(श्री शान्तिप्रिय वानप्रस्थी)
तैत्तिरीय उपनिषद् वल्ली 3 के द्वितीय अनुवाद में एक प्रसंग आता है कि भृगु ने अपने पिता वरुण से ब्रह्म विवाह की जिज्ञासा प्रकट करते हुए कहा - “अधीहि भगवो ब्रह्मेति।” भगवन् मुझे ब्रह्म का उपदेश कीजिए।
त हो वाच। तपसा ब्रह्म विजिन्तासस्व। उद्यौ ब्रह्मेति। यतपोऽतप्यत। सतपस्तप्त्वा आनंदो ब्रर्ह्मोति व्यजानात्।
तब वरुण ने कहा-तप से ब्रह्म को जानने की इच्छा कर। तप ही ब्रह्म है। तब उसने पिता की आज्ञा पाकर तप द्वारा अपने को तपाया और जाना कि ब्रह्म आनन्दमय है।
मुण्डक उपनिषद् 1/1/8 में भी परमात्मा की प्राप्ति का उपाय तप को ही बताया गया है।
‘तपसा वीयते ब्रह्म’
अर्थात् तप से ही ब्रह्म को जाना जाता है। तप की महिमा असाधारण है। स्वयं ब्रह्म ने जब एक से अनेक होने की इच्छा की तो उस इच्छा की पूर्ति के लिए जिस शक्ति और साधन सामग्री की आवश्यकता पड़ी, उसका जुटाया जाना तप के द्वारा ही संभव हो सका। सृष्टि के आदि में ब्रह्म ने स्वयं तप किया और उसके द्वारा उपलब्ध बल से अखिल ब्रह्माण्ड के रूप में अपना विस्तार किया। ब्रह्म के तप बल से ही इस सृष्टि की संचालन क्रिया भी व्यवस्थित है।
वर्णन आता है-
सोऽकामयत। बहुस्यां प्रजायेयेति। सतपोऽतप्यत। स तपस्तप्त्वा इद सर्वमसृजत यदिदं किं च। तत्सृष्ट्वा तदेवानु प्राविशत्। तदनुप्रविश्च सच्चत्यच्चाभवत्।
-तैत्तिरीय 2/6/
उस परमात्मा ने इच्छा की कि मैं प्रकट हो जाऊँ, एक से बहुत हो जाऊँ। इसके लिए उसने सत्य तप किया। तप से अपने को तपाया और इस जगत की रचना की। इसे रचकर वह उसी में प्रविष्ट हो गया।
परमात्मा की प्राप्ति के साधनों में तप का प्रमुख स्थान है। क्योंकि ब्रह्म स्वयं तप रूप है। आत्मा की शुद्धि ही ब्रह्म प्राप्ति का प्रधान आधार है और यह तभी संभव ह जब तप की अग्नि में अपने अन्तःकरण को तप के द्वारा स्वर्ण के समान उसके मल जलाने के लिए तपाया जाय।
कहा भी है :-
सत्येन लभ्य स्तपसा ह्मेष आत्मासम्यग् ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम्।
अन्तः शरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभ्रोयं पश्यन्ति यतयः क्षीण दोषाः।
-मुण्डक 3/1/5
परमात्मा इस शरीर के भीतर ही शुभ्र ज्योति के रूप में विद्यमान है। वह सत्य,तप, ब्रह्मचर्य और विवेक द्वारा ही प्राप्त होता है। जिनने अपने दोषों को दूर कर लिया है वे प्रयत्नशील साधक ही उसका दर्शन करते हैं।
ब्रह्म लोक में प्रवेश के लिए सत्य ब्रह्मचर्य आदि अन्य गुणों की भी आवश्यकता है पर साधक का तपस्वी होना तो अनिवार्य ही है।
शास्त्र कहता है -
तेषमेवैष ब्रह्मलोको येषां तपोब्रह्मचर्य येषु सत्यं प्रतिष्ठितम्।
यह जो ब्रह्मलोक है वह उन्हीं का है जिनके पास तप है, ब्रह्मचर्य है और सत्य है।
ऐसा ही एक अभिवचन केन उपनिषद् में भी आता है -
तस्यै तपो दमः कर्मेति प्रतिष्ठा वेदाः सर्वंगानि सत्य मायतनम्। -केन 4।8
जिस रहस्यमयी ब्रह्म विद्या का वेद वेदाँगों में विस्तारपूर्वक वर्णन है तथा उस सत्य स्वरूप परमात्मा को जिसके द्वारा जाना जाता है उसके तीन ही आधार हैं-(1) तप (2) मनोनिग्रह (3) कर्तव्य पालन।
