थ ‘इन्स्टिक्ट इन मैन’ में वासनात्मक और प्रतिक्रियात्मक दो वर्गों में मूलप्रवृत्तियों का विभक्तिकरण किया है। किल पेट्रिक ने (1) आत्म रक्षा की प्रवृत्ति—सेल्फ प्रिजर्वेटिव इंस्टिक्ट (2) सन्तानोत्पत्ति की प्रवृत्ति—रिप्रोडक्टिव इंस्टिक्ट (3) सामूहिक जीवन की प्रवृत्ति—ग्रेगेरियस इंस्टिक्ट (4) परिस्थितियों के अनुकूल जीवन चलाने की प्रवृत्ति एडाप्टिव इंस्टिक्ट (5) आदर्श पालन की प्रवृत्ति रेगुलेटिव इंस्टिक्ट को ही प्रधान माना है। शेष को या तो प्रवृत्तियों में गिनते ही नहीं, या फिर उन्हें वे तुच्छ उपेक्षणीय कहते हैं।

वुडवर्थ ने उनका विभाजन नौ श्रेणियों में किया है (1) आंगिक आवश्यकता (2) काम प्रेरणा (3) पलायन प्रेरणा (4) लड़ना (5) अनुसंधान (6) विनोद (7) सामाजिक चेतना (8) संस्थापन (9) विनीतता।

मैग्डुगल के ग्रन्थ ‘सोशल साइकोलोजी एण्ड आउट लाइन आफ साइकोलोजी’ में मूल प्रवृत्तियों की संख्या तेरह बताई गई है। (1) पलायन—एस्केप (2) युयुत्सा—कम्बैट या पुगनैसिटी (3) निवृत्ति—रिपल्सन (4) संवेदना—अपील (5) भोग—मैटिंग आरसेक्स (6) जिज्ञासा—क्यूरियासिटी (7) दैन्य सबमिशन (8) आत्म गौरव—सेल्फ एसोर्शन (9) सह जीवन—ग्रेगेरियास नेस (10) आहारान्वेषण—फडसीकिंग (11) संचय एक्विजिसन (12 विधायकता—कान्स्ट्रक्टिव नसे (13) हास—लाफ्टर।

मनःशास्त्री वेवलोन्स्की का कथन है कि मनुष्य की मूल प्रवृत्तियां इतनी अधिक हैं जितना अनन्त आकाश, उन्हें गणना की सीमा से परे सार्वभौम कहना चाहिए, सार्वभौमिकता भूख-प्यास, निद्रा, जैसी उन प्रवृत्तियों को कहते हैं जो समस्त विश्व के मनुष्यों में एक समान पाई जाती हैं। ‘जन्मजात’—वे हैं जो बच्चों में जन्मते ही साथ आती हैं—दूध चूसना, अंग संचालन आदि। ‘समयोजन की क्षमता’ का तात्पर्य है—परिस्थितियों के अनुरूप उपाय खोजना और अपने को ढालना, ‘प्रयोजन’ किसी सामयिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए सहज बुद्धि से तत्पर हो जाना। ‘सम्पूर्ण मानसिक क्रिया का स्वरूप है विपत्ति सामने आते ही उसका सामना करने के लिए हर अंग का क्रियाशील हो जाना। शेर सामने आते ही मुंह से चिल्लाने हाथों से पत्थर उठाने, पैरों से भागने जैसे बहुमुखी क्रियाकलाप का एक साथ-तत्काल आरम्भ हो जाना। जिज्ञासा, संग्रह शीलता’ अहंमन्यता का प्रदर्शन दूसरों की तुलना में श्रेष्ठ सिद्ध होने की इच्छा जैसी अनेकों अन्य प्रवृत्तियां भी ऐसी हैं जो न्यूनाधिक मात्रा में हर मनुष्य के अन्दर विद्यमान रहती हैं।

