राष्ट्रीय उन्नति का प्रधान स्तम्भ-नागरिकता

May 1961

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(श्री. सत्यभक्त जी)

अब हमारा देश स्वतन्त्र हो चुका है तथा पुराकालीन ऋषि-मुनियों तथा आधुनिक देशभक्तों के त्याग-तपस्या की बदौलत इस थोड़े से समय में उसने विश्व की राष्ट्रमण्डली में उच्च-सम्मानीय पद भी प्राप्त कर लिया है। जब हम इस समय की अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थिति पर गम्भीर पूर्वक विचार करते हैं तो यही जान पड़ता है कि इस समय दो-चार राष्ट्र ही भारत से अधिक प्रभावशाली माने जा सकते हैं, अन्यथा राजनीति, विज्ञान, उद्योग धन्धे, सैन्य शक्ति आदि सभी क्षेत्रों में वह अन्य बहुसंख्यक देशों की की अपेक्षा उल्लेखनीय प्रगति कर रहा है, और संसार के बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ, शासक और प्रसिद्ध व्यक्ति उसके महत्व को स्वीकार कर रहे है।

पर जब हम स्वयं अपने घर के भीतर झाँक कर देखते हैं आत्म निरीक्षण करने बैठते हैं तो अपने लिये गौरव का भाव उत्पन्न होने की अपेक्षा ग्लानि का ही विशेष रूप से उद्रेक होते हैं। हम यह नहीं कहते हैं कि अनैतिकता, चरित्रहीनता, स्वार्थ परता, धोखाधड़ी आदि दोष संसार के अन्य उन्नतिशील कहलाने वाले देशों में नहीं पाये जाते। ये बातें आज कल की भौतिकवादी सभ्यता के फलस्वरूप सभी जगह पर्याप्त परिमाण में देखने को मिलती है। पश्चिम के देशों ने एशिया और अफ्रीका के अनेक देशों के निवासियों के साथ जैसा क्रूरतापूर्ण अमानवीय और धूर्तता का व्यवहार किया है वह सर्वविदित है। वहाँ की बहुसंख्यक चरित्रहीन नारियों की विलासलीलायें और तलाक काण्ड भी प्रसिद्ध ही हैं। इस दृष्टि से अपने देश की हालत को कुछ गनीमत समझ सकते हैं। पर जब यहाँ के निवासियों के व्यक्तिगत जीवन पर विचार करते हैं और समाज के प्रति उनके कर्तव्य सम्बन्धी अज्ञान तथा उपेक्षा को देखते हैं तो बड़ी निराशा होती है। वे लोक, परलोक, मुक्ति, आत्मा की अमरता की बातें तो कर सकते हैं, पर अपने मोहल्ले अथवा गली की सफाई की समस्या की तरफ कभी उनका ध्यान नहीं जाता। व्यक्तिगत रूप से वे पूजा, पाठ, भजन, देव-दर्शन आदि को नियमित रूप से करते हैं, पर किसी सार्वजनिक समारोह में ठीक समय पर पहुँचकर भाग ले सकना उनके लिये बड़ा कठिन होता है। इसी प्रकार की अनेक साधारण बातों में अन्य व्यक्तियों की सुविधा और असुविधा का ध्यान न रखने का नतीजा यह होता है कि हम सभी को समय-समय पर ऐसी कठिनाइयाँ और आपत्तियों का सामना करते रहना पड़ता है जो थोड़ी सी सावधानी रखने से ही दूर की जा सकती है। जब इस प्रकार की कठिनाई स्वयं हमको उठानी पड़ती है तो उसके लिये दूसरों को बुरा भला कहते हैं और उपदेश भी देने लगते हैं, पर व्यवहार में उस प्रकार का कार्य स्वयं करने में हम किसी प्रकार का संकोच नहीं करते। इस सम्बन्ध में एक विद्वान लेखक के निम्न विचार हम सबके लिये ध्यान देने योग्य हैं-

