उपासना ही नहीं, साधना भी

April 1968

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न्यूनतम उपासना प्रक्रिया के अंतर्गत ज्योति-अवतरण ध्यान तथा नित्य पूजा एवं जप का सरल विधान बताया गया है और नवरात्रियों में अनुष्ठानों की तपश्चर्या करते रहने का सुझाव दिया गया है। यह क्रम व्यस्त समय वाले लोगों के लिये भी कुछ कठिन नहीं है। यदि अन्तःकरण में आकाँक्षा जाग पड़े तो प्रातः सोकर उठते ही चारपाई पर पड़े-पड़े आधा घण्टे का ध्यान और नित्य-कर्म के उपरान्त आधा घण्टे की पूजा-प्रक्रिया यह समय अथवा विधान ऐसा नहीं है जिससे कहीं साँसारिक कार्यों में अड़चन पड़ती हो। प्रश्न केवल रुचि और आकाँक्षा का है, यदि मन को जागृत किया जा सके तो जीवनोद्देश्य को पूर्ण करने की दिशा में इतने मात्र से महत्वपूर्ण प्रगति हो सकती है।

नवरात्रियों में कुछ समय तो अधिक लग जाता है और कुछ अड़चनें भी सहनी पड़ती हैं, पर इससे कई-कई गुने कष्ट साँसारिक कार्यों के लिये बार-बार सहने पड़ते हैं, तो आत्म-कल्याण के लिए इतनी अड़चन सह लेना भी कुछ मुश्किल नहीं है। जिनमें निष्ठा है, वे साँसारिक कार्यों का बहुत अधिक दबाव रहने पर भी इतना समय बड़ी आसानी से निकाल लेते हैं। यों उपासना का क्षेत्र बहुत विशाल और व्यापक है। जिनके पास समय है, अभिलाषा है, निष्ठा है, उनके लिए एक से एक महत्वपूर्ण और चमत्कारी साधना-क्रम मौजूद है। उन्हें अपनी मनोभूमि और परिस्थिति के अनुसार मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहिये। इस अंक में तो न्यूनतम कार्यक्रम ही प्रस्तुत किया जा रहा है।

जितना महत्व उपासना का है उतना ही साधना का भी है। हमें उपासना पर ही नहीं साधना पर भी ध्यान और जोर देना चाहिये। जीवन को पवित्र और परिष्कृत संयत और सुसंतुलित उत्कृष्ट और आदर्श बनाने के लिए अपने गुण, कर्म, स्वभाव को उच्च स्तरीय बनाने के लिये निरन्तर प्रयत्न करना चाहिये। इस प्रयत्न का नाम ही जीवन-साधना अथवा साधना है। उपासना पूजा को निर्धारित समय का क्रिया-कलाप पूरा कर लेने पर समाप्त हो जाती है, पर साधना चौबीस घण्टे चलानी पड़ती है। अपने हर विचार और हर कार्य पर एक चौकीदार की तरह कड़ी नजर रखनी पड़ती है कि कहीं कुछ अनुचित अनुपयुक्त तो नहीं हो रहा है। जहाँ भूल दिखाई दी कि उसे तुरंत सुधारा- जहाँ विकार पाया कि तुरंत उसकी चिकित्सा की- जहाँ पाप देखा कि तुरन्त उससे लड़ पड़े। यही साधना है। जिस प्रकार सीमा रक्षक प्रहरियों को हर घड़ी शत्रु की चालों और घातों का पता लगाने और जूझने के लिए लैस रहना पड़ता है, वैसे ही जीवन संग्राम के हर मोर्चे पर हमें सतर्क और तत्पर रहने की आवश्यकता पड़ती है। इसी तत्परता को साधना कहा जा सकता है।

