जीवन कलात्मक ढंग से जियें।

June 1966

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‘जिन्दगी जीना एक कला है’—ऐसा सुनकर अनेक लोगों को अजीब सा लग सकता है। किन्तु है यह वास्तविकता कि जीवन एक कला है। जो लोग जीवन जीने की कला नहीं जानते अथवा उसे कलात्मक कर्तव्य नहीं मानते, वे जीते हुए भी ठीक से नहीं जी पाते।

बहुत लोग जिन्दगी को विविध उपकरणों से सजाये सँवारे रहने को ही कला समझते हैं। किन्तु बाह्य प्रसाधनों द्वारा जीवन का साज शृंगार किये रहना कला नहीं है। यह मनुष्य की लिप्सा है, जिसे पूरा करने में उसे एक झूठे सन्तोष का आभास होता है। फलतः यह मान बैठता है कि वह जिन्दगी को ठीक से जी रहा है। कला तो वास्तव में वह मानसिक वृत्ति है जिसके आधार पर साधनों की कमी में भी जिन्दगी को खूबसूरती के साथ जिया जा सकता है।

जिन्दगी को हर समय हँसी-खुशी के साथ अग्रसर करते रहना ही कला है, और उसे रो-झींक कर काटना ही कलाहीनता है। जहाँ तक जिन्दगी को कलापूर्ण बनाने में साधनों की सहायता का प्रश्न है—उसके विषय में बहुत बार देखा जा सकता है कि एक ओर जहाँ प्रचुर साधन-सम्पन्न अनेक लोग रो-रो कर जिन्दगी काट रहे हैं उनसे बात करने पर ऐसा लगता है मानो उनका जीवन-तत्व समाप्त हो गया है और वे ऊबे हुए शेष श्वाँसों की लकीर पीट रहे हैं, जीवन से उन्हें कोई अभिरुचि नहीं रह गई है। इस प्रकार की जिन्दगी को आकुल अथवा अकला पूर्ण कहा जायेगा।

दूसरी ओर अनेक लोग अपने सीमित साधनों में भी उत्साह एवं उल्लासपूर्वक जीते दिखाई देते हैं। जिन्दगी उनके लिये कटु अनुभव नहीं मधुर आस्वादन जैसी होती है। उन्हें न तो उससे अरुचि होती है और न शिकायत। उनके जीवन में आँसुओं की अपेक्षा मुस्कानें अधिक होती हैं। इस प्रकार की जिन्दगी कला-कुशल मानी जायेगी।

ऐसा नहीं कि कलापूर्ण जिन्दगी जीने के लिये जीवन के आँसुओं का सर्वथा निष्कासन अथवा बहिष्कार कर दिया जाये और उनके स्थान पर जैसे भी हो मुस्कानों का सञ्चय किया जाये। जिन्दगी में हँसने तथा रोने दोनों का अपना-अपना स्थान है। हास-रुदन की क्रमिक कड़ियों के गुम्फन से ही जीवन शृंखला का निर्माण होता है। यह सहज सम्भाव्य नहीं कि किसी के जीवन में हास के फूल ही खिलते रहें और रुदन के ओंस की एक बूँद भी न गिरे। अथवा किसी के आँसू कभी मुस्कान में ही न बदलें। हर्ष और विषाद जीवन नाटिका के दो अनिवार्य दृश्य हैं, जिन्हें सबको ही यथा-अवसर देखना ही पड़ता है। किन्तु जो इन दोनों प्रति-परिवर्तनों को समभाव से उपभोग कर लेता है वह ही कुशल और कला जीवी कहा जायेगा।

संसार में ऐसे बहुत से लोग हो सकते हैं जो करुणा अथवा शोक के संयोग पर भी यों ही टुकुर-टुकुर देखा करते है। उनकी आँखें अनावृष्टि की मारी धरती की तहर ही शुष्क बनी रहती हैं। यह सही है कि शोक प्रसंगों के अवसर पर धाड़ें मार-मार कर नदी नाले बहाना जीवन में आवश्यक आँसुओं की पूर्ति करना नहीं है। फिर भी करुणा के अवसरों पर ठूँठ की तरह ठूँठ रह जाना कोई आकर्षक अभिव्यक्ति नहीं है। यह जड़ता है, कठोरता है और दारुणता है।

करुणा अथवा शोक के अवसर पर द्रवित हो उठना मनुष्यता का मोहक लक्षण है किन्तु पराभूत होकर अतिरेकता की अभिव्यक्ति करना मूर्खता है। शोक संपर्क के समय ‘लोचन जल रहु लोचन कोना’—के प्रकार से रोने वाले जीवन में अपेक्षित आँसुओं की कलात्मक अभिव्यक्ति करते हैं। बहुत से गहन गम्भीर व्यक्ति शोक से समाकुल होकर भी उसे वाणी अथवा आँखों द्वारा व्यक्त नहीं होने देते। आँसुओं अथवा उच्छासों के आवागमन पर ऐसे धीर गम्भीर व्यक्ति पर जड़ता अथवा प्रस्तरता का आरोप नहीं किया जा सकता। ऐसी ही स्थिति की परिभाषा करते हुये किसी उर्दू शायर ने कहा—

‘शक न कर तू मेरी खुश्क आँखों पर —

यों भी आँसू बहाये जाते हैं।’

