प्रभात की पुण्य बेला में आत्म परिवर्तन अपेक्षित....

May 1980

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रात्रि की गतिविधियाँ प्रभात होते ही बदल जाती हैं। सोने वाले जागते हैं और निष्क्रियता छोडकर प्रस्तुत समस्याओं का सामना करने के लिए कटिबद्ध होते हैं। पक्षी घोंसला छोडकर शरीरचर्या में प्रवृत होना पडता है। फूल खिलते हैं और अंकुर उगते हैं। दिनकर की उर्जा तमिस्त्रा को विदा करती है और निशाचर को अपनी हलचलें बन्द करने की सूक्षती हैं। युग सन्धि की यह घडी पुण्य प्रभात जैसी है, उसमें अन्धकार युग की तमिस्त्रा का अन्त और आलोक उर्जा का आरम्भ प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।

इस पावन बेला में मूधन्यों का कुछ विशेष कर्त्तव्य है, उन्हें मन्दिरों में आरती सँजोनी और शंख घडियाल बजाकर उनीदों में चेतना भरनी चाहिए। अचेतनों की गतिविधिचाँ जो भी रहें, चेतन तो अदीयमान सूर्य के अभ्मुख होते और सन्घ्या वन्दन करते ही ष्िगोचर होगे। प्रभात पर जिनकी द्धा हैं, वे उस पावन बेला का श्रेष्ठतम सदुपयोग करने की बात ही सोच सकते हैं। जागक स्वयं उठते और दूसरों को उठाते हैं। सौभाग्य की तरह उदीयमान आलोक की अवमानना कुछ अभागे ही करते हैं। अन्यथा जागरण की बेला में विवेकवानों के लिए एक ही मार्ग है। आज की आवश्यकताओं को समझना और उनकी पूर्ति में योजनावद्ध क्रम बना कर जुट पडना।

व्यक्तिगत चिन्तन के लिए सर्वोपरि समस्या है जीवन का सदुपयाग। यह अलभ्य अपहार कुचक्र से निकल कर पूणर्पता तक पहुँचने के लिए समस्त सुविधाओं से भरा पूरा है। उसने बडा स्वार्थ साधन दूसरा क्या हो सकता है कि वाहय जीवन में बन्धन मुक्ति की अनुभूतिका आनन्द उठाते हुए इस सुअवसर का लाभ उठाया जायै इसी समस्या का दूसरा पक्ष है प्रगति पथ पर अग्रगमन, अभिनव उपलब्धियों का रसास्वादन। यह सफलता भी आत्मिक क्षेत्र की ही है। भौतिक प्रगति की निर्वाह भरके लिए आवश्यकता है। इससे अधिक करनी हो तो वह सामूहिक सुविधा सर्म्बधन के रूप में ही श्रेयस्कर है। निजी सम्पदा औरत माप दण्ड से बढने पर अनेकानेक विकृतियाँ उत्पन्न करती है। पेट में अधिक खाया गया भोजन और सामर्थ्य से अधिक उठाया गया वनज कितना कष्ट कारक होता है यह सभी जानते हैं। महत्वाकाँक्षाये आत्मिक क्षेत्र की हि होती हैं। लोभ और मोह की आग भडकाने वाले स्वंय जलते और जलाते भर है। आत्मिक प्रगति की आकाँक्षा को परमार्थ परायणता कहते हैं। मनुष्य को ईश्वरीय अनुदानों का दूसरा उददेश्य यही है कि वह उदार एवं सह्रदयता का प्रमाण देकर अपनी विशिष्टता सिद्ध करे। इस प्रतियोगिता में जो जितने नम्बर लाता हैं, उसे उसी अनुपात से ईश्वरीय अनुदानों का पुरस्कार मिलता है।

सामान्य जन पेट और प्रजनन के कुचक्र में ही फँसे मौत के दिन पूरे करते है। उन्हें न आगे की कुछ सूझती है और न अधिक की आवश्यकता अनुभव होती हैं। पर असामान्यों की बात दूसरी है, वे जीवन्तों की तरह अग्र गमन की बात सोचते हैं और उन्मुक्त आकाश में स्वतन्त्र चिन्तन एवं विशिष्ट साहस के दोनों पंख खोलकर लम्बी उडान भरते हैं। ईश्वरीय अनुग्रहों में महा मानव ऋषि कल्प, देवदूत अवतार जैसी कितनी ही ऐसी विभूतियाँ है। जिन्हें पाने वाला धन्य होकर रहता है। इन्हें पाने के लिए परमार्थ अपनाना पडता हैं।

