जीवन साधना की चिन्तन पद्धति

April 1968

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साधना के लिये उपासना की भाँति ही आधे घंटे या कम-से-कम 15 मिनट का समय प्रतिदिन प्रातःकाल निकालना चाहिये। यह सोकर उठते ही चारपाई पर बैठ कर भी पूरा किया जा सकता है। अथवा नित्य-कर्म, पूजा आदि से निवृत्त होकर फिर थोड़ी देर से इस चिन्तन क्रम को पूरा करना चाहिये। अपने कार्यक्रम से ही सबेरे ही इसको भी किसी स्थान पर फिट कर लेना चाहिये। पूजा में ही आगे-पीछे इसे भी मिला सकते हैं। समय और क्रम की बात परिजनों के ऊपर ही छोड़ी जा रही है, ताकि वे एक दो दिन में अपनी सुविधानुसार इसे भी यथावत जमा लें।

यों जीवन साधना का क्रम सारे दिन हर समय चलने का है। पर उसका प्रारंभ, शुभारंभ एक चिन्तन पद्धति के साथ किया जाना चाहिये। इस पद्धति के तीन अंग हैं- (1) जीवन के स्वरूप, उद्देश्य एवं उपयोग को समझना और उसके अनुरूप गतिविधियों का निर्माण करना, (2) ‘हर दिन नया जन्म, हर रात नई मौत’ सूत्र के अनुसार जीवन का श्रेष्ठतम उपयोग करने के लिये दिन भर की शारीरिक कार्य पद्धति एवं मानसिक विचार पद्धति का निर्धारण करना। (3) रात को सोते समय मृत्यु के समय आवश्यक वैराग्य का अनुभव करना। इन तीन चिन्तन क्रम में से दो प्रातः और तीसरे को रात्रि के सोते समय प्रयुक्त करना चाहिये।

वर्ष में जिस दिन अपना जन्म दिवस पड़ता हो, उस दिन उसे समारोहपूर्वक मनाना चाहिये और साथ ही दिन भर मानव-जीवन की महत्ता का अनुभव करते हुए उसके श्रेष्ठतम उपयोग की भावी रीति-नीति निर्धारित करनी चाहिये। वर्तमान क्रिया पद्धति में जो दोष हों उन्हें सुधारना चाहिये और जो नया क्रम दिनचर्या में सम्मिलित हो उसे करना चाहिये। यह बात वर्ष में एक बार जन्म-दिन समारोहपूर्वक मनाने के बारे में हुई। पर उतने से ही काम न चलेगा। हर दिन प्रातःकाल उठते ही बिस्तर पर बैठ कर अपने आपसे इस संदर्भ में तीन प्रश्न पूछने चाहिये और उनके उत्तर भी स्वयं ही उपलब्ध करने चाहिये। पर प्रश्नोत्तर प्रातःकाल जीवन का क्रम आरंभ करते हुए नित्य ही दुहराने चाहिये ताकि जीवन का स्वरूप, उद्देश्य और उपयोग सदा स्मरण बना रहे और उस स्मरण के आधार पर अपनी दिशायें ठीक रखने में भूल-चूक न होने पावे।

अपने आपसे तीन प्रश्न पूछने चाहिये-

(1) भगवान को सभी प्राणी समान रूप से प्रिय पात्र हैं। फिर मनुष्य को ही बोलने, सोचने, लिखने एवं असंख्य सुख, सुविधायें प्राप्त करने का विशेष अनुदान क्यों मिला? मनुष्य को हर दृष्टि से उत्कृष्ट स्तर का प्राणी बनाने में इतना असाधारण श्रम क्यों किया?

उत्तर एक ही हो सकता है- ‘अपने उद्यान- इस संसार को अधिक सुन्दर और सुव्यवस्थित बनाने के लिये परमेश्वर को साथी सहचरों की जरूरत पड़ी और अपनी क्षमताओं से सुसज्जित एक सर्वांगपूर्ण प्राणी- मनुष्य इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए बनाया। विशेष साधन सुविधायें इसलिये दीं कि उनके द्वारा वह ईश्वरीय प्रयोजनों की पूर्ति ठीक तरह कर सके।’

(2) दूसरा प्रश्न अपने आपसे पूछना चाहिये कि- ‘जो सुविधायें, विभूतियाँ संपदायें हमें उपलब्ध हैं- उनके लाभ यदि हम अकेले ही उठाते हैं तो इसमें क्या कोई हर्ज है?’

