धर्म धारणा का लक्ष और उद्देश्य

May 1961

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(श्री भगवानसहाय वाशिष्ठ )

मानव जाति की रक्षा, धारण, पोषण, व्यवस्था, समाज में सत्व संशुद्धि अर्थात् सद्गुणों की वृद्धि , शुद्धि के लिए धर्म व्यवस्था की अत्यन्त आवश्यकता है। इसके बिना समाज का ढाँचा सुव्यवस्थित एवं सुस्थिर रहना सम्भव नहीं है।

मानव धर्म के मूल स्त्रोत मुख्यतया तीन है। इन तीनों पर ही विभिन्न धर्मों में एक स्वर से जोर दिया गया है। समुदाय एवं मानवजाति का सुव्यवस्था एवं रक्षा आदि के लिए आवश्यक है कि हमारा दृष्टिकोण चिन्तन मनन को केन्द्र एकदेशीय अथवा व्यक्तिगत न होकर विश्वगत हो, समष्टिमय हो। हर व्यक्ति अपने आपकी स्वतन्त्र सत्ता न समझे वरन, उसका सम्बन्ध अखिल विश्वभुवन स्वतः चेतन जगत से है। धर्म का दूसरा आधार है मानव जीवन का स्वस्थ निर्माण। धर्म का तीसरा आदर्श है अपने जीवन को स्वस्थ एवं सशक्त सबल बनाते हुए उसे मानव जाति के हित में अर्पण कर दे, परमार्थमय बना दे। जीवन के सारे क्रिया कलाप समुदाय के लिए हो। जिनके साथ अखण्ड एक्य सम्बन्ध स्थापित है उसी के लिए इसका विसर्जन हो। स्वार्थ के लिए नहीं। सभी धर्मों का मूलाधार यह तीन तथ्य हैं।

धर्म का पहला आदेश चिन्तन ओर दृष्टि कोण की व्यापकता के लिये है। मानव मात्र प्रयोजन विशेष से पढ़ाई लिखाई, काला, रोग, धनी, गरीब, मोटा, दुबला, स्वभाव एवं योग्यता क आधार पर एक दूसरे से काफी भिन्न है। वहाँ वह अपना अलग अलग व्यक्तित्व भी रखता है। किन्तु इन सबके मूल में जहाँ हमारे अस्तित्व को मूल आत्मा का निवास है हम सबमें कोई विशेष भिन्नता नहीं है। हम सब एक ही आत्मसत्ता में स्थित है जो एक देशीय नहीं सार्वभौमिक है। इस प्रकार व्यक्ति और समुदाय में पृथकत्व और समग्रता में एकत्व स्थापित करना धर्म की पहली शर्त है। समस्त जगत का एक अखण्डत्व, यही मानव धर्म का मूल आधार है।

आस्तिकता का उद्देश्य जहाँ आत्मकल्याण है वहाँ यह भी है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको सर्वव्यापक आत्मसत्ता का एक अंश माने और दूसरों का अपने साथ आत्मीयता एवं एकता के सुदृढ़ सूत्र में आबद्ध अनुभव करे। महापुरुषों ने ईश्वरीय सत्ता के बारे में विभिन्न अनुभूतियाँ प्राप्त की, जिनका निष्कर्ष है कि ईश्वर अर्थात् सृष्टि की स्थिति लयकारिणी शक्ति में ही यह जगत भासमान है। भिन्न भिन्न हो सकती है, कोई साकार रूप में, तो कोई निराकार रूप में, साथ ही रूप भी अपनी कल्पनानुसार ही दिए जाते हैं। फिर भी उन सबमें सब जीवों में ईश्वर की विद्यमानता और उनकी मूलभूत आत्मीयता की मान्यता एक सी है।

मानव धर्म की उच्च भूमिका यही है। जहाँ मनुष्य अपनी पृथकता और समग्र में एक्य स्थापित करता है और अपने अस्तित्व की मूल आत्म सत्ता में स्थित होता है, जहाँ कोई भिन्नता नहीं, संकीर्णता नहीं, वहाँ सर्वत्र एकत्व के ही दर्शन होते है। अतः धर्म को यदि सम्पूर्ण जीवन का लक्ष्य निर्धारित करना है उसकी उच्च भूमिका में पहुँच कर

विराट विश्व चेतना से एकत्व कायम करना है तो उसे अधिकाधिक आन्तरिक और विश्व-व्यापी बनाना होगा जो हमारे और संसार के अन्धकार का उन्मूलन कर दें। मनुष्य जीवन में जब यह धर्म क्रिया व्यवहार के रूप में व्यक्त होने लगेगी तब सब प्रकार के भेद विभेद, सीमायें एवं परस्पर विभाजन करने वाली बाधाएँ छिन्न भिन्न हो जायेंगी। तब मानव जाति विश्वैक्य के उस पावन मन्दिर का निर्माण कर सकने में समर्थ होगी, जहाँ मानवता और मानवादर के प्रतीक के रूप में ईश्वर का पूजन किया जायेगा।