परमार्थ का तार्त्पय है सत्प्रवृत्तियों का सम्बर्न्धन सदाशयता का प्रचलनच, पीडा और पतन का उन्मूलन यही है वह विशिष्टता जो क्षुद्रजनों के गल नहीं अतरती जो इस अग्नि परीक्षा में प्रवेश करने का साहस करते है वह खरे सोने की तरह अपना समुचित और सम्मानजनक मूल्य प्राप्त करता है। कृपणों की गर्दन पर संकीर्ण स्वार्थपरता लदी रहती है, फलतः वेल पर वार्थ की बात सोचते हैं और न ईश्वरीय अनुदानों के अधिकारी बनते हैं। प्रगतिशीलों को न क्षुद्रता भाती है, और संकीर्णता रचती हैं। वे अपना मार्ग आप बनाते और अपने पैरो पर आप चलते हैं। यही है प्रगतिशीलता की रीति नीति जो इसे अपनाते है, वे देव मानव होकर होती हैं।

सूरज तो रोज ही निकलता है और रोज ही अस्त होता हैं, पर जीवन प्रभात की पुण्य वेला उस दिन आती जिस दिन मनुष्य शान्त चित्त से अपनी स्थिति पर विचार करता और उज्ज्वल भविष्य की संरचना के लिए सिरे से सोचने और नये निर्धारण करने के लिए होता हैं। यह अवसर जिसे मिले उसे सच्चे अर्थो में सौभाग्यशाली कहा जाता है। ईश्वर का अनुग्रह इसी में बरसता है। सद्गुर इसी रण में अपने अनुदान देते सौभाग्योदय इसी उपलब्धि को कहते हैं। आत्म जागरण आत्मोपलब्धि आदि अनेक नामों से इसे बखाना जाता है। ईश्वर दर्शन भी यही है। इस प्रभात की रचना करते हुए ही अन्तःकरण में तमसोमा ज्योतिर्गमय हूक उठती रहती है।

युग प्रभात विराट ब्रहम की इच्छा और आवश्यकता नमित होता है। विनाश को निरस्त और विकास सशस्त करने के लिए जग अश्य जगत में अभिनव लय उठती है तो उसकी प्रखरता और प्रचण्डता युगा चेतना स्तर की होती हैं। भक्त लोग इसे अवतार मानते हैं। तत्वदर्शी इसी को युग अवतरण मानते हैं। न का प्रकटीकरण इसी रूप में होता है, यही युग है। इस पुण्य बेला में जागरूको बुलाया जाता और वे अघ्श्य प्रेरण के हश्य प्रयासों में अपनी भाव भूमिका निभाते हैं। इतिहास पुराणों के पृष्ठ इसी से भरे पडे हैं कि अध्श्य की प्रेरणाओं को अपना जागरूकोंन अग्रदूतोंका अत्तरदायित्व उठाया, अरू की प्रथम झाँको पर्वत शिखरों पर चमकने वाली ही कराती हैं। मूर्धन्यों की गति विधियाँ सामान्यों वहीं रहतीं, वे शिखरों की तरह सर्वप्रथम हैं, और न केवल प्रभात का वरन् शिखरों के का भी परिचय देती हैं। दर्शक इस प्रथम दर्शन से विमुग्ध होकर शिखरों का भी नमन करते हैं।

कई बार सामान्य समय में भी जीवन प्रभात का सौभाग्य कईयों मिलता हैं, पर युग प्रभात में तो एक प्रवाह आता है और विशिष्टों को अनायास ही अग्रिम पंक्ति में खडा देखा जाता हैं। जागने और जगाने की प्रक्रिया देवालयों में दूसरों से पूर्व ही चल पडती हैं। जागरूकों कों देवात्मा कहा जाता हैं। वे जीवन्त देवालयों की र्पूणी में ही गिने जाते है।