मनःशास्त्रियों के अन्यान्य प्रतिपादनों को देखते हुए फ्रायड के काम स्वेच्छाचार का प्रतिपादन बहुत ही बचकाना और एकांगी प्रतीत होता है। खेद इसी बात का है कि ऐसे अधूरे और अवांछनीय निष्कर्षों को अग्रिम पंक्ति में बिठाने की ऐसी भूल की जा रही है जिसका परिणाम मानव समाज का भविष्य अन्धकारमय ही बना सकता है। ‘रेतस’ को ऊर्ध्वगामी बनाकर जो उल्लास शक्ति, प्रसन्नता प्रमोद और आनन्द मिलता है, योग-शास्त्रों में उसकी बड़ी प्रशंसा की गई है और उसे अनवरत कामसुख से भी बढ़कर बताया गया है। यौनाकर्षण तो क्षणिक सुख की प्रेरणा देता है, इस प्रकार की तृप्ति से आंशिक सुख भले ही मिल जाता हो पर बाद में शरीर और आत्मा की दुर्गति ही होती है। मनुष्य के विचार और क्रिया-कलाप सब निम्नगामी होते चले जाते हैं, व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में वह विद्रुप और उपद्रव उठ खड़े हो जाते हैं, जिनकी चर्चा इतिहास पुराणों में मिलती है।

महाराजा ययाति वैसे तो बड़े ही विद्वान और ज्ञानवान् राजा थे। किन्तु दुर्भाग्यवश उन्हें वासनाओं का रोग लग गया और वे उनकी तृप्ति में निमग्न हो गये। स्वाभाविक था कि ज्यों-ज्यों वे इस अग्नि में आहुति देते गये, त्यों-त्यों वह और भी प्रचण्ड होती गई और शीघ्र ही वह समय आ गया, जब उनका शरीर खोखला और शक्तियां बूढ़ी हो गई। सारे सुकृत खोये, बेटे के प्रति अत्याचारी प्रसिद्ध हुए, परमार्थ का अवसर खोया और मृत्यु के बाद युग-युग के लिये गिरगिट की योनि पाई, किन्तु वासना की पूर्ति न हो सकी। पाण्डु जैसे बुद्धिमान राजा पीलिया रोग के साथ वासना के कारण ही अकाल मृत्यु को प्राप्त हुये। शान्तनु जैसे राजा ने बुढ़ापे में वासना के वशीभूत होकर अपने देवव्रत भीष्म जैसे महान् पुत्र को गृहस्थ सुख से वंचित कर दिया। विश्वामित्र जैसे तपस्वी और इन्द्र जैसे देवता वासना के कारण ही व्यभिचारी और तप-भ्रष्ट होने के पातकी बने। वासना का विषय निःसन्देह बड़ा भयंकर होता है, जिसके शरीर का शोषण पाता है, उसका लोक-परलोक पराकाष्ठा तक बिगाड़ देता है। इस विष से बचे रहने में ही मनुष्य का मंगल है।

लाभ नहीं हानि ही हानि

कुछ भौतिकवादी मानसिक उपचारकों का विचार है कि काम-प्रवृत्ति मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति होने से, उसके प्रकाशन और तृप्ति की प्रक्रिया में तब तक रोक नहीं लगाई जानी चाहिए, जब तक कि उससे समाज के किसी अन्य घटक को कोई क्षति या पीड़ा न पहुंच रही हो। उनकी मान्यता है कि कामोत्तेजना का दमन स्नायविक तनाव का कारण बनता है और इससे विभिन्न शारीरिक-मानसिक रोगों की उत्पत्ति होती है।

