सहकारिता ही उर्त्कष का आधार

May 1980

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यह सारा संसार सहकारिता के सिद्धान्त पर काम कर रहा है। यदि कोई यह विचार करे कि वह इस जीवन यात्रा में एकाकी ही रहकर अपना लक्ष्य पा लेगा तो यह असम्भव ही माना जाना चाहिए। सृष्टा ने इसी कारण असंख्यों ग्रह नक्षत्रों-तारामण्ड़लो एवं गुच्छकों का एक परिवार बसाया है। आपसी सहकार के आधार पर ही उनकी विधि व्यवस्था टिकी हुई है। यदि इनमें से एक भी ग्रह बिना दूसरे की चिन्ता किये अपनी दिशा स्वयं निर्धारित करने लगे तो अन्त विनाशकारी ही होगा।

विश्व का एक छोटा सा संस्करण परिवार व्यवस्था के रुप में दीख पड़ता है। समाज की यह इकाई अपने आप में समग्र हो पाती है तो मात्र उसके सदस्यों की परस्पर सहजीवी भावना के कारण। परस्पर स्नेहसौहार्द्र एवं सहयोग जिन्दा न रहे तो देखते-देखते बने बनाये संयुक्त कुटुम्ब विघटित होते चले जाते हैं। ऐसी ही कुछ व्यवस्था विश्व नियन्ता ने प्रकृति के अपने साम्राज्य में की है। कीट-पक्षी, वृक्षपुष्प, मानव-वनस्पति इत्यादि परस्पर सहकारिता के आधार पर ही जीवन जीते हैं। अध्यात्म प्रतिपादन यह बताते हैं कि विराट् बह्म की असीम चेतना ही चारों ओर व्याप्त है। लघुतम इकाई में संव्याप्त चेतना सहज स्वभाव है-स्नेह-सहयोग। ‘इकाँलाजी’ विज्ञान के अध्येता बताते हैं कि प्रकृतिगत सन्तुलन इसी स्नहे-सहयोग पर आधारित है।

मनुष्य का प्रतिक्षण साँस से प्राणवायु ग्रहण करना, उन वृक्षों के कारण सम्भव हो पाता है जो वातावरण में निरन्तर इसे उत्सर्जित करते रहते है। भले ही इसके लिये उन्हें बदले में कार्बनडाइआक्साइड के रुप में विष क्यों न पीना पड़े। वृक्षो का स्वंय का विकास, उनका फलना-फूलना भी कीट-पतंगो तथा पशु पक्षियों के समुदाय के सहयोग पर निर्भर है। सह-अस्तित्व के ऐसे अनोखे उदाहरण मनुष्य को प्रेरणा देते रहते हैं कि वह भी अकेला न रहकर परस्पर सहयोग की अपनी अन्तवृत्ति का विकास करे।

सृष्टा ने प्रकृति को अनगिनत रंगों से भर दिया है। दिन रात फूलों के बीच रह कर भी क्या कोई ऐसा बना सकता है कि फूलों से खुशबनमा रंग, मनमोहक गन्ध और मादक रस क्यों होते हैं? इसका समाधान हमें मिलता है फूलवीटों के उस अद्भूत साहचर्य को देखकर, जिसके कारण कीट उनकी वृद्धि में सहायक होते हैं। परागण प्रक्रिया के लिए फूलों को पक्षियों-पतंगो कीटों की आवश्यकता होती है। पर यह सेवा एकाँगी नहीं है। बदले में वह अपना मधुर मधु उन्हें छानकर पीने से दूसरे पौधे पर जाती है। साथ ही अपने परों और परों में उनका पराग लपेटकर यहाँ से वहाँ बिखेरती जाती हैं। फूलों का परिवार अपनी वंशवृद्धि इसी प्रकार करता है। शहद की मक्खी इसी पराग को अपने पुरुषार्थ से मधु में बदल देती है, जो मानव के लिए उपयोगी होता है। संगठन और सहयोग को इसी प्रक्रिया को अपना कर प्रत्येक घटक उर्त्कष के पथ पर बढ़ता है।

फल अपने मित्रो को रिझाने के लिए तरह-तरह क रंगरुप एवं गन्धों से अपने का सुसज्जित करते हैं। कई तो चटकीले रंगो की सज धज दिखाते है और कई अलग समय निर्धारित हैं। तेज आँधी तूफान में फूल स्वंय अपने पट बन्द कर लेते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि आँधी तूफान में उनके सखा ये जन्तु टिक नहीं सकेंगे। कीटों तथा पक्षियों की ध्राणेन्द्रिय इतनी तीव्र होती है कि मीलों दूर से अपने पुष्प् मित्रों क निमन्त्रण पाकर प्रेम की डोर सेिखंचे चले आते हैं। जिन पेड़ो पर कभी फूल नहीं आते, वे पक्षियों,-कीटों के द्धारा लना क ही पात्र होते हैं। ‘पौपलर’ ऐसा ही एक हीन वृक्ष है, जिस पर किसी भी पक्षी को नाज है। इसमें बसन्त में पत्ते तो नये आते हैं, पर फूल नहीं आते। ऐसे वृक्ष एकाकी एवं मनहूस व्यक्ति तरह अर्ध विकसित रह जाते हैं। अपनी देने की के अभाव, असहयोग के कारण ही अपने प्रकृति वार के सदस्यों से उन्हें अवमानना का ही मुख देखना है।