यह सोचना ठीक नहीं कि भजन करने मात्र से पाप कट जायेंगे और ईश्वर प्रसन्न हो जायेंगे, अतएव जीवन को शुद्ध बनाने अथवा कुमार्गगामिता से बचने की आवश्यकता नहीं, इसी भ्रमपूर्ण मान्यता ने अध्यात्म के लाभों से हमें वंचित रखा है। यह भ्रम दूर हटाया जाना चाहिये और भारतीय अध्यात्म का तत्वज्ञान एवं ऋषि-अनुभवों के आधार पर यही निष्कर्ष अपनाना चाहिये कि उपासना और साधना आध्यात्मिक प्रगति के दो अविच्छिन्न पहलू हैं। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरा अपूर्ण है। जिस तरह अन्न और जल, रात और दिन, शीत और ग्रीष्म, स्त्री और पुरुष जोड़ा है, उसी प्रकार उपासना और साधना भी अन्योन्याश्रित है। एक के बिना दूसरा अकेला असहाय एवं अपूर्ण ही बना रहेगा, इसलिये दोनों को साथ लेकर अध्यात्म मार्ग पर प्रगतिशील होना ही उचित और आवश्यक है।

सच्चे आस्तिक एवं सच्चे ईश्वर भक्त का जीवन-क्रम उत्कृष्ट आदर्शवादी एवं परिष्कृत होना ही चाहिये। नशा पीने पर मस्ती आनी ही चाहिये। भक्ति का प्रभाव सज्जनता और प्रगतिशीलता के रूप में दीखना ही चाहिये। इसलिये हमारी उपासना क्रम साँगोपाँग होना चाहिये और उसमें आत्म-निरीक्षण, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण एवं आत्म-विकास की परिपूर्ण प्रक्रिया जुड़ी ही रहनी चाहिये। उपासना और साधना का स्वतंत्र अस्तित्व हैं। एक को कर लेने से दूसरे की पूर्ति हो जायेगी यह सोचना उचित नहीं। लाखों साधु-बाबा, पंडा-पुजारी भजन ध्यान में नित्य घण्टों समय लगाते हैं पर उनका प्रायः जीवन घृणित एवं निकृष्ट स्तर का बना रहता है।

इससे स्पष्ट है कि उपासना अपने स्थान पर, अपने प्रयोजन के लिए ठीक है, पर वह साधना की आवश्यकता पूरी नहीं कर सकती। यदि कर सकी तो हर भजन करने वाला, उत्कृष्ट चरित्र वाला पाया जाता। पर ऐसा होता कहाँ है? इससे स्पष्ट है कि हमें साधना के लिए पृथक से प्रयत्न करना होगा। जीवन शोधन और जीवन विकास की साधना पद्धति को उतना ही- उससे भी अधिक महत्व देना होगा- जितना कि उपासना को देना है। साधना रहित उपासना विडम्बना मात्र बन कर रह जाती है। किन्तु यदि साधना को सर्वांगपूर्ण बना लिया है- जीवन को उत्कृष्ट बना लिया जाय- तो बिना उपासना के भी अध्यात्म प्रयोजन की पूर्ति हो सकती है।

ईश्वर की भावनात्मक पूजा की तरह ही सद्-आचरण द्वारा भी उपासना की जा सकती है। हम निष्पाप बनें इतना ही पर्याप्त नहीं वरन् यह भी आवश्यक है कि अपने कर्म एवं स्वभाव में सद्गुणों का समुचित समावेश करके दिव्य जीवन बनावें और उसके द्वारा अपना और समस्त समाज का कल्याण करें। व्यक्तित्व को परिष्कृत और विकसित करते हुए ही हम आत्मिक प्रगति के मार्ग पर बढ़ते हैं और पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त कर सकने में सफल होते हैं।

अतएव यही सनातन क्रम चला आता है कि हर आध्यात्म-प्रेमी ईश्वर की उपासना के साथ जीवन को उत्कृष्ट बनाने की साधना भी करे। इसके लिये भी एक क्रम विधान है, उसे अगले लेखों में प्रस्तुत किया जा रहा है।


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