“ब्राह्मणः आविर्भवन्ति गुह्य न केचित्”

June 1966

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एक बार राजा पुष्यजित महर्षि अंगिरा के पास गये और उनसे अपने राज्य में फैल रही अशान्ति के निवारण का उपाय पूछा। राज्य की सही स्थिति समझने के बाद महर्षि ने पुष्यजित को बताया राजन्! तुम्हारे राज्य में ब्राह्मणों का अभाव है इसीलिए सर्वत्र अशान्ति है। जिस राज्य में ब्रह्मणो का आविर्भाव नहीं होता वह राष्ट्र पतित हो जाता है। तुम अपने यहाँ फिर से ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा करोगे तो तुम्हारे राज्य में फिर से सुख-समृद्धि का अभिवर्द्धन होगा, वर्तमान कलह दूर होगा और सामाजिक जीवन में शान्ति की स्थापना हो सकेगी।

महर्षि अंगिरा की वह वाणी आज हमारे समाज के लिये भी अक्षरशः आवश्यक प्रतीत हो रही है। सामाजिक-सुव्यवस्था का सम्पूर्ण भार प्रशासन पर लाद कर उसके सबल होने की कभी भी कल्पना नहीं की जा सकती। उसके लिये तो सुयोग्य, तेजस्वी और ब्रह्मनिष्ठ लोकसेवी मार्गदर्शकों की ही आवश्यकता होगी। जो निष्काम सेवाभाव से राष्ट्र के स्वाभिमान को ऊँचा उठाये रख सकने के कठोर कर्त्तव्य का पालन कर सकते हों, समाज के प्रति न्याय और सुव्यवस्था की आशा उन्हीं से की जा सकती है। पदलोलुप, स्वार्थी, महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति उन्हें चाहे कितने ही बड़े अधिकार क्यों न मिले हों वे सभी स्थायी शान्ति और सामाजिक व्यवस्था को मजबूत नहीं रख सकते।

प्राचीनकाल से ही इस देश में यह महत्वपूर्ण पद ब्राह्मणों और पुरोहितों को मिला हुआ है। हिन्दू ग्रन्थों में इस सम्बन्ध में महत्वपूर्ण सूक्त उपलब्ध हैं, जिनसे यह पता चलता है कि ब्राह्मणों ने उस समय की सामाजिक व्यवस्था को मजबूत बनाने का कितना कठोर व्रत धारण किया था। उन्हें कितनी सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त थी और उसे स्थिर रखने के लिए उन्हें कितनी कठिन कर्त्तव्य-साधना करनी पड़ती थी। ऋग्वेद में कहा है- “आपव्रिता विसृजन्तो अधिक्षमि” अर्थात् वे प्रत्यक्ष देवता हैं, जो धर्म-प्रेरणा को सजीव रखने के लिये मर मिटते हैं।

“परातत सिच्यते राष्ट्रं ब्रह्मणे पत्र जीयते”—

जहाँ ब्राह्मण हारते हैं वह देश खोखला हो जाता है।

“न ब्राह्मणस्य गाँ जग्ध्वा राष्ट्रं जागार कश्चना।”

जहाँ ब्राह्मण का तिरस्कार होता है वहाँ से सुख शान्ति चली जाती है।

“अग्निऋषिः पावमानः पाञ्चजन्य पुरोहितः”—

पुरोहित की पवित्र जिम्मेदारी केवल वे लोग उठावें जिनमें आवश्यक गुण हों।

“तमेव ऋषिं तमु ब्रह्मणमाहुर्यज्ञन्य सामगा”—

जो अपने ज्ञान से दूसरों को सन्मार्ग पर लगाता है वही ऋषि, वही ब्राह्मण है।

“प्रियं अतिथिं गृणीर्षाण”

—हे आदरणीय ब्राह्मणों घूम-घूम कर धर्मोपदेश करो—और

“देव उन्नयथा पुनः”

—गिरे हुओं को फिर से ऊपर उठाओ।

इस प्रकार के अभिवचन शास्त्र में पग-पग पर उपलब्ध हैं, जिनमें ब्राह्मण के कर्त्तव्य, गौरव, महत्व एवं सम्मान का निर्देश दिया गया है। इनमें ब्राह्मण के गुण कर्म तथा स्वभाव का भी समुचित निर्देश किया गया है, इन गुणों के कारण ही उनको भूसुर कहलाने का गौरव मिला था और समाज शरीर का उन्हें शीर्ष सम्बोधित किया गया था।

ब्राह्मण का प्रमुख कर्त्तव्य यह है कि वह राष्ट्र के चरित्र और मनोबल को न गिरने दे। यह कार्य वह धर्मोपदेश द्वारा करता है पर समाज की विषैली परिस्थितियों में वह अपनी वाणी का प्रभाव तभी डाल सकता है जब उसने स्वयं भी ज्ञान, संयम, चरित्र की साधना की हो और सन्मार्ग पर चलने की उसकी अपनी भावना इतनी मजबूत हो जो कैसी भी विकट परिस्थिति आने पर भी झुक न सके। ब्राह्मण मर जाते हैं पर अपने आदर्शों से नहीं गिरते। जीवन भर कठिनाइयों से लड़ते रहते हैं पर समाज के प्रति सेवाओं का कोई लौकिक मूल्य माँगने वाला जल्द उनकी जबान पर नहीं आता।

