आत्मोर्त्कष और श्रेय साधना स्वर्णिम अवसर

May 1980

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कभी कभी कुछ प्रतिभायें ऐसी भी होती हैं, जो अन्तःप्रेरण से उत्कृष्टता का वरण करती, संकल्प बल से उसे सींचतीं और अपने एकाकी पुरुषार्थ से लक्ष्य जक जा पहुँचती हैं। अन्हें दूसरों की हायता नहीं लेनी पडती हर व्यक्ति मूलतः इतना क्षमता सम्पन्न है कि सन्निहित विशिष्टिताओं को प्रसुप्त से जागृत कर सकें, और उन्हीं के सहारे पर्गति पथ पर चलते हुए वह प्राप्त कर सकें, जिसके लिए कि मानवी अस्तित्व का निर्माण हुआ है।

तथ्यतः यही वस्तुस्थिति है। मनुष्य को न तो अपूर्ण बताया गया है और न दरिद्र, असहाय, पराश्रित। उगने और उठने की समग्र क्षमता उसमें विद्यमान है। फिर भी इसे दुर्भागय, माया चक्र, प्रपंच, व्यामोह अथवा और कुछ नाम देते हुए, यह मानाजा सकता है कि इस सत्य को कोई विरले ही समझ पाते हैं। जो समझते हैं, उनमें से अधिकाँश में इसना मनोबल नहीं होता कि प्रसुप्त वैशिष्ठ को जगायें और उसे चरमोर्त्कष का साधन बनाये। आमतौर से सहकारी समाज का अभ्यस्त होने के कारण लोग वातावरण का प्रभाव ग्रहण करते और प्रवाह में बहते रहते हैं। संकल्प पूर्वक बने थोडे होते हैं। अधिका्रश को परिस्थितियाँ बनाती हैं। इस सचाई को गले उतारना ही होगा। इस व्यावहारिक कठिनाई को भी समझना ही होगा। जिस प्रकार आत्म पौरुष से उच्चस्तर पर पहुँच सकने की संभावना असंदिग्ध है, वहाँ दूसरा पक्ष यह भी है कि संगति का प्रभाव इतना अधिक होता है, जिसे सामान्य स्थिति में, सामान्य लोगों के लिए नियति की भूकतका निभाते हुए देखा जा सकता है।

विश्व विख्यात माह मानवों में से अध्काँश को अपन लक्ष्य का निर्धारण और परिपोषण आत्म बल के सहारे स्वयं ही करना पडा है और वे अपने निश्चय पर आप आरुढ रह कर, अपना मार्ग स्वयं बनाते और अपने पैरों आप पार करते रहे हैं। परिस्थितियाँ उन्हें प्रभावित नहीं कर सकीं। अवरोधों ने उन्हें रोका तो, पर वे रुके नहीं न तो किसी ने सहयोग दिया न प्रोत्साहन। अपने को आप ही समझाते रहे, और अपने समर्थन से, आप आगे बढते रहे। अन्ततः उस लक्ष्य तक पहुँचे जिसे दैवी अनुग्रह भाग्योदय अथवा चमत्कार माना है। वस्तुतः यह सब किसी का उपहार नहीं अपना ही पराक्रम है जिसे मनस्वी अपने बल बूते समग्र करते और सफलताओं पर अहंकार न करते हुए, नम्रता वश बडों का अनुदान कहते हैं।

श्रेय और सराहनीय तो यही स्तर है, पर किया क्या जाय यहाँ प्रौढ और परिपक्वों की भारी कमी है। परिवार में बच्चों कच्चों का ही बाहुल्य होता है और उनका परिपोषण एवं परिष्कार बडों को ही करना पडता है। आत्म विकास के लिए उन्हें स्वतन्त्र छोड दिया 5जाय तो फिर वह स्वतन्त्रता उनके लिए मँहगी पडेगी। निकृष्टता धूल की तरह हवा में उडती है, पर उत्कृष्टता सुगन्ध की तरह प्रयत्नपूर्वक अर्जित करनी पडती है। सभी जानते हैं कि परिवार की परिस्थितियाँ ही अधिकाँश लोगों को बनाने बिगाडने की भूमिका निभाती हैं। स्वनिर्मित तो कोई विरले ही होते हैं। जिनने संचित कुसंस्कारों को घिरे हुए वातावरण और प्रियजनों के परामर्श को अनसुना करके कोई महान परिवर्तन प्रस्तुत किया हो ऐसे लोग भी संसार में इए तो अनेकों हैं, पर उतनी साहसिकता हर किसी में प्रकट नहीं होती।

