आत्मा न नारी है न नर

आत्मा न स्त्री है न पुरुष

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मनुष्य की मूल सत्ता न शरीर है और न उसकी इच्छायें आकांक्षा है। बल्कि इनका उत्स, आत्मा ही मनुष्य का मूल स्वरूप है। यह आत्मा न किसी प्राणी में कोई अतिरिक्त विशेषतायें लिये रहता है तथा न कोई न्यूनतायें हैं। आत्मा की सभी विशेषतायें समान रूप से सभी प्राणियों में विद्यमान रहती हैं और वह अपने मूल स्वरूप में रहता हुआ ही विभिन्न शरीर धारण करता है।

विशेषता और अविशेषता की दृष्टि से आत्मा में इतना भी भेद नहीं है कि उसका लिंग की दृष्टि से कोई निर्धारण किया जा सके। संस्कृत में ‘आत्मा’ शब्द नपुंसक लिंग है, इसका कारण यही है—आत्मा वस्तुतः लिंगातीत है। वह न स्त्री है; और न पुरुष।

आत्मा तत्व के इस स्वरूप का विश्लेषण करते हुए प्रायः प्रश्न उठता है कि आत्मा जब न स्त्री है, और न पुरुष तो फिर स्त्री या पुरुष के रूप में जन्म लेने का आधार क्या है?

. इस अंतर का आधार जीव से जुड़ी मान्यताएं ही हैं। जीव चेतना भीतर से जैसी इच्छा करती है, वैसे संस्कार उसमें गहरे हो जाते हैं। अपने प्रति जो मान्यता दृढ़ हो जाती है, वही व्यक्तित्व रूप में प्रतिपादित होती हैं। ये मान्यताएं स्थिर नहीं रहतीं। तो भी सामान्यतः इनमें एक दिशाधारा का सातत्य रहता है। किसी विशेष अनुभव की प्रतिक्रिया से मान्यताओं में आकस्मिक परिवर्तन भी आ सकता है। या फिर सामान्य क्रम में धीरे-धीरे क्रमिक परिवर्तन भी होता रह सकता है।

यह मान्यता अन्तःकरण से सम्बन्धित होती है। अन्तःकरण के चार अंग हैं—मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। अहंकार का अर्थ है वह अस्मिता-भाव जिसके सहारे व्यक्ति सत्ता का समष्टि सत्ता से पार्थक्य टिका है। जब अहंभाव का सम्पूर्ण नाश हो जाता है, तो समुद्र में बूंद की तरह व्यष्टि का समष्टि में लय हो जाता है। उसकी स्वतंत्र सत्ता नहीं रह जाती। स्वतन्त्र सत्ता अहंभाव पर ही अवस्थित है। इसी अहंभाव में जो मान्यताएं अंकित संचित हो जाती हैं वे ही व्यक्तित्व की विशेषताओं का आधार बनती हैं। इन विशेषताओं में लिंग-निर्धारण भी सम्मिलित है। जीवात्मा पुरुष रूप धारण करेगी या स्त्री रूप यह इसी अहंभाव की मान्यता पर निर्भर है। उसमें जैसी इच्छा उमड़ेगी जैसी मान्यताएं जड़ जमा लेंगी, वैसा ही लिंग-निर्धारण भी होगा। आधुनिक मनोवैज्ञानिक शब्दावली में अहंकार को अचेतन की अति गहन परत कह सकते हैं। इससे ही ‘ईगो’ और ‘सुपर ईगो’ का स्वरूप निर्धारित होता है।

