ब्रह्म-विद्या की उपलब्धि एवं प्रकाशपूर्ण तपश्चर्या का स्वर्ण संयोग
गत अंक में अखण्ड-ज्योति परिवार के उन वयोवृद्धों से जो परिवार के उपार्जन, उत्तरदायित्व से निवृत्त हो चुके हैं- यह अनुरोध किया गया था कि वे अपनी ढलती आयु का श्रेष्ठतम सदुपयोग करने के लिए अपनी भावना तथा प्रवृत्ति को मोड़ें। यह उनके ज्ञान, अनुभव और दूरदर्शिता की कसौटी है। बुद्धिमान उसे कहते हैं जो भविष्य की तैयारी में संलग्न है। जिसे भविष्य की चिन्ता नहीं, जो अगले दिनों की उज्ज्वल संभावना का निर्माण करने में आवश्यक अभिरुचि नहीं दिखाता उसे बालक ही कहना चाहिए भले ही उसके बाल सफेद हो गये हों।
दाँत तो छोटे बच्चों के भी उखड़ जाते हैं। बाल तो गधे के भी सफेद होते हैं। जिसके बाल सफेद हो गये या दाँत उखड़ गये वह वयोवृद्ध नहीं, यदि उसमें दूरदर्शिता नहीं, भविष्य चिन्तन की क्षमता नहीं तो उसे ‘ढलती उम्र का बालक’ ही कहना चाहिए। छोटे बच्चे तो इसलिए क्षम्य माने जाते हैं कि वे भविष्य को दूर तक देख सकने योग्य बौद्धिक विकास से वंचित रहते हैं। अस्त-व्यस्त तरीके से अपना बचपन गँवाकर जवानी को अन्धकारमय बना लेते हैं तो कम-से-कम इतना कहकर चित्त हलका किया जाता है कि लड़कपन में इतनी अकल न थी जो आगे की बात सोचकर उस समय का ठीक तरह सदुपयोग कर पाते। पर बूढ़ों को तो यह कहने का भी अवसर नहीं कि—”हम में इतनी समझ न थी कि भविष्य का स्वरूप समझ पाते या उसे उज्ज्वल बनाने के लिए कुछ कर पाते।” उनने जो सुना समझा, सीखा और जाना है उसके आधार पर इतना तो विवेक होना ही चाहिए कि अब हमारे जीवन अध्याय के अन्तिम पृष्ठ पूरे होने जा रहे हैं। बाल-क्रीड़ा को छोड़ें और वह करें जिससे इस सुरदुर्लभ मानव शरीर की सार्थकता का लाभ मिले और मरणोत्तर जीवन की उज्ज्वल संभावनाएं विकसित हों।
हमारे गत अंक में व्यक्त किये अनुरोध के पीछे एक ही पुकार एवं प्रेरणा थी कि वृद्धावस्था अस्त-व्यस्त तरीके से नहीं जीनी चाहिए। कम-से-कम अपने परिवार के उन लोगों को तो-जिन्होंने देर से अखण्ड-ज्योति पढ़ी है-कुछ अधिक साहस का परिचय--कुछ अधिक विवेक का परिचय देना ही चाहिए। ज्ञान की वास्तविकता कार्य की कसौटी पर परखी जाती है। जो पढ़ते, सुनते, सोचते समझते तो बहुत हैं पर उसे करने की हिम्मत नहीं दिखा पाते उनका नपुँसक ज्ञान एक प्रकार से भार रूप ही कहा जायगा। यदि कोई सच्चा ज्ञानवान है तो उसे आदर्शवादिता के अनुरूप कुछ करने के लिए क्रियावान भी होना चाहिए। अपने परिवार के ढलती आयु वालों को अपनी बुद्धिमत्ता एवं दूरदर्शिता का परिचय उत्कृष्टतावादी क्रियाशीलता अपनाकर ही देना चाहिए।
साँसारिक दृष्टि से व्यक्तिगत जीवन उनका सफल होता है जो अपने बचपन का ठीक उपयोग कर लेते हैं। जिन्होंने वह समय आवारागर्दी में गुजारा—कुसंस्कार, दुर्गुण, व्यसन अपना लिए, गुण कर्म स्वभाव को कुमार्गगामिता के ढाँचे में ढाल लिया, न विद्या पढ़ी, न स्वास्थ्य बनाया, न सुसंस्कृत बने, उन्हें लौकिक जीवन निकृष्ट स्तर का ही जीना पड़ेगा। बचपन यों ही खोखला बना दिया गया तो शरीर आजीवन रुग्णता और दुर्बलता का शिकार रहेगा। शिक्षा से वंचित रहने के कारण न तो सभ्य समाज में आदर मिलेगा और न वह आजीविका ही मिलेगी जो उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों को मिला करती है। यश, सम्मान, धन, वैभव आदि संसार की जो भी विभूतियाँ हैं उनसे उन्हें वंचित ही रहना पड़ता है। बचपन लौकिक जीवन की आधार शिला है। नींव ही धसक गई तो उस पर खड़ा मकान किस योग्य रहेगा?
