आत्मिक प्रगति के दो प्रधान आधार

April 1968

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गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित्र मानस का शुभारंभ करते हुए भवानी और शंकर की वंदना की है। ये दोनों क्या हैं, इसका स्पष्टीकरण करते हुए उन्होंने कहा है- ‘भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरुपिणौ’। भवानी को उन्होंने श्रद्धा और शंकर को विश्वास के रूप में उल्लेख किया है। बात सोलह आने सच है। भवानी और शंकर में जो शक्ति हो सकती है, वह सारी-की-सारी ज्यों की-त्यों श्रद्धा और विश्वास में विद्यमान है। अध्यात्म तत्वज्ञान का सारा आधार इन्हीं पर है। दृश्य जगत के आधार पंच-तत्व हैं।

दिखाई देने वाले समस्त जड़ पदार्थ- मिट्टी, पानी, हवा, गर्मी और आकाश द्वारा विनिर्मित हैं। इसी प्रकार अध्यात्म जगत का समस्त विस्तार श्रद्धा और विश्वास पर रखा हुआ है। यदि इन आधारभूत तत्वों की कमी रहेगी, तो किसी उपलब्धि की आशा नहीं की जा सकेगी।

जिस प्रकार जड़ जगत में पंच-तत्वों का सुनिश्चित आधार है, इन्हीं के हेर-फेर से विभिन्न वस्तुएं उत्पन्न होती, बढ़ती और जराजीर्ण होकर नष्ट होती हैं, उसी प्रकार श्रद्धा, विश्वास के आधार पर भावनाओं का निर्माण होता है। यह भावनायें और मान्यतायें ही चेतन जगत में विविध विधि सृजनात्मक ताने-बाने बुनती हैं। श्रद्धा और विश्वास अपने आप में इस सृष्टि के महत्तम शक्ति-स्रोत हैं। इन्हीं के आधार पर व्यक्ति और पदार्थों के साथ हमारे सम्बंध जुड़े हुये हैं। आशा और उत्साह इन्हीं पर निर्भर है। सृजनात्मक प्रेरणा यही उत्पन्न करते हैं। भविष्य का निर्माण और निर्धारण इन्हीं के आधार पर संभव होता है। यदि यह दोनों तत्व चेतना क्षेत्र से अलग हटा दिये जायें तो फिर जीवन-जीवन कहलाने योग्य ही न रह जायेगा।

बीज बोने पर फसल पैदा होगी, शिक्षा प्राप्त कर लेने कर अच्छी कमाई कर सकेंगे, मजूरी करने पर वेतन मिल जायेगा, पत्नी वफादार रहेगी, भोजन विषैला नहीं है, मित्र दगा न करेगा, हम बहुत दिनों जीवित रहेंगे, बैंक में पैसा सुरक्षित है, युद्ध में जीतेंगे, पुरुषार्थ सफल होगा, आदि विश्वासों के आधारों पर कष्टसाध्य योजनायें बनाईं और कार्यान्वित जाती की हैं। यदि उपरोक्त निष्कर्षों पर से विश्वास उठ जाय तो इन कार्यों में हाथ डालने का साहस ही न हो। श्रम निरर्थक चले जाने और बीच में ही विपत्ति खड़ी हो जाने के भय से उनमें से किसी काम को करने का साहस न पड़ेगा। विश्वास के आधार पर ही उत्साह आता है, योजनायें बनती हैं और जोखिम भरे कठोर कार्यों में प्रवृत्त होने का सहास उत्पन्न होता है। यदि विश्वास उठ जाय तो फिर निराशा, अकर्मण्यता, आशंका, भय, विपत्ति और दरिद्रता के अतिरिक्त और कुछ भी हमारे हाथ न रह जायेगा।

गुरुजनों का सम्मान, कानून के प्रति आस्था, पारिवारिक उत्तरदायित्व का निर्वाह, सामाजिक मर्यादाओं की रक्षा, नागरिकता का पालन, अपनी कमाई पर निर्वाह, पुण्य की महिमा, धर्म की उपयोगिता, ईश्वर की विद्यमानता, कर्मफल की सच्चाई, मनुष्यता का गौरव, यशस्वी होने का संतोष, जैसे तथ्यों को हमारी श्रद्धा ही खड़ा किये हुए है। यदि इन आस्थाओं को उखाड़ फेंका जाय तो मानवीय संस्कृति नाम की कोई वस्तु शेष न रह जाय, सामाजिक ढाँचा क्षण भर में लड़-खड़ा जाय, हमें आदिम युग में लौटना पड़े और नर-पशुओं की तरह गुजर करनी पड़े। वह श्रद्धा ही है- जिसने पशुता की अगणित उच्छृंखलताओं को नियन्त्रित कर मनुष्य को सभ्य एवं सुसंस्कृत सामाजिक प्राणी बनने का अवसर दिया है।

