उपासना की सफलता के मूलभूत आधार

April 1968

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उपासना एक ऐसे वटवृक्ष का बीज है, जिसकी छाया, पल्लव, पुष्प, फल और विशालता से सब का सब प्रकार हित होता है। ईश्वर की समीपता का लाभ उठा कर जीव अपनी शक्ति सामर्थ्य को अनन्त गुनी बढ़ा सकता है और महापुरुष की- भूदेव की- नर-नारायण की भूमिका सम्पादित कर सकता है। ईश्वर का सान्निध्य अनुग्रह प्रकाश और अनुदान जिसने प्राप्त कर लिया उसे और कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता। इस उपलब्धि के फलस्वरूप क्या मिलता है, उसे वाणी से कहना और लेखनी से लिखना पर्याप्त नहीं, उसे तो अनुभव करके ही देखना चाहिये। पक्षी की छाती की गर्मी से सेये जाने पर अण्डे कुछ ही दिन में पक्षी के रूप में विकसित हो जाते हैं। यदि यह गर्मी न मिले तो वह गंदी-सी गोली सड़गल कर नष्ट हो जाती है। इसी प्रकार ईश्वर की समीपता में जीव का आशाजनक विकास होता है किन्तु यदि उससे वंचित रहना पड़े तो सड़ा हुआ जीवन जीने के अतिरिक्त और कुछ सार इस जीवन में रह नहीं जाता।

न्यूनतम आधा घंटा अवकाश हममें से हर एक को उपासना के लिए निकालना ही चाहिये। साढ़े 23 घंटे शरीर की आवश्यकतायें और समस्यायें सुलझाने में लगाये जा सकते हैं, तो क्या आत्मा की प्रगति और आवश्यकता की पूर्ति के लिये आधा घंटा भी खर्च नहीं किया जाना चाहिए? माना कि शरीर महत्वपूर्ण है और उसके तथा उससे संबंधित प्रियजनों के हित साधन के लिए काफी समय और श्रम लगाना पड़ता है, पर इसका अर्थ यह तो नहीं कि आत्मा सर्वथा उपेक्षणीय है। उसकी आवश्यकताओं को समझा ही न जाय, उसकी प्राप्ति एवं तृप्ति के लिये कुछ किया ही न जाय।

शरीरोपयोग में सारी शक्ति का लग जाना और बेचारी आत्मा को कुछ भी न मिलना ठीक कौरव पाँडवों के बीच चलने वाले अनौचित्य जैसा है। पाँडव पाँच गाँवों की माँग अपने गुजारे के लिये कर रहे थे और सारा विशाल राज्य कौरवों को दे रहे थे पर दुर्योधन सुई की नोंक के बराबर पृथ्वी देने को भी तैयार न हुआ। अन्ततः भगवान कृष्ण को महाभारत रचाने की व्यवस्था करनी पड़ी। हमारा अज्ञान एवं मोह दुर्योधन, दुःशासन की तरह सारी सामर्थ्य को शरीर सुख में ही खर्च कराना चाहता है और आत्मा अर्जुन के लिये आधा घंटा समय भी नहीं लगने देना चाहता। यह अनीति अन्ततः दुष्परिणाम ही उत्पन्न करेगी और आज जो शरीर हमारा एक मात्र लक्ष्य बना हुआ है वह भी चैन से न रह सकेगा।

लाभ को परखने की बुद्धि यदि हममें हो तो भी यह अनुभव लगाना कठिन नहीं होना चाहिये कि जितना श्रम शरीर को सुखी बनाने में खर्च किया जाता है उसका एक अंश भी यदि आत्म-कल्याण में खर्च किया जाय तो परिणाम अत्यधिक उत्साहवर्धक निकल सकता है। जिन दूरदर्शी महामानवों ने अपना समय ईश्वर उपासना में लगाया उनके चरित्र और वृतान्त पढ़ने का यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि वे घाटे में नहीं रहे, तृष्णा और वासना के दो पाटों की चक्की में पिसते रहने वालों की तुलना में वे अधिक ही लाभान्वित रहे जिनने ईश्वर का आश्रय ग्रहण करके उपासना के लिए श्रम किया और मनोयोग लगाया।