प्रश्नोपनिषद् में एक कथा आती है जिसमें जिज्ञासा की प्रारम्भिक सभ्यता तप साधना में प्रवृत्ति निर्देशिका की गई है। सच्ची ब्रह्म जिज्ञासा का लक्षण ऋषि ने यही माना है कि इसमें लक्ष्य प्राप्ति के लिए कष्ट उठाने-तप करने की क्षमता है या नहीं। यदि यह क्षमता न हो तो उसे अनधिकारी ही माना जाना निश्चित है। अनधिकारी लोग ब्रह्म की चर्चा भले ही करते रहें पर उसे प्राप्त नहीं कर सकते। इस तथ्य का उद्घोषणा उपनिषद् कर्ता ने इस प्रकार किया है :-
सुकेशा च भारद्वाजः शैव्यश्र सत्यकामः सौर्यायणी च गम्यं कौसल्यश्रश्रृलायनों भार्गवो वैदर्भिः कवन्धी कात्यायनस्ते हैते ब्रह्मपरा ब्रह्मपरा ब्रह्मनिष्ठः परं ब्रह्मान्वेषमाणा एष हवै तत्सर्वे वक्ष्यतीति तेह समित्याणयो भगवन्त पिप्पलादमुपसन्नाः।
-प्रश्नोपनिषद् 1/1
भारद्वाज के पुत्र सुकेश, शिवि के पुत्र सत्यकाम, गर्ग गोत्री सार्यायणी, कोशल देशीय आश्वलायन, विदर्भ निवासी भार्गत्र, कत्य ऋषि के पौत्र कबन्धी, ये छै: वेद परायण ऋषि परमात्मा की खोज करते हुए, हाथ में सामघा लेकर भगवान पिप्पलाद ऋषि के पास इस आशा से गये कि वे ब्रह्म का व्याख्यान करेंगे।
तान्ह स ऋषिरुवाच भूय एव तपसा ब्रह्मचर्येण श्रद्वभा संवत्सरं सवत्स्यथ यथा कामं प्रश्नान्पृच्छेत यदि वित्तास्यामः सर्वह वो वक्ष्याम इति।
प्रश्नोपनिषद्1/2
उन सुकेशा आदि ऋषियों से पिप्पलाद ने कहा- आप लोग श्रद्धा ब्रह्मचर्य और तप के साथ एक वर्ष तक यहाँ सज्जनों की तरह निवास करें। इसके बाद अपने-अपने प्रश्न पूछें। यदि मैं जानता होऊँगा तो निश्चय ही वे सब बातें आप लोगों को बताऊँगा।
ऋषियों ने महर्षि पिप्पलाद के आदेशानुसार उनके आश्रम में रहकर एक वर्ष तक तप किया। इस प्रकार जब उनने अपनी प्रारम्भिक परीक्षा दे दी तब महर्षि ने उन्हें ब्रह्म का उपदेश देकर समाधान किया।
भगवान बुद्ध जब आत्म शान्ति की खोज में गृह त्याग कर निकलते हैं, और आत्मा की प्राप्ति का मार्ग विभिन्न गुरुजनों से पूछते हैं तो उनका समाधान नहीं होता। अनेक प्रकार के मार्ग,अनेक विधान अनेक सिद्धान्त उन्हें विचलित कर देते हैं। ऐसी दशा में उनकी अन्तरात्मा एक ही उपाय सुझाती है कि तप करना चाहिए। तप के द्वारा ही अपने भीतर वह प्रकाश उत्पन्न होगा जिससे वस्तु स्थिति का स्पष्ट निरूपण हो सके।
अश्वधधि कृत बुद्ध चरित्रम में यह वर्णन इस प्रकार आता है :-
इहास्ति नास्तीति य ऐषं संशयः-
परसय वास्यैर्नम मात्र निश्रयः।
अवेत्य तत्वं तपसा शमेन च-
स्वयं ग्रीष्यामि यदत्र निश्चयम्।
-बुद्ध चरितम् 9/73
क्या है, क्या नहीं है, इस सम्बन्ध में जो संशय है उसका समाधान मुझे दूसरों के वचनों से न होगा। तप और शम से मैं स्वयं ही तत्व को जानूँगा और उसे ही ग्रहण करूँगा।
बुद्ध तप करने के लिए हिमालय की ओर चलते हैं। उन्हें वह स्थान बढ़ा उपयुक्त जँचता है। क्योंकि अनेक तपस्वियों की तप साधना जिस स्थान पर हो रही है या होती रही है वहाँ की भूमि में कुछ दिव्य विशेषता होनी ही चाहिए। इस पुण्य भूमि में भगवान् बुद्ध को बड़ी शान्ति मिलती है।
ब्रह्मर्षि राजर्षि सुरर्षि जुष्टःपुण्यः समीपेहिमिवान शैलःके?
तपाँसि तान्येव तपोध्नानाँयत्संनिकर्षाद्वहुली भवन्ति।
-बुद्धचरितम् 7/36
ब्रह्मर्षियों, राजर्षियों और देवर्षियों से सेवित परम पवित्र हिमालय पर्वत समीप ही है। इस समीपता के कारा तपस्वियों के तपस्या का प्रभाव और भी अधिक बढ़ जाता है।