‘ईगो’ के स्वरूप में रोज-रोज आमूल-चूल परिवर्तन असम्भव है। मान्यताएं-आस्थाएं बहुत गहरी जड़ें जमाये रहा करती हैं। उनमें आये दिन ऐसी फेर-बदल नहीं हो सकती कि पूरा ढांचा ही बदल जाये। परन्तु जब भी मान्यताएं बदलती हैं तो उनका प्रभाव स्वाभाविक ही बहुत गहरा और दूरगामी होता है। वाल्मीकि, अजामिल, अम्बपाली ने अपने बारे में मान्यता बदली तो उनका व्यक्तित्व ही बदलता चला गया। जिस स्तर तक मान्यताएं परिवर्तित होती हैं, उसी स्तर तक व्यक्तित्व में हेर-फेर होता है। लिंग-परिवर्तन भी ऐसे ही गहरे हेर-फेर से सम्भव है। जब कोई आत्मा अपने वर्तमान लिंग के प्रति गहराई से असन्तुष्ट होती है या जब उसकी मूलभूत प्रवृत्तियों की दिशा ही बदल जाती है, तो लिंग-परिवर्तन समेत व्यक्तित्व में अनेक परिवर्तन हो सकते हैं। ऐसे परिवर्तन से इस जन्म की नारी अगले जन्म में पुरुष और इस जीवन का पुरुष अगले जीवन में नारी बन सकता है। कीड़े-मकोड़े जिस परवेश में रहते हैं, उसका प्रभाव उनकी त्वचा के रंग तक पर पड़ता है। हरे पेड़ पर रहने पर हरापन बढ़ जाता है, काले या भूरे वृक्षों, वनस्पतियों के बीच उनकी त्वचा का रंग भी वैसा ही चलता है। आत्मा भी मान्यताओं के जिस परिवेश में रहती है उसका उसके नर या नारी होने पर भी प्रभाव पड़ता है। चीते के शरीर पर घास के प्रभाव से पड़ जाने वाली भूरी-चितकबरी लकीरों-पट्टियों की तरह मान्यताओं और अनुभूतियों का प्रभाव आत्म-पटल पर पड़ता ही रहता है। व्यक्तित्व में जो प्रवृत्तियां प्रधान हो जाती हैं, जीवात्मा का वही लिंग बन जाता है। नारी-प्रवृत्तियों की प्रधानता से कोई लड़का अगले जन्म में लड़की बन सकता है, पुरुष-प्रवृत्तियों का प्राधान्य किसी लड़की के अगले जीवन में लड़का बनने का कारण बन सकता है। यों, सामान्य क्रम में भी हर व्यक्ति में दोनों ही लिंगों सम्बन्धी कुछ प्रवृत्तियां विद्यमान रहती हैं, किन्तु प्रधानता किसी एक की रहती है। ऐसे पुरुषों की कमी नहीं, जो पूरी तरह पुरुष होते हुए भी करुणा, वात्सल्य, ममता, मातृ-हृदय की कोमलता से सम्पन्न हों। ऐसी नारियां भी कम नहीं जो नारी की समस्त विशेषताओं के साथ आक्रामकता, लड़ाकूपन जैसी पुरुष प्रवृत्तियों से भी भरपूर हों।

जब तक ये विशेषताएं सीमित रहती हैं, प्रधानता अपने ही लिंग स्वभाव की बनी रहती है तब तक तो ये व्यक्तित्व के गुण और क्षमताएं ही बनी रहती हैं। जब इनकी असामान्य वृद्धि होने लगती है, तब वे चर्चा का विषय बन जाती हैं। किसी पुरुष में स्त्री-सुलभ वृत्तियां अधिक हो जाने पर उसे स्त्रेण कहा जाता है। नारी में पुरुष-प्रवृत्ति की प्रधानता दीखने पर इसे मरदानी कहते हैं। जब बात और आगे बढ़ती है तो दोनों को ही जनखा, हिजड़ा कहा जाता है। यह मनोवृत्तियों के परिवर्तन का परिणाम है। जब यह परिवर्तन मनोवृत्तियों से भी अधिक गहराई तक में होता है, संस्कार और मान्यताएं उलट पुलट जाती हैं, तब पूरा ढांचा ही बदल जाता है। तथा लिंग-परिवर्तन हो जाता है।

ब्राजीलवासी श्रीमती इडा लारेन्स 12 बच्चों की मां बन चुकी थीं और अब संतान प्रजनन की सम्भावना क्षीण ही हो गई थी। तभी उन्हें ‘‘सेयांस’’ में उनकी मृत पुत्री इमीलिया ने सन्देश दिया कि मैं पुनः तुम्हारे गर्भ से ही जन्म लेना चाहती हूं किन्तु इस बार पुत्र रूप में।