ऋषियों और संत-भक्तों के जीवन इसके प्रमाण हैं। उनने अपार आत्म-शाँति पाई, अपने आशीर्वाद और वरदान से असंख्यों के भौतिक कष्ट मिटाये, अंधेरे में भटकते हुओं को प्रकाश दिया और उन दिव्य विभूतियों के अधिपति बने जिन्हें ऋद्धि और सिद्धि के नाम से पुकारा जाता है। नाम गिनाने की आवश्यकता नहीं। प्रत्येक गृही और विरक्त सन्त का जीवन चरित्र इस कसौटी पर कसा जा सकता है और देखा जा सकता है कि कोल्हू के बैल की तरह ढर्रे का नीरस जीवन बिताने की अपेक्षा यदि उनने ईश्वर का आश्रय लेने का निर्णय किया तो कुछ घाटे में नहीं रहे।

उनने जो पाया वह कोई साधारण श्रमिक, व्यापारी, बुद्धिजीवी प्राप्त नहीं कर सकता। कम लाभ की अपेक्षा अधिक लाभ का व्यापार करना बुद्धिमता कही जाती है, फिर उपासना का आश्रय लेना क्यों दूरदर्शिता न मानी जायेगी? निःसंदेह यह उच्चकोटि की चतुरता कही जायेगी कि हम शरीर के स्वार्थों का ध्यान रखने के अतिरिक्त आत्म-कल्याण की भी आवश्यकता समझें और इसके लिए उपासना का आश्रय लेना आरंभ करें।

प्रियजनों के पास बैठने का अपना आनन्द है। ईश्वर और जीव के बीच इतना अधिक घनिष्ठ आत्म-भाव है, जितना संसार के किन्हीं प्राणियों का संबंधियों से नहीं पाया जाता। संसारी लोग प्रेम का मोल-तोल करते हैं, जिससे प्रयोजन सिद्ध होता है, प्रतिफल मिलता है, उससे दोस्ती निबाहते हैं अन्यथा उपेक्षा एवं अवज्ञा करने लगते हैं। ईश्वर के बारे में ऐसी बात नहीं, वह हमारा सच्चा प्रेमी है। निस्वार्थी भाव से हमारी पग-पग पर अपार सहायता करता है, उसने जो दिया है वह इतना अधिक है, जितना सृष्टि के किसी प्राणी को नहीं मिला। ऐसे प्रिय पात्र की समीपता में आनन्द ही आनन्द मिलना चाहिये। पति-पत्नी पास बैठकर आनन्द लाभ कर सकते हैं। मां-बेटे के बीच, मित्र-मित्र के बीच जो भावनात्मक आदान-प्रदान चलता है, उससे दोनों ही पक्ष उल्लसित होते हैं। फिर सच्चा प्रेमी, सच्चा मित्र, सच्चा सहयोगी परमेश्वर यदि पास में बैठे तो किस अभागे को आनन्द एवं उल्लास प्राप्त न होगा? उपासना एक आनन्द विभोर कर देने वाली भावनात्मक प्रक्रिया है, उसे यदि सही ढंग से अपनाया जा सके तो उपासक उतने स्वर्णिम क्षणों में आनन्द और उल्लास से ओत-प्रोत ही रह सकता है।

किन्तु खेद की बात है कि कितने ही व्यक्ति पूजा-पत्री बहुत करते हैं- घंटों उसमें लगाते हैं, पर वह संतोष एवं सुख प्राप्त नहीं कर पाते जो प्रिय पात्र के सान्निध्य में मिलना चाहिए। उनका मन नहीं लगता, किसी प्रकार शरीर से टंट-घंट करते रहते हैं, जीभ से कुछ मंत्र-तंत्र उच्चारण करते और हाथ से माला जपते हैं, पर चित्त की उद्विग्नता ज्यों की त्यों बनी रहती है। मन जहाँ तहाँ दौड़ लगाता रहता है। उस थोड़े समय को काटना कठिन पड़ जाता है। किसी प्रकार बेगार भुगता कर वह कृत्य पूरा किया जाता है।

