कर्म और मानवीय प्रगति

April 1958

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(श्री ज. न. लाल)

हमारे देश में कर्म फल पर साधारणतः सभी लोग विश्वास करते हैं। प्रायः प्रत्येक मनुष्य यह समझता हैं कि जैसी करनी करता है उसे वैसा ही फल भोगना पड़ता है। इतना ही नहीं, पुनर्जन्म में भी व्यापक रूप से विश्वास होने के कारण लोग यह भी समझा करते हैं कि एक जन्म की कमाई का फल मनुष्य को दूसरे जन्म में मिलता हैं। कर्म तथा पुनर्जन्म सम्बन्धी यह ज्ञान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यदि कोई मनुष्य इसके यथार्थ तत्व को समझ ले तो अत्यन्त तेजी से वह उन्नति कर सकता है और इस प्रकार शीघ्र सिद्धि प्राप्त कर आवागमन से रहित हो सकता है, क्योंकि इन प्राकृतिक तथ्यों के ज्ञान तथा सदुपयोग से मनुष्य की शक्तियाँ अपरिमित बढ़ जाती हैं। पर आज हम किस प्रकार इनका उपयोग कर रहे हैं? जब कभी मनुष्य पर कोई आफत आ पड़ती है, कोई बीमारी अथवा कठिनाई आ जाती है, तो वह प्रायः यह सोचकर अपने चित्त को सान्त्वना दे लेता है, कि उसके पूर्व जन्म की कमाई ऐसी ही थी कि उसे इस जन्म में सुविधाएं नहीं मिल सकतीं। बस, ऐसा सोचकर वह चुपचाप बैठ जाता है, प्रायः निकम्मा हो जाता है। इस प्रकार कर्म सम्बन्धी इन नियमों को शक्ति का साधन बनाने के बदले इनको अकर्मण्यता का बहाना बना लिया गया है। एक साधारण मनुष्य जिसे कर्म तथा पुनर्जन्म की बातें कुछ भी नहीं मालूम हैं, वह ऐसा नहीं करता है। उसके सामने तो जब कोई कठिनाइयाँ आती है, तो वह साहसपूर्वक उनका सामना करने का प्रयत्न करता है। वह पुरुषार्थ को ही अपना कर्तव्य समझता है। कैसे आश्चर्य की बात है! कहाँ तो जीवन के गूढ़ रहस्यों को न जानने पर भी पुरुषार्थ और कहाँ जीवन के सार तत्वों का ज्ञान रखने पर भी अकर्मण्यता। ठीक है, महान नियमों का अर्थ गलत रूप से समझने का ऐसा ही नतीजा होता है। ऐसी ही समझ वालों के लिए गो. तुलसीदास जी लिख गये हैं-

कादर जन कर एक अधारा। राम-राम आलसी पुकारा॥

इसका यह तात्पर्य नहीं निकालना चाहिए कि तुलसीदासजी ने राम नाम की अवहेलना की है। ऐसा तो कभी सम्भव नहीं। इसमें उन्होंने यही भाव दिखलाया है कि आलसी अथवा अकर्मण्य लोग किस प्रकार अपनी अकर्मण्यता को राम नाम अर्थात् किसी महान तत्व की आड़ में छुपाना चाहते हैं।

कर्म से अभिप्राय क्या है? साधारणतः जब हम किसी को धनी, किसी को गरीब, किसी को भाँति-भाँति के ऐश और आराम में और किसी को भूखों मरते, रोगी और अन्य तरह से पीड़ित देखते हैं, तो कहते हैं कि ये सभी लोग अपने-अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के फल भोग रहे हैं। इसलिए कर्म का सम्बन्ध किसी ऐसे न्यायपूर्ण नियम से जान पड़ता है, जो अपना कार्य मनुष्य के अनेक जन्मों में भी पूरा कर लेता है। इससे पता चलता है कि प्रकृति किसी का पक्षपात नहीं करती, न अपनी ओर से किसी को इनाम देती है और न किसी को दण्ड। अपनी ही करनी प्रत्येक मनुष्य के सामने आती है और प्रकृति का यह नियम इतना दृढ़ मालूम होता है कि मनुष्य भले ही अपनी कार्यवाहियों को भूल जाय, पर प्रकृति उसे नहीं भूलती और इसलिए कई जन्मों के बाद भी उसका बदला अवश्य चुकाती है।

