इच्छायें पाप नहीं हैं, पाप है—उनकी निकृष्टता

June 1966

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संसार का स्वरूप इच्छाओं का ही मूर्त रूप है। संसार का प्रकृत स्वरूप ईश्वर की और उसका परिष्कृत, परिवर्तित एवं परिमार्जित रुप मनुष्य की इच्छाओं का फल है। यह सारा जगत भी एकमात्र ईश्वर की इच्छा का ही स्फुरण है। मनुष्य भी जो कुछ करता-धरता है, उसके मूल में इच्छा का ही प्राधान्य रहता है।

ईश्वर ने अपनी इच्छा शक्ति से मनुष्य सहित सम्पूर्ण चराचर जगत की सृष्टि कर दी और मनुष्य को विविध शक्तियों से सम्पन्न कर उसके कर्तृत्व का खेल देखने के लिये अवस्थित हो गया। मनुष्य को क्रियाशील बनाने के लिए इच्छाओं के साथ सुख-दुःख का द्वन्द्व देकर संचालित कर दिया।

मनुष्य ने जब होश सँभाला होगा, अपनी वास्तविक चेतना में आया होगा तो उसने अपने चारों ओर प्रकृति के प्रचुर साधन बिखरे देखे होंगे और उनको अपनी सुख-सुविधा के लिये प्रयोग में लाने की इच्छा करने लगा होगा। यही से उसकी इच्छा का विकास और आवश्यकता का अनुभव प्रारम्भ हो गया होगा। आज संसार का जो परिष्कृत रूप दिखाई देता है, बड़े-बड़े निर्माण और सृजन दृष्टिगोचर हो रहे हैं, वे मनुष्य की प्रारम्भिक इच्छा का क्रमानु गत परिणाम हैं।

मनुष्य में इच्छा का उदय होना कोई अस्वाभाविक प्रक्रिया नहीं है। मनुष्य स्वयं ही उस विराट एवं पुराण पुरुष की इच्छा का परिणाम है, तब उसका इच्छुक होना सहज स्वाभाविक है। जहाँ इच्छा नहीं वहाँ सृजन नहीं, विकास नहीं, उन्नति और प्रगति नहीं। जिसकी इच्छाएं मर चुकी हैं—वह जड़ है, निर्जीव है, श्वास वायु के आवागमन का एक यन्त्र मात्र ही है। जो इच्छुक नहीं—वह निष्क्रिय है, निकम्मा है और निरर्थक है। इसके साथ ही यह भी कहा जा सकता है—जो चेतन है, प्राणी है वह इच्छा से रहित नहीं हो सकता। खाने-पीने, चलने-फिरने आदि ओर यदि और कुछ नहीं तो जीने की इच्छा तो करेगा ही। और किन्हीं कारणों से जिसे जीने की भी इच्छा नहीं है तो मरने की इच्छा तो रखता ही होगा। आशय यह कि क्या मनुष्य, क्या जीव-जन्तु, क्या कीट-पतंगा और क्या स्वार्थी-परमार्थी, मोहि, मुमुक्षु, पंडित, विद्वान, मूर्ख, स्त्री, पुरुष, बालक और वृद्ध सभी में अपनी-अपनी तरह की कुछ न कुछ इच्छा अवश्य रहती है। इच्छा जीवन का एक ज्वलन्त सत्य है। इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। यदि जीवों में अपनी मौलिक इच्छायें न भी जन्म लें तो भी भोजन, जल, निद्रा तथा मैथुन आदि की नैसर्गिक इच्छायें तो उसमें वर्तमान ही हैं।

मनुष्य में यदि इच्छा का उदय न हो तो संसार का विकास ही रुक जाये। इच्छा ने ही मनुष्य की विवेक बुद्धि और सृजन-शक्ति को उत्तेजित किया है, जिसके बल पर उसने ऊँचे-ऊँचे महल, लम्बे-लम्बे राजमार्ग, बड़े-बड़े उद्योगों की स्थापना की, विविध कला कौशलों के साथ अच्छी से अच्छी सभ्यता, संस्कृतियों का विकास किया।

इच्छा करना कोई पाप नहीं, पाप है—इच्छा का निकृष्ट होना—इच्छा करके उसकी पूर्ति का प्रयत्न न करना अथवा पूर्ति के लिये अनुचित उपायों और साधनों को प्रयोग में लाना।

इच्छा की निकृष्टता उसके सीमित अथवा साधारण होने में नहीं है, निकृष्टता उसके उद्देश्य की तुच्छता में है। जैसे यदि कोई यह इच्छा करता है कि यदि वह किसी प्रकार से मिडिल पास हो जाता तो पंचायती-मंत्री बनकर अनपढ़ ग्रामीणों से खूब लाभ उठाता! मिडिल पास करने और पंचायत मंत्री बनने की इच्छा अपने में कोई बड़ी इच्छा न होते हुए भी निकृष्ट नहीं मानी जा सकती, किन्तु इसको निकृष्ट बना देता है, इसके साथ निरक्षर ग्रामीणों से लाभ उठाने का जुड़ा हुआ उद्देश्य! यदि यह इच्छा मिडिल पास करने और पंचायत मंत्री के रूप में अपनी शिक्षा का उपयोग करने तक सीमित रहती तो बहुत निःस्वार्थ एवं उच्च न होने पर भी निकृष्ट नहीं कही जा सकती थी। यह केवल निकृष्ट हुई है, अपने उद्देश्य की तुच्छता के कारण। और यदि इसी साधारण इच्छा के साथ पंचायत मन्त्री बनकर निरक्षर ग्रामीणों को साक्षर बनाने और गाँवों का यथा सम्भव विकास करने में योग देने का उद्देश्य जुड़ जाता तो यही साधारण इच्छा उच्च कोटि की परिधि में पहुँच जाती। यद्यपि उद्देश्य के उच्च होने पर भी उक्त इच्छा में व्यक्ति का जीविका सम्बन्धी स्वार्थ निहित था और उद्देश्य में भी कोई अतिरिक्त विशेषता नहीं, मात्र मन्त्री के कर्तव्य का सच्चा पालन भर ही है, तथापि इस इच्छा को निकृष्ट अथवा सामान्यतम नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जीविका सम्बन्धी उत्तरदायित्व को पूर्ण कर्तव्यनिष्ठा तथा ईमानदारी के साथ निर्वाह करने की मनोवृत्ति भी ऊँची ही मानी जायगी।