युग सन्धि की इस पुण्य वेला में दश्य क्षेत्रों में प्रभात का परिचय और दर्शन सहज ही मिलता हैं। जागृतों के अन्तःक्षेत्र में समुद्र मन्थन चल रहा है। वे ईश्वरीय अनुदान के रूप में उपलब्ध हुई मनुष्य जीवन की गरीमा का अनुभव इस प्रकार कर रहे हैं मानो निद्रा त्याग कर प्रथम बार अनसे सत्य को को देखा हो। स्वार्थ सिद्धि के लिए उत्कृष्टता अपनाने और परमार्थ सिद्धि के लिए आदर्शपथ पर चल पडने में ही उन्हें कल्याण दिखता है, युग प्रभात को इसके लिए नया निमन्त्रण भेजा हैं। महान परिवर्तन की भूमिकाएँ समय समय पर देव मानवो ही निभाई है। इन दिनों भी उन्हीं का पुरषार्थ जन नेतृत्व करेगा। अध्यापकों की बात दूसरी है, उनका काम छात्रो कों समझाने के लिए वाणी का उपयोग कर लेने से चल जाता है, पर लोक मानस में उच्चस्तरीय प्रवृत्त्याँ उभारने के लिए अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत करने के अतिरिक्त दूसरा चारा नहीं। यह कार्य जागरुकों का है। वे ही इस प्रयाजनको समय समय पर पूरा करते रहे हैं। इस आडे समय में भी उन्हें अपनी पूर्व भूमिका निभानी है।

अंमद, हनुमान, नल, नील, गीध, गिलहरी की भूमिका निभाने वाली आत्माएँ मात्र त्रेता के लंका काण्ड में ही प्रकट हुई हों, ऐसी बात नहीं है, युग परिवर्तन के समस्त अवसरों पर उन देवदूतों ने विभिन्न आवरण ओढकर विभिन्न भूमिकायें पर उन देवदूतों ने विभिन्न सामयिक आवश्यकताओं के अनुरुप् निभाई हैं। प्रसतुत युग संधि भी ठीक ऐसी ही वेला हैं। जिसका आपत्ति कालीन आमन्त्रण जीवन्तों के क्षेत्र में अनसुना किया ही नहीं जा सकता।

तमिसा के अवसान और आलोक के पुनरोदय के अवसर पर पूर्वजों की महान परम्पराओं का पुनर्जीवन होना स्वाभाविक है। कहना न होगा कि भारतीय तत्वदर्शन का मेरुदण्ड वह प्रचलन है, जिसमें जीवन काके दो भागों में विभक्त किया गया है। आधे में शरीर यात्रा और आधे में ईशवरीय प्रयोजन की पूर्ति का विभाजन ही वर्णाश्रम धर्म हैं। यह क्रम जब तक चला अतीत का गौरव भी अक्षुण्ण रहा। जैसे जैसे कृपणता बढने लगी वैसे वैसे तमिस्त्रा छाई। अब नव प्रभात के उदीयमान होते ही उन परम्पराओं का व्यवहार में उतरना भी स्वाभाविक है, जो मनुष्य में देवत्व और धरती पर र्स्वग के अवतरण की कल्पना जल्पना नहीं रहने देती, वरन् यथार्थता में परिणिता करती है।

जागरुकों में इन दिनों वे प्रवृत्तियाँ उभार की उच्च सीमा को छूती दिखाई पडती हैं जिन्हें अपना स्वयं का निर्धारण और दूसरों के लिए अनुकरण का पथ प्रशस्त करना है। अध्यात्म युग में लोक जीवन का यही क्रम होगा कि भौतिक लिप्साओं को नियंत्रित करें और आत्मिक विशिष्टताओं को उभारने में उतना पुरुषार्थ करें जो जन जन में अभिनव चेतना भरने के लिए समर्थ हो सके।