“क्या हमारे पाठकों ने केले और नारंगी के छिलके चारों तरफ पड़े हुये नहीं देखे हैं? क्या ऐसा भी कभी नहीं हुआ है कि जरूरी काम से जब वे सड़क पर चले जा रहे हों या जल्दी में रेल पर चढ़ने के लिए प्लेटफार्म पर दौड़े हों तो इन पर फिसल कर गिर पड़े हों? अगर उनका ऐसा अनुभव है तो क्या उन्होंने स्वयं छिलके ऐसी जगहों पर न फेंके हैं जहाँ फेंके नहीं जाने चाहिए थे। क्या उन्होंने सदा इस बात का विचार रखा हैं कि घरों में इन्हें अलग टोकरी में रखें, सड़कों पर इन्हें कूड़े के डिब्बों में डालें और रेल में खिड़की के बाहर फेंक? क्या ऐसा कभी नहीं हुआ हैं कि जब वे रेल पर चढ़े हों तो वहाँ पर व्यर्थ का कूड़ा करकट पाकर मुसाफिरों को मन ही मन खूब कोसा हो जो उस डिब्बे में पहले चढ़े थे और जिन चीजों का बाहर फेंक देना चाहिये था, उन्हें डिब्बे में ही छोड़कर चल दिए थे? पर क्या उन्होंने खुद इस बात का विचार रखा कि इस प्रकार के कूड़े को कम करें या उसकी वृद्धि न करें? आप यह सदा स्मरण रखें कि अपने स्थान पर हर एक चीज ठीक हैं, और गलत स्थान पर वही गन्दी है। हमें वही मिलेगा जिसके हम योग्य हैं और सार्वजनिक अधिकारियों की तरफ से भी सफाई आदि का उन्हीं स्थानों में अधिक प्रबन्ध रखा जायेगा जहाँ क रहने वाले उस पर जोर देते हैं और स्वयं भी साफ रहते हैं। जिन्हें गन्दगी, गंदगी नहीं मालूम होती, जो खुद साफ नहीं रहते, उनके यहाँ कोई सफाई नहीं करता।

इस प्रकार की लापरवाही और दूसरों की सुविधा के प्रति उपेक्षा की भावना रखने का नतीजा यह होता है कि हम जल्दी ही किसी बात पर विश्राम नहीं कर पाते और इस कारण हमको समय-समय पर बहुत कुछ तकलीफ या हानि भी उठानी पड़ती है। रास्ते में चलते हुए तरह-तरह की गन्दी चीजों के पड़े रहने अथवा रास्ते के बीच में ही खड़े होकर बातचीत या हंसो मजाक करने वाले लोगों से जब हमको रुकना पड़ता है तो क्या वह हमको बुरा नहीं जान पड़ता? अनेक लोग तो छिपे तौर पर घरों से निकलने वाले बेकार ईंट, पत्थर, मिट्टी आदि के ढेर बची सड़क पर लगा देते हैं कि जिससे अनजान व्यक्ति को चोट खा जाने या किसी गाड़ी या सवारी के गिर जाने का पूरा अन्देशा रहता है। कितने ही लोग ऊपर की छतों की मोरी से बीच बाज़ार में गन्दा पानी छोड़ देते हैं, जिसके छींटे राह चलतों पर पड़ते हैं और कभी-कभी जिसके ऊपर बड़ी लड़ाई भी हो जाती है। इस प्रकार के कामों का कोई अच्छा नहीं कहता और समय-समय पर सभी को उनके कारण तकलीफ उठानी पड़ती है पर नागरिकता की शिक्षा के अभाव से प्रायः सभी लोग उनको करते रहते हैं।

नागरिकता की शिक्षा के अभाव का एक परिणाम यह भी हुआ है कि हम लोगों के पारिवारिक सम्बन्धों में विश्वास का अभाव हो गया है, जिसके कारण सबको अनिश्चित अवस्था में रहकर बड़ी परेशानी उठानी पड़ती है। जिस प्रकार हम सार्वजनिक जीवन में लापरवाही और दूसरों के प्रति उपेक्षा का व्यवहार करते हैं, वहीं हमारे व्यक्तिगत सम्बन्धों पर भी प्रभाव डालता है, और हम अपने लिये जिन बातों की इच्छा रखते हैं, दूसरों के साथ प्रायः उसके विपरीत ही व्यवहार करते हैं। हम चाहते हैं कि अन्य लोग हमारे साथ जो वायदा करते हैं उसे उचित रूप में और यथा समय पूरा करें, जिससे हमको कठिनाई न उठानी पड़े, पर हम स्वयं दूसरों के साथ किये हुए वायदे को ठीक ढंग से पूरा करने का ख्याल नहीं रखते। इस प्रकार की परिस्थिति का हमारे नित्य के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है यह आप एक अनुभवी लेखक के शब्दों में सुनिये-

“जब हम मोची, दर्जी, धोबी आदि को कोई काम देते हैं तो हमें यह विश्वास नहीं रहता कि वह समय से काम कर देगा। न उसे श्वांस रहता ह कि हम समय पर उसे दाम दे देंगे। इसी कारण परस्पर तकाजे पर तकाजा करते रहना पड़ता है। ऐसी दशा में समाज कैसे ठीक प्रकार से चल सकता है?हालत यहाँ तक पहुँचा है कि यदि आप किसी को भोजन का निमन्त्रण दें और उन्होंने उसे स्वीकार भी कर लिया हो, तो न आपको यह विश्वास रहता है कि वे समय पर आ जायेंगे, और न उन्हें यह विश्वास रहता है कि यदि जायेंगे तो तो समय पर भोजन मिल ही जायेगा। यदि कोई हमसे कोई चीज माँगकर ले जाय तो इस बात का भरोसा नहीं रहता कि वह उसको नियत समय पर और वैसी ही अच्छी हालत में लौटा देगा जैसी हालत में दी थी। जब समाज की ऐसी दशा है, जब किसी काम के लिये हम किसी दूसरे पर विश्वास नहीं कर सकते, तब क्या समाज का संगठन हो सकता है और क्या समाज की प्रगति संभव है?