किसी राष्ट्र का सामाजिक जीवन—उसके वयोवृद्धों की विचारधारा एवं क्रिया पद्धति पर निर्भर रहता है। समाज का स्तर ऊँचा उठाने की—लोक नेतृत्व करने की—जन मानस को प्रबुद्ध एवं समृद्ध बनाये रहने की जिम्मेदारी सदा से वयोवृद्धों के कंधों पर रही है। आयु की अधिकता किसी व्यक्ति की प्रामाणिकता, अनुभवशीलता, एवं विश्वसनीयता प्रकट करती है। छोटी आयु वालों की अपेक्षा बड़ी आयु वालों का जन-मानस पर निश्चित रूप से अधिक प्रभाव पड़ता है। वे जो सोचते और कहते हैं उसमें अधिक मजबूती भी रहती है। लोभ और स्वार्थ भी जवानी ढलने के साथ ढल गया होगा ऐसी आशा की जाती है। इसलिए वे समाज का हित अधिक ईमानदारी से कर सकते हैं यह भी माना जाता है। फिर उनके पास पारिवारिक उत्तरदायित्व हलके हो जाने के कारण समय भी रहता है। जिसका वे अवैतनिक रूप से लोक मंगल में उपयोग करें तो बिना किसी अर्थ प्रबन्ध के, वेतन आदि की व्यवस्था के, भी बहुत कुछ काम सहज ही हो सकता है। इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखते हुए मनीषियों ने ढलती आयु के लोगों को वानप्रस्थ लेकर आत्म-कल्याण की—लोक मंगल की- साधना में संलग्न होने का निर्देश किया है। हिन्दू धर्म—वर्णाश्रम धर्म के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें चार आश्रमों की जो अत्यन्त महत्वपूर्ण व्यवस्था थी उसी के कारण हमारा देश, हमारा समाज चिरकाल तक उन्नति के उच्च शिखर पर खड़ा रहा। अब जब कि आश्रम धर्म की मर्यादाएं टूट गई तो राष्ट्र की महानता का महल भी ध्वस्त होकर चूर-चूर हो गया। लड़कों ने शरीर, मस्तिष्क और आत्मा को विकसित करने वाली ब्रह्मचर्य साधना को छोड़ा तो व्यक्तिगत प्रगति के नाम पर अन्धकार ही अन्धकार दीख रहा है। लोग भले ही अमीर या डिग्री धारी बने पड़े हों पर उनमें महापुरुषों जैसे एक भी चिन्ह दृष्टिगोचर नहीं होते। रईसों के कुत्ते भी मोटरों में बैठकर घूमते दूध, जलेबी खाते और रेशमी झूल ओढ़ते हैं। इन सुविधाओं से क्या वे कुत्ते कोई सम्माननीय महापुरुष बन जायेंगे? बचपन में महानता के बीज नहीं बोये गये तो शेष जीवन में महानता के अंकुर फूटेंगे कैसे? उस स्तर के फल-फूल लगेंगे कैसे?