इस सन्दर्भ में अनेक ऐसे लोगों का परीक्षण किया गया जो कि बुद्धि और हृदय से काम-वासना सम्बन्धी उपरोक्त मत को ही सत्य मानते थे और स्वयं डाक्टर थे तथा शरीर की भली-भांति जानकारी रखते थे। पाया यह गया कि उच्छृंखल काम सेवन या कि ‘काम-चिन्तन’ से इन लोगों को भी शारीरिक थकावट, निराशा, चिन्ता वृद्धि, शंकालुता के अकारण उदय आदि से ग्रस्त-त्रस्त होना पड़ा। अधिक समय तक इसी में लगे रहने वाले ऐसे डाक्टरों को भी औरों की तरह ‘न्यूरेस्थेनिया’ का रोग हो गया। ‘‘साइकालाजी एन्ड मारल्स’’ नामक पुस्तक में मनोविज्ञानवेत्ता प्रोफेसर हेडफील्ड ने लिखा है कि स्वच्छन्द यौनाचरण का परामर्श देना, व्यक्ति को विनाश के मार्ग में ले जाने की विधि है। तब क्या यह सही नहीं है कि काम-वासना का दमन रोगों को जन्म देता है? वस्तुतः सही यह है कि जब किसी तरह के भय के कारण काम-वासना दमित की जाती है, तो वह मात्र चेतन मन में दमित होती है। अचेतन मन में उसकी आग धधकती ही रहती है और वह कामकुटेवों तथा शारीरिक-मानसिक विकृतियों के रूप में फूटती है।

एक ओर, काम-क्रीड़ा के प्रति जब व्यक्ति-मन में प्रबल पाप-भावना घर कर लेती है और दूसरी ओर अचेतन मन के प्रशिक्षण की विधियां जाने बिना मन की स्वाभाविक कामोत्तेजनाएं बार-बार उभरकर उद्विग्न-उद्वेलित करती रहती हैं, तो एक प्रचण्ड संघर्ष का जन्म स्वाभाविक है। इस संघर्ष के बावजूद अनियन्त्रित-अप्रशिक्षित मन में कामोद्वेग तो उठेगा ही, इससे आत्मग्लानि की भावना उत्पन्न होने लगती है। साथ ही दमन की अस्वाभाविक आकांक्षा दुराग्रही और हठी बनती जाती है। यह अपने को ही अपना शत्रु मान बैठने की स्थिति होती है। परिणाम स्पष्ट है—क्षति स्वयं की ही होती है। दमित भावना अचेतन मन में चली जाती है और असामान्य क्रम में होने वाले स्वप्न-दोषों से लेकर विभिन्न यौन-रोगों तथा शारीरिक-मानसिक विकृतियों का कारण बनती है।

काम को मनुष्य की मूल प्रवृत्तियों में से एक मान लेना एक हास्यास्पद भ्रान्ति ही है। युंग ने फ्रायड की इस स्थापना पर कि ‘‘मानवीय इच्छाएं—चेष्टाएं प्रधानतया काम वासना से प्रेरित-निर्देशित हैं, अपनी टिप्पणी यह की थी कि—‘‘फ्रायड का यह कथन, अन्तःकरण और व्यवहार के बीच की एक धुंधली-सी परत की चर्चा भर है। यह मन की वास्तविक स्थिति नहीं, उसकी काली कुरूप छाया मात्र है। मन में अनेक लहरें उठती रहती हैं। क्रिया-प्रतिक्रिया की इन्हें तरंगों में से एक कामवासना की तरंग भी है। उसे चेतना की मूल प्रेरणा मानना भ्रान्ति ही है।’’

मनोविज्ञान में किसी व्यक्ति की ही स्थापना का प्रमुखता देने वाले व्यक्तियों के भी मन का विश्लेषण अनिवार्य है। आज मनोविज्ञान बहुत आगे बढ़ा है; फिर भी अपनी आन्तरिक कुरूपता-दुर्बलता को गरिमा मंडित करने की निर्लज्ज चेष्टा में निरत लोग फ्रायड की उक्त स्थापना की ही दुहाई दिए चले जाते हैं, जबकि स्वयं फ्रायड ने जीवन के अन्तिम दिनों में अपनी कई मान्यताओं का परिशोधन परिमार्जन किया था। हाव्स, एडम स्मिथ, मैक्ड्रगल, जेम्स, किल पेट्रिक, ड्रेवर, थार्नडाइक, वुडवर्थ आदि ने मूल प्रवृत्तियों का भिन्न-भिन्न रीति से विभोजन किया है। बेब्लोनस्की का कथन है कि ‘‘मनुष्य की मूल प्रवृत्तियां अनन्त आकाश के समान गणनातीत हैं।’’ ‘जीन्सवर्ग’ ने कहा है कि—‘‘मूल प्रवृत्तियां मनुष्य को अपनी ओर आकर्षित तो करती हैं, किन्तु वे ऐसी प्रचण्ड कदापि नहीं होतीं कि रोकने-मोड़ने पर कोई अनर्थमूलक विग्रह खड़ा कर दें।’’