निकृष्टता न केवल स्वयं में एक व्यावहारिक अथवा सामाजिक पाप है, वरन् यह एक आध्यात्मिक पाप भी है। निकृष्ट इच्छा की प्रतिक्रिया आत्मा पर अहितकर होती है। निकृष्टता से आत्मा का दिव्य आलोक मन्द होता है, आत्मा संकुचित होती है, जिससे ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध आदि मनोविकार घेर लेते हैं और मनुष्य मानव से पशु बन जाता है। जहाँ ऊँची इच्छायें संसार में सुन्दरता, शाँति एवं सुख की वृद्धि करती हैं, वहाँ निकृष्ट इच्छायें संसार में अशाँति और संघर्ष को जन्म देती हैं। संसार में अशाँति के कारणों को जन्म देने वाला ईश्वरीय इच्छा का विरोध है, जिससे बड़ी से बड़ी इच्छा की पूर्ति हो जाने पर निकृष्ट उद्देश्य व्यक्ति एक क्षण को भी सुख-शाँति नहीं पाता और वैभव के बीच भी तड़प-तड़प कर ही मरता है। उसकी आत्मा का पतन हो जाता है और लोक व परलोक दोनों बिगड़ जाते हैं।

इच्छा का उदय होने पर उसकी पूर्ति का प्रयत्न न करना भी पाप है। मनुष्य की सत् इच्छा उसके हृदय में उतरना एक ईश्वरा देश ही होता है। इच्छा के रूप में ईश्वर उसे कहता है कि “तू ऐसा बन अथवा ऐसा कर।” ऐसी दशा में इच्छा की उपेक्षा कर देना, उसकी ओर ध्यान न देना—ईश्वर के आदेश की अवहेलना है। ईश्वरीय आदेशों की अवहेलना करने वाला व्यक्ति कभी भी सुख-शाँति नहीं पा सकता। इच्छा के रूप में ईश्वरीय आदेश की अवहेलना करने वाले को इच्छाओं के माध्यम से ही दण्ड दिया जाता है। एक इच्छा के बाद दूसरी इच्छा और दूसरी के बाद तीसरी, इस प्रकार उक्त व्यक्ति के हृदय में इच्छाओं की एक भीड़ जमा हो जाती है और अपूर्ण रहने की पीड़ा से चीखती-चिल्लाती हुई जीना हराम कर देती हैं। जिसका हृदय अपूर्ण इच्छाओं का क्रीड़ा-स्थल बन जाता है उसके लिये किसी अन्य नरक की आवश्यकता नहीं रहती, उसकी इच्छाएं ही उसे नारकीय पीड़ा देने के लिये पर्याप्त हैं। अतएव जीवन की सुख-शाँति के लिए सदा शिव इच्छाओं को ईश्वरीय आदेश समझकर पूर्ण करने के लिए भरसक प्रयत्न करना चाहिए। एक इच्छा को लेकर कर्तव्य-रत हो जाने पर जब तक उसकी पूर्ति नहीं हो जाती, किसी दूसरी इच्छा को आने का अवसर नहीं मिलता और इस प्रकार मनुष्य अपूर्ण इच्छाओं के क्राँति पूर्ण आन्दोलन की पीड़ा से बचा रहता है।

इच्छा की पूर्ति में क्रियाशील रहने से मनुष्य के शक्तिकोशों का उद्घाटन होता है, जिससे दिन-दिन वह विकास और उन्नति की ओर बढ़ता हुआ अपने को परम पद के योग्य बना लेता है।

अनुचित साधन अथवा उपाय अपनाने वाले व्यक्ति की आत्मा पर भी पाप की छाया पड़ती है, जिससे परमात्मा का एक अंश आत्मा का अपमान होता है, जो कदाचित किसी भी दशा में किसी को वाँछनीय न होगा। शुभ साधनों के प्रयोग से इच्छा की पूर्ति में विलम्ब हो सकता है, अधिक परिश्रम करना पड़ सकता है, किन्तु कठिन परिश्रम के बाद जो पुरुषार्थ का फल मिलेगा, वह स्वर्ग से कम सुखदायक नहीं हो सकता।

अनुचित साधनों से आई हुई सफलता—विष फल से भी भयानक होती है। विष-फल केवल मनुष्य के प्राण ही लेता है, किन्तु अनौचित्य-जन्य फल मनुष्य का ओज-तेज, पुण्य-प्रभाव सबको नष्ट कर देता है और मनुष्य को जीवित दशा में ही घृणित शव बना देता है।

इच्छाओं का उदय और उनकी पूर्ति का प्रयत्न पाप नहीं। पाप है—उनका निकृष्ट एवं अनुचित सिद्ध होना।


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