ठीक यही बात सामाजिक जीवन के बारे में लागू होती है। जिस समाज के बूढ़े मोह ग्रसित, आलसी, स्वार्थी और संकीर्णतावादी होंगे। इन्द्रियों की गुलामी और तृष्णा लोलुपता मरते दम तक न छोड़ेंगे उस राष्ट्र या समाज का स्तर कभी भी उज्ज्वल न बन सकेगा। अवैतनिक, अनुभवी, ईमानदार, प्रभावशाली लोकसेवी यदि उत्पन्न ही न होंगे तो कोई देश या समाज आवश्यक प्रकाश ही कहाँ से प्राप्त करेगा? निर्माणात्मक सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन ही वहाँ कहाँ से होगा? स्वार्थी, संकीर्ण और आलसी बूढ़े, समाज के अभिशाप हैं। किसी देश के अधःपतन का उत्तरदायित्व यदि इस वर्ग के शिर रखा जाय तो इसमें तनिक भी अनुचित बात या अत्युक्ति न होगी।
वानप्रस्थ की साधना, व्यक्ति और राष्ट्र दोनों के कल्याण की अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं आवश्यक परिपाटी है। जो स्थान व्यक्तिगत जीवन में बालक को सुसंस्कृत रुप से बिताकर भौतिक प्रगति प्राप्त करने का है, ठीक वही सामाजिक एवं आध्यात्मिक जीवन में ढलती आयु के सदुपयोग का है। हमारा व्यापक प्रयत्न यह होना चाहिए कि ढलती आयु के लोग वासना और तृष्णा की कीचड़ में से निकल कर शानदार जिन्दगी जियें। वानप्रस्थ की परम्परा को अपनायें। आत्म-निर्माण और समाज निर्माण की उभयपक्षीय गतिविधियाँ अपनाकर मनुष्य जीवन की अपने विवेक की सार्थकता सिद्ध करें। मरणोत्तर जीवन, पुनर्जन्म का भविष्य तो इस प्रकार वे उज्ज्वल करेंगे ही साथ ही अपनी गतिविधियों के कारण वर्तमान में अपार आत्म-संतोष अनुभव करते हुए समाज के पुनरुत्थान का श्रेय भी प्राप्त करेंगे। अतएव हर ढलती आयु के व्यक्ति का कर्तव्य है कि यदि वह उपार्जन की जिम्मेदारी से निवृत्त हो चुका है तो पूरा समय और यदि निवृत्त नहीं हुआ हो तो जितना अधिक हो सके उतना समय उस परमार्थ प्रयोजनों में लगाने का व्रत लेकर अपनी वृद्धावस्था का सदुपयोग करना चाहिए। 50 वर्ष से अधिक आयु के हर व्यक्ति को इस सम्बन्ध में हजार बार अपने आप से प्रश्न पूछना चाहिए और यदि उत्कृष्टता की गतिविधियाँ अपनाने के लिए भीतर से कोई उत्साह उत्पन्न न हो रहा हो तो अपने आपको उसे हजार बार धिक्कारना चाहिए।
‘अखण्ड-ज्योति’ परिवार के हर ढलती आयु के परिजन को हमने गत अंक में पुकारा, ललकारा और धिक्कारा है। हम चाहते हैं कि उनके भीतर जो धर्म भावना के अंकुर विद्यमान हैं वे अब अंकुरित होकर बढ़ें और पत्र पल्लवों से लदे हुए, फल-फूलों से सजे हुए दिखाई पड़ें। इसके लिए आवश्यक मार्ग दर्शन—प्रकाश एवं प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए आवश्यक प्रबन्ध गायत्री-तपोभूमि में किया गया है। उसकी सूचना प्रस्तुत की जा चुकी है। ढलती आयु के व्यक्तियों को एक वर्ष तक शिक्षा प्राप्त करने के लिए —तपश्चर्या करने के लिए मथुरा आने का निमन्त्रण भेजा गया है। प्रातःकाल वेद और उपनिषद्—सायंकाल गीता और रामायण क्रमबद्ध रूप से पढ़ाने का पाठ्यक्रम बनाया गया है। संस्कृत न जानने वाले—साधारण हिन्दी का ज्ञान रखने वाले भी ब्रह्म-विद्या का यह अमृत भली प्रकार पान कर सकेंगे ऐसा हमें विश्वास है। छोटे बालक के मुँह में माता सभी आवश्यक पौष्टिक तत्वों से भरा-पूरा दूध निचोड़ देती है और उसके शारीरिक विकास का प्रबन्ध कर देती है उसी तरह हम स्वयं यह ब्रह्म-विद्या का प्रशिक्षण देने चले हैं तो आशा यही की जानी चाहिए कि हर शिक्षार्थी ब्रह्म-विद्या का अमृत पान ठीक तरह कर सकेगा, भले ही वह संस्कृत भाषा न भी जानता हो।