अपनी पुस्तक ‘‘साइकोलॉजी एण्ड साइकोथेरेपी’’ में डा. विलीयम ब्राउन ने कहा है—‘‘रियलिटी’’ समय से परे है। वह समय से बाहर नहीं, समयातीत है। ‘रियलिटी’ की यह कालातीत होने की विशेषता ही हमें वह ‘स्वतन्त्रता देती हैं।’ जिसके कारण हम अपनी मूलप्रवृत्तियों को नियन्त्रित कर सकते हैं। भौतिक विज्ञान की शब्दावली से मूलप्रवृत्तियों के नियन्त्रण की बात समझ में ही नहीं आ सकती। जहां तक भौतिक विज्ञान की वर्तमान पहुंच है, वहां तक ‘डिटर्मिनिज्म’ बिल्कुल सही है उसके अनुसार मूल प्रवृत्ति का प्रकाशन अनिवार्य है। इसमें अन्यथा हम कुछ नहीं कर सकते। लेकिन मात्र नियन्त्रक नहीं, प्रेरक-निर्देशक भी हैं। उनके बिना जीवन में किसी भी क्षेत्र में सार्थक क्रियाशीलता ही सम्भव न हो सकेगी। उसे परिष्कृत किया जाना चाहिए। उल्लास के रूप में परिणत करने के कितने ही सौम्य प्रयोजन हैं, जो हमें हास-विलास, विनोद, क्रीड़ा कौतुक के रूप में न केवल आनन्द देते हैं वरन् उत्साह, साहस और कौशल की वृद्धि भी करते हैं। काम भावना को इसी दिशा में परिष्कृत किया जा सके तो वह न तो विनाशकारी बनेगी और न अनैतिक रहेगी। उसे जीवन को उत्कृष्ट और आनन्दित बनाने के लिए बुद्धिमत्ता पूर्ण रीति से मोड़ा जाय तो वह हर दृष्टि से लाभदायक सिद्ध होगा।

‘रियलिटी’ दिक्कालातीत है और स्वरूपतः आध्यात्मिक (या चेतनात्मक स्पिरिचुअल) है। हम इसी ब्रह्माण्ड-व्यापी चेतना के अंश हैं और इसी रूप में हम स्वतन्त्र हैं, मनुष्य की इच्छा शक्ति स्वतन्त्र है, पर कैसे स्वतन्त्र है? यह निरी भौतिक-विज्ञानी विधियों तथा शब्दावलियों द्वारा हम न समझ सके हैं, न कभी समझ सकेंगे।’’

काम-कुटेवों समेत समस्त स्वेच्छाचारिता की प्रेरणा अचेतन मन से होती है। अचेतन मन पर अधिकार पाने के लिए इच्छा-शक्ति की महत्ता तथा स्वरूप को समझना आवश्यक होता है। हमारी सचेत इच्छा-शक्ति हमारे चेतन-मन की ही उत्पत्ति है। अचेतन मन का विस्तार इससे बहुत अधिक है।

स्नेह-प्रेम के अभाव तथा जीवन में विफलता के गहरे बोध से व्यक्ति की जीवनी-शक्ति का प्रवाह सहज नहीं रह जाता और वह विकृत रूपों में व्यक्त होता है। यह विकृति चेतना मन के समक्ष जब पहली बार आती है, तो व्यक्ति की नैतिक मान्यता उसे सहन नहीं कर पाती और उसे ग्लानि होती है। यह ग्लानि संकल्प से जुड़ने पर सृजनात्मक हो सकती है। दिशा-निर्देश के अभाव में यह आत्मविश्वास हीनता को जन्म देती और इच्छाशक्ति को क्षीण करती है। क्षीण इच्छाशक्ति से विकृतियां रुकती नहीं, बढ़ती ही जाती हैं।

