महान धर्म प्रचारक कुमारजीव

June 1966

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देश से विदेश जा कर जिन विद्वानों ने भारतीय धर्म, सभ्यता एवं संस्कृति का प्रचार ही नहीं किया बल्कि स्थापना की, उनमें कुमारजीव का नाम सबसे आगे है।

भारत के सम्बन्ध चीन से बहुत प्राचीन काल से चले आ रहे थे। यों तो लंका, बर्मा, जापान, सिंहापुर हिन्देशिया, मलाया आदि अनेक देशों में बौद्ध धर्म का प्रचार किया गया किन्तु चीन एक ऐसा देश रहा है जिसमें केवल अनुयायी के रूप में ही बौद्ध धर्म ग्रहण नहीं किया गया बल्कि उन दिनों वह एक प्रकार से बौद्ध धर्म का प्रामाणिक केन्द्र बन गया था।

इस प्रकार चीन में बौद्ध धर्म के जागरण पूर्ण आन्दोलन का प्रमुख श्रेय भारतीय विद्वानों को ही है और उनमें भी कुमारजीव का स्थान सर्वोपरि है।

कुमारजीव का जन्म ईसा की चौथी शताब्दी में हुआ था। इनके पिता का नाम कुमारायण और माता का नाम देवी था। कुमारायण एक रियासत के दीवान पद पर कार्य करते थे। दीवान पद पर कार्य करते हुये उन्होंने शीघ्र ही धन के साथ यश भी प्राप्त कर लिया। सब कुछ होने पर भी कुमारायण को अपने जीवन क्रम से सन्तोष न था। दीवान के पद पर वे अपनी योग्यता एवं विद्वता का समुचित उपयोग न कर पाते थे। वे अपने वैयक्तिक सुख की अपेक्षा दूसरों को सुखी बनाने में अधिक प्रसन्नता एवं सन्तोष अनुभव करते थे। पर दीवान के एक प्रतिबन्धित तथा उत्तरदायित्वपूर्ण पद पर रहते हुये वे जन सेवा का कोई काम न कर पाते थे। उन्हें अपने स्वामी राजा की इच्छानुसार जनता से व्यवहार करना पड़ता था जो कि प्रायः शोषण मूलक ही होता था।

कुमारजीव के विद्वान् पिता कुमारायण की आत्मा अधिक समय तक यह स्वीकार न कर सकी वे इसी प्रकार करते हुए दुर्लभ मानव जीवन को समाप्त कर दें। अतएव उन्होंने जन साधारण में ज्ञान का प्रकाश फैलाने के लिए अन्तःप्रेरणा से दीवानी का पद छोड़ दिया।

नौकरी छोड़कर कुमारायण यात्रा साधनों के अभाव का कष्ट सहते हुए भी अनेक पर्वत तथा वनों को पार करते हुए मध्य-एशिया में तारिम नदी के तट पर बसे, कूची नगर चले गये।

फैलाने को तो ज्ञान को आलोक अपने देश के भी अनेक विस्तृत कोनों में भी फैलाया जा सकता था किन्तु कुमारायण ने विदेश में ही अपना ज्ञान फैलाना इसलिए ठीक समझा कि उस समय भारत में विद्वानों की कमी नहीं थी। अनेक लोग देश की सेवा करने में लगे हुये थे। कुमारायण ने विदेश में भारत के सन्देश ले जाकर देश की अन्तर्राष्ट्रीय कीर्ति बढ़ाना अधिक श्रेयस्कर समझा।

कूची में कुमारायण एक बौद्ध बिहार में रह कर प्रचार करने लगे। धीरे-धीरे उनकी कीर्ति इतनी फैल गई कि कूची के राजा ने उन्हें अनुरोधपूर्वक अपना राजगुरु बना लिया। कुछ समय बाद कूची राजवंश की ‘देवी’ नामक एक कन्या से उनका विवाह हो गया, जिसके गर्भ से उनके विश्व विख्यात पुत्र कुमारजीव का जन्म हुआ।

कुमारजीव के जन्म के कुछ समय बाद ही उनके पिता की मृत्यु हो गई और पति का प्रचार कार्य पूरा करने के लिये कुमारजीव की माता बौद्ध भिक्षुणी बन गई।