बुद्ध ने दिशा परिवर्तन अपने ही बल बूते किया था, उनके अनुयायियों में से भी अनेकोंने वही परम्परा अपनाई आनन्द, हर्षवर्धन, अंगुलिमाल, अम्बपाली आदि उनके निकटवर्ती जन्म जात रुप् से तैसे नहीं थे, जैसे कि परिवर्तित स्थिति में विकसित हुए। अन्यान्य महा मानवों के सम्बन्ध में भी, यही बात कही जा सकती है। उन्हें परिस्थितियों ने बनाया। मनःस्थिति के आधार पर ही उनने उँची छलाँगें लगाई और वहाँ जा पहुचे, जहाँ अवस्थित लोगों को चमम्कारी सिद्ध पुरुष एवं महा मानव कहा जाता हैं। यह उदाहरण भले ही थोडे हों, पर सिद्ध इसी सिद्धान्त को करते हैं कि मनुष्य का संकल्प और पुरुषार्थ यदि सुनिश्चित हो तो वह सूर्य को जमीन पर तो नहीं ला सकता पर आमतौर से जो असम्भव समझा जाता है, उसे समभव कर सकता है। इसन पर भी यह मानना पडेगा कि ऐसे अदाहरण कम मिलते हैं। अस्तु उन्हें अपवाद की रेणी में रखा और तथ्यों क प्रतिपादन में अन्हें प्राण कहा जा सकता है। सामान्य प्रचलन, अनुगमन और अनुकरण का ही मिलता है। समुदाय का प्रवाह और उसीमें जन साधारण की बहाव प्रचलन असी का देखा जाता है।

निकृष्टता का अपना आकर्षण है। गुरुत्वाकर्षण की तरह उसीि पकड सर्वत्र है। वह शक्ति बिना किसी प्रयत्न के उत्पन्न होती और अपलब्ध रहती है। किन्तु उत्कृष्टता को प्रयत्न पूर्वक उपार्जित करना और संकल्प पूर्वक पकडना पडता है। भौतिक उपलब्धियों की तरह ही आत्मिक विशिष्टताएँ भी पराक्रम ही नहीं वातावरण और साधन भी चाहती हैं। कृषि, व्यवसाय, शिल्प, कला शोध साहित्य आदि प्रगति प्रसंगो में जिनने भी सफलताएँ पाई हैं, उनमें एकाकी सूझ बूझ ही सत कुछ नहीं रही।इन्हें सहयोग, वातावरण एवं साधनों के कलए भी काँी दौड घ्प करनी पडी है। जो इन्हें जुट पाये वे सफल हुए, शेष के मनोरथ ऐसे ही मर गये। असफलता में निर्वारण की त्रुटि नहीं, वरन् साधनों की कमी ही प्रमुख अवरोध बनाी है।

आत्मिक प्रगति को, इस संसार की, इस योजन की सबसे बडी सफलता कहा जा सकजा है। इससे बढकर दूसरी उपलब्धि यहाँ अन्य कोई भी नहीं है। व्यक्तित्व की प्रखरता ही सच्चे अर्थो में वह विभूति है जिसके बदले किसी भी क्षेत्र की, किसी भी सफलता को खरीदा जा सकता है। व्यक्तित्व की दर्बलता ही प्रकारान्तर से दरिद्रता कही जाती है। पिछडापन कोर्द किसी पर थोपता नहीं, अन्दर की कुसंस्कारिता ही उसे न्योत बुलाती है।

प्रगति शीलता आकाश से नहीं बरसती और न किसी से अनुदान उपहार में मिलती है। हर व्यक्ति असे अपने आन्तरिक स्तर के अनुरुप संसार की खुली मण्डी में से खरीदता है। जिसके पास जिस स्तर की जितनी पूँजी है उसे उसी स्तर का विनिमय करने में तनिक भी कठिनाई नहीं होती। उत्कृष्टता सम्पन्न व्यक्ति जहाँ जाते हैं, वहाँ वे अपने लिए स्थान बनाते, सहयोग पाते, और सफल होते देखे जाते हैं। जबकी दीन दुर्बलो को जिस तिस पर आरोप लगाते व खीज उतारते देखा जाता है। यों इनमें से कई वस्तुत88 प्रताडित और परिस्थितियों के शिकार होने के कारण सहानुभूति के पात्र भी होते है,फिर भी व्यापक तथ्य यही मानना पडेगा कि व्यकित्तव की उत्कृटता ही विभिन्न क्षेत्रो की सफलता अर्जित करती है।