उच्चस्तरीय जीवन दर्शन अपनाने पर भी जन समाज को विपत्तियों और विभीषिकाओं से उवरने का अवसर मिलेगा। समृद्धि और शालीनता की उभयपक्षीय सुखद संभावनाएँ उत्कृष्टता अपनाने से ही सम्भव हो सकती हैं। इस दिशा धारा को अपनाने के लिए उपयुक्त लोक शिक्षण की व्यवस्था रहना प्रगति का प्रथम चरण हैं। इसके लिए युग प्रवक्ता चाहिए, जो मात्र वाणी से ही कहते सुनते न रहे, वरन् अथवा उदाहरण प्रस्तुत करते हुए यह सिद्ध भी करें कि जो कहा जा रहा है वह सरल एवं व्यावहारिक ही नहीं वरन् सुखद एवं श्रेयस्कर भी हैं। प्रतिपादनों के अनुरुप प्रवक्ताओं का चरित्र एवं व्यक्तिव न होगा तो उसका प्रभाव नहीं के बराबर ही होगा। लोग सुनेंगे तो सही पर अपनाने के लिए किसी की अन्त प्रेरण न उठेगी। दीपक को दीपक ही जलाता है और चरित्र ही चरित्र को प्रभावित करता हैं। जगरुक को अपना जीवन क्रम नवयुग की प्रयोगशाला के रुप में प्रस्तुत करना होगा जिसमें झाँक कर यह देखा जा सकेगा की आर्दशवादिता व्यावहारिक एवं उपयोगी भी हो सकती है या नहीं, यह विश्वास कराये बिना लोक मानस को न पुराना ढर्रा छोडने के लिए सहमत किया जा सकता है। और न नया अपनाने के लिए।

प्रतिपादनों और प्रवचनों का जमाना चला गया। पिछले दिनों आदर्श वादिता के समर्थन में इतना लिखा जा चुका है कि उनकी निरर्थकताको देखते हुए उसी की पुनरावृत्ति करने में कुछ सार दिखाई नहीं पडता। कारगर परिणाम निकलने की सम्भावना इसी एक तथ्य पर निर्भर हैं कि कुछ लोग आगे बढकर यह सिद्धि करें कि आदर्शवाद मात्र चर्चा का एक मनोरंजक विषय भर नहीं है, वरन् उसका अपनाया जाना न केवल सरल है, वरन् हर दृष्ट से लाभदायक भी है। दिग्रभ्रान्त लोक मानस को इससे कम में असके लिए सहमत नहीं कर सकते, जिसे किये जाने की आशा संजोकर नव युग का स्वत्न देखा गया हैं।

आदर्शवादिता न केवल समाज कल्याण के लिए, ईश्वरीय अनुग्रह प्राप्त करने के लिए आवश्यक हैं वरन् उससे स्वार्थ भी पूरी तरह सधता है। सादगी और संयम अपनाने में हानि इतनी भर है कि अन्धों में काना राजा बनने का अवसर नहीं मिलता। मूर्खा के बीच धूर्त जिस प्रकार अपनी नाक बढाते और ठाठ बनाते देखे जाते है, उस बचकानेपन में कमी आने के अतिरिक्त और कहीं कोई बाटा नहीं हैं। लोभ और मोह की आग में ईधन की तरह जलने वाली क्षमताओं को तृष्णाके व्यामोह में से छुटकारा पाते ही इतनी बचत हो सकती है कि उसके सहारे आत्म कल्याण और लोक कल्याण का दुहरा प्रयोजन पूरा हो सके।

इसके लिए मात्र इतना ही करना पडता है कि अभ्यस्त इच्छाओं और आदतों का नये सिरे से पर्यवेक्षण कर सकने की सूक्ष्म बुद्धि अपनाई जाय, यह एक कदम हुआ। दूसरा यह है कि अनुपयुक्त को छोडने और औचित्य को अपनाने का इतना साहस संजोया जाय जिसमें सचित कुसंस्कारों और तथाकथित प्रियजनों को बाधक बनने का अवसर ना मिल सके। इन्हीं दो कदमों को अठाते हुऐ उस महान लक्ष्य तक इसी जीवन में पहुँचा जा सकता है जिसमें आत्म सन्तोष, लोक सम्मान और दैवी अनुग्रह से सम्बन्धित विपुल विभूतियाँ उपलब्ध करने का अवसर मिल सके।