परमात्मा जिसे जीवन में कोई विशेष अभ्युदय अनुग्रह कराना चाहता है, उसकी बहुत-सी सुविधाओं को समाप्त कर दिया करता है। इस प्रकार जीवन में कठिनाइयों के आने से मनुष्य में कर्मठता का गुण जाग उठता है, वह आलस्य एवं प्रमाद से दूर रह कर परिश्रम करता और भगवद् भय से अधिक से अधिक ईमानदार तथा सत्य परायण रहने का प्रयत्न करता है। असुविधाओं तथा कठिनाइयों में पड़ जाने से मनुष्य का सारा जीवन परिश्रम एवं पुरुषार्थ पर निर्भर हो जाता है, क्योंकि यदि वह ऐसा न करे तो जीवित नहीं रह सकता। अधिकाधिक परिश्रम का स्वभाव बन जाने से उसमें कर्मवीरता का वह गुण आ जाता है, उन्नति और सफलतायें जिसकी अनुगामिनी छाया में ही होती हैं।

इसके विपरीत जो अधिक सुविधा एवं सम्पन्नता की परिस्थिति में रहता है वह स्वभावतः सुकुमार तथा विलासी बन जाता है, प्रमाद और आलस्य उसके मानसिक मित्र बन जाते हैं, जिससे निकम्मा हो कर सामान्य कामों के योग्य भी नहीं रहता फिर ऊँचे और बड़े कामों की बात ही क्या?

इसके साथ ही जो व्यक्ति असुविधा एवं कठिनाई के स्वर्ण अवसर को भाग्य का अभिशाप मानकर रोते झींकते हुये निराशा अथवा निरुत्साह के वशीभूत हो जाते हैं उनका जीवन तो निकम्मे आलसियों से भी गया गुजरा हो जाता है और वह न केवल अपने पर ही बल्कि समाज पर एक भयानक भार बन कर जीवन काटते हैं। मनुष्यों को चाहिये कि वह कठिनाइयों को भगवान की कृपा और अभ्युदय का सन्देश समझ कर अपनाए और उनसे प्रेरणा लेकर जीवन को उन्नत एवं उदात्त बनाये।

बौद्ध भिक्षुणी हो जाने पर भी कुमारजीव को बुद्धिमती माता यह न भूली कि उनके सम्मुख कुमारजीव है, जिसे उनको हर प्रकार से योग्य बनाकर समाज एवं संसार की सेवा के लिए समर्पित कर देना है। निदान पुत्र की शिक्षा के लिये कुमारजीव की माता उन्हें कश्मीर ले गई। कश्मीर उस समय विद्या का बहुत बड़ा केन्द्र माना जाता था।

कश्मीर पहुँच कर ‘देवी’ ने अपने पुत्र कुमारजीव को बन्धुदत्त नामक एक बहुत बड़े कश्मीरी विद्वान की संरक्षता में विद्याध्ययन के लिये छोड़ दिया। बन्धुदत्त जितने बड़े विद्वान् थे, उतने ही शिष्य बनाने में कृपण थे। उन्होंने अपने जीवन में बहुत ही कम शिष्य बनाये और जिनको बनाया उनको फिर पराकाष्ठा का पण्डित ही बना दिया। इसलिये वे शिष्य बनने के इच्छुक व्यक्तियों की कड़ी परीक्षा लेकर पहले परख लिया करते थे कि इसमें बोये हुये विद्या के बीज अंकुरित भी होंगे अथवा नहीं! निरर्थक एवं लंठ शिष्यों के साथ सिर मारने के लिये फिजूल समय उनके पास न था।

निदान अपने नियमानुसार उन्होंने बालक कुमारजीव को भी नहीं छोड़ा और उसके चरित्र, गुण, कर्म, स्वभाव में जमे बीजाँकुरों को कड़ाई से जाँचा। जब बालक गुरु की कसौटी पर खरा उतरा तो उसकी शिक्षा दीक्षा में पूरी तत्परता दिखाने में कोई कसर न रखी।