वास्तव में कर्म का अर्थ है जो कुछ किया जाय। अस्तु जो किया जाता है, उसमें प्राकृतिक रूप से भूत, वर्तमान और भविष्यत् के भाव मिले रहते हैं। किसी भी कार्य को वर्तमान समय में करने के हेतु कुछ कारणों का होना आवश्यक है। कोई कार्य बिना कारण के नहीं हो सकता। इसी प्रकार जो कार्य अभी किया जाता है, वह भविष्य में होने वाले किसी कार्य का कारण सम्बन्ध समझा जाता है।

यह क्रिया आपसे आप प्राकृतिक रूप से हुआ करती है। प्रत्येक कार्य के साथ ही उसका प्रति कार्य भी आपसे आप अर्थात् प्राकृतिक रूप से लगा रहता है। कार्य प्रतिकार्य और कार्य कारण वास्तव में एक ही वस्तु है, केवल शब्दों तथा उनके भावों को प्रकट करने की रीति में अन्तर है। इसी कार्य कारण अथवा कार्य प्रतिकार्य के प्राकृतिक सम्बन्ध को कर्म व्यवस्था कहते हैं। कर्म को यदि कार्य कहें तो प्रतिकार्य को कर्म-फल कहेंगे।

यह सत्य हैं कि कर्म का कर्म फल के साथ अविच्छेदनीय सम्बन्ध लगा हुआ हैं। पर इसका यह मतलब नहीं कि प्रत्येक कर्म का फल उसी समय मिल जाता है। कुछ कर्मों के फल तात्कालिक मिलते हैं और कुछ के फल देर से मिलते हैं। कितने ही ऐसे कार्य हैं, जिनके फल इस जन्म में नहीं, अगले जन्म में मिलते हैं और कितने तो ऐसे हैं कि जिनके फल अनेक वर्षों बाद मिलते हैं क्योंकि कर्म व्यवस्था एक अत्यन्त पेचीदी व्यवस्था है। एक-एक फल की पूर्ति के लिए प्रकृति को अनेक प्रकार के साधनों का सामना करना पड़ता है। पर जो हो, चाहे आज हो अथवा एक हजार अथवा एक लाख वर्षों के बाद हो, पर प्रत्येक भले-बुरे कर्मों का फल मनुष्य को भोगना अवश्यम्भावी तथा अनिवार्य है।

इस तथ्य को साधारण लोग व्यावहारिक रूप से प्रायः नहीं जानते हैं। इसीलिए वे बहुधा आज के ही आराम और मौज में मगन रहते हैं। “खाओ पियो और मौज करो” यही उनका सिद्धान्त रहता है। इस प्रकार अपनी मौज, अपने सुख के लिए वे कितनों को दुःख पहुँचाते हैं, इस पर तनिक भी ध्यान नहीं देते। यदि उनका ध्यान इस बात की ओर आकर्षित किया जाय कि ऐसी करनी का बहुत बुरा परिणाम उनको भोगना पड़ेगा, तो वे प्रायः यही उत्तर देते हैं कि “आज तो चैन से गुजरती है, आकबत की खबर खुदा जाने।” हाँ, खुदा अवश्य जानता है। हम भले ही अपने दुष्कर्मों को भूल जायें, पर ‘कर्म’ छोटे से छोटे और बड़े से बड़े अथवा भले से भले और बुरे से बुरे किसी भी कार्य को नहीं भूलता और समय पर उसका फल अवश्य भोगवाता है। इसलिए यदि इस तथ्य को हम समझकर ग्रहण करें तो अनेक बुरे कार्य हम से आप से आप छूट जायेंगे और इस प्रकार जीवन बहुत सुधर जायगा।

