परमार्थ का अवलंबन

April 1968

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आध्यात्मिक प्रौढ़ता का चिन्ह है- परमार्थ परायणता। पेड़ जब पुष्ट हो जाते हैं, तब मांगते किसी से नहीं हर घड़ी देते ही रहते हैं। लकड़ी, पत्ते, पुष्प, फल, छाया, सुगंध का अनुदान वे निरंतर अपरिचित रूप से दूसरों को देते रहते हैं, यही उनका स्वाभाविक धर्म बन जाता है। अध्यात्म की भूमिका में जैसे-जैसे मनुष्य विकसित होता जाता है, वैसे-वैसे उसका परमार्थ पराग भी खिले हुए कमल पुष्प की तरह दसों दिशाओं में उड़ने लगता है। उसकी उदारता, करुणा, महानता, सदाशयता एक घड़ी चैन से नहीं बैठती, वह लुटाने के लिये व्याकुल रहती है, गाय के थन में जरा भी दूध जमा हुआ कि वह कराहने लगती है, जब तक उसे खाली नहीं कर देती, तब-तक बेचैनी अनुभव करती है। पेड़ अपने परिपक्व फलों को बिना किसी के मांगे धरती पर टपकाते रहते हैं ताकि आवश्यकता ग्रस्तों को मधुर अनुदान अनायास ही बिना मूल्य मिल जाय। यही आध्यात्मिकता है।

जैसे-जैसे मनुष्य का आंतरिक स्तर विकसित होता जाता है, वह इस विश्व वसुंधरा को अधिक सुंदर, अधिक सुविकसित, अधिक सुसंस्कृत बनाने के लिये तत्पर दिखाई देता है। सेवा और अनुदान ही उसके प्रिय विषय और प्रिय व्यसन बन जाते हैं। अपने लिए वह स्वर्ग, मुक्ति या सिद्धि में से किसी की कामना नहीं करता वरन् यही सोचता रहता है कि जो कुछ मुझे मिला है, उसे विश्व-भावना को अधिक सुसज्जित बनाने के लिए किस तरह उस सबको लौटा दूं।

देवत्व का स्वरूप है दया और दान। इस संसार में जो दुख और दैन्य है उसे देखना पड़ता है, उससे उसका हृदय पिघल पड़ता है। ‘संत हृदय नवनीत समाना’ सूक्ति के अनुसार उसकी पिघलती हुई करुणा एवं सदाशयता इस बात के लिए विवश करती है कि पीड़ित मानवता के घावों पर मरहम लगाने के लिए उसके पास जो कुछ बल, बुद्धि, विद्या, संपत्ति तथा स्थिति है उसका अधिकाधिक भाग समर्पण करे। ऐसी स्थिति में वह अपना घर परिवार थोड़े लोगों में सीमाबद्ध नहीं करता। बेटे, पोतों को ही उसकी सारी विभूतियों का लाभ मिलना चाहिए ऐसा नहीं सोचता, वरन् सभी को अपना समझता है और मोह-वश किन्हीं संबंधियों के लिये मरते-खपते रहने की संकीर्णता छोड़ कर हर दर्दमंद की- हर पिछड़े व्यक्ति की सेवा सहायता करने में तत्पर हो जाता है।

हममें से हर एक को परमार्थ-परायण होना ही चाहिये। उसके पास इस प्रश्न का प्रामाणिक उत्तर होना चाहिये कि विश्व-मानव की सेवा में उसका उदार अनुदान क्या रहा? कितना रहा?

दान-पुण्य की अनेक दिशायें हैं उनमें सभी लोग कुछ-न-कुछ कर रहे हैं। किंतु सबसे उपयोगी एवं आवश्यक होने पर सबसे अछूती, सबसे उपेक्षित सद्ज्ञान संवर्धन की दिशा की सूनी पड़ी है। लोक-मानस का स्तर ऊंचा उठाने पर ही मानव-समाज का उज्ज्वल भविष्य अवलंबित है, ऐसे सर्वोपरि कार्य के लिये लोगों की उपेक्षा उनकी विवेक हीनता ही प्रकट करती है। जो परमार्थ आंखों से दिखे, लाभ लेने वाले तुरंत प्रशंसा करे इस दृष्टि से तो उथले-हल्के ब्रह्म-भोज जैसे कार्यों को ही किया जा सकेगा। सद्ज्ञान संवर्धन न तो आंखों से दिखता है, न तुरंत वाहवाही बांधता है, इसलिए उसे करने के लिए कोई विवेकवान, दूरदर्शी और सत्परिणामों का मूल्यांकन करने वाला ही साहस कर सकता है। हमें इसी श्रेणी का परमार्थी होना चाहिये। हमारी सारी उदारता इस केंद्र पर केंद्रीभूत होनी चाहिये कि अपना अज्ञान-ग्रस्त अंधेरे में भटकने वाला समाज- सद्ज्ञान का प्रकाश प्राप्त कर सत्पथगामी बन सके। ऐसी प्रवृत्तियों में कम-से-कम हम थोड़े लोगों को तो- एक छोटे परिवार को तो- उन्मुख होना ही चाहिये।

ज्ञान-यज्ञ का विस्तृत कार्यक्रम बहुत दिनों से प्रस्तुत किया जाता रहा है। अपने घरों में ज्ञान-मंदिर की स्थापना के लिए प्रतिदिन दस पैसा खर्च करते रहने का अनुरोध कितने दिनों से किया जाता रहा है। अपनी वाणी और बुद्धि को एक घंटा रोज विचार-क्रांति का प्रकाश अपने संपर्क के लोगों तक पहुंचाने में खर्च करते रहने की प्रेरणा कितने दिनों से दी जाती रही है। इसे अनसुनी नहीं किया जाना चाहिये। इस प्रक्रिया का मूल्य कम नहीं आंका जाना चाहिये। परमार्थ के लिए धन, समय, श्रम, बुद्धि खर्च करने के लिये विवेकपूर्ण अगणित मार्ग खुले पड़े हैं। युग-निर्माण-योजना के शतसूत्री कार्यक्रमों में उनकी विस्तृत चर्चा है। जिसके पास जितना धन और समय हो वह उनमें मुक्त-हस्त से लगाये। पर न्यूनतम उपासना की प्रस्तुत प्रक्रिया के अंतर्गत इतना परमार्थ तो हर किसी को करना ही चाहिये कि वह दस पैसा प्रतिदिन ज्ञान-दान के लिये निकालता रहे। उस पैसे घर में ज्ञान-मंदिर स्थापित करे। दोनों पत्रिकायें और ट्रेक्टों का मूल्यवान रत्न-कोष घर में जमा करे। घर के हर सदस्य को उसे पढ़ाने, सुनाने की व्यवस्था करे और परिचित संबंधियों तक उसका प्रकाश पहुंचायें।

इससे सस्ता, इससे सरल और इससे महत्वपूर्ण परमार्थ आज की परिस्थितियों में दूसरा नहीं हो सकता। इसलिए युग की सर्वोपरि मांग और ईश्वर की महती आकांक्षा की पूर्ति के‍ लिए हमें इतना परमार्थ करने के लिए तो कटिबद्ध होना चाहिये।


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