इस लड़की इमीलिया को जब वह जीवित थी, अपने लड़की होने से घोर असंतोष था। उसने विवाह करने से इन्कार कर दिया था और लड़की होने की ग्लानि से 20 वर्ष की वय में विष खाकर मर गई थी।

अपने सन्देश के कुछ ही दिनों बाद उसने अपनी पूर्व की मां श्रीमती लारेन्स के गर्भ में प्रवेश किया। यथासमय वह पुत्र रूप में पैदा हुई। मां-बाप ने उसका पोलो नाम रखा। इस लड़के पोलो की अनेक प्रवृत्तियां अब भी इमीलिया जैसी थीं। लड़का हो जाने पर भी उसके व्यक्तित्व में अनेक नारी-सुलभ विशेषताएं विद्यमान थी। किन्तु था वह पूरी तरह लड़का ही।

श्रीलंका की एक दो वर्षीया लड़की ने बताया कि पूर्वजन्म में वह लड़का था। परामनोवैज्ञानिकों ने उसके बारे में सुना तो सम्पर्क किया और खोजें कीं। उसके बताये हुए पूर्व जन्म संबंधी विवरण प्रामाणिक पाये गये। अपने पूर्वजन्म में ‘तिलकरत्न’ नामक लड़का होने की बात उसने बताई थी। उस लड़के की जो-जो प्रवृत्तियां गतिविधियां बताईं छानबीन पर उनकी पुष्टि हो गई। पता यह चला कि तिलकरत्न में नारी-सुलभ विशेषताएं उस जीवन में ही विद्यमान थीं।

यों, विज्ञान का हर विद्यार्थी जानता है कि प्रत्येक मनुष्य के भीतर उभयलिंगों का अस्तित्व विद्यमान रहता है। नारी के भीतर एक नर सत्ता भी होती है, जिसे ऐनिमस कहते हैं। इसी प्रकार हर नर के भीतर नारी की सूक्ष्म सत्ता विद्यमान होती है, जिसे ऐनिमा कहते हैं। प्रजनन अंगों के गह्वर में विपरीत लिंग का अस्तित्व भी होता है। नारी के स्तर विकसित रहते हैं, परन्तु नर में भी उनका अस्तित्व होता है।

कभी कभी किसी व्यक्ति के भीतर छिपा यह विपरीत लिंगी व्यक्तित्व प्रबल हो उठता है। ऐसी स्थिति में कुछ शल्य-क्रियाएं किये जाने पर परिवर्तन लिंग वाला व्यक्तित्व पूरी तरह उभर आता है। उसमें कोई भी असामान्यता नहीं शेष रहती।

स्पष्ट है कि आत्मा न नर है न नारी। वह एक दिव्य सत्ता भर है। समयानुसार—आवश्यकतानुसार वह तरह-तरह के रंग-बिरंगे परिधान पहनती बदलती रहती है। इसी को लिंग व्यवस्था समझना चाहिए। सर्दी की ऋतु में गरम और भारी कपड़े पहनने की आवश्यकता अनुभव होती है और गर्मी में हलके वस्त्र पहनने या नंगे रहने की इच्छा होती है। नर-मादा रूपी दो आवरण दो ऋतुओं के लिए हैं। आत्मा को जब जैसी रुचि होती है तब वह वैसे वस्त्र पहन लेता है। कभी गरम भारी कभी ठण्डे-झीने। कभी खट्टा स्वाद चखने की इच्छा होती है कभी-मीठा।

मादा के जीवन का अपना आनन्द है और अपना स्तर उसे देखे समझे और अनुभव किये बिना आत्मा की तृप्ति नहीं होती। सो सब स्नेह वात्सल्य, समर्पण सेवा की प्रवृत्तियां उभारने की शिक्षा लेनी होती है तो नारी के शरीर में प्रवेश करके उस तरह का अध्ययन, अनुभव, अभ्यास करना होता है और जब शौर्य, साहस, पुरुषार्थ श्रम की कठोरता का शिक्षण आवश्यक होता है तब उसे नर कलेवर पहनना पड़ता है।