कामवेग जन्य विकृतियों से बचने के लिए एक उपाय यह भी सुझाया जाता है कि नैतिक मान्यताएं ही इसके स्वच्छन्द प्रकाशन को अनुचित ठहराती तथा ग्लानि उत्पन्न करती हैं, अतः उन्हें ही ध्वस्त कर दिया जाये। किन्तु नैतिक मान्यताएं इतनी मामूली वस्तु नहीं। वे हमारी प्रगतिशीलता का आधार हैं। वे विवेकपूर्ण हों, तभी नैतिक मानी जाएंगी और विवेक से उत्पन्न नैतिक मान्यताओं की अस्वीकृति का अर्थ है विवेक की अस्वीकृति। विवेक के बिना व्यक्ति विचित्र गतिविधियों का पिटारा मात्र बनकर रह जाएगा। उसे किसी भी कार्य में न तो बौद्धिक आस्वाद प्राप्त होगा, न ही हार्दिक उल्लास। तब जीवन में आनन्द की भी स्पष्ट अनुभूति न हो सकेगी।

नैतिक मान्यताओं का क्षेत्र अध्यात्म का क्षेत्र है। ये विकसित किया जा सके। धर्म से अविरुद्ध काम को गीता में भगवान ने अपना स्वरूप बताया है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चार फलों में एक काम भी है। अस्तु उसे घृणित नहीं कहा जा सकता। इस बात की भी आवश्यकता नहीं कि उसे निरन्तर धिक्कारने और दबाने में ही लगा रहा जाय। विवेक का नियन्त्रण भर रखने से काम चलाऊ हल निकल आता है और उच्छृंखलता की सीमा तक बढ़ने की आवश्यकता नहीं पड़ती। किन्तु इस महाशक्ति को निरर्थक भी क्यों जाने दिया जाय? यौन भावना को नियन्त्रित किया जाय। यौन-शक्ति का श्रेष्ठतम उपयोग तो उसे सृजनात्मक दिशा देना ही है। दीपक का तेल बाती से होता हुआ उसके सिरे पर पहुंच कर प्रकाश उत्पन्न करता है। यदि दीपक की पेंदी में छेद हो तेल की दिशा अधोमुखी हो तो न दिया जलेगा न तेल बचेगा। यौन शक्ति को ऊर्ध्वगामी बनाना प्रयत्न और अभ्यास साध्य है। कालिदास ने प्रयत्न और अभ्यास से इसे सिद्ध कर जड़ बुद्धि से महाकवि बनने में सफलता प्राप्त की। पत्नी को एक-क्षण के लिए छोड़ने को तैयार नहीं—तुलसी ने जब यह दिशा पकड़ी तो वे कामुक और लम्पट पुरुष से रामचरित्र मानस जैसे ग्रन्थ के प्रणेता और सन्त महापुरुष बन गये। गृहस्थ होते हुए भी यौन भावना को परिमार्जित और सृजनात्मक दिशा देकर बोलते समय कांपने वाले मोहनदास अपनी आवाज से करोड़ों लोगों में प्राण फूंकने वाले महात्मा गांधी हो गए। यौन-भावना को ऊर्ध्वमुखी बनाकर संसार में आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त करने वाली ज्ञात-अज्ञात विभूतियों का विवरण इकट्ठा किया जाय तो उनकी संख्या हजारों में नहीं लाखों में हो सकती है। यदि इतना एकदम सम्भव न हो सके तो कम से कम उसे नियन्त्रित तो किया जा सकता है। सफलता का मतलब यश, कीर्ति ही नहीं है।