उत्तर एक ही मिलेगा- ‘अन्य प्राणियों के अतिरिक्त जितनी भी बौद्धिक, आर्थिक, प्रतिभायुक्त एवं अन्य किसी प्रकार की विशेषतायें हैं, वे विश्व मानव की ही पवित्र अमानत हैं और इनका उपयोग लोक-मंगल के लिये ही किया जाना चाहिये। शरीर रक्षा भर के आवश्यक उपकरण के अतिरिक्त इन साधनों का विश्व-कल्याण के लिए ही उपयोग किया जाय।’

(3) तीसरा प्रश्न अपने आपसे करना चाहिये कि- ‘क्या इस सुरदुर्लभ मानव शरीर का सही सदुपयोग हो रहा है?’

उत्तर यही मिलेगा- ‘हम सदाचारी, संयमी, परिश्रमी, उदार, सज्जन, हंसमुख, सेवाभावी बने बिना मानव जीवन को सार्थक नहीं बना सकते। इसलिये इन सद्गुणों का अभ्यास बढ़ाने के लिए जीवनयापन की रीति-नीति में उत्कृष्टता और आदर्शवादिता का, सभ्यता और सज्जनता का पुरुषार्थ और साहस का समुचित समावेश करना चाहिये।’

इन्हीं प्रश्नोत्तरों में अध्यात्म तत्वज्ञान का सारा सन्निहित है। यदि यह प्रश्न जीवन की महान समस्या के रूप में सामने आयें और उन्हें सुलझाने के लिए हम अपने पूरे विवेक का उपयोग करें तो भावी जीवन यापन के लिए एक व्यवस्थित दर्शन और कार्यक्रम सामने आ खड़ा होगा। यदि इस तत्वज्ञान को ठीक तरह हृदयंगम किया जा सका तो आकाँक्षाओं और कामनाओं का स्वरूप बदला हुआ होगा। रीति-नीति और कार्य पद्धति में वैसा परिवर्तन-परिलक्षित होगा जैसे आत्म-ज्ञान सम्पन्न मनुष्य में प्रत्यक्षतः दृष्टिगोचर होना चाहिये।

(2) इसके बाद- ‘हर दिन नया जन्म-हर रात नई मौत।’ इस सूत्र को मन-ही-मन दुहराना चाहिये और भावना करनी चाहिये कि आज का दिन हमें एक नये जन्म के रूप में मिला है। वस्तुतः निद्रा और जागरण- मृत्यु और जन्म का ही एक छोटा नमूना है। उसमें असत्य भी कुछ नहीं। सचमुच की मृत्यु भी एक लंबी रात की गहरी नींद मात्र है। हर दिन को एक जन्म कहा जाय तो ऊपर से ही हंसी की बात लगती है, वस्तुतः वह एक स्थिर सचाई है। अतएव इस मान्यता में अत्युक्ति और निराधार कल्पना जैसी भी कोई बात नहीं है।

आज का नया जन्म अपने लिये एक अनमोल अवसर है। कहते हैं कि चौरासी लाख योनियों के बाद एक बार मनुष्य शरीर मिलता है, उसका सदुपयोग कर लेना ही शास्त्रकारों ने सबसे बड़ी बुद्धिमता मानी है। अस्तु हमें प्रातःकाल चारपाई पर पड़े-पड़े ही विचारना चाहिये कि आज का दिन अनमोल अवसर है, उसे अधिक से अधिक उत्कृष्टता के साथ व्यतीत करना चाहिये। कोई भूल, उपेक्षा, अनीति, दुर्बुद्धि उसमें न रहे। आदर्शवादिता का, सद्भावना और सदाशयता का उसमें अधिकाधिक समावेश रहे, ऐसा दिन भर का कार्यक्रम बना कर तैयार किया जाय।

आमतौर से आलस्य, ढील-पोल, शिथिलता में हमारा अधिक से अधिक समय बर्बाद होता है। तत्परता स्फूर्ति, परिश्रम और दिलचस्पी के साथ करने पर जो कार्य एक घण्टे में हो सकता है, उसी को अधिकतर लोग दो-दो, चार-चार घंटे में पूरा करते हैं। आलस्य, अधूरा मन, मन्दगति, रुक-रुक कर शिथिलतापूर्वक काम करने में- और ऐसे वैसे-ज्यों-त्यों-बेकार बहुत-सा समय गुजार देने की आदत बहुतों की होती है और उनका आधा जीवन प्रायः इस आलस्य प्रमाद में ही बर्बाद हो जाती है। यह बुरी आदत संभव है, थोड़ी बहुत मात्रा में अपने भीतर भी हो, उसे बारीकी से तलाश करना चाहिये और निश्चय करना चाहिये कि आज हर काम पूरी तत्परता और फौजी उत्साह के साथ करेंगे। समय ही जीवन है। वही ईश्वर प्रदत्त हमारी एक मात्र सम्पत्ति है। समय का सदुपयोग करके ही हम अभीष्ट आकाँक्षापूर्ण करने और मंगलमयी उपलब्धियाँ प्राप्त कर सकने में सफल हो सकते हैं। समय की बर्बादी एक प्रकार की मन्द आत्म-हत्या है। संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं, उनमें से प्रत्येक ने अपने समय का एक-एक क्षण ठीक तरह उपयोग करके ही अभीष्ट सफलतायें प्राप्त की हैं। इसलिये आज समय के सदुपयोग की, एक पल भी बर्बाद न होने की, आलस्य शिथिलता एवं अन्यमनस्कता से लड़ने की पूरी तैयारी करनी चाहिये और दिन भर के समय विभाजन की दिनचर्या ऐसी बननी चाहिए जिसमें वक्त की बर्बादी के लिए तनिक भी गुँजाइश न रहे। जो आवश्यक काम पिछले कई दिनों से टलते चले रहे हों, जिनकी उपयोगिता अधिक हो, उन सबको सुविधा हो तो आज ही करने के लिए नियत कर लेने चाहिये। दिनचर्या ऐसी बने जो सुविधाजनक भी हो और सुसंतुलित भी। अति उत्साह से ऐसा कार्यक्रम न बना लिया जाय जिसको पूरा कर सकना ही कठिन पड़ जाय।