मृदुलता और कठोरता के उभय पक्षीय समन्वय से जीवधारी की समग्र शिक्षा हो पाती है यदि वह एक ही योनि में पड़ा रहे तो उसके आधे ही गुणों का विकास हो पायेगा और उस अपूर्णता के रहते सर्वांगीण पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त न हो सकेगा। अस्तु भगवान ने यह व्यवस्था बना रखी है कि जीवधारी कभी मादा शरीर में रहा करे कभी नर में। यह परिवर्तन धूप-छांह जैसे उभयपक्षीय आनन्द की अनुभूति कराता है और जीवन के दोनों पहलुओं से परिचित ही नहीं अभ्यस्त भी रखता है।

यह सोचना ठीक नहीं कि नर जन्म-जन्मान्तरों तक नर ही रहेगा और नारी को नारी ही रहना पड़ेगा। अभ्यास और रुचि परिपक्व हो जाय तो एक ढर्रा भी कई जन्मों तक चलता रह सकता है, पर यदि तीव्र उत्सुकता-उत्कंठा हो तो वह परिवर्तन अगले ही जन्म में हो सकता है। नर यदि नारी जैसी मनोभूमि और गतिविधियां अपना कर उस तरह की उत्कंठा तीव्र करे तो अगला जन्म उसे नारी के रूप में भी मिल सकता है इसी प्रकार नारी के लिए यह सर्वथा सम्भव है कि वह पुरुषोचित गतिविधियां और मनोवृत्तियां अपनाकर अगला परिवर्तन अपनी अभिलाषा के अनुरूप करले। यों प्रकृति के नियमानुसार बिना किसी प्रयत्न के भी यह परिवर्तन होते रहते हैं। शरीर शास्त्री यह तथ्य भली प्रकार जान गये हैं कि हर जीवधारी में नर और नारी की उभयपक्षीय सत्ता बीज रूप में विद्यमान रहती है। उसका जो पहलू उभरा रहता है उसी को समर्थ एवं सक्रिय रहने का अवसर मिलता है—और दूसरा पक्ष प्रसुप्त स्थिति में पड़ा रहता है। यदि उभार दूसरी दिशा में बह निकले तो सुप्त पक्ष जागृत हो सकता है और जागृत को सुषुप्ति में चला जाना पड़ता है।

सृष्टि में ऐसे अगणित जीवधारी विद्यमान हैं जिनमें नर और नारी के दोनों पक्ष समान रूप से सक्रिय होते हैं। वे एक ही जीवन में कभी नर और कभी मादा बनते रहते हैं। जब उनका जी आता है अपने संकल्पबल से नर बन जाते हैं और जब उमंग उठती हैं नारी स्वभाव ही नहीं, बिना किसी कठिनाई के नारी अंगों का भी विकास अधूरा नहीं होता, वरन् इस सीमा तक प्रखर होता है कि सन्तानोत्पादन भी भली प्रकार से हो सके। आज का नर कल नारी बन कर अपने पेट में गर्भ धारण करेगा और परसों बच्चे जनेगा यह बात विचित्र लगती है, पर है सर्वथा सत्य। कितने जीवों में यही प्रवृत्ति है और वे एक ही जीवन में इस प्रकार के उभय-पक्षीय आनन्द की अनुभूतियां लेते रहते हैं। उनके जीवन समुद्र में कभी नर का ज्वार आता है तो कभी नारी का भाटा। प्रकृति ने उन्हें इच्छानुसार आवरण बदलने की जो सुविधा दी है वैसी ही यदि मनुष्यों को भी मिली होती तो वे भी इस प्रकार का आनन्द, लाभ करते। इतना ही नहीं नर और नारी के बीच असमानता की जो खाई बन गई है उसके बनने का कोई कारण न रहता। फिर न कोई छोटा समझा जाता न कोई बड़ा। किसी को किसी पर आधिपत्य जमाने की खुराफात भी न सूझती।

