नारी को इस दुर्दशा में पड़ा न रहने दिया जाय?

June 1966

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नारी का क्या महत्व है? इस प्रश्न का उत्तर एक इस शब्द में ही निहित है-कि वह “जननी” है। यदि जननी न हो तो कहाँ से सृष्टि का सम्पादन हो और किस प्रकार समाज का सृजन? जननी का अभाव सृष्टि की शून्यता और उसका संभव ही संकलन है। इस प्रकार नारी सृष्टि का मूलाधार है। जो सृष्टि का मूल है उद्गम है-संसार में उसका क्या महत्व है? इसके उत्तर में वितर्क करना हीनता का द्योतक होगा!

नारी केवल सन्तान सम्पादिका ही नहीं, पालिका तथा संचालिका भी है। संसार का प्रत्येक प्राणी माँ के गर्भ से जन्म लेता है, उसकी गोद में पलता और उसका ही स्वभाव संस्कार लेकर बढ़ता है। समाज का प्रत्येक सदस्य माँ के दिये मूल संस्कारों को विकसित करता हुआ व्यवहार किया करता है और माँ अपने वही संस्कार तो सन्तान को दे सकती है जो उसके पास होंगे। शुभ संस्कारों वाली माँ शुभ और अशुभ संस्कारों वाली माँ अशुभ संस्कार ही तो दे सकेगी। यह बात उसके वश की नहीं कि स्वयं असंस्कृत हो और अपनी संतानों को सुसंस्कृत बना सके।

जननी के रूप में नारी के इस महत्व के साथ पत्नी के रूप में भी उसका बहुत महत्व है। नारी पुरुष की अर्धांगिनी कही गई है। जिस प्रकार पुरुष के बिना नारी अपूर्ण है उसी प्रकार नारी के बिना पुरुष भी अपूर्ण है। नारी और पुरुष मिलकर ही ‘एक मानव जीवन’ की पूर्ति करते हैं। इस दार्शनिक तथा भावनात्मक आधार पर ही नहीं भौतिकता के ठोस धरातल तथा वास्तविकता की यथार्थ भूमि पर भी नारी पुरुष की अर्धांगिनी है। वह संसार की कठिनाइयों और परिवार बसाने और वंश परम्परा का प्रतिपादन करने में नारी पुरुष की अनिवार्य भार्या और समान सहचरी है। उसके अभाव में यह दोनों स्थितियाँ असम्भाव्य हैं।

पुरुष एक उद्योगी तथा उच्छृंखल इकाई है। परिवार बसा कर रहना उसका सहज स्वभाव नहीं है। यह नारी की ही कोमल कुशलता है जो उसे पारिवारिक बना कर प्रसन्नता की परिधि में परिभ्रमण करने के लिये लालायित बनाये रखती है। नारी ही पुरुष की उद्योग उपलब्धियों को व्यवस्था एवं उपयोगिता प्रदान करती है। पुरुष नारी के कारण ही पुत्रवान है, परिवाहिक है और प्रसन्नचेता है। पत्नी के रूप में नारी का महत्व असीम है, अनुपम है।

पारिवारिकता ही नहीं, सामाजिकता में भी नारी का महत्व महान है। समाज केवल पुरुष वर्ग से ही नहीं बना वह स्त्री पुरुष दोनों से ही बनता है। आज समाज से यदि नारी अपने आपको दूर कर ले अथवा अपने को निकाल ले तो क्या समाज का रथ केवल पुरुष रूपी एक पहिये पर एक दिन भी चल सकता है! नारी समाज की आधी जनसंख्या है। समाज के बहुत से ऐसे काम हैं जो नारी द्वारा ही किये जाते हैं और किये जा सकते हैं। सदस्य, जिनसे मिलकर समाज बनता है नारी ही जनती है और वही उनका लालन पालन करती है। नारी समाज की आधी शक्ति है। एकोहं बहुस्यामि के सिद्धान्त पर समाज की जनसंख्या का सृजन नारी ही करती है! नारी ही अपनी योग्यता, दक्षता एवं कुशलता के अनुसार समाज को अच्छे बुरे सदस्य और राष्ट्र को नागरिक देती है। अपने गुण एवं स्वभाव के अनुसार अपनी सन्तानों को ढाल-ढाल कर देश व राष्ट्र को देना नारी का काम है। देश के निवासी शूर-वीर, त्यागी बलिदानी अथवा कायर, कुटिल और आचरण हीन बनते हैं यह जननी की ही गौरव-गरिमा पर निर्भर है। साराँश यह कि जिस प्रकार की राष्ट्र की जननी नारी होगी राष्ट्र भी उसी प्रकार का बनेगा। सामाजिकता अथवा राष्ट्रीयता के रूप में नारी का यह महत्व सर्वमान्य ही मानना पड़ेगा!