शिक्षा का उदेश्य भौतिक जानकारी और व्यवहार कुशलता उपार्जित करना है। सुशिक्षतों को आजीविका उपार्जन तथा किया कौशल में सुविधा रहती है। इसलिए शिक्षा प्राप्ति का प्रचलन भी है। उसकी उपयोगिता समझी और चेटा की जाती है, किन्तु दुर्भागय से विद्या की महता को क्रमश विस्मृत ही किया जा रहा है। विद्या सुसंस्कारिता का नाम है। वह शिक्षा के साथ साथ भी चल सकती है और लिखने पढने का प्रबन्ध न होने पर भी उसका आधार बन सकता है। प्राचीन काल में विद्यालयों का प्रबन्ध किया जाता था आज मात्र शिक्षालयों की भरमार है। जानकारी की कमीं नहीं, किन्तु प्रतिभायें 8888 नहीं मिलती। इसका एक ही कारण है विद्यालयो का अभाव। शिक्षालयों की सीमा,मस्तिष्कीय विकास और कौशल के अभ्यास तक सीमित है। सुसंस्कारिता का अपाज।न विद्यालयों में ही हो सकता है। विद्यालय से तार्त्पय फिर एक बार भली प्रकार समझा जाना चाहिए। जहाँ सुसंस्कारिता के सर्म्वधन का वातावरण हो, विद्यालय उसी को कहा जायगा। मात्र पाठ्यक्रम से संस्कार नहीं बनते, वह ढलई तो एसी भट्टी के माध्यम से हो सकती है, जिसमें आदर्शवादिता का प्रशिक्षध नहीं प्रचलनकी व्यवस्था रहने के कारण अभीष्ट उ र्जा उत्पन्न होती है।

प्राचीन काल से बालकों के लिए गुरुकुल और प्रौढों केलिए आरण्यकों को व्यवस्था थी। उन्हीं खादानों से व्यक्तित्व सम्पन्न नर रत्न निकलते थे । वे सच्चे अर्थो में कवद्यालय और विद्यार्धियों को क्या मिलना चाहिए इसका प्रत्यक्ष प्रभाव प्रस्तुत करते थे। जिस विद्या की महिमा सर्वस्व अपनाई जाती है वह मात्र अर्ककरी शिक्षा से कहीं अधिक उँची हैं। उसके लिए पाठयक्रम पूरा कराना नहीं शालीनताकी विधि वयवस्था को जीवन क्रममें उतारने का विशिष्ट प्रबन्ध करना हैं। उसके लिए उपयुक्त वातावरण अपेक्षित हैं। यह ऋषि कल्प अध्यापकों की व्यवस्था बनाने में संभव होती हैं। वातावरण प्रचलन का नाम है।ऐसे विद्यालयों का अस्तित्व जब तक रहा इस देश के नागरिक देवत्व से सुसंम्पन्न बने रहे। भले ही उनकी साक्षरता उतनी न रही हो नितनी कि आज कल बडी चढी दिखाई पडती है।

विद्या के प्रति उपेक्षा, विद्यालयों का अभाव और विद्यार्थी अभिरुचि का समापन यह तीनों ही मिलकर ऐसी दुःखद परिस्थितियाँ उत्पन्न करते हैं जिन्हें दुर्भिक्ष से भी बढ़कर कट कारक कहा जा सके। चतुरता की कमी नहीं, सुविधा साधन बहुत है। परिश्रमियों में से एक का गरीबी बेकारी की शिकायत नहीं हो सकती। इतने पर भी व्यक्तियों का अभाव बुरी तरह खटकता है। पिछड़े स्तर के लोगों की संख्या वृद्धि धरती के लिए भार और समाज के लिए संकट बनती जा रही है। वे प्रतिभाएं कहें से भी उभरती नहीं दीखती जो अपने उदाहरण प्रस्तुत करके शालीनता की गरिमा जन-जन के मन-मन में बिठा सकें। श्रेय और सफलता को देखकर ही सामान्य लोग ललचाते और अनुगमन के लिए चलते है। यदि उच्चस्तरीय नेतृत्व उपलब्ध रहा होता तो सदाशयता के मार्ग पर चल पड़ने वालो की कहीं कोई कमी न रहती।

