आवश्यकताओं के साथ न्याय कीजिये।

June 1966

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मनुष्य की परेशानियों के कारणों में एक प्रमुख कारण अर्थाभाव भी है। जितने लोग पैसे की कमी के कारण उद्विग्न एवं व्यग्र देखे जाते हैं उतने और किसी कारण से नहीं। मनुष्यों की समझ में दुनिया की सारी परेशानियाँ एक मात्र पैसे की कमी के कारण ही होती हैं। यदि उनके पास पैसे की इफरात हो जाये तो वे परेशान ही न हों, और यदि परेशानी आ भी जाये तो वह पैसे के बल पर शीघ्र दूर की जा सकती है।

लोग सोचते हैं कि बीमार होने पर पैसा होने से अच्छे से अच्छे डॉक्टर को दिखा सकते हैं, अच्छी से अच्छी दवा ला सकते हैं। पैसा होने पर लड़कों को ऊँची शिक्षा दिला सकते हैं। बेटी का ब्याह ऊँची जगह कर सकते हैं। पैसा होने पर वे घरबार में सुख-सुविधा के साधन इकट्ठा कर सकते हैं। पैसे के बल पर पुण्य दान कर सकते हैं, समाज में आदर-सम्मान पा सकते हैं।

बात किसी हद तक सही है कि पैसे की ताकत पर मनुष्य अनेक परेशानियाँ दूर कर सकता है। पैसे का अभाव बहुत कुछ आड़े आया करता है। किन्तु यह बात इससे भी अधिक सही है कि संसार में शायद ही दो-चार प्रतिशत व्यक्ति ऐसे हों जिनको सर्वथा पैसे का अभाव रहता हो। हर आदमी अपनी योग्यता एवं क्षमता के अनुसार कमाता ही रहता है। पैसा सबके पास आता ही रहता है। तब भी बहुत से लोग ऐसे होते हैं जो सदैव यही अनुभव किया करते हैं कि उनके पास पैसा आता ही नहीं, वे सदैव ही खाली हाथ रहा करते हैं।

ऐसे आदमियों में अधिकतर वे ही लोग होते हैं जिन्हें फिजूलखर्ची की आदत हुआ करती है। इधर पैसा हाथ में आया कि उधर खर्च हो गया। एक दो दिन तो क्या घंटे दो घंटे भी पैसा अपनी मूल संख्या में उनके पास नहीं रहने पाता। हर समय कुछ न कुछ खर्च करते रहने से उनका हाथ जल्दी ही खाली हो जाता है जिससे वे अपने को रिक्त हस्त ही अनुभव करते रहते हैं।

कमाई कठिनता से और खर्च आसानी से किया जा सकता है। बुद्धिमानी तो वास्तव में यह है कि जितनी कठिनाई से पैसा पैदा होता है उससे अधिक कठिनाई से खर्च किया जाये। किन्तु लोग करते इसके विपरीत हैं। जितने पैसे के लिये लोग महीने-भर ऐड़ी-चोटी का पसीना एक किया करते हैं, मिलने पर उतना पैसा दो सप्ताह से कम की अवधि में खर्च कर देते हैं। ऐसे विद्युत-व्ययी को पैसे की तंगी बनी रहना स्वाभाविक ही है। जो पैसे के दुश्मन बने रहते हैं अथवा पैसा जिनकी जेब से बाहर निकलने के लिए उछलता रहता है उनको खाली ही रहना पड़ेगा।

पैसा खर्च करने के लिये ही होता है। यह बात ठीक है। किन्तु यह बात बिल्कुल गलत है कि उसे चाहे जैसे भी खर्च किया जाये। चाहे जैसे खर्च करने वाले कितनी ही आमदनी होने पर भी पैसे के मामले में दरिद्री बने रहते हैं। जो चीज सामने आई खरीद ली, जो चाहा खाया या जो कुछ भाया पैसा फेंका, वाली नीति खर्च करने के तरीके में नहीं मानी जा सकती। खर्च करने का तरीका वही ठीक माना जा सकता है, जिसमें किसी भी खरीददारी की आवश्यकता सच्चे रूप में निहित हो। बेजरूरत की चीजें खरीदना अथवा जरूरत से पहले खरीदकर डाल देना खरीददारी की गलत नीति है। आवश्यकता के अनिवार्य दबाव पर ही किसी चीज को खरीदना ही ठीक होता है। साथ ही उस आवश्यकता को भी ठीक से ठोक-बजाकर परख लेना चाहिए कि वह वास्तविक है अथवा मिथ्या, जिसके दबाव से आप कोई चीज खरीदने जा रहे हैं।

मनुष्य की बहुत-सी आवश्यकतायें बनावटी होती हैं। जीवन में उनकी कोई भी वास्तविक उपयोगिता नहीं होती। तब भी वे पूरा किये जाने के लिये दबाव डालती अनुभव होती हैं। ऐसी गैर जरूरी ‘आवश्यकताओं’ में अधिकतर वे जरूरतें होती हैं जिनका सम्बन्ध फैशन, दिखावा अथवा साज शृंगार से हुआ करता है। इसके अतिरिक्त मनुष्य के व्यसन तो शत-प्रतिशत कृत्रिम आवश्यकतायें ही हुआ करती हैं।