एक वर्ष में सहस्राँशु गायत्री महापुरश्चरण की तपश्चर्या, इसी वर्ष में एक चान्द्रायण व्रत का महाप्रायश्चित्य साधन भी कराया जायगा। गायत्री तपोभूमि जैसे चैतन्य तीर्थ में रहकर ऐसी साधना करने का अवसर जिन्हें मिलेगा वे अपना आत्मिक बल आशातीत मात्रा में बढ़ा सकेंगे यह निश्चय है। धर्म-मंच के माध्यम से वे लोक-मंगल का—जन-जागरण का—नैतिक और साँस्कृतिक पुनरुत्थान का महान परमार्थ किस प्रकार कर सकेंगे इसका प्रशिक्षण भी इसी वर्ष में हो जायगा। प्राकृतिक चिकित्सा का सामान्य ज्ञान, आसन, प्राणायाम, सूर्य-नमस्कार एवं योग-साधन की वे शिक्षाएं भी मिल जायेंगी जो इन दिनों के अस्त-व्यस्त शरीरों द्वारा आसानी से पूरी की जा सकती हैं। ऐसे आयोजन का लाभ हर ढलती आयु के व्यक्ति को उठाना ही चाहिए। बहुत दिन से ऐसी शिक्षा व्यवस्था करने की बात हम सोच रहे थे। पर अब उसके लिए आवश्यक स्थान आदि का प्रबन्ध हो सका है तो लोगों को विधिवत् आमंत्रित किया जा रहा है। जो चाहें वे अकेले या धर्मपत्नी समेत यह प्रशिक्षण एवं तप सम्पन्न कर सकते हैं। जिन्हें आगे भी यहाँ रहना हो वे रह सकते हैं, जो जाना चाहें वे एक वर्ष बाद जा सकते हैं। और जो सीखा है उसे अपने घर रहकर जारी रख सकते हैं। यह सब अपनी सुविधा पर निर्भर है। निवास रोशनी, सफाई, उद्यान, पुस्तकालय, चिकित्सा, प्रशिक्षण आदि के सभी साधन यहाँ मौजूद हैं, पर भोजन व्यय सभी को स्वयं वहन करना पड़ेगा। भिक्षा का कुधान्य उनकी साधना में बाधक ही बनेगा, इसलिए हर वानप्रस्थ को एक वर्ष के लिए भोजन वस्त्र का प्रबन्ध घर से ही करके लाना चाहिए। दो-दो, तीन-तीन व्यक्ति मिलकर भोजन बना लिया करेंगे तो इसमें समय और पैसे की और भी अधिक किफायत रहेगी, जिनको भोजन बनाना नहीं आता है, उनमें एक बड़ी कमी है। जो खाना जानता है उसे बनाना भी जानना चाहिए। जिन्हें न आता होगा उन्हें हम ब्रह्म-विद्या की तरह यह भी सिखा देंगे। जो पूरी तरह घर से निवृत्त नहीं हुए हैं पर एक वर्ष का समय किसी प्रकार निकाल सकते हैं, वे भी इस शिक्षा साधना का लाभ प्रसन्नतापूर्वक उठा सकते हैं।
वयोवृद्धों से उपरोक्त अनुरोध गत अंक में किया गया था। इस अंक में तो उसका पुनः स्मरण कराया गया है ताकि जो लोग पिछले अंक की बात ध्यानपूर्वक न पढ़ सके हों वे पुनः उसे समझें और उस दिशा में आवश्यक प्रयत्न करें। इस अंक में हमें विशेष अनुरोध उन लोगों से करना है जिनके घर में इस तरह के वयोवृद्ध व्यक्ति हैं पर वे किसी विवशता से इस अवसर का लाभ उठा सकने से वंचित हैं, विवशता से वे अपनी इच्छा को पूरी नहीं कर पाते, हमारी इच्छा है कि घर के लोग ऐसों वयोवृद्धों को आवश्यक साधना सुविधा उपलब्ध कराने में सहायता करें।