कुतर्क और तात्कालिक लाभ की दृष्टि से उपरोक्त सभी श्रद्धा के आधारों का खण्डन किया जा सकता है और इन्हें तोड़ फेंकने में समर्थ व्यक्ति का नफे में रहना सिद्ध किया जा सकता है। दुष्ट दुरात्मा, आततायी, अत्याचारी, उद्दण्ड, उच्छृंखलता, अपराधी और विश्वासघाती मनोवैज्ञानिक दृष्टि से केवल इतने ही दोषी हैं कि उन्होंने अपने भावना क्षेत्र से मानवोचित श्रद्धा को उखाड़ फेंका और अनास्था के आदर्शों को मिटा डाला, फलतः वे स्वेच्छाचारी रीति-नीति अपना कर नर-पिशाचों जैसा आचरण करने लगे। जिसकी श्रद्धा जितनी दुर्बल होती जायेगी वह उतना ही पतित चरित्र बनता जायेगा। अनास्था की वृद्धि मानव जाति की सबसे बड़ी विपत्ति सिद्ध हो सकती है और बुद्धिजीवी समर्थ मनुष्य की क्रूरता इस सुन्दर ग्रह, पृथ्वी का अस्तित्व ही खतरे में डाल सकती है।

सामान्य जीवन में श्रद्धा-विश्वास पर ही सारे कारोबार चल रहे हैं। उधार लेन-देन के मूल में यह विश्वास ही काम कर रहा है कि जो दिया गया है, वह वापस लौट आयेगा। श्रेय और कर्म के परिणामों पर से विश्वास उठ जाय तो किसी से कुछ करते-धरते न बने। एक-दूसरे पर भरोसा न करें तो नौकरों से काम चलाना कठिन हो जाय। भोजन में किसी ने विष तो नहीं मिला दिया, इस आशंका से मुख में ग्रास रखना कठिन हो जाय। विचार करने पर हम देखते हैं कि श्रद्धा और विश्वास ही हमारे सभ्य जीवन को सुव्यवस्थित बनाये रहने के आधार हो सकते हैं।

आध्यात्मिक जीवन के तो इन्हें सर्वस्व ही कहा जा सकता है। ईश्वर, उसकी सत्ता, व्यवस्था, उपासना, उसकी नित्य परिणिति के पीछे श्रद्धा ही प्रधान आधार है। मस्तिष्कीय तर्क पदार्थ विज्ञान का अभी इतना विकास नहीं हुआ कि सूक्ष्म जगत और उसकी दिव्य संवेदनाओं को लैबोरेटरी में प्रत्यक्ष करके देखा जा सके। आत्मा हमारी अनोखी प्रयोगशाला है, उसकी अनुभूतियाँ किसी भौतिक प्रत्यक्षीकरण से कम महत्व की नहीं। सुख और दुःख की, प्रेम और घृणा की अनुभूतियों की वास्तविकता एवं स्थिति विज्ञान की प्रयोगशाला में सिद्ध नहीं की जा सकती है, तो क्या यह कहा जाय कि सुख दुःख अथवा प्रेम-घृणा जैसी कोई वस्तु इस संसार में नहीं है? अध्यात्म का आधार तर्क या प्रयोगशाला नहीं- आत्मा की अनुभूति है। और वह असत्य नहीं हो सकती। इन्द्रियों द्वारा अनुभव किये जाने वाले सुखों का विज्ञान के आधार पर कोई विवेचन नहीं हो सकता। आँखें जैसा कुछ देखती हैं, कान जैसा कुछ सुनते हैं, जीभ जैसा चखती है, कामेन्द्रिय जैसा अनुभव करती है, उस अनुभूति को विज्ञान एक मानसिक भ्राँति ही बता सकता है। सृष्टि का मूल अण्ड-संस्थान तेजी से घूम और चल रहा है, ऐसी आँधी-तूफान जैसी गतिशीलता ही विज्ञान द्वारा इस दृश्य जगत की स्थिति सिद्ध की जा सकती है।