बुलबुल को गुलाब पर एवं कुमरी को अशोक वृक्ष ही बैठना अच्छा लगता है। दोनों को ही अपने जगाओं पर नाज है। वृक्ष पर बैठा पक्षी-परिवार देखने को सुन्दर तो लगता ही है, उनका गान-चहकना प्रकृति प्रसन्नता की लहर फैला देता है। ये पक्षी गण मात्र प्रकृति में सौर्न्दय वृद्धि के लिए ही नहीं बल्कि अपनी के वृक्षों की वंश-वृद्धि हेतु भी मित्रता का सूत्र पड़े हुए है। सूक्ष्म, अल्प जीवन काल वाले पराग कणों का कम से कम समय में मीलों दूर तक इसी जाति के अन्य पुष्पों तक पहुँचाने का कार्य ये पक्षी गण करते हैं। मधुमक्खियाँ ‘क्रास पालिनेशन’ की प्रक्रिया में विशेष कार्य करती हैं। वे सामान्यता प्रति मिनट तीस फलों पराग लेती है और अपने पिछले पैरों से एक लाख पराग कण चिपका लेती हैं।

बहुत से वृक्ष ऐसे हैं, जिनके फल जमीन पर गिरकर बोये जाने पर मुश्किल से अंकुरित होते हैं। ये ही जब पक्षी मित्र के उदर में प्रवेश कर लेते हैं, तो कीट के साथ बाहर निकलने पर सहज ही अंकुरित हो जाते है। बीजों पर पक्षी के पेट में जो प्रतिक्रिया होती है, उससे उनकी उर्वरकता में अत्यधिक वृद्धि होती देखी गई है। ऐसे बीजो से उत्पन्न वृक्ष पीपल, वट, नीम के रुप में कई बार ऐसे स्िनो पर पाये जाते हैं, जहाँ उनके उगने की कोई सम्भावना नहीं थी।

जीवजगत में कमेन्सल्स के रुप में कुछ खास किस्म के सूक्ष्म जीवणु होते हैं। इनकी जीवन व्यवस्था भी ‘जियो और जीने दो की समाजवादी व्यवस्था का आदर्श उदाहरण है। इन्हें अपने विकास के साधनों का कुछ ज्ञान नहीं होता। इसीलिए अपने आपको जीवित रखने एवं आजीविका के लिए इनहे समाज के परिगणित, पिछडे़ पद्दलित व्यक्तियों की तरह साधनों की आवश्यकता होती है। इसे दूसरे सहयोगी महत्वपूर्ण जीवाणु ‘एमिनो एसिड’ का निर्माण कर पूरा करते है। ये एरोब्ज जीवणु इस तथ्य का उद्घाटन करते हैं कि मनुष्य को अपने ही नहीं, दूसरों के विकास का भी ध्यान रखना चाहिए।

कुछ पौधों की जड़ो में अत्यन्त सूक्ष्म बैक्टीरिया होते हैं। ये वायुमण्डल के नाइट्रोजन साइकल से सीधे नाइट्रोजन खींच कर उसे नाइट्रेट के रुप में बदल देते हैं। इस परिवर्धित तत्व को पौधे आसानी से आत्मसात कर लेते हैं। रेंगने वाले केंचुऐ इसी तरहज मिट्टी को निगल कर उसे शरीर के अन्दर रासायनिक प्रक्रिया द्धारा विशिष्ट बनाकर मलद्धार से निकाल देते हैं जो बडी उपजाऊ हो जाती है।

प्रकृति जगत के ये अनेकानेक उदाहरण सहकारिता द्धारा एक दूसरे के विकास के सिद्धान्त का ही समर्थन करते है। पक्षी एवं वृक्षों का परस्पर अन्योन्याश्रय सम्बन्ध पृथ्वी के सूक्ष्म जीवी बैक्टीरिया का वातावरण संन्तुलन को बनाये रखने में योगदान, वृक्षों द्धारा वातावरण संशोधन एवं प्राणवायु की वृद्धि से मानव के लिए अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण-ऐसे प्रसंग हैं, जिन्हें इकालाँजी विज्ञानी पृथ्वी पर जीवन के लिए आवश्यक मानते हैं। सह अस्तित्व एवं परस्पर सहकार के ये ज्वलन्त उदाहारण मानव को सामाजिक जीवन में भी इन्ही गुणों को उतारने के लिए अभिप्रेरित करते हैं।

चाहे जन समुदाय की बात हो, चाहे प्रकृतिगत जड़ समझे जाने वाले पदार्थों की, सबके मूल में एक ही तथ्य काम करता है। वह है संगठन और सहयोग। व्यक्तिगत विकास के साथ ही सामूहिक उर्त्कष भी अनिवार्य है। इस प्रक्रिया का जितना अधिक अपनाया जा सकेगा- मनुष्य के लिए स्थायी सुख शन्ति, वाँछनीय एवं सुखकर परिस्थितियों के आधार ढूँढे जो सकेंगे। विश्व परिवार की कल्पना को साकार किया जा सकना तभी सम्भव हैं जब प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर से एक दूसरे के प्रति उदाहरणता-आत्मीयता-सहकारिता के भाव उमड़े, अपनी नहीं सबकी प्रगति की कामना जन्म लेने लगे।


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