कठोर गुरु जब सुयोग्यताओं से प्रसन्न होता है तब शिष्य को पढ़ाता क्या, वास्तव में ज्ञान लोक के रूप में स्वयं उसकी आत्मा में बैठ जाता है। पितृहीन बालक कुमारजीव के भाग्य खुल गये। कुछ ही समय में बन्धुदत्त ने उसको संस्कृत भाषा तथा बौद्ध दर्शन का प्रकाण्ड पण्डित बना किया।

कश्मीर से वापस जाकर कुमारजीव कश्मीर पहुँचे और बुद्धियश नामक एक विद्वान् के साथ मिलकर बौद्ध दर्शन को पुनः दोहराया और ज्ञान को पूर्ण रूपेण असंदिग्ध बनाकर अपने जन्म स्थान कूची चले आये! यद्यपि कश्मीर में ही कुमारजीव के पाँडित्य की ख्याति इतनी फैल गई थी कि तुर्किस्तान से आ आकर बहुत से लोग उनके शिष्य बनकर बौद्ध धर्म की दीक्षा लेने लगे थे। किन्तु वहाँ से चले आने में उनके दो उद्देश्य थे। एक तो यह कि कश्मीर में गुरु के सम्मुख अपनी प्रतिष्ठा नहीं कराना चाहते थे और दूसरे वे अनेक स्थानों पर भ्रमण करते हुए कूची जा कर अपने पिता का ध्येय पूरा करना चाहते थे।

किन्तु कूची में वे अपना उद्देश्य प्रारम्भ भी न कर पाये थे कि कूची नरेश और चीन सम्राट में लड़ाई हो गई जिसमें कूची का पतन हो गया। फलस्वरूप कूची का राज्य चीन साम्राज्य में मिला लिया गया। चीनी जिन बहुत से लोगों को बन्दी बना कर ले गये उनमें कुमारजीव भी थे। किन्तु उनके प्रकाँड पाँडित्य तथा चीन में फैली हुई उनकी कीर्ति ने उन्हें प्राण दण्ड से बचा लिया! किन्तु फिर भी उन्हें ‘लिहाँग चो’ प्रदेश में गवर्नर की देख रेख में अठारह वर्ष के लिए नजरबन्द कर दिया गया।

कुछ समय बाद जब उनकी लोकप्रियता के दबाव से उन पर प्रतिबन्ध उठा लिया गया तब उन्होंने अपना प्रचार कार्य प्रारम्भ कर दिया। कुमारजीव की नई व्याख्याओं और नए दृष्टिकोण से बौद्धधर्म में एक नवीनता आ गई। अभी तक बौद्धधर्म के जिन ग्रन्थों का अनुवाद चीनी भाषा में हुआ था वह न तो सरल था, न सुन्दर और समीचीन! निदान कुमारजीव ने अपने हाथ में बौद्ध ग्रन्थों का ठीक-ठीक अनुवाद करने का काम अपने हाथ में लिया! इसे पूरा करने के लिये उन्होंने चीनी भाषा का अध्ययन प्रारम्भ किया और शीघ्र ही उस पर अधिकार प्राप्त कर लिया।

उन्होंने महायान की उपशाखा “सर्वास्त्वाद” के लगभग सौ ग्रन्थ चीनी भाषा में अनुवादित किये, जिनमें से ‘विनय-पिटक’, ‘योगाचार भूमि शास्त्र’, ‘ब्रह्म जाल सूत्र’, ‘महाप्रज्ञा-पारिमिता-सूत्र’, ‘देश भूमि’, विभाषा शास्त्र’, ‘सूत्रालंकार शास्त्र’ विशेष महत्व के हैं। इसमें से ‘महाप्रज्ञा, पारिमिता’ सूत्र का अनुवाद तो उन्होंने तीन वर्ष के अविरत परिश्रम के साथ किया था। इसके अतिरिक्त उन्होंने चीन में प्रचलित धर्म ‘ताओ’ की बुद्ध दर्शन के आलोक में व्याख्या की।

इतना अनुवाद कार्य करने के साथ ही उन्होंने भाषणों, प्रवचनों तथा विचार विनिमय के द्वारा बौद्ध धर्म के महायान सम्प्रदाय का धुआँधार प्रचार किया। उनके भाषण इतने ज्ञानपूर्ण एवं प्रभावशाली होते थे कि अच्छे-अच्छे विद्वान् उन्हें नत-मस्तक हो जाया करते थे। कुमारजीव के अनेक शिष्य सहयोगी तथा सहायक विद्वानों में से विमलाक्ष तथा पुण्यत्रात के नाम बहुत प्रसिद्ध हैं। इन दोनों ने अनुवाद कार्य में कुमारजीव को बहुत सहयोग दिया था।