हर व्यक्ति यह सोचता है कि वह बहुत व्यस्त एवं उत्तर उदायित्वों से लदा है। इसलिए सत्प्रयोजनों में भाग लेने की स्थिति उसकी नहीं है। इस मान्यता में सार कम और भ्रम अधिक है। जिस प्रकार सोचने की आदत है और जिस प्रकार से समाधान चाहें गये हैं, उसी पर अडे रहना हो तो बात दूसरी है अन्यथा हर समस्या के हजार समाधान हैं। एक प्रकार से बात न बनती हों तो उसे दूसरे प्रकार बनाया जा सकता हैं। एक रास्ता रुक गया हो तो दूसरे रास्ते जाया जा सकता है। आर्दशवादी रीति नीति अपनाने में परिस्थितियाँ उतनी बाधक नहीं होती जितनी की पूर्वाग्रहों के दलदल में फँसी हुई मनःस्थिति। दृष्टि बदलने और दूसरे मार्ग खोजने पर हर स्थिति के व्यक्ति को इतना अवसर मिल सकता है वह अपनी दिन चर्या में गतिविधियों उत्क का समावेश करने के लिए पयाप्त अवसर प्राप्त कर सके

एक नई दृष्टि से सोचा जाय कि विपति कि विपत्ति की घडी आई, शरीर रुग्ण या अपंग हो गया तब अभ्यस्त ढर्रा छोडकर कोई न कोई दूसरी राह खोजनी और गाडी किसी दूसरे रास्ते चलानी पडेगी । कई बार ऐसे कमाउ व्यक्तियो की भी मृत्यु हो जाती है, जिनके सहारे गृह व्यवस्था चला करती थी। उन दिनों घबराने वाले यही देखते थे कि सब कुछ चौपट हो गया और उवरने का काई रास्ता शेष नहीं रहा। घबराहट दूर होने और शोकावेग हलका होने पर देखा जाता है कि दूसरा रास्तिनिकल आया और रुका हुआ गतिचक्र फिर किसी रास्ते चल पडा। सृष्टा की इस विश्व व्यवस्था में हर घटक बहुमूल्य है। उसका अपना कार्य और उपयोग है। इतने पर भी दूसरी सचाई भी यथास्थान है किसी के भी न रहने पर यहाँ कहीं भी अवराध उत्पन्न नहीं होता। गति चक्र अडता नहीं, वह एक रास्ता रुकते ही दूसरा नया रास्ता खोज लेता है। जिसने अपने ही सिर पर धरती लदी हुई समझी उसकी बात दूसरी है, पर जो तथ्यों से परिचित हैं वे जानते हैं कि दुर्घटनाओं की क्षतिपूर्ति होते रहने की यहाँ परिपूर्ण व्यवस्था विद्यमान है। यदि पुराने ढर्रे को बदल कर नये में प्रवेश करने की बात को भी दुर्घटना जैसी मान लिया जाय तो प्रतीत होगा कि उस परिवर्तन से जो भय प्रतीत होता था, जो आशंका दीखती थी वह सब कुछ काल्पनिक प्रतीत हुआ। वयवस्था ने परिस्थितियों के साथ अपना, ताल मेल बिठा लिया और अपने हटते ही जो अनर्थ होने का भय था, वह सर्वथा निर्मूल सिद्ध हुआ।

यहाँ असकी चर्चा है, जो वस्तुतःउत्तरदायित्वों से लदे हैं और जिन्हें सचमुच ही गाडी खींचनी पडती है ऐसे लोग भी यदि पूरी तरह युग प्रयोजनों में लगना चाहें तो भी उनका स्थान लेने लिएदूसरी सम्भावना मौजद है। पर यहाँ तो उतनी बात भी नहीं हो रही है। इस समय तो इतने भर से काम चल सकता है कि लाभ और मोह की कीचड से उवारा जाय और निर्वाह तथा परिवार सम्बन्धी महत्वाकाँक्षाओं को थोडा हलका कर लिया जाय। जिस परमार्थ को असम्भव और निरर्थक माना जाता है, उसे उपयोगी और आवश्यक समझा जाय। इतना आन्तरिक परिवर्तन जो भी कर सकेंगे वे देखेगे कि जीवन प्रभात और युग प्रभात में जागरुकों का जो कर्त्तवय था, उसका परिपालन तनिक भी कठिन नहीं रहा। आदर्शवादी निर्धरण न केवल सरल है वरन् सुखद और श्रेयस्कर भी। इस तथ्य की सचाई की कोई भी कभी भी जाँच कर सकता है। इस प्रयोग परीक्षण के लिए आज जैसा उपयुक्त अवसर फिर कदाचित् ही कभी किसी को मिल सके।


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