अपना सुधार-संसार की सबसे बड़ी सेवा

May 1961

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मन एक देवता है। इसे ही शास्त्रों में प्रजापति कहा गया है। वेदान्त में बताया गया है कि हर व्यक्ति की एक स्वतंत्र दुनिया है और वह उसके मन के द्वारा सृजन की हुई है। मनुष्य की मान्यता, भावना, निष्ठा और रुचि एवं आकांक्षा के अनुरूप ही उसे सारा विश्व दिखाई पड़ता है। यह दृष्टिकोण बदल जाय तो मनुष्य का जीवन भी उसी आधार पर परिवर्तित हो जाता है। इस मन देवता की सेवा पूजा का एक ही प्रकार है, मन को समझा बुझाकर उसे सन्मार्ग पर लगाना। सही दृष्टिकोण अपनाने के लिए सहमत करना। यदि यह सेवा कर ली जाय तो सामान्य व्यक्ति भी महापुरुष बन सकता है। उसके वरदान का चमत्कार प्रत्यक्ष देख सकता है।

इस तथ्य की सुनिश्चितता में रत्ती भर भी सन्देह की गुंजाइश के लिए स्थान नहीं है कि “जो हम सोचते है सो करते है, और जो करते है सो भुगतते है।” मन ही हमारा मार्गदर्शक है, वह जिधर ले चलता है शरीर उधर ही जाता है। यह मार्गदर्शक यदि कुमार्गगामी है तो विपत्तियों और वेदनाओं के जंगल में फँसा देगा और यदि सुमार्ग पर चल रहा है तो शान्ति और समृद्धि के सत्परिणाम उपलब्ध होना सुनिश्चित है। ऐसे अपने इस भाग्य विधाता की ही सेवा हम क्यों न करें? इस मार्ग दर्शक को ही क्यों न पूजें? गौ और ब्राह्मण की सेवा से यदि पुण्य फल मिल सकता है तो उनसे भी अधिक महत्वपूर्ण इस मन देवता की सेवा से पुण्य फल क्यों न प्राप्त होगा? निश्चय ही सबसे अधिक पूजनीय, वन्दनीय और सेवनीय यह मन का देवता ही है।

सच्चे ब्राह्मणों, देवताओं और सन्तों के आशीर्वाद से बहुत सुख मिलता सुना गया है, पर मन देवता का आशीर्वाद फलित होते हुए हम में से हर कोई आसानी से चाहे जब देख सकता है। यदि सेवा पूजा करके मन देवता को इस बात के लिए मना लें कि वह सच्ची भूख लगने पर पेट की आवश्यकता से केवल उपयोगी पदार्थों को ही मुख में जाने दिया करे,

चटोरेपन की आदत को सर्वथा छोड़ दे तो इतने मान लेने से आपकी बिगड़ी हुई पाचन क्रिया ठीक हो सकती है, शुद्ध रक्त बनना आरम्भ हो सकता है और जो कमजोरी तथा बीमारी निरन्तर घेरे रहती हैं उनसे बहुत ही आसानी से छुटकारा मिल सकता है। शरीर स्वस्थ, सबल और सतेज हो सकता है और जिस स्वास्थ्य के लिए तरसते रहना पड़ता है वह चिरस्थायी हो सकता है।

यदि मन का देवता यह मान ले कि सृष्टि के समस्त जीव जिस प्रकार काम सेवन के संबंध में प्रकृति की मर्यादा का पालन करते हैं उसी प्रकार वह भी करे, तो इतनी मात्र उसकी स्वीकृति से आपका मुरझाया हुआ चेहरा कमल के फूल की तरह खिल उठेगा। जीवन रस बुरी तरह निचुड़ते रहने से पौरुष खोखला होता चला जाता है, उस बर्बादी को न करने के लिए यदि मन सहमत हो जाय तो आपके मस्तिष्क, शरीर स्वभाव और कार्य

कलापों में से ओज टपकने लगेगा। जैसे सिंह की हर क्रिया, हर चेष्टा उसके गौरव के अनुरूप होती है वैसे ही ब्रह्मचर्य पालन करने से वह बर्बादी से बचाया हुआ ब्रह्मतेज आपकी प्रत्येक चेष्टा में से प्रस्फुटित होने लगेगा। तब आप खोखले कागज के खिलौने नहीं, एक लौह पुरुष सिद्ध होंगे जिसकी आँखों में तेज, बुद्धि में प्रौढ़ता और क्रिया में प्रामाणिकता की छाप होगी। यह लाभ आपको बड़ी आसानी से मिल सकते हैं यदि आप मन के देवता को इन्द्रियों का दुरुपयोग न करके आहार विहार को प्राकृतिक और नियमित रखने की एक छोटी सी बात पर सहमत कर लें। सेवा में बड़ी शक्ति है, उससे भगवान भी वश में हो सकते हैं फिर मन देवता द्रवित क्यों न होंगे ?