गोल्ड इस्मिट, रोश, हरीसन आदि प्राणिवेत्ताओं में तितलियों की कलम एक दूसरे को लगा कर उनका लिंग परिवर्तन कृत्रिम रूप से सम्भव बना कर दिखाया है। विज्ञानी डबल्यू. हीरम्स ने मछलियों की कई जातियां उभयलिंगी पाई है और कुछ प्रयोगों में छोटे आपरेशन करके उन्हें परिवर्तित लिंग का बनाया है। पक्षियों में भी लिंग परिवर्तन के आपरेशन बड़ी मात्रा में सफल हुये हैं।

कुछ कीड़े होते हैं जो एक ही शरीर में बार-बार उभय लिंगी परिवर्तन करते रहते हैं। वे कभी नर बन जाते हैं कभी मादा। कीट विज्ञानी प्रो. ओरटन ने ऐसे जीवों की खोज की थी जो एक ही जन्म में कभी नर रहते हैं कभी नारी। ओइस्टर ऐसे जन्तुओं में अग्रणी हैं। वे मादा की तरह अण्डे देने के बाद एक मास बाद ही नर बन जाते हैं। और उभयपक्षीय लिंग में रहने वाली विभिन्नताओं का आनन्द लूटते हैं। आस्ट्रिना, गिवासा, स्लग लाइयेकस जाति के जल चर भी उभयलिंगी रसास्वादन का क्रम परिवर्तन करते रहते हैं लिमेष्ट्रिया पतंगा भी इसी स्तर का है। वह कभी नारी होता है तो कभी नर।

आयस्टर वर्ग-जाति का ‘मोलस्क’ घोंघा अपने लिंग परिवर्तन करता रहता है। कभी वह मादा होता है तो कभी नर। 40 साल की पूरी आयु यदि वह जी सके तो प्रायः एक दर्जन बार वह अपना लिंग परिवर्तन करता है।

सृष्टि में ऐसे जीव-जन्तुओं की संख्या कम नहीं जो उभयलिंगी होते हैं। एक ही शरीर में शुक्र और डिम्ब उत्पन्न करने वाली ग्रन्थियां होती हैं। जब उनमें प्रौढ़ता आती है तो प्रजनन स्राव अपने आप प्रवाहित होते हैं और रक्त संचार के सहारे उनको आत्मरति का आनन्द प्रजनन का लाभ मिल जाता है। ड्रोसोफिला मक्खी, हैव्रो व्रेकन ततैये, सिल्क व्रम मोथ, वैक्स मोथ, जिप्सी मोथ, अलोकेसपिस, जैसे अनेक पतंगे उभयलिंगी होते हैं।

प्रजनन क्रिया के लिये योनि संयोग भी आवश्यक समझा जाता है पर वनस्पति जगत में ऐसा संयोग बहुत कम, लगभग नहीं ही होते हैं। उनमें भी नर और मादा तो रहते हैं परन्तु नये पेड़ पौधों का विकास, उद्भव बीजों से ही होता है। बीज गलकर अंकुर और पत्र पल्लवों के रूप में विकसित होता है और एक से अनेक बनने का क्रम अपना कर वही पुष्ट पौधा बन कर कितने ही नये बीज हर साल उत्पन्न करता है। यह प्रजनन क्रिया वनस्पति जगत की सर्वविदित परिपाटी है।

गन्ना, गुलाब आदि अगणित पौधे उनके टुकड़े करके गाढ़ देने पर अलग-अलग पौधे बन जाते हैं। बट, गूलर जैसे वृक्षों की बड़ी डालियां भी नये पेड़ का रूप धारण करती हैं विकसित पुष्पों के पराग हवा में उड़ कर एक से दूसरे तक पहुंचते हैं। मक्खियां और तितलियां भी उनका स्थानान्तर करती रहती हैं, इस प्रकार पराग युगल परस्पर योग संयोग मिलाकर बिना रति क्रिया के अपनी वंश वृद्धि करते रहते हैं।