शारीरिक कार्यक्रमों के साथ-साथ मानसिक क्रिया पद्धति भी निर्धारित करनी चाहिये। किस कार्य को किस भावना के साथ करना है, इसकी रूपरेखा मस्तिष्क में पहले से ही निश्चित रहनी चाहिये। समय-समय पर बड़े ओछे-संकीर्ण, स्वार्थपूर्ण हेय विचार मन में उठते रहते हैं। सोचना चाहिये कि आज किस अवसर पर किस प्रकार का अनुपयुक्त विचार उठने की संभावना है, उस अवसर के लिये विरोधी विचारों के शस्त्र पहले से ही तैयार कर लिये जांय।

आरंभ में बुरे विचारों को उठने से रोक सकना कठिन है। हाँ जब वे उठें तो उन्हें, ठीक विरोधी विचार धारा पैदा करके काटा जा सकता है। लोहे से लोहा कटता है, विचारों से विचार भी काटे जा सकते हैं। कामुकता के अश्लील विचार यदि किसी नारी के प्रति उठ रहे हैं, तो उसे अपनी बेटी, बहिन, भानजी आदि के रिश्ते में सोचने की- सफेद चमड़ी के भीतर मल-मूत्र रक्त-माँस की घृणित दुर्गंध भरी होने की- कल्पना करके उनको शमन किया जा सकता है। आवेश, उत्तेजना, क्रोध, उतावली की बुरी आदतें कइयों की होती हैं। जब वैसे अवसर आयें तब गंभीरता, धैर्य, दूरदर्शिता, सज्जनता, शांति जैसे विचार अपने में उस समय तत्काल उठाने की तैयारी करनी चाहिये।

दिन भर के समय विभाजन तथा विचार संघर्ष की योजना बनानी चाहिये और ऐसी दिनचर्या तैयार करनी चाहिये, जिसमें शरीर से ठीक तरह कर्त्तव्य पालन और मन में ठीक तरह सद्भाव चिन्तन होता रहे। इस कार्य के लिए पन्द्रह मिनट से लेकर आधा घण्टे का समय पर्याप्त होना चाहिये। उस निर्धारित दिनचर्या को कागज पर नोट कर लेना चाहिये और समय-समय पर जाँचते रहना चाहिये कि निर्धारण के अनुरूप कार्यक्रम चल रहा है या नहीं? जहाँ भी चूक होती हो वहीं उसे तुरन्त सुधारना चाहिए। यदि सतर्कतापूर्वक दिनचर्या के पालन का ध्यान रखा जाय, शारीरिक आलस्य और मानसिक प्रमाद से पग-पग पर लड़ते रहा जाय तो प्रातःकाल की निर्धारित योजना रात को सोते समय तक ठीक ही चलती रहेगी।

इस प्रकार हर दिन नया जन्म वाले मंत्र का आधा भाग रात को सोते समय तक पूरा होते रहना चाहिए। हर घड़ी अपने को सतर्क, सक्रिय, जागरूक रखा जाय, चूकों को बचाने के लिए सतर्क रहा जाय- उत्कृष्टता का जीवन में अधिकाधिक समावेश करने के लिए प्रयत्न किया जाय- तो निस्सन्देह वह दिन पिछले अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक सन्तोषप्रद, अधिक गौरवास्पद होगा। इस प्रकार हर दिन पिछले दिन को तुलना में अपेक्षाकृत अधिक आदर्श बनता चला जायेगा और कर्मयोग के तत्व दर्शन में हमारी जीवन पद्धति ढलती चली जायेगी।