नित्य कर्म समझ कर ज्यों-त्यों पूजा की लकीर पीटने वाले अधिक हैं, ऐसे कम हैं, जिन्हें उस समय पर प्रिय मिलन जैसा आनन्द अनुभव होता है। इस अभाव का कारण उपासना प्रक्रिया में रहने वाली एक ऐसी भूल है, जिसकी ओर ध्यान दिया या दिलाया नहीं गया। यदि यह भूल सुधार ली जाय तो उपासना हमारे जीवन की सबसे अधिक उल्लास और उत्साह भरी भूमिका हो सकती है।

हमें यह जानना ही चाहिये कि उपासना का प्रयोजन ईश्वर और जीव जैसे दो चेतन-तत्वों में समीपता एकता की स्थापना करना है। इसके लिए भावनात्मक माध्यम का प्रयोग अनिवार्य रूप से आवश्यक है। उपासना के साथ-साथ भावना को अविच्छिन्न रूप से जुड़ा ही रहना चाहिये। कर्मकांड को शरीर और भावना को प्राण कहा जा सकता है। शरीर और प्राण दोनों को मिला कर ही एक समग्र व्यक्तित्व विनिर्मित होता है। इसी प्रकार सजीव उपासना वही कहला सकती है, जिसमें पूजा प्रयोग के कर्मकांड के साथ-साथ स्नेह की अभिव्यंजना भी जुड़ी हुई हो। उल्लास इस अभिव्यंजना पर ही निर्भर है। जिनके मन नहीं मिले, केवल शरीर ही समीप है, उन्हें मिलने का आनन्द आयेगा? किन्तु यदि भावनाएं प्रबल हैं तो शरीर के दूर रहते हुए भी मन उत्साह से भरा रहता है और कल्पना के माध्यम से भी मिलन-सुख उपलब्ध होता रहता है। इस तथ्य को भुला कर जो लोग पूजा-पत्री का कर्मकाँड मात्र पूरा करते रहते हैं और भावनात्मक अभिव्यंजना का समन्वय नहीं करते। उन्हें ही मन न लगने की, आनन्द न आने की शिकायत रहती है। अन्यथा वे क्षण तो हर्षोल्लास से भरे हुए ही होने चाहिये। इस संबंध में बरती गई उपेक्षा ही वह भूल है, जिसके कारण उपासना एक बोझिल प्रक्रिया मात्र बन कर रह जाती है और आरंभिक उत्साह शिथिल होते ही कितने लोग उसे छोड़ बैठते हैं। यदि प्रारंभ से ही वस्तु स्थिति का ध्यान रखा जाय- सजीव उपासना क्रम अपनाया जाय-भावनात्मक तत्परता का समावेश रखा जाय- तो एक बार इस आनन्द का रसास्वादन करने के उपरान्त उपासना को छोड़ने का कोई नाम भी न ले।

सभी की पूजा के बाह्योपचार की पद्धति का आधार प्रायः एक ही होता है। किसी प्रतिमा के आधार पर भगवान को समीप विराजमान अनुभव करना, उसके स्वागत सत्कार की व्यवस्था करना, उसका नाम बार-बार रटना, गुणानुवाद करना और कुछ समर्पण करना। इन थोड़े से शब्दों में हर प्रकार की भारतीय उपासना पद्धति का समावेश माना जा सकता है। साकार और निराकार दोनों की पूजा करने का स्वरूप प्रायः यही है। ईश्वर को साकार मान कर उसकी प्रतिमा स्थापित करने वाले रोली, चन्दन, धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्प, आरती आदि से पूजन करते हैं, निराकार मानने वाले चित्र अथवा प्रतिमा न रख कर ध्यान में प्रकाश आदि का कोई रूप बनाते हैं। अग्निहोत्र भी एक तरह की मूर्ति पूजा है। ईश्वर को अग्नि रूप में स्थापित कर वेद मंत्रों से उसकी स्तुति करते हुए, घृत हविष्य आदि की आहुतियाँ देना एक प्रकार से भोग लगाना ही है। नाम-जप दोनों ही मान्यताओं वालों को करना पड़ता है। कोई राम नाम लेता है कोई ओम नाम। अन्तर अक्षरों का है। तथ्य एक ही है। इसी प्रकार ईश्वर के गुणानुवाद गाने में कोई वेद मंत्रों का उच्चारण कर सकता है, कोई हनुमान चालीसा पढ़ सकता है, बात एक ही है।