नैपोलियन 25 वर्ष की आयु तक काम-सुख तो क्या नारी के प्रति भी आकृष्ट नहीं हुआ था। न्यूटन के मस्तिष्क में यौनाकर्षण उठा होता तो उसने अपना बुद्धि-कौशल सृष्टि के रहस्य जानने की अपेक्षा अपरिमित काम-सुख प्राप्त करने में झोंक दिया होता। भीष्म और हनुमान प्रतिज्ञाबद्ध हो सकते हैं, पर न्यूटन के सामने तो वैसी कठिनाई थी ही नहीं। जन्मजात प्रतिभायें अधोमुखी ही नहीं, ऊर्ध्वमुखी भी होती रही हैं और उनसे काम-सुख की अपेक्षा अधिक सुख लोगों को मिलता रहा है। हमारे देश में तो सच्चे और शाश्वत सुख की प्राप्ति में काम-वासना को प्रधान बाधा माना गया है। रामकृष्ण परमहंस विवाहित होकर भी योगियों की तरह रहे, वे सदैव आनन्द विह्वल रहते थे। स्वामी रामतीर्थ और भगवान् बुद्ध ने तो ऊर्ध्व सुख के लिये तरुणी पत्नियों का परित्याग तक कर दिया था। महर्षि दयानन्द ब्रह्मचारी होकर जिये। महात्मा गांधी ने 36 वर्ष की अवस्था के बाद काम-वासना को बिल्कुल नियन्त्रित कर दिया था तो भी उनके जीवन से प्रसन्नता का फुहारा छूटता रहता था, तब फिर क्या ‘काम-सुख को प्रधान जीवन सुख और लक्ष्य’ की मान्यता दी जा सकती है।

फ्रायड के ऐक्स का प्रतिवाद

लिसैस्टर विश्व विद्यालय के मनोविज्ञान के प्राध्यापक श्री डैविड राइट ने अनेक बन्दी-शिविरों, फौजी संस्थानों, खेल-कूद और पर्वतारोहण जैसी, सामाजिक सामुदायिक और राष्ट्रीय सन्धि के कार्यों में भाग लेने वालों के जीवन का विस्तृत अध्ययन करने के बाद पाया कि उनमें से अधिकांश सामान्य परिस्थितियों में ही सम्भोग का आनन्द लेते रहे। उन्हें अपने अभियान अथवा उसके बाद विषय-भोग की कभी भी इच्छा नहीं होती जब तक कि वे या तो स्वयं भूतकालीन सम्भोग का स्मरण नहीं करते या उनके सामने इस तरह की चर्चा के विषय नहीं आते। यदि वे इच्छा न करें अथवा उनके सामने कामुकता भड़काने वाली प्रवृत्तियां न आयें तो वे काम-वासना के लिये कभी परेशान नहीं होंगे वरन् उनमें मनो-विनोद और आह्लाद के स्वभाव का विकास ही होने लगता है।

श्री डैविड राइट ने द्वितीय महायुद्ध के दौरान बन्दी बनाये गये जापानियों, साइबेरिया शिविर में बन्दी लोगों तथा अस्पतालों के उन लोगों से जाकर भेंट की जो लम्बे समय से किसी बीमारी से आक्रान्त पड़े थे। उनसे बात-चीत करते समय उन्होंने पाया कि उनमें काम-वासना की कोई इच्छा नहीं हर गई थी तो भी वे न तो अशान्त थे न उद्विग्न वरन् उनके अन्तःकरण से एक प्रकार की शान्ति और आत्म-विश्वास की झलक देखने को मिलती थी। यह आत्म-विश्वास अच्छे अर्थों में था—कि यदि इन परिस्थितियों से मुक्ति मिले तो अमुक-अमुक अच्छे काम करें।’’