छोटे जीवों में भी यह गुण होता है कि वे अपने शरीर से अपने ही सरीखी नई संतति उत्पन्न कर सकें। यों दूसरी जाति की उत्पत्ति तो सहज ही हो जाती है। पेट में सड़ा अन्न मलकृमि बनकर विष्ठा के साथ निकलता है, शरीर पर चिपका हुआ मैल जुएं, चीलर बनता है, जीवित या मृत शरीर का सड़ा हुआ मांस आंख से देखे जा सकने वाले कीड़ों के रूप में अनायास ही बदल जाता है। सड़े हुए फल और तरकारियों में भी उसी रंग रूप के कीड़े रेंगते देखे जा सकते हैं। यह प्रजनन ही है। सड़न को रतिक्रिया तो नहीं कह सकते और न उससे सहधर्मी जीव उत्पन्न होता है फिर भी इसे जीव उत्पादन तो कह ही सकते हैं। कीचड़ और गन्दगी में मक्खी, मच्छरों और रेंगने वाले कृमियों का उत्पन्न होना इसी स्तर का प्रजनन है।

जिनकी गणना जीवधारियों में की जाती है ऐसे प्राणी भी अपने शरीर के ही टुकड़े बखेर कर अपनी जाति के नये प्राणी को जन्म देकर विधिवत वंश वृद्धि करते रहते हैं। इसलिए उन्हें जोड़ ढूंढ़ने या रतिक्रिया का सहारा लेने की जरूरत नहीं पड़ती। अपना शरीर ही इसके लिये पर्याप्त होता है और उसी से उभयपक्षीय मिलन संयोग से लेकर प्रजनन तक की सारी आवश्यकतायें सुचारु रूप से सम्पन्न होती रहती हैं। ‘अमीवा’ और ‘डायटम’ जीव इसी स्तर के हैं। उनमें जब प्रौढ़ता आती है तो अपने ही शरीर को फुला कर उसका आधा साग अलग छिटका देते हैं और वह एक स्वतन्त्र प्राणी बन कर अपनी अलग वंश परम्परा का संचालन करता है।

जीवित कहे जाने वाले प्रत्येक जीवधारी या जीवाणु में मेटाबोलिज्म उपापच्य प्रजनन शक्ति होती है। सृष्टि में जीवधारियों का उत्पादन अभिवर्धन कैसे उत्पन्न हुआ इसका युक्ति संगत एक मात्र उत्तर यही हो सकता है कि आदि जीवाणुओं में अपने आपको विखण्डित करके सन्तानोत्पादन करने की सरलतम योग्यता विद्यमान थी। उसी के आधार पर जीवधारियों की संख्या बढ़ी और परिस्थितियों के अनुरूप उनने अपनी काया तथा चेतना का विकास परिष्कार किया। रतिक्रिया का प्रचलन तो बहुत बाद में—तब हुआ—जब प्राणधारी एक लिंगी न रह कर द्विलिंगी बन गये और उन नर-मादा की जननेन्द्रियां स्पष्ट उभरीं तथा गर्भ धारण के योग्य हो गईं। इस से पूर्व अपने शरीर से विखण्डित होकर ही पीढ़ियां बढ़ाने का प्रचलन था। इसके आगे—मध्यकाल—में उभयलिंगी अन्तःस्राव मात्र उभय और पुष्प पराग की तरह जीवधारी नर-मादा परस्पर स्नेह आलिंगन का क्रिया-कलाप गन्ध मादकता के आधार पर करने लगे थे। उतने से ही उनमें प्रजनन उपयोगी हलचलें उठ खड़ी होती थीं और सन्तान होने लगती थी यौन संसर्ग तो बहुत बाद की प्रगतिशीलता है।