सुखानुभूतियों को तो हमारी चेतना की एक अनोखी विशेषता बता सकता है और उसका कोई स्वरूप समझाने में असमर्थ है। अतएव यह मान कर चलना होता है कि तर्क एवं विज्ञान ही सब कुछ नहीं। जीव की चेतना सत्ता भी कोई इकाई है और उसकी अनुभूति भी उपहासास्पद नहीं ठहराई जा सकती। अध्यात्म- इसी आत्मानुभूति पर अवलम्बित है और उस आत्मानुभूति का प्रधान आधार ‘श्रद्धा’ है। श्रद्धा के परिकर- परिवार को ही यदि अध्यात्म कहा जाय तो इसमें कुछ भी अत्युक्ति न मानी जानी चाहिये। ईश्वर, धर्म, उपासना, सूक्ष्म जगत, आत्म-विकास यह सभी दिव्य सत्तायें हमारी प्रगाढ़ श्रद्धा पर अवलम्बित है।

श्रद्धा, कल्पना को नहीं, उस मान्यता, आस्था एवं दृष्टि को कहते हैं, जो आत्मानुभूति जैसे खरे आधार पर प्रमाणित होती है और जिसके असंख्य प्रमाण सृष्टि के आरंभ से लेकर आज तक के इतिहास में पग-पग पर भरे पड़े हैं। श्रद्धा एक सजीव शक्ति है जिसका आरोपण जहाँ भी किया जाय वहीं अभिनव चेतना उपज पड़ती है। आग को जिस वस्तु में भी लगा दिया जाय वही गरम और चमकीली हो जाती है।श्रद्धा का आरोपण जिस भी व्यक्ति अथवा पदार्थ पर किया जाय, वह दूसरों के लिये न सही उस आरोपण करने वाले के लिये तो दिव्य सत्ता से परिपूर्ण बन ही जाता है। देव आस्था का यही स्वरूप है।

निर्जीव प्रतिमाओं को देव भाव से देखने पर उनमें सचमुच देवत्व उत्पन्न हो जाता है और वे उस श्रद्धालु के लिये उसकी श्रद्धा के अनुरूप फल देने लगती हैं। ईश्वर के बारे में निर्धारित हमारी श्रद्धा उसे हमारे सामने ‘भक्त के वश में बने हुए भगवान’ का एक घटक बना कर प्रस्तुत कर देती है।

श्रद्धा से बनी भूत की कल्पना प्राण-घातक दुष्परिणाम उत्पन्न करती है। भय और आशंकाओं से आतंकित लोग अपना अच्छा खासा स्वास्थ्य खो बैठते हैं। आत्म-विश्वास और मनोबल के आधार पर चमत्कारी प्रतिफल उत्पन्न किये जाते हैं। यह सारे खेल श्रद्धा के ही हैं। साधना के सत्परिणामों की एक विशाल श्रृंखला है। अगणित साधक, अगणित प्रकार के सत्परिणाम साधना प्रयोगों के आधार पर प्राप्त करते हैं- इसके मूल में उनकी श्रद्धा की शक्ति ही सन्निहित होती है। साधक अपने ही नाम रूप साधना करके- अपने ही जैसा एक ‘छाया पुरुष’ निर्मित और सिद्ध कर लेते हैं। यह मनुष्य आकृति का देव बड़े-बड़े अनोखे काम करता है।

यह रचना हमारी श्रद्धा द्वारा ही की गई होती है। अनेक देवताओं का सृजन इसी प्रकार होता है। अन्तःकरण में कौन दिव्य शक्ति कितनी, कहाँ कैसी है यह प्रश्न अलग है। यहाँ तो यह कहा समझाया जा रहा है कि हमारी श्रद्धा- अपनी सामर्थ्य से, अपनी मान्यता, आकृति, रुचि और प्रयोजन का एक स्वतंत्र देव विनिर्मित कर सकती है। यह देवता उतने ही समर्थ होते हैं, जितनी हमारी श्रद्धा उन्हें बल प्रदान करती है। दुर्बल श्रद्धा से बने देव आकृति मात्र का दर्शन देने में समर्थ होते हैं। वे कुछ अधिक सहायता नहीं कर सकते। पर जिनकी श्रद्धा प्रबल है, उनके देव भी अद्भुत पराक्रम प्रस्तुत करते देखे जाते हैं।

