(श्री विजय बल्लभ शान्ताराम पटेल)
बाहर की परिस्थितियों में अपने अपने दृष्टिकोण के कारण भिन्न भिन्न प्रकार की अनुभूतियाँ होती है। एक भिखारी को देखकर किसी के मन में दया उपजती है और उसकी यथाशक्ति सहायता करता है। किन्तु दूसरा उसे निकम्मा और आलसी मानकर घृणा करता है। सहायता करना उसके निकम्मेपन को बढ़ाने वाला मानकर अनुचित समझता है। कोई दूसरा उसे दे रहा हो तो उसे भी रोकता है। यह भिन्न प्रकार की अनुभूतियाँ भिन्न दृष्टिकोणों के कारण ही है। बुद्धि बेचारी तो खरीदे हुए गुलाम की तरह है, उसे भावनाओं की हाँ में हाँ मिलानी पड़ती है। भाग्य के की हाँ में हाँ मिलानी पड़ती है। भाग्य के सताये हुए भिक्षुक की सहायता करना सहृदय और मानवता की पुकार है, इस आदर्श के पक्ष में बुद्धि के द्वारा बहुत कुछ कहा जा सकता है। इसी प्रकार निकम्मे लोगों की गति विधियों पर अंकुश लगाने के लिए उन्हें अपनी गतिविधियाँ छोड़ने के लिए बाध्य करने के पक्ष में भी बहुत कुछ मसाला बुद्धि के पास निकल आयेगा। अन्तिम निर्णय कैसे हो, दोनों से कौन सा पक्ष सही है, इसका निष्कर्ष निकालना सरल नहीं है। वह भिखारी वस्तुतः भीख माँगने के लिए मजबूर था या निकम्मा था? दूसरा निर्णय क्षण भर में उसकी शक्ल देखने मात्र से नहीं हो सकता। इसके लिए उनकी परिस्थितियों को समझने के लिए गहराई तक जाना होगा और बहुत खोज बीन करनी पड़ेगी। इतना अवकाश न होने पर वास्तविकता तक पहुँचना कठिन है।
वास्तविकता के समुचित जानकर न होते हुए भी एक भिखारी के सम्बन्ध में दो मनुष्यों ने दो अलग अलग प्रकार के जो निष्कर्ष निकाले और अलग अलग प्रकार के व्यवहार किये उसमें उनकी मान्यता और भावना ही प्रधान कारण थी। आमतौर से होता यही है कि अपने दृष्टिकोण के अनुसार ही संसार के पदार्थों की, परिस्थितियों की तथा व्यक्तियों की परख की जाती है और उसी के आधार पर उन्हें भला या बुरा माना जाता है। यों हर वस्तु में गुण और अवगुण, भलाई और बुराई, उपयोगिता और अनुपयोगिता को न्यूनाधिक मात्रा मौजूद है और उसका विश्लेषण तार्किक बुद्धि से हो भी सकता है, पर आम तौर से दूसरों के विषय में जो अभिमत प्रकट किए जाते है उनमें अपना दृष्टिकोण ही प्रधान कारण होता है। उसी के आधार पर हम दूसरों को भला या बुरा समझते है और तदनुसार ही घृणा, उपेक्षा, सहानुभूति या प्रेम का व्यवहार करते है।