सेलों के भीतर भरे न्यूक्लिक ऐसिड के माध्यम से पूर्वजों की शारीरिक, मानसिक विशेषतायें, सन्तान में हस्तान्तरिक होती हैं। एडमोसिन फास्फेट रसायन का होना प्रजनन योग्यता के लिए आवश्यक है। इन तत्वों को यदि प्राणियों में घटाया-बढ़ाया जा सके तो उनकी प्रजनन क्षमता का स्तर भी बदल सकता है। यह असंभव नहीं कि क्षुद्र-जीव अनभ्यस्त रतिक्रिया अपनाने लगे और सुविकसित प्राणी जिनमें मनुष्य भी सम्मिलित हैं, अकेला—बिना सहचर के—बिना रतिक्रिया के सुयोग्य सन्तान का उत्पादन कर सकें।

पैप्टाइड रसायन का यह विदित गुण है कि गरम करने पर वह पानी में घुलता है और ठंडा होने पर छोटे पिण्ड की शकल धारण कर लेता है। बाहर से उपयुक्त रासायनिक भोजन मिले और उपयुक्त ऊर्जा का वातावरण मिले तो उनमें विभाजन की प्रजनन प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है। इसी आधार पर जीवशास्त्री कृत्रिम जीवाणु उत्पन्न करने और उनसे वंश-वृद्धि का उपक्रम आरम्भ कराने के लिए प्रयत्नशील हैं।

आये दिन ऐसी घटनाएं सामने आती रहती हैं जिनमें नर के भीतर नारी के अथवा नारी के भीतर नर के यौन चिह्न विकसित होते चले गये और स्थिति यहां तक जा पहुंची कि आपरेशन करके उनका लिंग परिवर्तन करना पड़ा। यह परिवर्तन इतना सफल रहा कि उन्होंने जोड़ा बनाया और सफल दाम्पत्य जीवन जीते हुए संतानोत्पत्ति भी की। मनोविज्ञान और अध्यात्म विज्ञान के आधार पर यह सिद्धान्त मान्यता प्राप्त है कि लिंग परिवर्तन के लिए मानवी प्रयत्न बहुत हद तक सफल हो सकते है। बहुत कुछ परिवर्तन तो इस जन्म में भी हो सकते हैं अन्यथा अगले जन्म में तो वह सम्भावना शत-प्रतिशत साकार हो सकती है। पुराणों में इस प्रकार के अगणित उदाहरण भरे पड़े हैं जिनमें व्यक्तियों ने अपने संकल्प बल एवं साधना उपक्रम के द्वारा लिंग परिवर्तन में सफलता प्राप्त की है। इन दिनों भले ही वे उपचार विस्मृत विलुप्त हो गये हों—इससे क्या—तथ्य तो जहां के तहां ही रहेंगे। आत्मा के सुदृढ़ संकल्प और प्रयत्न यदि प्रखर होवें तो किसी भी आत्मा के लिए अपना वर्तमान लिंग बदल लेने की पूरी-पूरी सम्भावना हो सकती है।

कभी-कभी किन्हीं पुरुषों में नारी प्रकृति और नारियों में पुरुष प्रकृति पाई जाती है। उनके हाव-भाव स्वभाव एवं आचरण में इस प्रकार का अन्तर स्पष्ट दिखाई पड़ता है। इसका एक मात्र कारण यह है कि पिछले दिनों उनकी मन्द इच्छा लिंग परिवर्तन की तो रही पर उनमें प्रौढ़ता प्रखरता नहीं आई। यदि उनका संकल्प बल और प्रयत्न बलशाली रहा होता तो उन्हें इस प्रकार के आधे अधूरे परिवर्तन का सामना न करना पड़ता। इतने पर भी उनका प्रवृत्ति परिवर्तन की दिशा में ही मन चलता रहे तो यह आशा की जा सकती है कि इस विराम के उपरान्त वे अपनी अभीष्ट मनोवांछा के अनुरूप लिंग परिवर्तन का लक्ष्य अगले जन्म तक पूरा कर लेंगे।