(3) अब मंत्र का आधा भाग प्रयुक्त करने का अवसर आता है- ‘हर रात नई मौत’ इस भावना को रात्रि में सोते समय प्रयुक्त करना चाहिए। सब कामों में निवृत्त होकर जब निद्रा देवी की गोद में जाने की घड़ी आये। तब कल्पना करनी चाहिये कि- ‘एक सुन्दरी नाटक का अब पटाक्षेप हो चला। यह संसार एक नाट्यशाला है। आज का दिन अपने को अभिनय करने के लिए मिला था, सो उसको अच्छी तरह खेलने का ईमानदारी से प्रयत्न किया। जो भूलें रह गईं उन्हें याद रखेंगे और अगले दिन वैसी पुनरावृत्ति न होने देने की अधिक सावधानी बरतेंगे।’

‘अनेक वस्तुयें इस अभिनय में प्रयोग करने को मिलीं। अनेक साथियों का साथ रहा। उनका सान्निध्य एवं उपयोग जितना आवश्यक था कर लिया गया, अब उन्हें यथा समय छोड़ कर पूर्ण शाँति के साथ अपनी आश्रयदात्री माता निद्रा- मृत्यु की- गोद में निश्चिंत होकर शयन करते हैं।’

इस भावना में वैराग्य का अभ्यास है। अनासक्ति का प्रयोग है। उपलब्ध वस्तुओं में से एक ही अपनी नहीं, साथी व्यक्तियों में से एक भी अपना नहीं। वे सब अपने परमेश्वर के और अपने कर्त्तव्य की उपज हैं। हमारा न किसी पर अधिकार है, न स्वामित्व। हर पदार्थ और हर प्राणी के साथ कर्त्तव्य बुद्धि से ठीक व्यवहार कर लिया जाय, यही अपने लिए उचित है। इससे अधिक मोह, ममता के बंधन बाँधना- स्वामित्व और अधिकार की अहंता जोड़ना- निरर्थक है। अपना तो यह शरीर भी नहीं- कल परसों इसे धूलि बन कर उड़ जाना है- तब जो संपदा, प्रयोग-सामग्री, पद, परिस्थिति, उपलब्ध है उस पर अपना स्वामित्व जमाने का क्या हक? अनेक प्राणी सृष्टि के आदि से लेकर अब तक अपने कर्म भोगों को भुगतने अनेकों के साथ आये दिन संयोग-वियोग करते रहते हैं। अपने साथ भी आज कितने ही प्राणी एक सज्जन साथी की तरह रहे हैं, इनके लिए कर्त्तव्य धर्म का ठीक तरह पालन किया जाय इतना ही पर्याप्त है। उनसे आवश्यक ममता जोड़कर ऐसा कुछ न किया जाय जिससे अनुचित पाप कर्मों में संलग्न होना पड़े।

यह विवेक हमें रात को सोते समय जागृत करना चाहिए और अनुभव करना चाहिए कि अहंता और ममता के बंधन तोड़ कर एकात्म भाव से भगवान की मंगलमय गोदी- निद्रा मृत्यु में परम शाँति और सन्तोषपूर्वक निमग्न हुआ जा रहा है।

इस प्रकार की मनोवृत्ति का विकास होने से जीवन के अनेक क्षेत्रों में प्रगति होने की संभावना रहती है और अन्त में मानव-जन्म की सार्थकता उपलब्ध हो सकती है। इस प्रकार की भावना बनी रहने से मनुष्य माया-मोह के हानिकारक बंधनों से अधिकाँश में विमुक्त रहता है और आत्मोद्धार का वास्तविक लक्ष्य उसकी दृष्टि से ओझल नहीं होने पाता। इस प्रकार जो साधक जीवन के वास्तविक रहस्य को हस्तगत कर लेता है, उसको फिर व्यर्थ के जंजाल में नहीं फंसना पड़ता।

किसी दिन सचमुच ही मृत्यु आ जाय तो इन परिपक्व वैराग्य भावनाओं के आधार पर बिना भय और उद्वेग के शाँतिपूर्वक विदा होते हुए- मरणोत्तर जीवन में परम शाँति का अधिकारी बना जा सकता। यह भावना लोभ और मोह की जड़ काटती है। कुकर्म प्रायः इन्हीं दो आन्तरिक दुर्बलताओं के कारण बन पड़ते हैं। हर रात को एक मृत्यु मानने से जीवन में आदर्शवादिता एवं उत्कृष्टता का समावेश करने की प्रेरणा मिलती है। यही प्रेरणा कर्मयोग की आधार शिला है।

हममें से प्रत्येक को ‘हर दिन नया जन्म-हर रात नई मौत’ के भाव-मंत्र की साधना करनी चाहिए। इससे स्थूल शरीर में कर्मयोग का समावेश इस क्षेत्र में होगा और देवत्व के जागरण की एक महती आवश्यकता को पूरा करने का सरल मार्ग उपलब्ध होगा।


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