कपड़ों बालों तथा शरीर के ऊपरी बनाव शृंगार की आवश्यकतायें शुद्ध रूप से कृत्रिम आवश्यकतायें हैं। तरह-तरह के काट-छाँट वाले कपड़े पहनने, भाँति-भाँति से बालों को बाँका बनाने, सुगन्धित तेल फुलेल, स्नो, क्रीम, पाउडर के प्रयोग का शौक मनुष्य की वास्तविक आवश्यकता नहीं है। बिना उपयोग के घड़ी, फाउन्टेन पेन आदि रखना, चैन, जंजीर, अँगूठी आदि अलंकार पहनना अथवा अन्य प्रकार के साज शृंगार बनाने वाली चीजों का इस्तेमाल एक दिखावा-भर है इससे मनुष्य की वास्तविक आवश्यकता का कोई सम्बन्ध नहीं है।

चाय, काफी, सोड़ा, लैमन, बर्फ, चाट, मिठाई, पाक, पकवान, अचार, मुरब्बे, लाइमजूस, चाकलेट, बिस्कुट आदि खाने-पीने की चीजें मनुष्य की वास्तविक आवश्यकताओं के दायरे में नहीं आतीं। यह सब चीजें मनुष्य की स्वाद, लिप्सा की पैदा की हुई जरूरतें हैं।

पान, तम्बाकू, सिगरेट, बीड़ी, शराब, भाँग, अफीम, गाँजा आदि नशे की वस्तुयें तो स्पष्ट रूप से दुर्व्यसन ही हैं, मनुष्य की वास्तविक आवश्यकता से इनका दूर का भी सम्बन्ध नहीं है।

इसी प्रकार खेल-तमाशे, नाच-गाने, नाटक-सिनेमा आदि के मनोरंजन भी मनुष्य की चंचल वृत्ति के सेवक हैं, वास्तविक आवश्यकतायें इनसे बहुत दूर की चीज हैं। गपशप, मटरगश्ती, प्रीतिभोज, होटल, रेस्टोरेन्ट, आदि सामाजिकतायें मनुष्य की वास्तविक आवश्यकतायें नहीं मानी जा सकतीं।

मनुष्य की वास्तविक आवश्यकतायें वही हैं जो उसके सामान्य जीवन के लिए अनिवार्य हों। जिसको पूरा किये बिना काम ही न चल सके। इन अनिवार्य आवश्यकताओं में भोजन, वस्त्र, तथा निवास की आवश्यकतायें ही प्रमुख हैं। यदि मनुष्य भोजन न करे तो उनका जीवन चलना कठिन हो जायेगा। बिन वस्त्र पहने न तो उसका गुजारा हो सकता है और न वह समाज में नंगा ही रह सकता है। तन ढकने और जलवायु के प्रभाव से उसकी रक्षा करने के लिए मनुष्य के लिये वस्त्रों की अनिवार्य आवश्यकता है। बिना घर के अथवा निवास स्थान के कोई किस प्रकार रह सकता है। यदि घर न हो तो कहाँ तो मनुष्य अपने बीबी-बच्चों को रक्खे, कहाँ खाना बने, कहाँ गृहस्थी का सामान रक्खा जाये और कहाँ रात में सोया जाये? बिना घर-मकान अथवा आश्रय स्थान के कैसे वह जल, वायु, धूप, जाड़े आदि से अपनी तथा अपने परिवार की रक्षा कर सकता है? इस प्रकार मनुष्य की अनिवार्य आवश्यकताओं में इन तीन चीजों का मुख्यतम स्थान है।

इन अनिवार्य आवश्यकताओं की पूरक कुछ अन्य आवश्यकतायें भी ऐसी हैं जिनको अनिवार्य आवश्यकताओं की श्रेणी में ही रखना होगा। जैसे शिक्षा-दीक्षा, दक्षता, शिल्प, स्वास्थ्य, स्वच्छता, सफाई आदि। इन पूरक आवश्यकताओं को यदि पूरा न किया जायेगा तो मनुष्य का जीवन मनुष्य के अनुरूप न होगा। जीवन की मूल तीन आवश्यकताओं भोजन, वस्त्र, एवं निवास, तक ही सीमित रहने से मनुष्य जीवन भी पशुओं जैसा बन जायेगा। पशुओं की तरह भोजन कर लेना और किसी विवर में पड़े रहने भर से मनुष्य का काम नहीं चल सकता उसे मनुष्य के अनुरूप जीवन जीने के लिए उक्त पूरक आवश्यकताओं को भी अनिवार्य आवश्यकताओं की तरह ही बरतना होगा।

इनके अतिरिक्त मनुष्य की कुछ आकस्मिक आवश्यकतायें भी होती हैं। दवा-दारु, अतिथि-सत्कार, जन्म-मरण, ब्याह-शादी आदि आवश्यकतायें ऐसी ही अनिवार्य आवश्यकतायें हैं अपने-अपने अवसर पर जिनको अनिवार्य ही माना जायेगा और जिनको पूरा किये बिना मनुष्य का काम नहीं चल सकता।

फैशन, प्रदर्शन तथा स्वादवाद की कृत्रिम आवश्यकतायें ही मनुष्य की मूल आवश्यकताओं को महँगा बना देती हैं तिस पर दुर्व्यसन तो दैत्य की तरह, क्या मूल, क्या अवास्तविक, क्या पूरक और क्या आकस्मिक सभी आवश्यकताओं का भाग हड़प कर जाता है।

वही मितव्ययी है वही अर्थज्ञानी और वही बुद्धिमान है जो अपनी कमाई को अधिकारिणी आवश्यकताओं के बीच निष्पक्ष रूप से बाँटकर जीवनयापन करता है। ऐसे विज्ञानी पुरुष को न तो कभी कोई कमी सताती है और न उसे कभी असंतोष होता है। वह आजीवन एक संतुलित स्थिति में वास करता हुआ, सम्पन्न, प्रसन्न तथा संतुष्ट रहा करता है।


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