कभी-कभी ऐसी घटनाएं भी सामने आई हैं जिनमें पुरुष के शरीर से भी बच्चों का जन्म हुआ है। भले ही वे भ्रूण अविकसित रहे हों और भले ही वे जुड़वां भाई समझे जा सकते हों पर उत्पत्ति तो नर शरीर से हो ही गई। इन उदाहरणों से यह तो सिद्ध होता ही है कि मात्र नारी के शरीर में ही नहीं—नर कलेवर में भी वह क्षमता मौजूद है कि गर्भ धारण करने से लेकर गर्भ-पोषण तक की क्रिया सम्पादन कर सके। अवसर मिले तो इस सम्भावना का अधिक विकास भी हो सकता है और नारी की तरह ही नर भी प्रजनन कर्म कर सकने में समर्थ हो सकते हैं।

फ्रांस के एक 17 वर्षीय लड़के जीन जैक्यूस लोरेन्ट को छाती के दर्द की शिकायत थी। डाक्टरों ने फेफड़े का ट्यूमर पाया और उसका आपरेशन किया, डाक्टरों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उन्होंने ट्यूमर के स्थान पर 3 पौण्ड 15 ओंस वजन का एक विकसित अंगों वाला बच्चा निकला।

ब्रिटिश पैथोलोजिस्ट ऐसोशियेशन के एक भ्रूण को लड़के का जुड़वां भाई बताया है जो गर्भ-काल में किसी प्रकार उसके शरीर में प्रवेश कर गया और वही बढ़ता पलता रहा।

इसी प्रकार की एक घटना बरेली (उ.प्र.) के जिला अस्पताल में हुई। बदायूं निवासी एक दो वर्ष के बालक का आपरेशन पेट का ट्यूमर समझ कर किया गया। पेट खोलने पर उसमें एक विकसित भ्रूण पाया गया। जिसे अधिक अन्वेषण के लिए सुरक्षित रख लिया गया।

नर के शरीर से बच्चे की उत्पत्ति की अनेकों घटनायें बहुचर्चित हैं और उनके विवरण पत्र पत्रिकाओं में विस्तार पूर्वक छपे हैं। सन् 1956 में टोक्यो अस्पताल में एक किशोर लड़के के पेट का आपरेशन करके उसमें से 11 ओंस का अपरिपक्व बच्चा निकाला था। बच्चे की टांगें, बाल एवं शरीर के अन्य भाग स्पष्ट थे। उसी साल सन् 1956 में उत्तर वियतनाम के हनोई अस्पताल में एक पुरुष का आपरेशन करके बच्चा निकाला था जो जन्मते समय रोया भी था।

सन् 1954 में पाकिस्तान के बहाबलपुर नगर के विक्टोरिया अस्पताल में डाक्टरों ने एक पुरुष का पेट चीर कर बच्चा निकाला था।

इन तथ्यों पर गहराई से विचार किया जाय तो इस निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ता है कि नर और नारी के कलेवर करती और बदलती रहने पर भी आत्मा की स्थिति दोनों से ऊपर है अथवा उभयपक्षीय सम्भावनाओं से भरपूर है। जो आज नर है कल नारी बनना पड़ सकता है। इसी प्रकार नारी को नर की भूमिका सम्पादित करने का अवसर भी मिलता है। यह आवरण सामयिक है। और आत्मा का कोई लिंग नहीं होता। एक ही जीवात्मा अपने संस्कारों और इच्छा के अनुसार पुरुष या नारी, किसी भी रूप में वैसी ही कुशलता से जीवन जी सकता है। नर नारी के भेद, प्रवृत्तियों की प्रधानता के परिणाम स्वरूप शरीर मनमें हुए परिवर्तनों में भेद हैं। उनमें से कोई भी रूप श्रेष्ठ या निकृष्ट नहीं, अपने व्यक्तित्व के वजन, यानी गुण क्षमताओं और विशेषताओं के आधार पर ही कोई व्यक्ति उत्कृष्ट या निकृष्ट कहा जा सकता है, लिंग के आधार पर नहीं। व्यक्तित्व का कोई लिंग नहीं होता, उसकी प्रवृत्तियां और प्रकृति हुआ करती है, जो अंतःकरण की मान्यताओं और संस्कारों का ही परिणाम है और जिनमें यथेष्ट परिवर्तन भी सम्भव है।
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