उपासना- कतिपय मार्मिक भावना-स्तर

April 1968

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उपासना का उपचार सम्पन्न करते हुए- जप, पूजन, वंदन, अर्चन, स्तवन, ध्यान करते हुये- हमें यह अनुभूति भी करनी चाहिये कि इष्टदेव हमारे अति निकटवर्ती स्वजन, संबंधी, मित्र, कुटुम्बी एवं आत्मीय हैं। प्रियजनों के बीच अनेक रिश्ते होते हैं, उन्हीं में से एक रिश्ता उनसे स्थापित कर लेना चाहिये, माता, पिता, गुरु, बंधु, मित्र, पति आदि अपने से बड़े पक्ष का रिश्ता अधिक उपयोगी रहता है। कभी-कभी पुत्र, पत्नी आदि के रिश्ते भी स्थापित किये जाते हैं। कौशल्या, देवकी, यशोदा, सूरदास आदि ने बालगोविन्द को इष्ट माना था। फारसी भाषा के सूफी कवियों ने इश्क हकीकी की भक्ति धारा में भगवान को अपनी प्रेयसी के रूप में भी चित्रित किया है। उमरखय्याम की मधुशाला का एक अर्थ आध्यात्मिक भी लगाया जाता है और भक्ति को मद्य तथा ईश्वर को साकी-मद्य पिलाने वाली के रूप में चित्रित किया जाता है। ऐसी भावनायें काफी कठिन पड़ती हैं। सरल वे हैं जिनमें भगवान से अपने से ऊंचे रिश्ते का संबंध स्थापित किया जाता है। ऐसे रिश्तों में माता का संबंध सबसे बड़ा, सबसे सरल और सबसे भावपूर्ण है।

गायत्री उपासना में भगवान को माता के रूप में माना गया है। माता के प्रति बालक का प्रेम सब से सरल और स्वाभाविक है। क्या मनुष्य, क्या मनुष्येत्तर, पशु-पक्षी, कीटपतंग सभी अपने बच्चों को प्यार करते हैं। माता में तो वह प्यार और भी अधिक होता है। अन्य योनियों में तो बहुधा माता ही एक मात्र शिशु की संरक्षक एवं स्नेह भाजन होती है। अन्य रिश्तों में प्रेम का आधार गुण-दोष एवं लाभ-हानि होती है, पर माता का स्नेह इन सबसे ऊंचा, परम निःस्वार्थ और त्याग-बलिदानों से भरा पूरा होता।

‘कुपुत्रों जायेत् क्वचिदपि कुमाता न भवति’ पुत्र कुपुत्र हो जाता है पर माता, कुमाता नहीं होती। इस उक्ति के आधार पर माता का रिश्ता इस संसार में सर्वोपरि प्रेम का प्रतीक माना गया है। अतएव ईश्वर के साथ उसी का स्थापना अधिक श्रेयस्कर सिद्ध होती है। हम भगवान को अपनी माता मानें और उसी आधार पर भगवान हमें अपना पुत्र मानते हुए अनन्त वात्सल्य की वर्षा करे तो वह भावनात्मक आदान-प्रदान प्रेम परम्परा का एक महान घटक बन जाता है। ईश्वर को माता मान कर एक मातृ-प्रतिमा की अथवा ध्यान छवि की स्थापना के पश्चात् उपासना पथ पर प्रगति में गतिशीलता उत्पन्न होती है। भावनात्मक आदान-प्रदान के लिये इस प्रकार की स्थापना आवश्यक है।

इसके उपरान्त हमारी अनुभूति में दूसरी स्थापना यह होनी चाहिये कि इष्टदेव सर्वव्यापी और न्यायमूर्ति है। घट-घट में, कण-कण में समाये हैं। अपने रोम-रोम में, भीतर और बाहर उन्हीं की सत्ता ओत-प्रोत है। तिल भर भी जगह ऐसी नहीं जहाँ वे न हों। हर जड़-चेतन पदार्थ में, अपने समीपवर्ती और दूरवर्ती वातावरण में- उन्हीं का प्रकाश जगमगा रहा है। उन्हें हर जगह हम देख सकते हैं और वे हर पदार्थ में से अपनी सहस्रों आँखों द्वारा हमारे बाह्य और अन्तरंग स्तर को बारीकी से देखते रहते हैं। हमारा कोई कृत्य, कोई विचार कोई भाव उनसे छिपा नहीं रहता।