देश की उन्नति कुछ, लोगों के बड़े, विद्वान और प्रसिद्ध होने से नहीं हो सकता। पहले समय में हमारे यहाँ बाल्मीकि, व्यास, कालिदास जैसे विद्वान हो गये; वर्तमान समय में भी तिलक, गाँधी, मालवीय जी, रवीन्द्रनाथ जैसे जगत को चमत्कृत कर देने वाले नेता और विद्वान उत्पन्न हो गये, पर इतने से ही समस्त देश बड़ा नहीं हो सकता। जब तक देश के साधारण निवासी अपने कर्तव्य और अधिकारों को ठीक-ठीक समझ कर उनका पालन नहीं करते जब तक वास्तविक उन्नति नहीं हो सकती। बहुत बड़ी-बड़ी बातों को छोड़ भी दें तो अभी हम यह देखते हैं कि अधिकांश लोग खाने-पीन सोने-उठने शौच-स्नान आदि कार्यों को भी समय पर नहीं करते। अनेक घरों में स्त्रियाँ खाना तैयार करके घंटों तक मर्दों की राह देखती रहती हैं, पर वे कभी ठीक समय पर खाने को नहीं आते। इसके फल से अन्य काम भी अस्त-व्यस्त हो जाते हैं और सभी कार्यक्रम असमय में करने पड़ते हैं। इस प्रकार घरों के भीतर भी अविश्वास की सृष्टि होती है और व्यक्तिगत, पारिवारिक जीवन भी नष्ट हो जाता है। जब कोई विदेशी इस देश के लोगों की आलोचना करता है तो वह प्रायः यही कहता है कि “भारतवासी बड़े आलसी हैं।” इसका अर्थ यह नहीं कि यहाँ के लोग परिश्रमी नहीं हैं, वरन् समय-समय पर अमरीका आदि देशों में यहाँ के लोगों को परिश्रम के लिये विशेष रूप से पसन्द किया गया है। तो भी निजी कार्यों में वे समय के पाबन्द नहीं होते और दूसरों की सुविधा असुविधा का ध्यान न रखकर मनमौजीपन से कार्य करते हैं इसमें सन्देह नहीं। हमारे यहाँ महान पुरुषों का बहुत अधिक आदर-सम्मान किया जाता है, यहाँ तक कि उनको देवता मानकर पूजा भी जाता है, पर जिन सद्गुणों के कारण वे इतने महान हो सकें उनका अनुकरण करने का प्रयत्न नहीं किया जाता। पर यदि हम इन बड़े व्यक्तियों की जय-जयकार करने के बजाय उनके आदेशों पर ध्यान दें उनका पालन करें तो हमारा वास्तविक कल्याण हो सकता है। यह कोई आवश्यक बात नहीं कि हम उनके समान राज्य, धर्म, समाज आदि के संचालन के बड़े-बड़े काम ही करें। वरन् हमको यह समझ लेना चाहिए कि कैसा भी छोटा बड़ा काम क्यों न हो, वह सभी देशों के लिये महत्वपूर्ण और प्रशंसनीय है। जरा विचार करके देखे कि धोबी, चमार, मेहतर आदि सबसे निम्न समझे जाने वाले लोग भी यदि अपना काम समय पर नहीं करते अथवा ठीक ढंग से नहीं करते तो समस्त समाज को कैसी परेशानी का सामना करना पड़ता है। इसलिये देश के वास्तविक उत्थान का मार्ग यही है कि लोग छोटे-बड़े का ख्याल छोड़कर अपने-अपने काम को समाज के लिये सर्वाधिक महत्वपूर्ण समझ कर पूर्ण मनोयोग से ठीक समय पर उचित रूप में पूरा करें। यदि ऐसा होने लगे तो विना ज्यादा उपदेश और लैक्चरों के देश का सुधार हो सकता है और वह सब तरह से प्रगतिशील, शक्तिशाली बन सकता है। महान पुरुष हमारा मार्ग दर्शन ही कर सकते हैं, पर देश के लिये आवश्यक समस्त कार्यों की पूर्ति उनसे नहीं हो सकती। उसके लिये तो साधारण नागरिकों को ही अपना कर्तव्य पालन करना पड़ेगा।


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