ब्राह्मण ब्रह्मनिष्ठा का “पर्यायवाची” शब्द है। जिसने केवल परमात्मा का आश्रय ग्रहण कर लिया हो उसके लिए लौकिक सुखों की आवश्यकता भी क्या और क्यों वह इनके लिये औरों के आगे हाथ बढ़ायेगा। ब्राह्मण अध्यात्म शक्ति से ओत-प्रोत ज्ञानी और तेजस्वी ही नहीं होते वे त्यागी, तपस्वी और परमार्थी भी होते हैं इसीलिए वे भूसुर कहलाते हैं। इतने बड़े व्यक्तित्व को इससे छोटा पद और हो भी क्या सकता है।

धर्म और अध्यात्म, नीति और दर्शन—यह समाज को व्यवस्थित रखने वाले स्थायी अंग है। लोगों को पथ भ्रष्ट होने से बचाने का एकमात्र साधन “धर्म” ही है। राजनैतिक नेता केवल सामयिक समस्याओं तथा भौतिक असुविधाओं को ही हल कर सकते हैं। समाज के आन्तरिक जीवन में प्रवेश कर उसकी उत्कृष्टता को जागृत करने का उत्तरदायित्व कोई देव-शक्ति ही वहन कर सकती है। ब्राह्मण वही देव पुरुष हैं जो इस कार्य को भली प्रकार पूरा कर सकते हैं।

पहली समस्या यह है कि आज कल ऐसे सेवानिष्ठ ब्राह्मणों की भारी कमी है। जहाँ कुछ लोगों को अपने इस कर्तव्य धर्म में रुचि है भी उन्हें व्यावहारिक मार्गदर्शन नहीं मिलता। एक ओर ब्राह्मणों का अभाव दूसरी ओर उनका तिरस्कार इन दोनों ने परिस्थितियों को बिगाड़ा है।

अपने पद के अनुरूप ब्राह्मण का कर्त्तव्य कठिन और महान है। इस महानता को विकसित करने का पहला उत्तरदायित्व भी ब्राह्मणों पर ही आता है। वे अपने चरित्र और व्यक्तित्व को ऊँचा उठाने के लिए अपनी वासनाओं-तृष्णाओं को परास्त करने के लिए कटिबद्ध हो जायें तो सामाजिक जीवन में ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा पुनः अपने पूर्वस्वरूप को ग्रहण कर सकती है। माना इस युग में आसुरी तत्वों की प्रबलता है तो भी भारत की आत्मा में धार्मिक संस्कारों के बीज अभी पूर्ण सुरक्षित हैं, भारतीय जनता इतनी कृतघ्न नहीं है जो अपने पुरोहितों का सम्मान न कर सके और उनके उपदेशों पर चलने के लिए राजी न हो। उसे जहाँ भी विश्वास मिलता है, वह सहर्ष अपनी मनोवृत्तियों को उधर इस आशा से मोड़ने के लिये तैयार हो जाती है कि इससे उसके पारलौकिक जीवन की सफलता सम्भव हो सके? जनता ठगी गई है इसलिए यदि वह अविश्वास रखती है तो उसका भी दोष नहीं अतः अब ब्राह्मणों को ही अपने आपको इस योग्य बनाना चाहिये कि समाज उन पर विश्वास कर सके। कठिन कसौटी पर भी वे खरे उतर सकें तो समाज उनकी अगवानी के लिये आज भी उसी भावना से तत्पर मिलेगा।

ब्राह्मणों को दोष यह रहा कि उन्होंने भाग्यवाद भविष्यवाद, चमत्कारवाद, टोना-टोटका भूत-प्रेत, झाड़-फूंक जैसी अविवेकपूर्ण भ्रान्तियों का समर्थन तथा प्रसार किया और जनता का कसूर यह रहा कि उसने इन्हें ही “बाबा वाक्य प्रमाणम्” मानकर स्वीकार कर लिया।

मानसिक दासता और संकीर्णता के बीज अवसर पाकर अन्य क्षेत्रों में पनपे और उनने हमारे राष्ट्रीय एवं सामाजिक जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया। थोथी परम्परायें जनता में फूट के बीज बोने का कारण बनीं। समाज भी विभिन्न मत-मतान्तरों से भर गया। पूर्व-पश्चिम, उत्तरी-दक्षिणी, प्रान्तवाद, जातिवाद, धर्मवाद, मतवाद आदि के वाद-विवाद इस सीमा तक बढ़े कि हिन्दू जाति का सम्पूर्ण संगठन विश्रृंखलित हो गया और इसका लाभ उठाकर विदेशी शासकों ने हमें दास बना लिया।

सौभाग्य से हमें राजनैतिक पराधीनता से छुटकारा मिल गया है। राष्ट्र पुनः अँगड़ाई लेकर उठ खड़ा होने की चेष्टा कर रहा है पर यहीं पर हमें यह भी समझ लेना चाहिये कि राष्ट्र की सर्वांगीण प्रगति और अपनी महान आध्यात्मिक विरासत को जीवित रखने के लिये ब्रह्म परम्परा को नष्ट नहीं होने देना चाहिये। समाज-शरीर का शीर्ष ब्राह्मण ही विश्रृंखलित हो गया तो भौतिक उन्नति कर लेने पर हमारी दशा भी पाश्चात्य देशों जैसी अशान्तिमय बन जावेगी। भौतिक प्रगति और आध्यात्मिक तत्वों में पारस्परिक तालमेल रखकर ही हम अपने पूर्व गौरव को प्राप्त कर सकते हैं। इस कार्य का शुभारम्भ आज अपने समाज के शीर्ष भाग—ब्राह्मण को जगाकर ही करना चाहिये। उन्हें आगे बढ़कर अपने कर्त्तव्यों का पालन करना चाहिये ताकि हमारा देश पुनः ऊपर उठ सके। अपने जातीय अस्तित्व को बनाये रख सके।


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