यह सर्वव्यापी सत्ता पक्षपात से सर्वथा दूर- पूर्णतया न्यायशील है। उनका व्यवहार निष्पक्ष न्यायमूर्ति जज की तरह है, जो अपने प्रिय से प्रिय के साथ पक्षपात और शत्रु के साथ भी अन्याय नहीं कर सकता। कर्म का माप दंड ही उसकी दृष्टि में किसी के भले-बुरे होने की कसौटी है। सत्कर्म, सद्भाव और सद्विचार ही उसे प्रिय हैं। इन्हीं विशेषताओं के आधार पर वह किसी की महत्ता आँकता है और इसी न्याय तुला पर तोल कर किसी से संतुष्ट अथवा रुष्ट होता है। निर्धारित धर्म मर्यादाओं को तोड़ने वाला ही उसका शत्रु कोप-भाजन अथवा विरोधी है और जो सृष्टि को सुव्यवस्थित बनाये रहने के लिये धर्म कर्त्तव्यों का उचित रीति से पालन करता है, वही उसका प्रिय पात्र स्नेह भाजन और सहायता का अधिकारी है।

कोई ईमानदारी न्यायाधीश पाप-पुण्य के आधार पर ही किसी को न्याय का पुरस्कार दे सकता है। व्यक्तिगत राग-द्वेष से वह ऊंचा उठा रहता है। किसी की निन्दा स्तुति से प्रभावित नहीं होता। यही प्रकृति परमेश्वर है। वह गये-गुजरे स्तर के उन लोगों के समक्ष नहीं हो सकता जो जरा-सी खुशी मद के फूल कर लट्टू हो जाते हैं, और बिना अधिकार एवं पात्रत्व का विचार किये मनमाने पुरस्कार देने लगते हैं। ईश्वर ऐसा निकृष्ट भी नहीं कि नैवेद्य, पुष्पमाला, आरती, तांबूल, इत्र-फुलेल जैसी रिश्वतें पाकर किसी के अनुचित प्रयोजन पूरे करने के लिये तैयार हो जाय। ईश्वर को खुशामदी और रिश्वतखोर मानना और उससे उस आधार पर तरह-तरह की आशाएं करना इस महान सत्ता के महान स्तर के हेय एवं घृणित सिद्ध करने कुचेष्टा है।

ईश्वर की स्थिति, रुचि, कार्य पद्धति एवं प्रेम प्रक्रिया का आधार यदि इस प्रकार ठीक से समझ लिया जाय तो हमारी उपासना परम प्रेरक और प्रकाशपूर्ण बन सकती है। तब हमें ईश्वर को अपने समीप और भीतर, बाहर ओत-प्रोत अनुभव करने के साथ-साथ अपनी विचार पद्धति और कर्म-पद्धति को सुधारना भी अनिवार्य रूप से आवश्यक प्रतीत होगा। हम कोई ऐसा विचार और कार्य न करें जो ईश्वर को अप्रिय हो, उसे रुष्ट करे। साधारण पुलिस दरोगा या सरकारी अफसर की उपस्थिति में कुख्यात चोर, उठाईगीरे भी अपनी हर बात पकड़े जाने के भय से मुँह बन्द रखते हैं फिर जो सर्वत्र ईश्वर में समाया हुआ निष्पक्ष न्यायकारी अनुभव करेगा वह उसके दंड भय से, रोष और कोप से सदा डरेगा और कोई दुर्भाव एवं दुष्कर्म करने को तैयार न होगा।

सच्ची आस्तिकता किसी व्यक्ति को निर्मल एवं निष्पाप ही बना सकती है। वह सदाचारी सज्जन के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। जो पाप की कीचड़ में डूबा खड़ा है, वह भजन का आडम्बर बनाये रहने पर भी वस्तुतः नास्तिक है। आस्तिकता और दुष्टता का साथ-साथ निर्वाह नहीं हो सकता। जो ईश्वर से पाप कर्मों से डरता है- उसे इस संसार में किसी से भी डरने की जरूरत नहीं रह जाती। जो सदाचरण प्रिय- सद्भाव युक्त सन्मार्गगामी और सज्जन है, वस्तुतः वह ईश्वर का सच्चा भक्त है, भले ही उपासनात्मक क्रिया-कलाप उससे ठीक तरह न बन पड़े।