इस प्रकार जैसे जीवन में आँसुओं को स्थान न देना अकलात्मकता है उसी प्रकार धैर्य का बाँध तोड़कर अनर्गल रूप से बह उठना भी कुरूपता है। शोक से अभिभूत होने पर भी पराभूत हुए बिना जो कतिपय मानस-मोतियों के देय भाग को सच्चाई के साथ समर्पित कर देना ही पर्याप्त कोई आँच नहीं आती।

हास निःसन्देह जीवन का सौंदर्य पूर्ण कला पक्ष है। जिस अनुपात से जिसके जीवन में हँसी-खुशी की अवतरण होगी वह उसी अनुपात से कलापूर्ण समझा जायेगा। किन्तु यह हँसी-खुशी मनुष्य की अपनी ही होनी चाहिये। दूसरों की छीनी हुई अथवा हरे हुए सुख-सन्तोष से प्राप्त प्रसन्नता कला पक्ष में नहीं मानी जा सकती। मनुष्य की वह ही हँसी-खुशी जीवन की कलात्मकता मानी जायेगी जो उसके अपने सन्तोष, आशा, उत्साह, धैर्य अथवा शौर्य से उत्पन्न हुई हो!

हँसी का अर्थ केवल हँसते रहना ही नहीं है। जीवन में सन्तोष, सहिष्णुता, आशा, उत्साह, रुचि तथा रोचकता आदि गुण भी हास और उल्लास के समान ही हैं। इनके अभाव में मनुष्य का अशान्त एवं रुचिर रहना स्वाभाविक है। अशान्ति, असन्तुष्टि अथवा आलम्भ पूर्ण जीवन असुन्दर तथा अकलापूर्ण है। उपकरणों तथा अलंकारों से सजा रहने पर भी इस प्रकार का जीवन अकलात्मक ही है।

हँसी-खुशी जीवन का विशिष्ट कला-पक्ष होने पर भी जब यह अनियंत्रित अथवा अमर्यादित हो जाती है तब कला के स्थान पर कुरूपता ही उत्पन्न करती है। हर समय, हर स्थान अथवा परिस्थिति में हँसते रहना, निश्चिन्तता दिखाना, अलमस्त बने रहना वास्तविक हँसी-खुशी नहीं है। अपने छोटे-बड़े हर कर्तव्य का उत्तरदायित्व से निर्वाह करते जीवन के संघर्ष में सफलता असफलता से अप्रभावित हुए देश-काल के साथ परिस्थिति तथा पर-भावनाओं का ध्यान रखते हुये प्रसन्न रहना ही वास्तविक हँसी-खुशी है। जिसको अपने जीवन से स्वयं कोई शिकायत नहीं है और दूसरों को शिकायत का अवसर नहीं देता उसके जीवन को ही ठीक-ठीक कलात्मक कहा जा सकता है।

इस प्रकार का निरुपालम्भ जीवन प्राप्त करने के लिए सन्तोष, संघर्ष तथा साहस की वृत्तियों को परिश्रय देना होगा! आलस्य अथवा अकर्मण्यता जन्य साधनहीनता अथवा अभाव की स्थिति में जबरदस्ती जीवन में हँसी-खुशी का आरोप किये रहना कला नहीं है। यह स्थिति उसी दशा में कलापूर्ण कही जा सकती है जब मनुष्य असाधनता अथवा अभाव को दूर करने के लिए पूरा प्रयत्न एवं पुरुषार्थ करता रहे और परिस्थिति, सम्भोग अथवा अन्य किन्हीं कारणों से सफलता न पाने पर भी असन्तुष्ट, हताश अथवा निरुत्साह न हो। अकारण अभावों अथवा आवश्यकताओं की मार खाते हुए निर्लिप्त अथवा निश्चन्त बना रहना कला नहीं कुरूपता है। अपनी क्षमताओं के अन्तिम छोर तक उद्योग करने पर भी यदि कृतकृत्यता नहीं मिलती तब भी दुःखी होकर आशा एवं उत्साह का परित्याग न करके उपाय पूर्वक परिस्थितियों से टक्कर लेने और विपन्नता को बदल देने का हौंसला बनाये रखना ही कला है।

सरलता तथा सादगी, सद्व्ययता एवं संकलन जीवन में कला पक्ष का सम्पादन करते जरूर हैं किन्तु जब यह गुण ग्राम्यता अथवा कृपणता के स्तर पर पहुँच जाते हैं तब दुर्गुण बनकर कुरूपता के कारण बन जाते हैं। कलापूर्ण जीवन के लिये उचित एवं उपयुक्त, उदारता भी परिश्रम एवं पुरुषार्थ ठीक तरह की अपेक्षित हैं, सन्तोष एवं शान्ति की तरह ही आवश्यक हैं।

साधन अथवा असाधन, सम्पन्नता अथवा विपन्नता किन्हीं भी स्थितियों में अनुरूप अथवा आवश्यक पुरुषार्थ के साथ सहजता, सरलता, सन्तोष, आशा-उत्साह तथा अव्यग्रता पूर्ण हर्ष विषाद का यथायोग्य निर्वाह करते हुये जीना ही कलापूर्ण जीवन है जिसे प्राप्त करना का न केवल श्रेयस्कर ही है बल्कि सार्थक एवं सुखकर भी है।


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