धार्मिक क्षेत्र में भी नारी का महत्व अप्रतिम है। विद्या, वैभव और वीरता की अधिष्ठात्री देवियाँ शारदा, श्री और शक्ति नारी की प्रतीक हैं। सृष्टि कर्ता परमात्मा की स्फुरण-शक्ति, माया भी नारी मानी गई है। इसके अतिरिक्त यज्ञादिक जितने भी धार्मिक अनुष्ठान पुरुष द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं वे नारी को साथ लेकर पूर्ण किये जाते हैं। यह बात सही है कि आज यद्यपि उनमें रुढ़िता, अन्धविश्वास तथा अज्ञान का दोष अवश्य आ गया है तथापि नारियाँ पुरुषों की अपेक्षा धर्म को अधिक दृढ़ता के साथ पकड़े हुये हैं। यही नहीं अनेक बार अंधकार युगों में जब कि आक्राँत अथवा सक्रान्त समय में पुरुषवर्ग धर्म अथवा आस्तिकता से विचलित होने लगे हैं नारियों ने धर्म भावना की रक्षा की है और घरों में चोरी छिपे, सही गलत, उल्टे सीधे धार्मिक कृत्य, व्रत, उपवास और पूजा के रूप में करती रही हैं। समय-समय पर उन्होंने धर्म रक्षा में अपने प्राण तक दिये हैं और आज के इस विकृत काल में भी नारियाँ धर्म-धारण में पुरुषों से आगे ही हैं। पुरुष के नास्तिक हो जाने अथवा धर्म के प्रति अविश्वासी हो जाने पर भी नारियाँ बहुधा घरों में आस्तिकता तथा श्रद्धा-विश्वास का वातावरण बनाये रखती हैं। आज भी कुप्रगति शीलता की लहर से अप्रभावित रह कर करोड़ों नारियाँ एक प्रकार से बहुत अंशों तक भारतीय धर्म तथा सभ्यता एवं संस्कृत की संरक्षिका बनी हुई हैं। धार्मिक क्षेत्र में यह कुछ कम महत्व की बात नहीं है।

इस प्रकार सभी क्षेत्र में नारी का इतना महत्व होते हुये भी आज हमारे समाज ने उसे इस दयनीय दुर्दशा में पहुँचा दिया कि देख-सुन और सोच समझ कर न केवल दुःख ही होता है बल्कि शर्म से गर्दन झुक जाती है। विचार आता है कि क्या वास्तव में हम इतने आततायी हैं कि राष्ट्र की जननी और पुरुष की सहयोगिनी, सहचरी और अनुवर्ती को पैर की जूती और पशुओं से भी बदतर बना दिया है! स्वार्थी पुरुष वर्ग ने उसके शैक्षणिक, एवं सामाजिक अधिकार, तथा शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आत्मिक विकास के सारे अवसर एवं संभावनायें अजगर की तरह निगल ली हैं।

आज हमारे समाज में अशिक्षा का अभिशाप नारी वर्ग को सर्प की तरह डसे हुये हैं। शिक्षा के भाव में अभारतीय नारी असभ्य, अदक्ष, अयोग्य एवं अप्रगति शील बनी हुयी चेतन होते हुये भी जड़ की तरह जीवन बिता रही है। समाज एवं राष्ट्र के लिये उसकी सारी उपादेयता नष्ट होती जा रही है। आज वह आत्मबोध से वंचित आजीवन बंदिनी की तरह घर में बंद रहती हुई चूल्हे चौके और और पौर तक सीमित पुरुषों की संकीर्णता का दण्ड भोगती हुई मिटती चली जा रही है। उसे समाज एवं राष्ट्र की गतिविधि में हाथ बटाना तो दूर उसके ज्ञान का भी अवसर नहीं मिलता।

अशिक्षा तथा अज्ञान ने उन्हें कायर और कलहनी बना दिया है। घर में अकेले रहते अथवा मार्ग में चलते हुये इस प्रकार दबी-दबी और भय त्रस्त चला करती हैं मानो उन पर अभी ही कोई आपत्ति आने वाली है, जिससे वे अपनी रक्षा न कर पायेंगी और वास्तव में जब कोई आपत्ति अथवा आशंका आ जाती है तब प्रतिकार करने के स्थान पर किंकर्तव्यविमूढ़ होकर काँपने रोने और अपना अहित होता सहने के अतिरिक्त उनके पास कोई उपाय ही नहीं होता। अप्रियताओं, प्रतिकूलताओं अथवा आपदाओं का प्रतिकार करने का न तो उनमें साहस ही होता है और न बुद्धि।

गृहणी होते हुये भी अशिक्षा के कारण नारी ठीक मानों में गृहणी सिद्ध नहीं हो पा रही! बच्चों के लालन-पालन से लेकर घर की साज सँभाल तक किसी काम में भी कुशल न होने से उस सुख सुविधा को जन्म नहीं दे पाती, घर में जिसकी अपेक्षा की जाती है! घर को सजा-सँवार कर रखना तो दूर उसकी अदक्षता उसे और भी अस्त-व्यस्त बनाये रहती है! शिक्षा के अभाव में कोमल-वृत्ति नारी कर्कशा एवं कलहनी होती जा रही है। हर समय कोप करना, बात-बात पर बच्चों को मारना पीटना, अकारण में कारण निकाल कर लड़ना-झगड़ना और खटपाट ले लेना, उनके स्वभाव का अंग बन गया है। वह परावलम्बिनी और परमुखापेक्षिणी बनी हुई विकास से वंचित, शिक्षा से रहित गूढ़ मूढ़ और मूक जीवन बिताती हुई अनागरिक पशु की भाँति परिवार ढ़ोडा जा रही हैं। पुरुष उसे स्वतंत्रता दे और समाज सुविधायें, फिर देखो आज की यह फूहड़ नारी कुशल शिल्पी की भाँति सन्तान, घर और समाज को रच देती है या नहीं?

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भव्य समाज की नव्य रचना


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