उपासक के मन में यह सुदृढ़ आस्था जमी होनी चाहिये कि ईश्वर उसके चारों ओर भरा-पूरा है, उसकी हर गुप्त प्रकट गतिविधि को हजार आँखों से देख रहा है और हर बुरे-भले कर्म का उचित दंड-पुरस्कार विनिर्मित कर रहा है। जब यह तथ्य भली प्रकार हृदयंगम कर लिया जाता है, तब सबसे पहले अपने चरित्र और स्वभाव का परिष्कार संशोधन करने की आवश्यकता अनुभव होती है। जहाँ जो त्रुटियाँ हैं, वहाँ उनका समाधान करना होता है। इतना साहस कर लेने पर जब अपना अन्तःकरण निर्मल और व्यवहार निष्पाप बनने लगता है तो ईश्वर के साथ सच्ची मित्रता स्थापित करने का द्वार खुल जाता है। चोर जब तक अपराधी मनोवृत्ति धारण किये रहता है, तभी तक पुलिस, जेल, अदालत से भयभीत रहता है किन्तु आचरण सुधरते ही वह पूर्ण निर्भय बन जाता है। तब वह किसी का- कोई उसका शत्रु नहीं रहता। अधिकारी भी उसे मान देने में संकोच नहीं करते। ईश्वर से मित्रता प्राप्त करने की प्राथमिक योग्यता निर्मल एवं निष्पाप होना है। इससे कम कीमत पर न भगवान को अपना बनाया जा सकता है और न हम भगवान के बन सकते हैं।

उपासना का अधिकार प्राप्त करने के लिये उपासक को जीवन-शोधन की प्रक्रिया तुरन्त आरंभ करनी चाहिये। मलीनताओं को हटाना चाहिये और उत्कृष्टताओं को जीवन-क्रम में समाविष्ट करना चाहिये। यह स्थिति जितनी-जितनी स्पष्ट होती जाती है, उतना ही उतना साहस ईश्वर से मित्रता करने को बढ़ता जाता है। डरता, झिझकता, लज्जा, भय और संकोच में डूबा- हेय और घृणित बना प्राणी इतनी ऊंची हस्ती के साथ जी खोल कर प्रेम करने का साहस नहीं कर पाता। साहस तब होता है, तब जी साफ हो। आतम-चिन्तन, आत्म-निरीक्षण, आत्म-शोधन, आत्म-निर्माण और आत्म-विश्वास में संलग्न होना वस्तुतः ‘ईश्वरीय-मित्रता’ का आधार साधन जुटाना ही है। इस प्रगति के साथ-साथ उपासक ईश्वर की ओर और ईश्वर उपासक की ओर स्वयं बढ़ने लगते हैं और बढ़ते-बढ़ते दोनों तादात्म्य और एकात्म होने का वह प्रयोजन की पूर्ण कर लेते हैं, जो ईश्वर की महान प्रतिकृति- मानव सृजन का पुण्य प्रयोजन है।

निर्मल मन और शुद्ध आचरण को साथ लेकर आरंभ की हुई उपासनात्मक आध्यात्मिक प्रगति का परिणाम परिपूर्ण निर्भयता के रूप में परिलक्षित होता है। अनुभव होता है कि ईश्वर हर घड़ी हमारे साथ है। एक सहयोगी सहचर की तरह- अंग-रक्षक सुरक्षा अधिकारी की तरह साथ-साथ आगे-पीछे चलता दिखाई देता है। ऐसी दशा में डर किसका? जब हथियाबन्द पुलिस गारद अपनी सुरक्षा के लिये तैनात हो जाता है, साथ-साथ चलता है, तब शत्रुओं और खतरों से छिपे होने पर भी निश्चिन्तता हो जाती है। सशक्त, सशस्त्र संरक्षक साथ हो तो डर दूर हो जाना, निर्भयता और साहस का बढ़ना स्वाभाविक है। जिसे सर्वशक्तिमान परमेश्वर अपने साथ-साथ, आगे-पीछे साथी संरक्षक की तरह चलता दृष्टि गोचर होता है, उसे बड़े-से-बड़ा खतरा भी तुच्छ मालूम देता है।