हमारे द्वारा किये गये कर्मों के सम्बन्ध में साधारण नियम यह है कि हम इस जन्म में जो भी अच्छे अथवा बुरे कार्य, अर्थात् दूसरों को सहायता अथवा कष्ट पहुंचाने के जो कार्य करेंगे उसके फलस्वरूप दूसरे जन्म में वैसे ही सुख अथवा दुख के साधन मिलेंगे, अर्थात् उसी के अनुकूल परिस्थिति में हमारा जन्म होगा। इस जन्म में अपनी वासनाओं द्वारा जिस हद तक मनुष्य दूसरों की ओर प्रेम और दया अथवा द्वेष और क्रोध के भावों का संचालन करता है, उसी के अनुकूल दूसरे जन्म में उसकी अच्छी अथवा बुरी वृत्तियाँ बनती हैं, अर्थात् वैसी ही भली या बुरी वासनाओं की ओर दूसरे जन्म में उसकी अभिरुचि रहती है।

यहाँ इस बात पर भी कुछ विचार करना चाहिये कि अपनी परिस्थितियों, अभिरुचियों तथा अवसरों की ओर हमारा भाव कैसा होना चाहिये? एक बात तो स्पष्ट है कि ये परिस्थितियाँ हमको पूर्व जन्म की कमाइयों के फलस्वरूप प्राप्त हुई हैं। हमारे अपने ही किये कर्म इन रूपों में हमारे सामने आ उपस्थित हुए हैं। इनके बदलने का हमें क्या, किसी को अख़्तियार नहीं है। कोई भी साधु, फकीर, महात्मा अथवा देवता कर्म की लकीर को नहीं काट सकते। तुलसीदासजी ने कहा हैं- “विधि का लिखा को न मेटनिहारा।” इनसे निपटारा तो इन्हें भोग लेने से ही हो सकता है। पर जिस प्रकार इनको भोगा जायगा, उसी के अनुसार आगे आने वाले जन्म की परिस्थितियाँ बनेंगी। इसलिए दुखदायक परिस्थितियों के आने पर रोना पीटना बेकार है। उन्हें सहर्ष स्वीकार कर आनन्दपूर्वक भोग लेना चाहिए। तभी तो प्रकृति का हिसाब-किताब बराबर हो सकेगा। पर यदि ऐसा न करके हम रोने तड़पने तथा अपने भाग्य को दोष देने लगे, तो ऐसे भावों तथा विचारों द्वारा फिर प्राकृतिक शक्तियों का संतुलन दूषित हो जायगा और आगे चलकर हमको और अधिक दुखों का सामना करना पड़ेगा। हमें जीवन में एक पक्के बहादुर खिलाड़ी की भाँति व्यवहार करना चाहिए। जहाँ हार गये वहाँ हार मान लेनी चाहिए और जहाँ जीत गये वहाँ जीत माननी चाहिए। पर दोनों ही दशाओं में सदैव प्रसन्न चित्त रहना चाहिए। ये बातें तो साधारण रूप से मनुष्य के जीवन में आया-जाया करती ही हैं। इसलिए इनकी वजह से चित्त की शक्ति अथवा समता में कभी उद्विग्नता नहीं आने देना चाहिए। यदि पूर्ण न्याय के साथ हमारा पुराना कर्म अपना फल चुकाने आता है, तो हमें दुःखी क्यों होना चाहिए। वास्तव में यह खुश होने का अवसर हैं, क्योंकि इसके द्वारा कम से कम इस हद तक तो अपनी करनी का बोझ हमारे सिर से उतर जाता है। इसलिए पूर्व कर्म फल के बदले में प्राप्त सुख-दुखों से जरा विचलित न होकर उन्हें सहर्ष स्वीकार कर इस जन्म में हमको अच्छा कार्य करना चाहिए, क्योंकि इसी प्रकार हमारा भविष्य अवश्यम्भावी रूप में उज्ज्वल हो सकेगा।


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