कुमारजीव ने चीन में भारतीय बौद्ध धर्म की शाखा महायान के सिद्धान्तों को प्रचार करने में अपना पूरा जीवन लगा दिया। जीवन में एक दिन के लिये भी बैठ कर उन्होंने अपनी व्यक्तिगत सुख सुविधाओं के विषय में नहीं सोचा। कूची की पराजय के समय गिरफ्तार होने पर उन्होंने न किसी प्रकार का भय माना और न शंका की। उन्हें अपनी उस विद्या पर अखण्ड विश्वास था जिसे कि उन्होंने जीवन के सारे सुख छोड़कर प्राप्त किया था। वे मानते थे कि उनकी विशाल विद्या, किसी भी दशा में मित्र की तरह उनकी सहायता करेगी और हुआ भी वही। बंदी की दशा में भी उनका ज्ञान-प्रकाश छिटक-छिटक कर बाहर फैलने लगा जिसने चीन के निवासियों को उस सीमा तक आकर्षित किया कि सरकार को उन पर लगे प्रतिबन्धों को ढीला करना पड़ा।

यदि कुमारजीव के पूरे जीवन पर दृष्टिपात किया जाये तो पता चलेगा कि उनका सम्पूर्ण जीवन काम का दूसरा नाम था। उनका कर्तव्य था तो अपना काम, उनका सुख था तो अपना कर्तव्य, उनका मनोरंजन था तो काम करते रहना और उनका धर्म था तो अपना कर्तव्य कर्म। वे यह भी न जानते थे कि बिना किसी काम के बेकार कैसे बैठा जाता है, यदि कुमारजीव जैसे कर्तव्यवानों के नाम के साथ क्रिया हीनता, आलस्य, प्रमाद, गपशप, हास-विलास, घूमना, फिरना और टल्लेनबीसी आदि शब्द एक पंक्ति में रक्खे जायें तो यह शब्द इतने विजातीय विदित होंगे कि बिना हटाये मन को चैन नहीं मिल सकता। यह निर्जीव शब्द उनके नामों के साथ स्वयं झेंपते से दीखेंगे। आज तक भी समय एवं जीवनी शक्ति को निरर्थक के कार्यों में ध्यय करने वाला कोई भी व्यक्ति संसार में कोई ध्यानाकर्षक काम नहीं कर सका।

जिन्होंने कर्तव्य का आनन्द परख लिया है परिश्रम का स्वाद चख लिया उन्हें काम के सिवाय न तो किसी में आनन्द आ सकता है और न आराम मिल सकता है।

बौद्ध धर्म के माध्यम से विदेश में भारतीयता का गौरव बढ़ाने वाले कुमारजीव का जीवन बहुत ही सादा तथा सरल था। उनके उपदेशों में एक यह वाक्य भावनात्मक रूप से अवश्य रमा रहता था कि “मेरे काम को अपनाओ लेकिन मेरे जीवन को यथावत् आदर्श बनाकर अनुकरण मत करो, कमल कीच में पैदा होता है। कमल को प्यार करो कीच को नहीं।”

निस्पृह कुमारजीव ने संसार को बहुत कुछ दिया किन्तु उन्होंने अपने बारे में कहीं कुछ भी नहीं लिखा। उनका बहुत कुछ परिचय किसी ग्रन्थ में नहीं मिलता। क्योंकि अपने विषय में बहुत कुछ कहने को वे अहंकार का एक स्वरूप मानते थे। उनका कहना था कि अच्छे कार्यों द्वारा संसार की सेवा करना तो मनुष्य का सामान्य कर्तव्य है फिर उसके लिये परिचय अथवा प्रशस्ति की क्या आवश्यकता? संसार को लाभ तो हमारे विचारों से होगा न कि हमारे व्यक्तिगत परिचय से। अपने नाम का लोभ लेकर जो काम किया करते हैं वे वास्तव में स्वार्थी होते हैं परमार्थी नहीं।


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