इसके लिए सोचना होगा कि हमारा चिन्तन कहाँ तक ठीक है? कितना व्यापक और विशाल दृष्टिकोण है? कितना कितना व्यापक और विशाल दृष्टिकोण है? हमारा चिन्तन और दृष्टिकोण आकाश जैसा विशाल होना चाहिए। अपनी समस्त संकीर्ण धारणाओं का त्याग आवश्यक है। हमें नित्य ही धारण करनी चाहिए, मनन और निदिध्यासन के द्वारा अपनी अनुभूति को बढ़ाना चाहिए कि मैं संकीर्ण क्षुद्र व्यष्टि नहीं हूँ मैं समष्टि स्वरूप हूँ मेरा सत्य रूप उस विश्वगत चेतन सत्ता से सम्बन्धित है। मैं उसी श्रृंखला की एक कड़ी मात्र हूँ। जिस चेतन सत्ता में अतीत काल से बुद्ध ईसा, राम, कृष्ण, गाँधी, मुहम्मद की आत्मायें निवास करती हैं, उसी में मेरा भी धारणा पोषण, लय स्थित है, मैं सब का आत्म स्वरूप हूँ। इस समय जगत के साथ मैं अभिन्न हूँ। इन धारणाओं के माध्यम से अपने भेदविभेद रूपी अवधारणा को छिन्न भिन्न करके समस्त जगत का अखण्डत्व, एकत्व देश नहीं धर्म की प्रमुख बुनियाद है।

यह हो सकता है कि सबके सोचने का मार्ग भिन्न हो । एक ही गन्तव्य पर पहुँचने के लिए अलग-अलग कई मार्ग हो सकते हैं। यह सदैव रहा है और रहेगा।

उपनिषदकार ने कहा है--

“एकं सद्विप्राः बहुधा वदन्ति”

सत्य एक ही है उसे बुद्धिमान लोग कई नामों से पुकारते हैं। मानव धर्म-सत्य धर्म-एक ही है। परन्तु उपासना के माध्यम अलग-अलग हो सकते हैं, उसी प्रकार जैसे एक नदी में उतरने के लिए विभिन्न घाट।

कालान्तर में मानव जाति के व्यापक हो जाने एवं बढ़ जाने से विभिन्न धर्म नाम, समुदाय, शाखा प्रशाखायें भी बहुत बढ़ गई हैं किन्तु यह बुरा नहीं है स्वाभाविक ही है। धर्म स्वतः आकाश जितना विशाल और अनन्त है, रुचि, कल्पना चिन्तन के आधार पर विभिन्न समुदायों का भिन्न धर्म होना कोई बुरी बात नहीं है किन्तु यदि इनका अर्थ गलत लगाकर अथवा एक देशीय और संकीर्ण रूप देकर एकांगी बना लिया जाय तो वे धर्म मनुष्य का हित साधन नहीं कर सकते। इन सब का आधार मानव धर्म होना चाहिए जो भिन्नता को एकत्व की ओर अग्रसर करता है। जहाँ स्वयं में ही भेदविभेद की संकीर्ण सीमायें कायम होंगी उससे विश्व एकता, मानव एकता की कैसे आशा की जा सकती है? मार्ग अलग-अलग हों किन्तु हमारे विचार और भावनाओं का व्यापक और सीमातीत होना आवश्यक है। मानव धर्म की इस बुनियाद को भुला देने पर तो धर्म नाम की वास्तविकता ही समाप्त हो जाती है।

अब बुद्धिवाद का युग है। विज्ञान के कदम बड़ी तेजी से बढ़ रहे हैं इसके साथ-साथ हमें अपने चिन्तन और धार्मिक दृष्टिकोण को भी अग्रगामी बनाना होगा। अपनी संकीर्णताओं को त्याग कर अपने लिये विशाल एवं उदार दृष्टिकोण अपनाना होगा। आलोचना प्रत्यालोचना और शास्त्रार्थ के द्वारा हार-जीत करने का जमाना चला गया। आज के युग की माँग है-मानवता का गठन और उसका एक्य। तीखी समालोचना और कट्टरता के माध्यम से मानवजाति अपना बहुत अहित कर चुकी अब उसकी पुनरावृत्ति नहीं की जानी चाहिए। आज मानव-धर्म के मूल सिद्धान्तों का अवलम्बन करना ही उचित और सही मार्ग होगा।


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