पूजा पद्धतियों के आकार प्रकार में- बाह्य स्वरूप में अन्तर हो सकता है, पर मूल्य तथ्य एक ही है। हर उपासक को मिलते-जुलते क्रिया कलाप ही अपनी पूजा प्रक्रिया में रखने पड़ते हैं। सुविधा, रुचि और परम्परा के अनुरूप यदि कुछ अन्तर पड़ता हो तो हर्ज नहीं, हर पद्धति निर्दिष्ट लक्ष्य तक पहुँचा सकती है, यदि उसे भावनात्मक अभिव्यंजना में समाविष्ट रखा गया है।

पदार्थों, प्रक्रियाओं हलचलों का प्रभाव पर मन पर पड़ता है, इसलिए पूजा उपचार की प्रक्रिया को आवश्यक माना गया है। हलचलें हमारा ध्यान भगवान की उपस्थिति और उसकी समीपता का अनुभव कराती है, इसलिये पूजन वंदन के उपकरण काम में लाये जाते हैं। ईश्वर इन अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य आदि से प्रभावित या प्रसन्न नहीं होता। इनकी उन्हें आवश्यकता भी नहीं है। उपचारों का प्रयोजन मन में भगवान की समीपता की अनुभूति कराना है। जिस पूजा से साधक को ईश्वर की समीपता जितनी अधिक अनुभव होती हो उसे उतनी ही सफल माना जायेगा।

कई बार अस्वस्थता की अथवा साधनहीन एकाँकी जीवन होने की स्थिति में- अथवा उच्च भूमिका के विकसित होने पर केवल ध्यान द्वारा मानसिक पूजन करना पड़ता है। इससे भी पूजा प्रक्रिया का लाभ मिल जाता है। उपचार पदार्थों के न होने पर भावनात्मक पुरुषार्थ द्वारा मन पर ईश्वर की समीपता की अनुभूति यदि सीमित की जा सके तो वह ध्यान-साधना भी पूजा प्रक्रिया का प्रयोजन पूरा कर देती है। उपचार एवं कर्मकाँड का अपना महत्व है। किन्तु कर्म में उसे सम्मिलित रहना ही चाहिए, पर निरीक्षण यह भी करते रहना चाहिये कि समीपता की भावनात्मक अनुभूति हो रही है या नहीं? इस अनुभूति पर ही उपासना का मूल प्रयोजन सिद्ध होना निर्भर है।

उपासना काल में प्रयत्न यह किया जाना चाहिए कि पूजा में प्रयुक्त होने वाला पदार्थ- हर क्रिया-कलाप हर विधान हमारे अन्तःकरण पर ईश्वर की समीपता एवं मधुर मिलन की संवेदना अनुभूति आच्छादित करने में सहायक हो। जैसे कोई सजीव प्रियजन पास में बैठा हो और उसे सचमुच ही उन क्रिया-कृत्यों से दुलारा जा रहा हो यदि ऐसी मान्यता और भावना बन सकी तो समझना चाहिए कि उपासना का मूल प्रयोजन पूरा होने लगा। ईश्वर कहीं बहुत दूर रहता है, उसे पाने या बुलवाने की अभी अपनी सामर्थ्य कहां? ऐसी निराशात्मक एवं अविश्वास मूलक भावना उपासना का प्रयोजन ही नष्ट कर देती है। मान्यता यह होनी चाहिये कि प्रस्तुत प्रतीक या प्रतिमा सचमुच साक्षात ईश्वर है, वह एक सजीव व्यक्ति की तरह सामने प्रस्तुत है, और जो कुछ किया या कहा जा रहा है उसे वह पूरी तन्मयता और रुचिपूर्वक सुन समझ अथवा ग्रहण कर रहा है। चुपचाप ग्रहण कर रहा हो सो बात नहीं, वरन् वह हमारी हर प्रक्रिया को स्वीकार करते हुये प्रसन्नता एवं सद्भावना भी व्यक्त कर रहा है। अपने प्रेम का वह अनेक गुना अनुदान भी प्रदान कर रहा है।