भविष्य की आशंकायें उसे तनिक भी विचलित नहीं करतीं। इतनी बड़ी हस्ती जब साथी, सहचर और संरक्षक के रूप में विद्यमान है, तब फिर इस संसार में किसी से डरने का कोई कारण ही नहीं रह जाता। जिसके साथ इतना बड़ा साथी हो- उसका साहस और सन्मार्ग पर आगे बढ़ चलने का उत्साह सहज ही प्रदीप्त रहना चाहिये। वह सिंह की तरह एकाकी निर्जन वन में दहाड़ता फिरता है और अपने बल-पुरुषार्थ से ही अपनी समस्याओं को हल कर लेता है।

स्वल्प साधनों में महती योजनायें बना डालना और उन्हें कार्यान्वित करने के लिये चल पड़ना केवल उसी के लिए संभव है, जिसका ईश्वर-विश्वास अटल है। सत्कर्मों का सहायक ईश्वर होता है। कर्त्तव्य पथ पर चलने की शक्ति ईश्वर देता है, परमार्थ परायण का पथ ईश्वर प्रशस्त करता है। जिसका ऐसा सुदृढ़ विश्वास है उसे उसी तरह के प्रमाण भी मिलते हैं, सचमुच यह अटूट श्रद्धा साधन-सामग्री के रूप में साकार बन कर सामने प्रस्तुत होती है। इतिहास के पृष्ठ ऐसे अगणित प्रमाणों और उदाहरणों से भरे पड़े हैं, जिनने अकिंचन स्थिति में उत्पन्न होकर, साधनों का पूर्णतया अभाव रहने, साथियों के सहयोग की संभावना न दीखने पर भी परमार्थ पथ पर चलने के दुस्साहस भरे कदम उठाये और उनका प्रयोजन इस तरह पूरा होता चला गया मानो वे महान कार्य उन्हीं के करने के लिए पूर्व निर्धारित रुके पड़े थे। सत्पात्र को सदुद्देश्य के लिये किये गये सत्प्रयत्नों में ईश्वरीय सहायता मिलती है, इसमें संदेह करने की गुंजाइश नहीं। जो चाहे अपने व्यक्तित्व को ईश्वरीय प्रेम भाजन बनाकर इस प्रयोग कर सकता है। उसे यह तथ्य निर्विवाद रूप से सत्य दृष्टिगोचर होगा।

उपासक की मनोभूमि में यदि उपरोक्त विशेषतायें हों तो भगवान की समीपता का आनन्द उपलब्ध होने में कुछ कठिनाई न रहेगी। तब केवल प्रेम भावना का समावेश शेष रह जायेगा। यह तत्व जितना-जितना जप-ध्यान के साथ-साथ धुलता जायेगा, उसी क्रम से उपासना में आनन्द की अभिवृद्धि होती चलेगी। प्रेमी की समीपता सदा सुखद होती है। भगवान को यदि अपना प्रेम-पात्र बना लिया गया है, उसे माता, गुरु या सखा के रूप में वरण कर लिया गया है, तो निस्सन्देह उसके साथ रहने की भावना अति सुखद होगी और उस अवसर पर मन खूब लगेगा। मन का स्वभाव यह है कि वह प्रेम-पात्र के पास, प्रिय वस्तु के साथ, प्रिय कल्पना के सान्निध्य में रहना पसंद करता है। दौड़-दौड़ कर वहीं जाता है। यदि हम ईश्वर को अपना प्रिय-पात्र बना लें तो मन फिर कहीं भागेगा, दौड़ेगा नहीं, वरन् जब भी ध्यान धारण में संलग्न होंगे, मन वहीं रमण करता रहेगा और चाहेगा कि उसी सुखद संदर्भ में अधिक से अधिक समय बिताने का अवसर मिले। तब मन न लगने का- जी उचटने का- चित्त न लगने का प्रश्न ही उपस्थित न होगा। मन को वश में करने- चित्त वृत्तियों को एकाग्र करने की गुत्थी तभी सुलझ सकती है, जब हम ईश्वर को अपना प्रिय संबंधी बना लें और उसके साथ रहने में वैसा ही सुख अनुभव करें, जैसा कि किसी परमप्रिय परिजन के साथ रहने पर अनुभव करते हैं। इसके अतिरिक्त मन को वश में करने तथा चित्त को एकाग्र करने का और कोई रास्ता है ही नहीं।


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