हर आदमी को लगता है कि वह काम में बहुत व्यस्त रहता है। उस पर जिम्मेदारियों का तथा परिश्रम का बहुत बोझ रहता है। पर सही बात ऐसी नहीं है। उसका कार्यक्रम अनियंत्रित, बेसिलसिले, अस्त-व्यस्त ढंग का होता है इसलिए थोड़ा काम भी बहुत भार डालता है, यदि हर काम समय विभाजन के अनुसार सिलसिले से ढंग और व्यवस्था के आधार पर बनाया जाय तो सब काम भी आसानी से हो सकते है, मानसिक भार से भी बचा जा सकता है, और समय का एक बहुत बड़ा भाग उपयोगी कार्यों के लिए खाली भी मिल सकता है। हमारे अविकसित देश में तो लोग पढ़ने में ध्यान देना तो दूर उसका महत्व समझने तक में असमर्थ हो गये हैं पर जिनकी विवेक की आँखें खुली हुई हैं वे जानते हैं कि इस संसार की प्रधान शक्ति ज्ञान है। आर वह ज्ञान कर बहुमूल्य रत्न भंडार पुस्तकों की तिजोरियों में भरा पड़ा है। इन तिजोरियों की उपेक्षा करके कोई व्यक्ति अपने अन्तः प्रदेश को न तो विकसित कर सकता है और न उसे महान बना सकता है। अध्ययन एक वैसी ही आत्मिक आवश्यकता है जैसी शरीर के लिए भोजन। इसलिए मन देवता को राजी करना होगा कि दैनिक कार्यक्रम की व्यवस्था बनाकर वे कुछ समय बनावें और उसे अध्ययन के लिए नियत कर दें।

नित्य का अध्ययन वैसा ही अनिवार्य बना दें जैसा कि शौच, स्नान, भोजन और शयन आवश्यक होता है।

स्वास्थ्य और ज्ञान के बाद तीसरी विभूति है- स्वभाव। इन तीन को मिलाकर ही पूर्ण व्यक्तित्व का निर्माण होता है। अपने सब कार्यों में व्यवस्था, नियमितता, सुन्दरता, मनोयोग तथा जिम्मेदारी का रहना स्वभाव का प्रथम अंग है। दूसरा अंग है दूसरों के साथ नम्रता, मधुरता, सज्जनता, उदारता एवं सहृदयता का व्यवहार करना। तीसरा अंग है धैर्य, अनुद्वेग, साहस, प्रसन्नता, दृढ़ता और समता की सन्तुलित स्थिति बनाये रहना। यह तीनों ही अंग जब यथोचित रूप से विकसित होते हैं तो उसे स्वस्थ स्वभाव कहा जाता है। यह तीनों बातें भी मन की स्थिति पर ही निर्भर रहती है।

आमतौर से लोग किसी काम को आरम्भ करते है, अगर उसे बिना पूरी तरह समाप्त किये ही अधूरा छोड़ देते है। पुस्तक पढ़ेंगे तो उसे समाप्त करके यथास्थान रखने की अपेक्षा जहाँ की तहाँ पड़ी छोड़कर चल देंगे। कपड़े उतारेंगे तो उन्हें झाड़कर तह बनाकर यथास्थान रखने की बजाय चाहे जहाँ उतार कर फेंक देंगे, पानी पियेंगे तो खाली गिलास को उसके नियत स्थान पर रख कर तब अन्य काम करने की बजाय उसे जहाँ का तहाँ पटक कर और काम में लग जायेंगे। काम को पूरी तरह समाप्त किये बिना उसे अधूरा छोड़कर चला देना, स्वभाव का एक बड़ा भारी दोष है। इसका प्रभाव जीवन के हर क्षेत्र पर पड़ता है और उनके सभी कार्य प्रायः अधूरे पड़े रहते है। व्यवस्था के साथ सफलता का अटूट संबंध है। इस बात को मन महोदय मान ले तो समझना चाहिए कि हारी बाजी जीत ली अपनी प्रत्येक वस्तु को सुन्दर, कलात्मक, सुव्यवस्थित रखने के लिए मन की सौन्दर्य भावना विकसित होनी चाहिए। उसी सौन्दर्य में किसी व्यक्तित्व सम्मान छिपा हुआ है।

