धर्म, विज्ञान और दर्शन का समन्वय

May 1980

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दर्शन का लक्ष्य है परम सत्य का ज्ञान प्राप्त करना धर्म का उद्देश्य है-आध्यात्मिक मूल्यों को भावनात्मक ढंग से स्वीकार करना। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि दर्शन विचारात्मक प्रसाय है, जबकि धर्म व्यावहारिक। दर्शन सन्देह, तर्क, प्रमाण के समस्त उपादानों के सहारे सत्य को तौलना चाहता है जबकि धर्म आस्था, विश्वास, श्रद्धा तथा भक्ति द्वारा ह्नदय को स्नेह से अभिसिंचित करना चाहता है। धर्म तर्क से परे जाना चाहता है। जबकि दर्शन में तर्क की पूरी गुन्जाइश है। धर्म भावना से परिपुष्टि होता है जबकि दर्शन विचारों से। वस्तुतः दोनों एक दूसरे के पूरक है। धर्म को दर्शन की आवश्यकता इसलिए है कि भावना प्रवाह में अन्धविश्वास असत्य वातों का समावेश होना सम्भव है। उनका निराकरण दर्शन की विचारणा द्वारा ही हो सकता है। दर्शन को धर्म की आवश्यकता इसलिए है। कि वैचारिक उड़ान जब तक जीवन का अंग नहीं बन जाती तब तक वह उपयोगी नहीं हो सकती। दोनों के सम्मिलन से ही अध्यात्मक का समग्र स्वरुप बनता परिपुष्ट होता है।

मानव बुद्धि सीमित होते हुए भी विराट् को विराट्त्त बता सकने में सक्षम है। विराट्ता का प्रतिपादन भी तो बुद्धि विराट् का अनुभव करती है। अगली भूमिका भावनाओं की होती है। वह उस अनन्त सत्ता से सर्म्पक जोड़ती है। दर्शन की-विचारों की उपयोगिता यहाँ मात्र इतनी है। कि कहीं भावनाएँ तुच्छ को ही तो महान् विराट् नहीं समझ बैठी है। सीमित-असीम का भेद वृद्धि ही कर पाती है। ईश्वर ने बुद्धि का वरदान भी मनुष्य को इसीलिए दिया है, जिससे वह सत्यासत्य का निर्धारण कर सके। पक्षी अनन्त आकाश में उड़ते हैं अनन्नता की अनुभूति उन्हें उड़ने के पश्चात ही होती है। बिना प्रयास के अनन्त मान लेने बात अनुभूति नहीं भावकुता होगी। सच तो यह है कि गहन अनुभूतिया गहरे ज्ञान के पश्चात ही होती तथा टिकाऊ रहती है।उसके बिना धर्म के स्वस्थ्य स्वरुप का दिर्ग्दशन कर सकना असम्भव है। दर्शन बौद्धिक स्तर पर किया गया वह प्रया है जो अनुभूति की पृष्ठभूति बनाता है इसकी गहराई में पहुँचने वाला व्यक्ति ही सच्चा धार्मिक हो सकता है। दर्शन धर्म को माँजता, संवारता तथा उसमें उग रहे झाड़-झकाडों को काटता छाँटता है।

धर्म के सिद्धान्तों, मान्यताओं में जहाँ पूरे विश्व में विषमतायें दिखायी पड़ती है। वहीं विज्ञान के सिद्धान्तों में सार्वभौमिकता देखने को मिलती है। वैज्ञानिक चाहे एशिया के हों अथवा यूरोप के, सबसे विचारों में एक रुपता है। उनके फार्मूलें एक है, उनकी भाषा एक है, सिद्धान्त एक है। उनमें आपसी सहयोग भी है। यही कारण है कि विज्ञान का इतना विकास सम्भव हो सका जबकि चारों और धर्मो में विषमताएँ दिखायी पड़ती हैं।

धर्म को यदि अपने अस्तित्व की रक्षा करनी है तो उसे अपना स्वरुप ऐसा रखना होगा जो तर्क संगत, प्रामाणिक एवं उपयोगी हो। यह तथ्य धर्म की मूल सत्ता में आरम्भ से ही मौजूद है। दुराग्रहों ने उन्हें कुँठित किया था। तथ्य और सत्य जो जानना विज्ञान और दर्शन का उद्देश्य रहा है। फलतः वे फले-फूले और विश्व भर में अपनी एक रुपता बनाये रहे। धर्म को भी प्रगतिशील होना होगा इसके लिए एक ही उपाय है विज्ञान और दर्शन के सहारे अपने शाश्वत एवं उपयोगी स्वरुप का अभिनव प्रस्तुतीकरण।


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