प्रतिभा और पवित्रता के समन्वय को प्रखरता कहते हैं। कौशल और चरित्र को मिला देने से ह ीवह उत्कृष्टता बनती है, जिसे पाकर मनुष्य का देवत्व उभरता और आत्म कल्याण एवं विश्व कल्याण का प्रयोजन पूरा करता है। कहना न होगा कि यह विशिष्टता आत्म शिक्षा से तो कभी-कभी ही उपलब्ध होती है, गुरुकुलों और आम्यकों के वातावरण में विद्याभ्यास करने में सहज सम्भव बनती है। इन दिनों उसी महान परम्परा को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है जिसमें विद्यालयो के लिए उपयुक्त केन्द्र संस्थानों की कमी नहीं पड़ने दी जाती है।

बच्च्ो के लिए गुरुकुल, निवृतों के लिए आरम्यक औश्र गृहस्थों के लिए तीर्थ सेवन की त्रिविध व्यवस्था जिन दिनों अपनी प्रौढ़ावस्था में थी उन दिनों मनुश्य में देवत्व के उदय औश्र धरती पर र्स्वग के अवतरण की बात कल्पना-जन्पना नहीं गिनी जाती थी। वरन पग-पग पर एक सहज स्वाभाविकता के रुप में सर्वत्र दृष्टिगोचर होती थी। आज खदानें ही अवरुद्ध हो गई तो नर-रत्नों के दर्शन कहाँ से हो? युग समस्याओं का एक ही कारण है उच्च स्तरीय व्यक्तित्वों का अभाव, इस अभाव का कारण है विद्यालयों का न होना। यह फिर समझा जाना चाहिए कि शिक्षालयों और विद्यालयों में मौलिक अन्तर है। पढ़े गये डालने वाली फैक्टरियों की आज कमी नहीं, वे तेजी से बढती भी जा रही हैख् पर जिनका वातावरण नर-नत्नों को ढाल सकें ऐसे विद्या मन्दिरों के तो अब दर्शन ही दुर्लभ हो रहे है।

कई लोग घोषणा और चेष्टा तो कते है। बोर्ड और विज्ञापन भी इसी स्तर के बनाते है, पर बन उनसे भी कुछ नहीं पड़ता। क्योंकि अध्यापकों का रीति-नीति का विधि व्यवस्था का क्या क्रम होना चाहिए इसका स्वरुप् न तो सूझता है और न वैसा प्रबन्ध करते, साधन जुटाते ही बन पडता है। फलतः वह बन ही नहीं पडता जो सोचा गया है, वैसे इस प्रकार सोचने की परम्परा ही नहीं है। शिक्षा का महत्व अर्थापार्जन से अधिक भी कुछ हो सकता है, इसे जानते तो कई लोग हैं पर जो मानते भी हों ऐसों को ढूँढ निकालना दुस्तर है।

इस अभाव की पूर्ति के लिए, एक आरम्भिक प्रयास गायत्री नगर की आरण्यक व्यवस्था में किया गया है। शान्ति कुँज हरिद्धार की इस नव निर्मित इमारत में इसी जुलाई से प्रशिक्षण की उस परम्परा को पुनर्जीवित किया जा रहा है, जिसमें कुरुकुल, आरण्यक औश्र तीर्थ सेवन की त्रिविध व्यवस्था संजोई जाती थी। वह एक प्रयोग है। प्रयोगशाला का उद्देश्य उपलब्धियों को छोटे रुप् में इस प्रकार प्रस्तुत करना होता है जिसे अन्य लोग बड़े परिणाम में अपनाकर लाभान्वित हो सकें। नर्सरी में अनेक प्रकार के पौधे उगाये जाते है। उद्याओं में कुछ ही पेड फलते है। गायत्री नगर को नर्सरी बनाया जा रहा है। वह प्रयोग शाला की भूमिका सम्पन्न करेगी।

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