मधुरता, नम्रता और उदारता किसी व्यक्ति की महानता का अधिकृत चिन्ह है। जिसके हृदय में दूसरों के प्रति आदर प्रेम और सद्भाव है वह निश्चय ही उनके साथ सज्जनता का व्यवहार करेगा। इसमें यदि थोड़ा समय लगता हो या खर्च बढ़ता हो तो भी वह उसे प्रसन्नतापूर्वक सहन करेगा। बहुत करके तो विनम्र मुस्कुराहट के साथ मधुर शब्दों में वार्तालाप करने से काम चल जाता है। शिष्टाचार का ध्यान रखना, अपने कार्य दूसरों से कराने की अपेक्षा औरों के ही छोटे मोटे काम कर देना यह मामूली-सी बात है पर इससे हमारी सज्जनता की छाप दूसरों पर पड़ता है। दूसरों की कड़वी बात को भी सह लेना, दूसरों के अनुदार व्यवहार को भी पचा जाना और बदले में अपनी ओर से सज्जनता का ही परिचय देना, अपनी वाणी या व्यवहार में अहंकार या उच्छृंखलता की दुर्गन्ध न आने देना सत्पुरुषों का मान्य लक्षण है। अपना स्वभाव ऐसा ही बनाने के लिए यदि मन को साध लिया जाय तो मनुष्य अजातशत्रु बन सकता है। इस प्यार की मार से उसके सभी शत्रु मूर्छित और मृतक हो सकते है। मित्र तो उसके चारों ओर इसी प्रकार घिरे रह सकते है जैसे खिले हुए कमल के आस पास भौंरे मँडराते रहते है। यह सिद्धि जीवन की सफलता के लिए कम महत्वपूर्ण नहीं है, पर मिलती उसे ही है जिसने मन के देवता को इसके लिए तैयार कर लिया है।

जीवन में बहुधा अप्रिय प्रसंग आते रहते है। यह जरूरी नहीं, कि हमेशा प्रिय परिस्थितियाँ तथा अनुकूल व्यवहार ही उपलब्ध हो। हानि, घाटा, रोग, शोक, विछोह, अपमान, असफलता, आक्रमण आपत्ति आदि की विपन्न स्थितियाँ भी सुख सम्पत्ति की भाँति आती रहती है। इनका आना अनिवार्य है। कोई भी इन विविधताओं से बच नहीं पाता। इस उभय पक्षीय क्रम को सहन करने योग्य मनोभूमि बनाये रखना हर विवेकशील का कर्तव्य है। प्रतिकूलताऐं आने पर जो घबराते है, अधीर होते है। किंकर्तव्यविमूढ़ बनते है वे अपनी इस दुर्बलता को भी एक नई विपत्ति के रूप में ओढ़ते हैं और उनका कष्ट दूना हो जाता है। इसके विपरीत साहसी और धैर्यशील लोग कठिन से कठिन समय को भी अपने साहस के बल पर काट देते हैं और निराशा को चीर कर आशा का वातावरण बनाने के लिए प्रयत्न करके फिर काम चलाऊ स्थिति उत्पन्न कर लेते है। जरा भी बात पर घबरा जाना, चिन्तित हो जाना, रोना, पीटना, निराश हो बैठना, उत्तेजित हो जाना, क्रोधातुर होकर न कहने योग्य कहने लगना और न करने योग्य कर बैठना यह सब मनुष्य की क्षुद्रता और नास्तिकता के चिन्ह है। जिसका हृदय विशाल है, कलेजा चौड़ा है, दृष्टिकोण दूरदर्शी है, वह आपत्तियों और प्रतिकूलताओं को कुछ क्षण ठहरने वाली प्रकृति की एक लहर मात्र मानता है और उसे हँसते हुए उपेक्षा की दृष्टि रखते हुए सरलतापूर्वक पार कर लेता है। पर यह सम्भव तभी है जब मन के देवता हमारी सेवा से प्रसन्न होकर अपने आपको इस संतुलित स्थिति में रखने के लिए तैयार हो जायें। वे अपने सहयोगी बन जाये, विरोध करना और सताना छोड़ दें तो अच्छा स्वभाव बनने में देर ही कितनी लगेगी? और अच्छा स्वभाव बन जाना इस संसार की एक बहुमूल्य सम्पत्ति प्राप्त करके भारी अमीरी भोगने के आनन्द से भी बढ़कर है।

मन के देवता प्रसन्न होकर भौतिक जीवन को आनन्दमय और सुसम्पन्न बनाने के लिए हमें स्वास्थ्य, ज्ञान और स्वभाव की उत्कृष्टता प्रदान करते है। इन वरदानों को पाकर हमारे साँसारिक जीवन में धन, यश, प्रसन्नता, प्रफुल्लता, सन्तोष उल्लास, प्रेम, सहयोग सभी कुछ मिलने लगता है। सफलता के द्वार हर दिशा में खुल जाते उपलब्धि उन्नति एवं जीवन लक्ष्य की प्राप्ति भी मन के सधने पर ही अवलम्बित है।

सेवा का पुण्य फल प्राप्त करने के लिए हमें अवश्य ही प्रयत्नशील होना चाहिए, पर सेवा करें किसकी? सबसे प्रथम सेवा का अधिकारी सबसे अधिक सत्पात्र, सबसे अधिक समीपवर्ती, सम्बद्ध एवं विश्वस्त अपना मन ही है। हमें इसी को ओर सबसे पहले, अधिक ध्यान देना चाहिये।


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