खाते पहनते तो वे घर पर भी हैं लगभग उतना ही खर्च मथुरा रहने में भी पड़ता है। थोड़ा ज्यादा भी हो तो उसे वहन करना चाहिए। उसी प्रकार वे यदि घर के काम-काज में कुछ सहायता करते हों तो उतना श्रम स्वयं अधिक कर लें और उन्हें छुट्टी दे दें। बालकपन में जिन अभिभावकों की सहायता एवं उदारता का लाभ बच्चों को मिलता है, उस ऋण से उऋण होने के लिए वैसी ही सुविधा बड़े होने पर अपने वयोवृद्धों को देनी चाहिए। उससे पितृ ऋण चुकता है। सच्च् श्राद्ध और तर्पण यही है। मरने के बाद जो मृतक-भोज करना हो वह धन उनके आत्म-कल्याण के साधन जुटाने में खर्च कर देना चाहिए। जो गृहस्थ पारिवारिक व्यस्तताओं के कारण स्वयं कुछ अधिक समाज की, धर्म की सेवा नहीं कर सकते वे अपने वयोवृद्धों को वैसी सुविधा देकर उस कमी की पूर्ति कर सकते हैं।
बड़े बूढ़ों को तीर्थ-यात्रा का पुण्य लाभ लेने की इच्छा अक्सर रहती है। प्राचीन काल में तीर्थों का वही वातावरण था वही प्रशिक्षण था जैसा कि हम अब गायत्री-तपोभूमि का बना रहे हैं। इसलिए वहाँ जो प्रकाश प्राप्त होता था, उससे आत्म-कल्याण का पुण्य भी मिलता था। पर आज तो परिस्थितियाँ बिलकुल विपरीत हैं। किन्हीं प्रतिमाओं का दर्शन, नदी तालाबों का स्नान, भीड़भाड़ की धक्का-मुक्की, कुपात्रों द्वारा दान के नाम पर धन का अपहरण—बस इतना प्रपंच ही तीर्थ-यात्रा का स्वरूप रह गया है। प्राण निकल गये, कलेवर खड़े हैं। ऐसी तीर्थ-यात्रा किसी को कोई पुण्य फल देगी यह संदिग्ध है। पर मथुरा जैसे पवित्र तीर्थ में रहकर तपश्चर्या एवं ब्रह्मज्ञान की साधना करने से तीर्थयात्रा का सच्चा पुण्य मिल जाना असंदिग्ध है। जो स्वयं तीर्थ करने के इच्छुक हैं या जिनके बच्चे अपने बड़े-बूढ़ों को तीर्थ-यात्रा के साधन उपलब्ध कराना चाहते हैं। अच्छा हो वे इस एक वर्षीय तीर्थ साधना का लाभ उठावें।
कई घरों में आर्थिक कठिनाई या काम धाम की जिम्मेदारी तो नहीं होती, पर बूढ़े होते ही ऐसे स्वार्थी, मोहग्रस्त तथा आलसी हैं जो नाली की कीचड़ में सड़ते हुए ही मरना चाहते हैं। स्वयं भी परेशान रहते हैं और घर वालों को परेशान करते हैं। मरने और घर से निकलने की धमकी तो कभी-कभी दिखाते हैं, जब-तब रूठते, मटकते और असंतुष्ट रहकर तकदीर भी ठोकते हैं, पर जीवन की सार्थकता का अवसर सामने आने पर भी उस ओर अभिमुख नहीं होते। ऐसे बूढ़ों को ठीक वैसा ही बालक समझना चाहिए जो पढ़ने जाने से कतराया और बहाने बनाया करते हैं। जैसे—इस तरह के घर घुस’ लड़कों को स्कूल पढ़ने के लिए घर के सभी लोग उनके साथ सख्ती से पेश आते हैं, अनुचित न होगा कि इन मोहग्रस्त बूढ़ों को भी उन्हीं के कल्याण के लिए शिष्टाचारपूर्वक कहा-सुनी की जाय, समझाया-बुझाया जाय, धकेला जाय और उन्हें अपना भविष्य उज्ज्वल बनाने के लाभ से लाभान्वित होने दिया जाय।
25 मई से 13 जून तक का 20 दिवसीय शिविर समाप्त होते ही यह प्रशिक्षण आरंभ हो जायगा पर, इसका विधिवत् उद्घाटन ‘गुरुपूर्णिमा (ता. 2 जुलाई) को होगा। इसलिये जिन्हें आना हो वे इस संबंध में आवश्यक पत्र-व्यवहार करके उपरोक्त अवधि से पूर्व ही स्वीकृति प्राप्त कर लें। स्वीकृति पाये बिना किसी को भी नहीं आना चाहिए।