श्रद्धा और विश्वास का सम्बल लेकर ही हमें अध्यात्म क्षेत्र में प्रवेश करना चाहिये। ‘‘ईश्वर है- उसकी सत्ता विद्यमान है- उसका सान्निध्य प्राप्त किया जा सकता है। और उसका प्रकाश मिल सकता है।’’ यह विश्वास जितना ही प्रखर एवं स्पष्ट होगा उतनी ही सफलता हमारी साधना प्रस्तुत करेगी। कितना जप करने से, कितने दिन में, ईश्वर की कितनी कृपा मिल सकती है? इस प्रश्न का उत्तर देने से पूर्व यह भी जानना होगा कि साधक की श्रद्धा में कितनी प्रखरता है? यदि अश्रद्धा और अविश्वास से, उदास मन से बेगार भुगतने की तरह कुछ पूजा-पाठ किया जा रहा है तो उसका परिणाम भी लंगड़े-लूले जैसा होगा। बहुत दिन में थोड़ा-सा लाभ दिखाई देगा। छोटे से दीपक की लौ से जल पात्र बहुत देर में गरम होगा, किन्तु यदि आग तीव्र हो तो थोड़ी ही देर में पानी खौलने लगेगा। उपासना का क्रिया-कृत्य पूरा कर लेना अभीष्ट परिणाम उत्पन्न नहीं करता। आवश्यकता श्रद्धा के समन्वय की भी है। यह समावेश जितना अधिक और जितना प्रखर होगा सत्परिणाम उतनी ही बड़ी मात्रा में और उतने ही शीघ्र दृष्टिगोचर होंगे।

उपासना की सफलता के लिये हमें अपनी मनोभूमि को श्रद्धासिक्त करना होगा। ईश्वर के अस्तित्व, उसके स्वभाव और कर्तृत्व पर वैसा ही विश्वास करना होगा जैसा कि हम उसके ऊपर अथवा अपने साधन, सहचरों पर करते हैं। भावनापूर्ण उपासना अपना प्रतिफल उत्पन्न किये बिना नहीं रहती, इस तथ्य पर भी हमारी परिपूर्ण मान्यता होनी चाहिये। और प्रयत्न यह किया जाना चाहिये कि अपने भावना-स्तर उपासना को प्रखर बनाने के अनुकूल बनता और बढ़ता चला जाय। अपने आपका निर्माण ही सबसे बड़ा और सबसे झंझट का काम है। यदि उसे पूरा किया जा सके तो कोई छोटी-सी भी उपासना पद्धति थोड़े दिनों में ही आशाजनक प्रतिफल उत्पन्न कर सकती है।

ईश्वर हमारे समीप तो पहले से ही है, उसे अनुभव करना मात्र शेष है। कषाय कल्मष का पर्दा हटते ही वह प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने लगता है। पुरुषार्थ ईश्वर को ढूंढ़ने में, बुलाने में, पाने में नहीं करना पड़ता वह तो सहज सुलभ है। प्रयत्न तो अपना क्रिया-कलाप और भावनात्मक स्तर सुधारने में करना होता है। लोग यही भूल करते हैं कि आत्म-सुधार की ओर से बेखबर रह कर केवल ईश्वर-ईश्वर पुकारते रहते हैं। ईश्वर पीठ पीछे खड़ा हंसता रहता है और कहता है- ‘‘जरा मुड़ कर देख मैं तो तेरे साथ ही हूँ। आँखों पर पर पड़ा अज्ञान और व्यामोह का पर्दा हटा और मुझे देख।’’

परखना यह चाहिये कि हमारी श्रद्धा, विश्वास दुर्बल तो नहीं हैं? ईश्वर की सत्ता और प्रकृति पर हमारा परिपूर्ण विश्वास है या नहीं? केवल अपना मतलब साधने के लिये ही कोई बिलाव दंडवत कर रहे हैं या ईश्वर की समीपता का लाभ लेना चाहते हैं? बगुला-भक्ति कोई स्वार्थ सिद्ध करने को होती है। उसे वेश्यावृत्ति अथवा भिक्षु-दीनता भी कहते हैं। ऐसे दंडवत कभी-कभी कुछ प्रयोजन तो सिद्ध कर देते हैं पर आत्मा और परमात्मा के बीच ऐसा संबंध स्थापित नहीं करा सकते, जिससे दोनों एकता और अभिन्नता का दिव्य आनन्द अनुभव कर सकें। सच्ची उपासना तो वह है जिसमें जीव अपना समस्त मोह कलेवर, अहंता परिवार- ईश्वर को समर्पण करता है और ईश्वर उसे उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता के प्रकाश से पूर्णतया प्रकाशवान कर देता है।


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