क्षमया वयया प्रेम्णा सूनृतेनार्जवेन च। वशीकुर्याज्जगर्त्सव विनयेन च सेवया॥
क्षमा, दया, प्रेम, मधुर वचन, सरल स्वभाव, सेवा और नम्रता से संसार में समस्त प्राणियों को वश में करना चाहिए।
अक्रोधेन जयेत्क्रोध मसाधुँ साधुनाजयेत्। जयेत्कदर्यं दानेन सत्येनालीक वादिनम्॥
क्षमा से क्रोध को जीते, भलाई से बुराई को जीते, कृपण को उदारता से अर्थात् अर्थेच्छु को धन देकर जीते और असत्यवादियों को सत्य से जीते।
क्रोधं जह्यात् विप्र जह्यात् मानम्। संयोजनं सर्वमति क्रमेत्॥ तं नामरुपयोरसज्य मानम्। अकिंचनं नानु पतन्ति दुःखानि॥
क्रोध का त्याग करें, अभिमान को छोड़ दें, समस्त वासनाओं के बन्धनों से मुक्त रहे और नाम तथा रूप की आसक्ति से बचकर कर्म करें, अपरिग्रही रहें—ऐसा मनुष्य दुःखों से पार हो जाता है।
यस्तु क्रोधं समुत्पन्नं प्रज्ञया प्रतिबाधते। तेजस्विनन्तं विद्वाँसो मन्यन्ते तत्त्वदर्शिनः॥
जो मनुष्य उत्पन्न हुए क्रोध को प्रज्ञा द्वारा शान्त कर देता है, उस तेजस्वी पुरुष को तत्वदर्शी लोग विद्वान् कहते हैं।
कथञ्चिदुपकारेण कृतेनैकेन मुह्यति। न स्मरत्यपकाराणाँ शतमप्यात्मवत्तया॥
भगवान श्री रामचन्द्रजी किसी के एक ही किये हुए उपकार को जन्मभर याद रखते थे और उसके सैकड़ों अपकारों को भी तुरन्त भूल जाते थे, क्योंकि वे सबमें आत्मभाव रखते थे।
इर्ष्या घृणी त्वसंतुष्टः क्रोधनो नित्यशंकितः। परभाग्योपजीवी च षडेते दुःखभागिनः॥
ईर्ष्या करने वाला, घिन करने वाला, असन्तोषी, क्रोधी, सदा सन्देह करने वाला और पराये आसरे जीने वाला—ये छह दुःख भोगते हैं।
यो वै उत्पतितं क्रोधं, रथं भ्रान्तमिव धारयेत्। तमहं सारथिं ब्रवीमि रश्मिग्राह इतरो जनः॥
जो उत्पन्न एवं प्रवृद्ध क्रोध को रथ की तरह रोक ले, वही सच्चा सारथी है, और तो केवल अश्वों की लगाम पकड़ने वाले ही होते हैं।
ये क्रोधं संनियच्छन्ति क्रुद्धान् संशमयन्ति च। न च कुप्यन्ति भृतानाँ दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥
जो मनुष्य क्रोध को वश में रखते हैं, उस पर नियंत्रण रखते हैं तथा क्रुद्ध हुए लोगों को शान्त करते हैं और प्राणिमात्र पर कभी क्रोध नहीं करते, वे ही इस लोक के सम्पूर्ण दुस्सह दुःखों से तर जाते हैं।
क्षमा वशीकृतिर्लोके क्षमया किं न साध्यते?। छान्तिखड्गः करे यस्य किं करिष्यन्ति दुर्जनाः॥
क्षमा संसार को वश में कर लेती है। क्षमा से क्या सिद्ध नहीं होता? जिसके हाथ में शांति रूपी तलवार है, उसका दुष्ट पुरुष क्या कर सकेगा?
परश्चेदेनमतिव दवाणैभृशं विद्धयेच्छम एव कार्यः। संरोष्यमाणः प्रतिहृष्यति यः स आदत्ते सुकृतं वै परस्य॥
प्रतिपक्षी के कुवाक्य रूपी बाणों से बिद्ध होकर भी वीर-पुरुष शान्त ही रहा करते हैं। शत्रु के द्वारा क्रोध दिलाने पर भी जो पुरुष क्रोधित नहीं होते हैं वे धैर्यशाली पुरुष शत्रु के पुण्य का हरण कर लिया करते हैं।
नाक्रोशी स्यान्नावमानी परस्य मित्रद्रोहीनोत नीचोपसेवी। न चाभिमानी न च हीनवृतो रुक्षाँ वाचं रुषतीं वर्जयेत्॥
गाली न दें, न अन्य का तिरस्कार करें, मित्र से अनबन न करें, नीच की सेवा न करें, दुराचरण न करें तथा रूखे क्रोध युक्त वचनों का त्याग करें।