ऐसी भावना एवं मान्यता जितनी स्पष्ट एवं तीव्र होगी, उसी अनुपात से हमारी उपासना प्रखर होगी और उसका प्रतिफल उतना ही उत्साहवर्धक होगा। भाव भरी पूजा पद्धति साधक के अन्तःकरण को पुलकित कर देती है। अपनी भक्ति भावना की प्रखरता- भगवान की मधुर मुसकान बन कर हमारे साथ हास-विलास भरा प्रेमालाप करने लगती है। और अनुभव होता है कि भक्त और भगवान दोनों अति निकट होकर एक अनिवर्चनीय आनन्द सागर में निमग्न हो रहे हैं।

उपासना का सफल स्वरूप यही है। क्रिया-कृत्यों के साथ भावना का समन्वय करने से उसमें सजीवता आती है। आरंभ में ऐसा न हो सके तो भी चिन्ता की बात नहीं। मन का स्वभाव क्रीड़ा कौतुकों में लगने का है। उसकी दौड़ बाह्य-मुखी है। अंतर्मुखी- एकाग्र होने में उसे काफी अड़चन लगती है, इसलिये आना-कानी भी बहुत करता है। किसी भी प्रेरणा से उत्पन्न हुआ आरंभिक उत्साह जब तक रहता है, तब तक तो मन लगता है पर जैसे ही वह आवेश शिथिल हुआ कि उचट जाता है और यदि मनोबल मजबूत न हुआ तो उसे छोड़ बैठने की नौबत आ जाती है। इस स्थिति से बचना ही उचित है। जब शिथिलता आने लगे तो हठपूर्वक मन को उसमें लगाना चाहिये।

कृषि कार्यों में लगाये जाने पर अल्हड़ बैल आरंभ में काफी परेशान करता है। नया घोड़ा ताँगे में चलने को सवार को पीठ पर बिठाने को कहाँ तैयार होता है? उन्हें बलपूर्वक काम में जोता जाता है। घोड़े को लगाम लगाई जाती है और चाबुक से सीधा किया जाता है। बैल की नाक में छेद कर रस्सी पहनाई जाती है और छड़ी से डरा कर काम कराया जाता है। बाजीगर रीछ-बन्दरों को सिखाते हैं, सरकस वाले हाथी, शेर आदि को सधाते हैं। इसमें उन्हें काफी चतुरता और कड़ाई का प्रयोग करना पड़ता है। मन के साथ भी यही रीति-नीति काम में लानी पड़ती है।

उसके साथ जबरदस्ती न की जाय तो आरंभिक दिनों में वह उपासना जैसे रूखे प्रसंग को ग्रहण करने से इनकार ही करने लगता है। यदि उसकी बात मान ली गई तो फिर भविष्य में किसी ऐसे प्रसंग पर उसे झुका लेना और भी कठिन हो जाता है। अतएव मन के असहयोग के आगे हमें झुकना नहीं चाहिये वरन् बलात्कारपूर्वक तब-तक उसे निर्धारित दिशा में जोते ही रहना चाहिये, जब तक कि वह उसका अभ्यस्त न हो जाय। मन में एक अच्छी विशेषता भी है कि वह जिस बात का अभ्यस्त हो जाता है फिर उसे सहज छोड़ता भी नहीं। हानिकारक व्यसनों और दुर्गुणों को जब वह मजबूती से पकड़ बैठता है तो कोई कारण नहीं कि उपासना जैसे श्रेय साधन को सदा-सर्वदा निबाहते रहने के लिये तत्पर न हो जाये। कठिनाई आरंभिक दिनों की ही है। इससे जब तक स्थिति अनुकूल न हो जाय तब तक उस दिशा में जंगली जानवरों को सधाने-सिखाने के समय बरती जाने वाली चतुरता एवं कड़ाई का हमें प्रयोग करते रहना चाहिये।


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