श्री डैविड राइट के इस कथन की और भी पुष्टि वैज्ञानिक अनुसन्धान द्वारा मिल जाती है और इस तरह फ्रायड के सिद्धान्त का लगभग अन्त ही हो जाता है। आने वाले समय में लोग फ्रायड के सिद्धान्त को तूल देकर अपना न तो मस्तिष्क खराब करेंगे और न शरीर की शक्तियां बरबाद करेंगे वरन् शक्तियों के संचय से जीवन की अनेक ऐसी धाराओं का विकास करने में समर्थ होंगे, जिनका डा. डैविड राइट ने अपने शोध पर्यवेक्षण से यह निष्कर्ष भी निकाला है कि काम वासना मनुष्य की स्वाभाविक एवं जन्म जात प्रवृत्ति नहीं है, वरन् वह सामाजिक जीवन के प्रचलन द्वारा आरोपित है, उनने पशुओं पर किये गये अपने परीक्षणों से सिद्ध किया है कि काम सेवन के अभाव में कोई जन्तु हिंसक या समाज विरोधी नहीं बनता वरन् वह अपेक्षाकृत अधिक सौम्य हो जाता है। वंध्य बनाये गये, बैल, भैंसे, घोड़े, बकरे, गधे आदि उन्मुक्त काम सेवन करने वाले अपने सजातियों की तुलना में अधिक शान्त प्रकृति के होते हैं जबकि फ्राइड का कहना यह है कि यदि मनुष्य को काम सेवन की छूट न मिले तो वह सजा विरोधी बन जाएगा। यह बात उन्हीं लोगों के लिए सही हो सकती है जो उच्छृंखल वातावरण में रह रहे हैं। साधु प्रकृति के संयमी, सदाचारी और ब्रह्मचारी काम सेवन का अवसर न रहे पर भी न तो हिंस्र बनते हैं और न समाज विरोधी।

श्री राइट ने अनेकों उदाहरणों से यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया है कि यदि कामुकतापूर्ण वातावरण एवं चिन्तन से दूर रहा जाय तो वह प्रवृत्ति स्वयमेव शिथिल या समाप्त हो जाती है। द्वितीय महायुद्ध में पकड़े गये बन्दी सैनिकों तथा साइबेरिया के श्रम शिविरों में बन्द लोगों का पर्यवेक्षण करने पर निष्कर्ष निकला है कि उनकी न केवल रति क्षमता वरन् वह इच्छा भी घट गई अथवा समाप्त हो गई। इसी प्रकार उन्होंने किन्हीं महत्वपूर्ण कार्यों में मनोयोग पूर्वक लगे हुए व्यक्तियों के उदाहरण देते हुए बताया है कि उन्हें अपने चिन्तन की व्यस्तता में काम सेवन की न तो इच्छा होती है और न आवश्यकता प्रतीत होती है। सेनानायक, नाविक, पर्वतारोही, वैज्ञानिक, शोधकर्त्ता, अध्ययन परायण व्यक्तियों की कामेच्छा बहुत स्वल्प होती है और वह भी तब तक जागृत नहीं होती जब तक कि वातावरण, संवाद अथवा स्वचिन्तन से ही उस तरह की अतिरिक्त उत्तेजना न मिले।

भारत के नैतिक एवं सामाजिक स्वास्थ्य संगठन दिल्ली के एक शोध अध्ययन से पता चला है कि काम सेवन की न्यूनता से नहीं वरन् उसकी अति से पारिवारिक कलह उत्पन्न होते हैं। इस दिशा में अधिक आतुर, उत्सुक रहने वाले न केवल शारीरिक दुर्बलताग्रस्त होते हैं वरन् मानसिक सन्तुलन खोकर चिड़चिड़े भी हो जाते हैं और उस अति को अपने ऊपर अत्याचार मानकर विरोध विद्रोह भी करते हैं। पारिवारिक कलह एवं मनोमालिन्य की घटनाओं में इस विग्रह का बहुत बड़ा हाथ पाया गया है। जो लोग मर्यादाओं में रहते हैं उन्हें एक दूसरे से शिकायत होना तो दूर उलटे विश्वा, सम्मान, सन्तोष और सहयोग की मात्रा बढ़ी-चढ़ी रहती है।
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